'' वेम्बानाड गंदी और प्रदूषित हो गई है। आर्द्रभूमि पर खेती का अर्थशास्त्र में चावल की खेती के खिलाफ है।'' केरल को 'परमेश्वर की धरती' कहा जाता है। नावों की दौड़, पानी, हरे-भरे धान के खेत, जहां-तहां केले के पेड़ पर्यटकों को मन बरबस ही अपनी ओर खींच लेते हैं। यहां वे न केवल नावों की सैर का आनन्द उठाते हैं बल्कि शान्त, ग्रामीण नजारों का मजा भी लेते हैं। पर अफसोस! उन्हें नहीं मालूम कि जैसा दिख रहा है वैसा है नहीं। पूरा केरल इतना सुन्दर नही है। हां, हमारा इशारा कुटटानाड जिले की वेम्बानाड झील की तरफ है।
150,000 हेक्टेअर से भी ज्यादा दायरे में फैली यह भारत के दक्षिण-पश्चिमी समुद्र तट पर सबसे बड़ी उष्णकटिबन्धीय आर्द्र-भूमि है। पश्चिमी घाटों से निकलने वाली दस नदियां यहीं बहती हैं। वेम्बानाड में विविध प्रकार के जलीय पक्षी और मछलियां हैं। पहले किसान इस बात का ध्यान रखते थे कि इसके पारिस्थिकीतंत्र पर कोई प्रभाव न पड़े। लेकिन 1950 के दशक के बाद परेशानी शुरू हुई जब वेम्बानाड के एक बडे हिस्से को किसानों ने ग्रो मोर फूड कैम्पेन के तहत अपने कब्जे में कर लिया था। यह कैम्पेन आजादी के बाद राज्य द्वारा अनाज की कमी की समस्या के हल के लिए शुरू किया गया था।
जब शुरूआती दौर में किसानों ने जमीन को खोदकर पानी निकासी के लिए नालियां बना दी और फिर खुदे हुए भाग को पानी से भर दिया तभी से खेतों का स्तर, समुद्री स्तर से नीचे हो जाने की वजह से खेती पर संकट मंडराने लगा। उनके धान के खेत पानी के स्तर से नीचे हो गए जिससे उन्हें रमणीय वातावरण में बोरिंग करके कुएं खोदने पड़े।
संकट
आर्द्रभूमि पर खेती के अर्थशास्त्र ने इसे घाटे का सौदा बना दिया। उत्पादन लागत दिनोंदिन बढ गई है और उपज घट गई है, जिससे किसानों का तेजी से पलायन हो रहा है। जमीनों पर कब्जा करने और प्रदूषण की वजह से मछलियां भी तेजी से कम हो गई हैं। बड़ी संख्या में बत्तखें मर रही हैं।
वेम्बानाड आज बुरी तरह से प्रदूषित हो गई है। जो लोग झील के किनारे के आस-पास रहते हैं, उन्हें सफाई की सुविधाएं तक मुहैया नहीं है। ज्यादातर हाउस बोट पर्यटकों की गन्दगी को सीधे ही झील में डाल रहे हैं। पाम्बा नदी भी अपने साथ धार्मिक स्थल सबरीमाला से सारी गंदगी बहाकर लाती है। मानसून में कुछ राहत नसीब होती है। लेकिन इस मौसम में रोगाणुओं से फैलने वाली बीमारियां होने लगती है उदाहरण के लिए, पिछले कुछ मानसूनों के आने पर चिकुनगुनिया और डेंगू जैसी महामारियां बड़े पैमाने पर हुई। नगरपालिका और अस्पतालों की गंदगी बिना किसी शुद्धिकरण के झील में फेंक दी गई, धान के खेतों से निकले कीटनाशक अवशेषों ने झील की हालत और ज्यादा बदतर कर दी और चूंकि ज्यादातर लोग इस झील का पानी पीते है, इससे उनकी सेहत पर भी बुरा असर पड़ा।
स्वास्थ्य के लिए खतरा बनीं ये प्रक्रियाएं ही संरक्षण की भी चुनौतियां है। पानी के ठहराव और अम्लीयता की कमीं, जो धान की खेती के लिए समुद्री जल के प्रवाह में परिवर्तन के कारण हुई है, ने वैज्ञानिक भाशा में युटरोफिकेशन को जन्म दिया है। इस प्रक्रिया में समुद्री शैवाल जैसे खरपतवार आदि को पैदा होने में सहायता मिलती है और ऐसी चीजें पानी में घुली ऑक्सीजन को रोक लेती हैं। इससे जलीय जीवों विशेषत: मछलियों पर बुरा असर पड़ा है। ऐसे पानी को साफ करना सचमुच बहुत मुश्किल है।
स्वास्थ्य और संरक्षण
संरक्षणविदों का कहना है- पारितंत्र के लिए मनुष्य ने ही खतरा पैदा किया है। अगर इस जलभूमि के संरक्षण के लिए लोग खुद तैयार हैं तो हम कह सकते हैं, '' मनुष्य के स्वास्थ्य पर पारितंत्र की वजह से खतरा मंडरा रहा है।'' अगर लोग वेम्बानाड की सुरक्षा के लिए तैयार हैं तो उन्हें अपने आर्थिक हितों से उपर उठकर सोचना होगा। किसान और मछुआरे इस काम में सबसे ज्यादा सहायता कर सकते हैं अगर अधिकारी केन्द्रीकृत तरीके से स्वच्छता और पेयजल योजनाओं को लागू करे और साथ ही उद्योगों द्वारा होने वाले प्रदूषण पर भी नियंत्रण करे। लेकिन सारी जिम्मेदारी अधिकारियों की नहीं है लोगों को भी अपने व्यवहार में परिवर्तन करना चाहिये, स्वच्छता के प्रति एक भावना और संरक्षण की संस्कृति का विकास करना चाहिए।
लेखक- सिध्दार्थ कृष्णन् और प्रियदर्शन धर्माराजन
स्रोत- अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एण्ड इन्वायरनमेंट (अत्री) बैंगलोर।
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