एक जनचिन्तन

जब तक जंगल और गाँव साथ-साथ था, जब तक जंगल सिर्फ जिन्दगी की बुनियादी जरूरतों के लिये ही था, तब तक जंगल पर विनाश का खतरा नहीं मँडराया। जब से जंगल गाँव से अलग कर दिया गया, वह सरकार या जमींदार के कब्जे में आ गया, वह इमारत, फर्नीचर और औद्योगिक उत्पादन के लिये कच्चे माल के खजाने के रूप में बढ़ता जाने लगा, उस पर विनाश मँडराने लगा। वन जीवन के लिये बेहद महत्त्वपूर्ण है, यह बात हर कोई मानता है। इसी तरह वन संरक्षण की जरूरत भी आज़ हर कोई मानता है। वन को बचाने की कथित चिन्ता के तहत सरकारी वन कानून और वन नीति बनाये जाते रहे हैं। वन क्षेत्र के अतिक्रमण को रोकने, वनक्षेत्र में अवांछित घुसपैठ को नाकाम करने के लिये कड़े प्रावधान बनते रहे। अभयारण्यों की शृंखला सजाई जाती रही। पहले वन कृषि विभाग के अंतर्गत था, वन की महत्ता को स्वीकार करते हुए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय या विभाग की स्वतंत्र संरचना बनी। आरम्भ से ही वन भूमि को किसी वनेतर उपयोग के लिये मुक्त करना काफी कठिन रहा है। वन प्रशासन पुलिस प्रशासन की तुलना में ज्यादा बंद और अलोकतांत्रिक रहा है। वन विभाग के सिपाहियों का बर्ताव झेलने वाले बताते हैं कि वे सामान्य पुलिस प्रशासन से अत्याचार के मामले में ज्यादा बदतर है।

उपरोक्त पहलुओं के प्रभाव के कारण वन संरक्षण किस हद तक हुआ, यह मूल्यांकन का एक जरूरी मसला है। आँकड़े बताते हैं कि वन भूमि भले ही न घटी हो, वन यानी जमीन पर वृक्षों के आवरण के घनेपन का अनुपात घटा है। ऐसी हालत में यह निष्कर्ष निकालना कहीं से गलत नहीं होगा कि तमाम कोशिशों के बाद भी जनता के जीवन में वन की महत्त्वपूर्ण भूमिका कम हुई है। वन से जुड़ी सरकारी कोशिशों से बात बनने की बजाय बिगड़ी है। नतीजा नकारात्मक रहा है।

नकारात्मक नतीजा गम्भीर चिन्तन की माँग करता है। चिन्तन को कुरेदने, आँच देने के लिये वन से जुड़े कुछ विरोधाभासों, विडम्बनाओं से भरी बातों से शुरुआत करना बेहतर होगा।

1. मध्य प्रदेश के बोरी अभयारण्य के भीतर के गाँवों को अभयारण्य से बाहर बसाने की योजना बनी है। अभयारण्य के धांई गाँव को बसाने के लिये डोबझिरना के जंगल में 50 हजार पेड़ काटे गये हैं। साथ ही, डोबझिरना में 15-20 वर्ष से बसे और खेती कर रहे लोगों को उस जमीन से हटाने के लिये पुलिस का अत्याचार चल रहा है। होशंगाबाद जिले में ही धांई जैसे 50 पुराने गाँवों को पुरानी जगह से हटाकर नई जगह बसाये जाने की बात है। जाहिर है, लाखों पेड़ कटेंगे, सैकड़ों लोगों की देहों पर लाठियाँ बरसेंगी, बच्चों, बूढ़ों, औरतों की हड्डियाँ टूटेंगी।

2. मध्य पदेश में विश्व बैंक के वित्तीय सहयोग से मध्य प्रदेश वानिकी परियोजना चल रही है। मध्य प्रदेश की वन परियोजना में शामिल संयुक्त वन प्रबन्धन की प्रशंसा की खबरें भी कभी-कभी पढ़ने-सुनने को मिलती रही हैं। इस परियोजना में कहा गया है कि जंगल के उपयोग पर पाबंदी बढ़ाई जायेगी, पशुओं की जंगल में चराई को हतोत्साहित किया जायेगा, रोका जायेगा, पशुओं को बाँधकर रखने और घर पर ही आहार खिलाने के चलन को बढ़ावा दिया जायेगा। राष्ट्रीय उद्यान के अंदर के वनग्रामों को जमीन का पट्टा नहीं दिया जायेगा। मध्य प्रदेश सरकार वानिकी परियोजना पर्यावरण-पर्यटन को बढ़ावा देकर उसके जरिये रोजगार बढ़ाने का लक्ष्य रखती है।

इस परियोजना के परिणामस्वरूप वनग्राम या तो विस्थापित होंगे या उनकी जिन्दगी (जीवनस्तर) ज्यादा बदहाल होगी, वे वन अधिकारियों के एहसान के मुहताज होंगे। मजबूर होकर वन क्षेत्र के ग्रामीणों को पशुपालन छोड़ना या कम करना होगा, बेरोजगारी, कुपोषण, बीमारी बढ़ेगी। पर्यावरण-पर्यटन के कार्यक्रम के तहत जंगल अमीरों की सैरगाह-ऐशगाह बनेगा। कुछ रोजगार तो बढ़ेगा, पर उसमें स्थानीय लोगों की तुलना में व्यवसायियों का ज्यादा कब्जा होगा। पर्यावरण प्रदूषित होगा।

3. मध्य प्रदेश की परियोजना की ही तरह आंध्र प्रदेश वानिकी परियोजना भी बनी है और चल रही है। यह परियोजना निःशुल्क चराई बंद करने, चराई शुल्क, पशुओं को घर या बाड़े में रखकर खिलाने वाले पशुपालन को प्रोत्साहन देने की बात कहती है।

इस परियोजना के प्रसंग में अपना पक्ष रखते हुए विश्व बैंक ने वन क्षेत्र में निजी पूँजीनिवेश और निजी स्वामित्व पर पाबंदी की नीति को दोषपूर्ण बताया। विश्व बैंक का दबाव है कि बदहाल जंगलों के सुधार के लिये सरकार और कम्पनियों की संयुक्त भागीदारी की व्यवस्था बने। पेड़ों की कटाई के मामले में जारी सारे प्रतिबंध हटे। निस्तार और चराई पर (वन क्षेत्र में) प्रतिबंध लगे। विदेशी किस्मों के पेड़ों के रोपण पर लगी पाबंदी हटे। परियोजना में वैसे ही एनजीओ को भागीदारी दी जाये जिनके पास पर्याप्त संसाधन हो, सरकार से जिनका अच्छा रिश्ता हो, जो विचार निरपेक्ष हों यानी जिनकी कोई नियत वैचारिक पक्षधरता नहीं हो। वनोपजों की नीलामी या बिक्री हो।

यह परियोजना ज्यादा बुरी तरह से पशुपालन के व्यवसाय को सीमित करेगी, जंगल पर कम्पनियों के प्रभुत्व को बढ़ायेगी, पेड़ों की कटाई या वनक्षय को बढ़ायेगी, वन क्षेत्र के स्थानीय लोगों के हाथों से वनोपज छीनेगी और उनकी जिंदगी को बदतर करेगी, जनता के प्रति प्रतिबद्ध किन्तु आर्थिक रूप से कमजोर एनजीओ को उपेक्षित रखेगी।

4. बिहार में 1972-73 में बनी बिहार वन उपज परिवहन नियमावली निजी जमीन पर लगे पेड़ों पर भूस्वामी के स्वामित्व अधिकार में भी दखल देती है। इस नियमावली के मुताबिक वृक्ष और वृक्षोपज को बेचने के लिये वन विभाग का परमिट आवश्यक है। खुले बाजार में लकड़ी बेचने पर प्रतिबंध है, उसे वन विभाग के हाथों ही बेचना होगा। किन्तु वन विभाग की ओर से की गई खरीद नहीं के बराबर है। यह नियमावली अभी तक झारखंड में भी प्रभावी है।

नियमावली का यह प्रावधान वन विभाग में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है, अवैध व्यापार को प्रोत्साहन देता है, निजी पेड़ मालिकों को पेड़ की वाजिब कीमत से कम पर पेड़ बेचने को बाध्य करता है। पेड़ों और पेड़ों की उपज की बिक्री पर जारी नियंत्रण वृक्षरोपण की प्रवृत्ति पर आघात पहुँचाता है और अंततः इससे वन-संवर्धन का लक्ष्य दुष्प्रभावित ही होगा।

कुछ-कुछ भिन्नतायें लिये कमोबेश इसी तरह की परियोजनायें एवं नियमावलियाँ अन्य प्रांतों में भी चल रही हैं। इन सब में सरकार चलाने वालों, नियम-कानून और कार्यक्रम बनाने वालों की मान्यता और मानसिकता जाहिर होती है। वन विभाग की निगाह में जंगल में, जंगल के आस-पास रहनेवाले मनुष्य और उनके पालतू पशु वन के विनाश के सबसे बड़े कारण हैं, वन के सबसे बड़े शत्रु हैं। उन्हें जंगल से बाहर कर, जंगल से उनका रिश्ता/सम्पर्क घटाकर ही जंगल बचाया जा सकता है। सरकार इंसानों को जंगल का विनाशक मानती है, वन अधिकारियों-कर्मचारियों को संरक्षक। पालतू पशुओं को जंगल का विनाशक बताती है और जंगली जानवरों को वन का संरक्षक। इसी कारण तो वह अलग-अलग वन्यजीवों के नाम पर रिजर्व, अभयारण्य बनाती है।

वन और मानव के आपसी रिश्ते पर सरकार और समाज के बीच टकराहट जारी रही है, अन्तर्विरोध चलता रहा है। यह अन्तर्विरोध सरकार द्वारा गठित आयोगों और समितियों की रपटों और अनुशंसाओं में भी अवश्य रहा है।

1960 में स्थापित अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग ने अपने अध्यक्ष श्री यूएन ढेबर की अध्यक्षता में वन नीति का पाहला आलोचनात्मक विश्लेषण किया था। आयोग ने कहा था कि वन पर सरकारी सत्ता के विस्तार से आदिवासी अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई है। आदिवासी और वन अधिकारी के बीच आपसी अविश्वास और टकराव का माहौल बना है। इस अविश्वास और टकराव से वन का विकास प्रभावित हुआ है।

1965 में बनी ‘कमिटी ऑन ट्राइबल इकोनॉमी एंड फॉरेस्ट एरियाज’ ने कहा कि आदिवासियों की आर्थिक बेहतरी वन विकास कार्यक्रम का अभिन्न अंग बने। कमिटी ने वन अधिकारियों के निरंकुश बर्ताव में बदलाव की अनुशंसा की। निजी ठेकेदारों को हटाने और वन श्रमिक सहकारिताओं को बनाने का सुझाव दिया।

1976 में गठित कृषि पर राष्ट्रीय आयोग ने वन उत्पादों के व्यावसायीकरण की जरूरत बतलाई। वन उत्पादों की मुक्त एवं मुक्त आपूर्ति की व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त करने का सुझाव दिया। वनों को तीन श्रेणी में - संरक्षण वन, उत्पादन वन और सामाजिक वन में बाँटने की सलाह भी इस आयोग ने दी।

1980 में नेशनल कमिटी ऑन द डेवलपमेंट ऑफ द बैकवर्ड एरियाज (पिछड़े क्षेत्रों का विकास विषयक राष्ट्रीय समिति) बनाई गई। यह समिति योजना आयोग द्वारा गठित की गई थी। कमिटी ने तनाव घटाने, जंगल बचाने-बढ़ाने के लिये स्थानीय वन विकास में आदिवासियों को साझेदार मानने की वकालत की। जंगल के तंत्र से जुड़े सारे बिचौलियों को खत्म करने की जरूरत बतलाई। गोण वनोत्पादों को आदिवासी जीवनयापन के सहयोगी घटक के रूप में स्वीकारने की बात कही। कमिटी की स्पष्ट राय थी कि औद्योगिक इकाइयों को सबसिडी पर वनसामग्री नहीं दी जानी चाहिये। सभी वन गाँवों को राजस्व गाँव बनाना चाहिये। वनाधारित औद्योगिक इकाइयाँ सहकारी क्षेत्रों में ही खड़ी की जानी चाहिये। वन की कच्ची सामग्री वनश्रमिक सहकारी समितियों को दी जानी चाहिये। कमिटी की सलाह थी कि आदिवासियों के पारम्परिक ज्ञान और देशज दक्षता को वन कार्यक्रमों के उपभोग में लाई जाए और उनकी दक्षता का उन्नयन किया जाये। दुर्गम क्षेत्रों ने स्वैच्छिक संस्थाओं को कार्य करने हेतु प्रोत्साहन दिया जाये।

1981 में कमिटी फॉर रिव्यू ऑफ राइट्स एंड कंसेशंस इन फॉरेस्ट एरिया ऑफ इंडिया (भारत के वन क्षेत्र में अधिकारों एवं रियायतों की समीक्षा विषयक समिति) ने कहा कि पुराने अतिक्रमणों का तत्काल समाधान किया जाना चाहिये तथा भविष्य में नये अतिक्रमणों को अनुमति नहीं मिलनी चाहिये। जंगल के अंदर बसी बस्तियों को धीरे-धीरे कम हरित आवरण वाली बाहरी परिधि पर स्थानांतरित किया जाना चाहिये।

गृह मन्त्रालय द्वारा श्री बीके रायबर्मन की अध्यक्षता में गठित कमिटी ऑन फॉरेस्ट एंड ट्राइबल्स इन इंडिया (1982) की रिपोर्ट वन के हर परिचालन में आदिवासियों को सक्रिय साझेदार बनाने की वकालत करती है। इस रिपोर्ट में वित्तीय लाभ, राजस्व और उत्पादकता में वृद्धि के प्रति वन अधिकारियों की असंतुलित प्रवृत्ति पर टिप्पणी की गई। वन कार्यक्रमों का लाभ आदिवासियों तक पहुँचाने की बात कही गई, उनकी पारम्परिक दक्षता के संरक्षण और पुनर्गठन की जरूरत बताई गई। उनके खाद्य पदार्थ, फल, ईंधन, चारा, रेशा, लकड़ी और घरेलू ज़रूरतों की पूर्ति करने की भूमिका स्वीकारने का सुझाव दिया गया। वन भूमि पर समुदायों के प्रचलित अधिकारों को मान्य करने की सलाह दी गई। खाली-नंगी जमीन पर उपयुक्त प्रजाति का वृक्षरोपण करने, निर्धारित क्षेत्र में रोपे गये पेड़ों पर लोगों के अधिकार की व्यवस्था के तहत बड़े पैमाने पर वनीकरण, बायोस्फेयर रिजर्व के रूप में कुछ जंगलों को सुरक्षित रखने तथा वन विभाग में विविध स्तरों पर आदिवासियों को बहाल करने का सुझाव भी कमिटी ने दिया।

नदी पर या पानी तक, जंगल पर निजीकरण का हश्र पीने के पानी, सिंचाई के पानी के लिये पूँजीपतियों पर निर्भर होने के रूप में ही नहीं, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में वर्षा और हवा के लिये भी पूँजीपतियों पर निर्भर होने के रूप में कल आ सकता है। इस हश्र को भयग्रस्त या अति आशंकावादी कल्पना मानने वाले को ओजोनपरत क्षय और अंतरिक्ष को निजी मिलकियत और व्यापारिक केन्द्र के रूप में तब्दील करने की भावी योजनाओं और उनके परिणामों पर गहराई से गौर करना चाहिये।केन्द्र सरकार के ही विविध निकायों द्वारा गठित उपरोक्त समितियों की रिपोर्ट से भी जाहिर है कि अधिकांश समितियों की नजर में वन की व्यवस्था में जनता की भागीदारी, खासकर आदिवासियों की भागीदारी को बढ़ाना आवश्यक है। वनोपजों से जुड़ी आर्थिक प्रक्रियाओं में वन श्रमिकों को महत्त्वपूर्ण भूमिका देना आवश्यक है। वन प्रशासन की निरंकुशता समाप्त करना आवश्यक है। इसके लिये समितियों ने स्पष्ट तथा व्यावहारिक स्तर पर तत्काल लागू करने योग्य सुझाव भी दिये। फिर भी सरकार की ओर से उन्हें क्रियान्वित करने की कोशिश नहीं हुई। एकाध कोशिशें हुईं भी तो सरकार ने ही उनकी भ्रूण हत्या कर दी। मध्य प्रदेश में इसका एक बड़ा उदाहरण है। वहाँ अस्सी के दशक में हितग्राही योजना लागू की गई। इस योजना के तहत वन विभाग लोगों को पेड़ लगाने के लिये लीज पर जमीन देने वाली थी। पेड़ लगाने की लागत भी वन विभाग ही वहन करने वाला था। इन लगाये पेड़ों और उनकी उपज पर पेड़ लगाने वाले आदिवासियों का कब्जा रहना था। तीन माह बाद ही वन विभाग ने इस योजना के लिये पैसा देना बंद कर दिया। इस जनपक्षीय सुझावों को अमल में लाने की जगह सरकार ने जंगल से गाँवों को हटाने, जंगल को पूँजीपतियों के लिये खोलने जैसे सुझावों को ही अमल में लाने की मुहिम चला रखी है।

क्या इस सरकारी पद्धति, इस सरकारी नीति और नीयत का वन संरक्षण यानी जंगल बचाने-बढ़ाने वन की प्राकृतिक जीवनोपयोगिता को उच्चतम स्तर तक ले जाने, वन का उचित लाभ अधिकतम जनों तक पहुँचाने के लक्ष्य और दायित्व से सचमुच कोई लेना-देना है? प्राकृतिक वास्तविकता, अतीत और वर्तमान के क्षेत्रवार भौगोलिक तथ्य के मुताबिक सरकारी नजरिये का वन संरक्षण से कोई लेना-देना नहीं, उल्टे वह इसके खिलाफ जाता है।

मनुष्य और वन का साथ आदिकाल से है, कह सकते हैं- शाश्वत-सा है, मानव-समाज का शुरुआती रूप गाँव रहा है। पुराने जमाने में गाँव और जंगल के बीच कोई स्पष्ट अलगाव न था, न सरकार-आरोपित या कानूनी और न भौगोलिक। जंगल के बीच गाँव थे, गाँवों के बीच जंगल थे। इंसानों ने खेती के लिये जमीन खाली करने के लिये पेड़ काटे ज़रूर, आबादी की बढ़त के साथ गाँव के आकार के बढ़ने के साथ जंगल घटे अवश्य, किन्तु मिटे नहीं। उनका जंगल के साथ अपनापन था, जिन्दगी का रिश्ता था, जंगल उनकी जिंदगी की जरूरतें पूरी करता था। जब तक जंगल और गाँव साथ-साथ था, जब तक जंगल सिर्फ जिन्दगी की बुनियादी जरूरतों के लिये ही था, तब तक जंगल पर विनाश का खतरा नहीं मँडराया। जब से जंगल गाँव से अलग कर दिया गया, वह सरकार या जमींदार के कब्जे में आ गया, वह इमारत, फर्नीचर और औद्योगिक उत्पादन के लिये कच्चे माल के खजाने के रूप में बढ़ता जाने लगा, उस पर विनाश मँडराने लगा।

जैसे-जैसे खेती गुजारे के साधन से बदल कर मुनाफे के माध्यम की शक्ल लेती गई, पेड़ घटते गये, जाल गाँव से दूर होता गया। जैसे-जैसे इंसानों की बस्तियों से खेती हटती गई, खेत खत्म होते गये, शहर बसते गये, जंगल मिटता गया। आज शहरों और जंगलों का रिश्ता बड़ा अजीब-सा है, त्रासद है। नई पीढ़ी के शहरी बच्चे जंगल क्षेत्रों में, टेलीविजन के पर्दों पर, किताबों में, बस-ट्रेन से आते-जाते रास्तों में ही देखते हैं। ज्यादा से ज्यादा जंगल उनकी जिन्दगी में पर्यटन या भ्रमण-विलास के केन्द्र हैं। जंगल के साथ शहरी जिन्दगी का रिश्ता औपनिवेशिक है। जंगल से कोई अन्तरंगता नहीं, पर जिन्दगी की सुविधाओं का बड़ा हिस्सा जंगल के दोहन से उनके कमरों तक पहुँचता है। जंगल कटकर, मरकर बर्बाद होकर उनकी जिन्दगी में आता है। शहरों की जिन्दगी को जरा गौर से देखें। आप पायेंगे कि शहर में बड़े पेड़ों, देसी पेड़ों का चलन ही नहीं मिट रहा, मिट्टी भी मिट रही है। मिट्टी से शहरी लोगों को एलर्जी-सी होती जा रही है। धूल से बचने के लिये, बरसात के कीचड़ से बचने के लिये, बर्साती कीड़े-मकोड़ों से बचने के लिये अधिकांश घरों में मिट्टी पर बालू-सिमेंट की पक्की परत बिछते आप-हम देख सकते हैं। ज्यादा घरों में तो छोटे-पौधों और बोनसाइयों के लिये भी मिट्टी सिमट रही है। जैसे-जैसे शहर बड़े हो रहे हैं, माटी की बुनियाद पर बनी इमारतों के इंसानी बाशिंदों का माटी से भी औपनिवेशिक रिश्ता बन रहा है। गाँवों के गरीब शहर में मिट्टी बेचेंगे, शहरी अमीर मोल- मोलाई करते हुए खरीदेंगे और गमलों में उन्हें डलवाकर, रंग-बिरंगे पौधे लगवाकर अपने परिवेश में प्रकृति की अनुकृति प्रस्तुत करते हुए स्वयं को प्रकृति प्रेमी बतायेंगे।

जंगल बर्बाद कौन कर रहा है? जंगलों के बीचोबीच या इर्द-गिर्द बसे लोग या जंगल विभाग, सरकार और जंगल से काफी दूर रह-रहे लोगों की खेती में लगे सामानों, खाट-चौखट-दरवाजों, बल्लों, जलावनी लकड़ियों के परिमाण का कुल आंकलन कर लें। दूसरी ओर औद्योगिक कच्चा माल के रूप में लगी वन सामग्री, पलंग, दीवान, टेबल, नक्काशीदार दरवाजों अलमारियों और इसी तरह की लकड़ी से बनी चीजों की शहरी घरों में मौजूद परिमाण आंक लें। दोनों जगहों की आबादी का अनुपात आंक लें, किन चीजों के बिना जिन्दगी कितनी चल सकती थी, कितनी नहीं चल सकती थी- इस कसौटी पर लकड़ी के खेतिहर व ग्रामीण उपयोग तथा औद्योगिक व शहरी उपयोग की तुलना कर लें। और अन्त में वन संरक्षण-संवर्धन में इन आबादियों की प्रत्यक्ष व परोक्ष भूमिका परख लें। खुद-ब-खुद जाहिर हो जायेगा कि वनों की बर्बादी में सरकार, उद्योगपति और शहर के अमीरों की विलासितापूर्ण जिन्दगी का सबसे ज्यादा हाथ है या जंगल के लोगों का झारखंड के कोल्हान का सारंडा वन इस सच का अकाट्य प्रमाण है। सारंडा का साल पेड़ बड़ी ही अच्छी क्वालिटी का माना जाता रहा है। चालीस-प्रच्चास साल पहले तक सारंडा का वन काफी घना था। अब खोखला है। चाईबासा, जमशेदपुर में पदस्थापित वन अधिकारी ही नहीं, पुलिस अधिकारी, अन्य सरकारी पदाधिकारी सबने सारंडा के पेड़ों से बने फर्नीचर अपने घर, अपने रिश्तेदारों और करीबियों के घर भिजवाये। वन माफियाओं को वन की सम्पदा लूटने की खुली छूट रही। सरकारी अधिकारियों के अघोषित, किन्तु जगजाहिर संरक्षण में वन-विनाश की अनौपचारिक प्रक्रिया, सार्वजनिक संसाधन के निजी लाभ लेने की प्रक्रिया सभी बड़े वन क्षेत्रों में अमूमन चलन में है।

यह संयोग नहीं, उपरोक्त सच्चाइयों का इजहार ही है कि सरकार ने अधिकांश वन संरक्षण के फैसले अपनी पहल से नहीं लिये, बल्कि जनांदोलनों के दबाव में लिये। उत्तरांचल में चिपको आन्दोलन के दबाव में पेड़ों की कटाई पर रोक का फैसला लिया गया। व्यापक नागरिक आन्दोलन के दबाव में साइलेंट वैली की विनाशकारी परियोजना वापस ली गई। उड़ीसा के गंधमार्दन पर्वत का सघन वन जनांदोलन और उसके बाद जगी हुई जनचेतना की बदौलत अभी भी बचा है, सरकार तो अभी भी जंगल उजाड़कर भी बॉक्साइट खनन करना चाहती है।

वन की महत्ता से जुड़ा एक और पहलू गौरतलब है, जिस पर गम्भीरता से बहुत कम ही सोचा जाता है। वन रोजगार का एक पारम्परिक साधन तो अभी भी है, पर अगर सही नीति और योजना बनाई जाये तो वन पूर्ण रोजगार के लक्ष्य को पाने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम हो सकता है।कोयलकारो नदी के समीपवर्ती वन कोयलकारो जनसंगठन की सतत सक्रियता की वजह से बचे हुए हैं। राजस्थान के भावता-कोल्याला के बारह वर्ग किलोमीटर के मृतप्राय जंगल को पुनर्जीवित कर फिर से हरा-भरा, क्रमश: घना किया गया। देवघर का जीतपुर-चेचाली जंगल आन्दोलन की वजह से ही उजाड़ होते-होते बचा। बेड़ों प्रखंड के खाकसीटोला का वन संरक्षण एवं ग्रामीण नवरचना का अनुकरणीय मॉडल साइमन मिंज जैसे जननेता और प्रतिबद्ध गामीणों की सामूहिकता पर ही टिका है। इस प्रकरण में साइमन मिंज की गिरफ्तारी का वारंट भी प्रशासन और वन विभाग द्वारा निकाला गया था। आज की तारीख में झारखंड में कई ऐसे छोटे-बड़े वन सभी इलाकों में देखने को मिलते हैं, जो कुछ साल पहले उजड़ चुके थे, अब फिर हरे-भरे लहरा रहे हैं। यह वन विभाग की मुहिमों का नतीजा नहीं है, स्वतःस्फूर्त ढंग से वन सुरक्षा समिति जैसे नामों से संगठित टोलियों की बरसों की लगातार कोशिश का फल है। कई इलाकों में टोली के सदस्यों को माफियाओं से टकराना पड़ा, लकड़ी कटाई को बिजनेस बना चुके लोगों से उलझना पड़ा। वन और जन, प्रकृति और मानव के अनिवार्य पारस्परिक सम्बन्धों की धुँधली पड़ती जा रही चेतना को पुनर्जागृत करने की कोशिशों के गर्भ से तो ये वन संरक्षण टोलियां जन्मीं, वन की बर्बादी से बढ़ते संकट के अहसास से भी वे उभरीं।

अब तो यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि वन एवं पर्यावरण विभाग की तमाम कोशिशें-नीति, कानून, नियमावली, परियोजना, कार्यक्रम-वन संरक्षण के प्राथमिक लक्ष्य से प्रेरित नहीं है। उनके पीछे असल विराट वन संसाधन और भूमि संसाधन को अपने कब्जे में हर हाल में रखना, लोगों को जंगल से दूर और बाहर कर उसमें वृद्धि करना और सम्भावित प्रतिरोध-विरोध को दूर कर अपराजेय प्रभुत्व कायम करना तथा इस स्वामित्व और प्रभुत्व के जरिये मुनाफा बढ़ाना, निजी लाभ कमाना है।

इस विश्लेषण के क्रम में वन संरक्षण के अनेकानेक पहलू-उभरते-खुलते गये हैं। वन विभाग या सरकारी प्रयासों के भरोसे वन संरक्षण नहीं हो सकता। जन-पहल और जन-मुहिम के माध्यम से ही वन संरक्षण मुमकिन है। खनिजों और लकड़ी के मौद्रिक मूल्य के ऊपर वन के जीवंत अस्तित्व की महत्ता जब तक समझ में नहीं आती, हृदयंगम नहीं होती, तब तक वन संरक्षण की प्रेरणा व पहल नहीं जग सकती। यह धारणा असंगत एवं अप्रभावी है कि आदिवासी या कोई अन्य एक समुदाय ही वन संरक्षण में महत्तम, श्रेष्ठतम भूमिका निभाता है। जंगल से जीवनमूलक सम्बन्ध रखनेवाला हर सामाजिक समुदाय वन संरक्षण में सहभागी भूमिका निभा सकता है, निभाता रहा है। मौजूदा समय में आदिवासी समाज में भी प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से निजी लाभ, निजी सम्पत्ति बनाने की प्रवृत्ति पैठने लगी है। इस कारण वन संरक्षण के दरम्यान इस प्रवृत्ति से ग्रस्त अपने ही समाज के लोगों से भिड़ना भी आवश्यक हो गया है।

वन संरक्षण के ज़न-प्रयास जो सफल रह सके हैं, उसके पीछे दो आयाम रहे हैं। पहला वन की कटाई और बर्बादी पर जन-प्रतिरोध के जरिये रोक और दूसरा वन से जुड़ी गतिविधियों के सन्दर्भ में ग्रामाधारित जन-संचालन व्यवस्था। जहाँ भी दूसरा आयाम शुरू नहीं हुआ या शुरु होकर बीच में खत्म हो गया, वहाँ जंगल फिर से वीरान होता गया। झारखंड का खाकसीटोला और राजस्थान का भांवता कोल्याला जन-वन संचालन व्यवस्था का एक प्रेरक स्वरूप पेश करते हैं। ऐसे सारे प्रयोगों के अध्ययन के आधार पर वन संरक्षण की प्रभावी प्रक्रिया निरूपित की जा सकती है।

वन संरक्षण की बात को उसके मूल सन्दर्भ से काटकर देखने, समझने, बरतने के भी खतरे हैं। वन संरक्षण नारे के रूप में इतनी ज्यादा बार दुहराया गया है कि वन संरक्षण स्वयं में एक साथ है, सच कहें तो अन्तिम साध्य-सा लगने लगा है। और तब लगता है, वन किसी भी तरह से बचे, जायज हैं, लोकोपकारी हैं। इसी भावना से या इसी भावना का संकीर्ण हित में दुरुपयोग करते हुए विश्व बैंक ने, वन विभाग ने वन की व्यवस्था में पूँजीपतियों की साझेदारी और जंगल क्षेत्र को पूँजीपतियों के निजी स्वामित्व में देने की बात चला रखी है। वन के बारे में बुनियादी नजरिया न होने पर, जीवनमूलक एवं जन-केन्द्रित वनदृष्टि न होने पर ऐसे खतरे आते ही हैं। वन आखिर हैं, वन किस-किस रूप में जीवनोपयोगी, जनोपयोगी हैं - इसे पूरा-पूरा समझना चाहिये, हमेशा याद रखना चाहिये। वन मात्र वृक्ष-समूह नहीं है। पेड़, फल, पत्ते, तना, छाल ये सारे वन के स्थूल रूप हैं। वन मिट्टी को उन्नत बनाने, वायुमंडल को शुद्ध करने, हवा में ऑक्सीजन भरने और वर्षा को बुलाने जैसी आन्तरिक एवं सूक्ष्म प्रक्रियाओं का परिचालक भी है। अर्थात वन निरा सम्पत्ति नहीं, जीवनचक्र को संचालित करने में अपनी अनिवार्य और निर्धारित भूमिका निभाने वाला नैसर्गिक तत्व है। प्राकृतिक संसाधन है। वन मनुष्य की रचना नहीं, स्वयं सृजित है। हाँ, मनुष्य वन लगा सकता है, पेड़ उगा सकता है, पर इस कारण मनुष्य वन का सर्जक नहीं हो जाता। वन लगाने के लिये भी मनुष्य को पूर्व से विद्यमान पेड़ों के अंशों (तनों या बीजों) की जरूरत होती हैं, भूमि और जल जैसे प्राकृतिक संसाधनों की जरूरत होती है। इस वास्तविकता का नैतिक और तार्किक निष्कर्ष यही है कि मनुष्य वन का नियामक, वन का मालिक नहीं हो सकता। वह उससे सहज प्राप्त लाभों के उपयोग का संचालक भर हो सकता है।

वन की जरूरत हर व्यक्ति को है, पूरे मानव समाज को है, वन का लाभ सहज रूप से सबको मिल सकता है, मिलना चाहिये। और इस कारण वन से प्राप्त लाभों के उपयोग का संचालन सामूहिकता और संवेदनशीलता पर आधारित होना चाहिये। यह बुनियादी बात ही वन की महत्त्वपूर्ण भूमिका को और परिणामस्वरूप वन संरक्षण को साकार रख सकती है कि वन जीवन-चक्र के सातत्य का एक साधन है और जीवनरूपी अन्तिम साध्य के लिये मनुष्य समाज के लिये वन एक मध्यवर्ती साध्य सा लक्ष्य है। यह किसी एक के लिये ज्यादा, दूसरे के लिये कम जरूरी नहीं और इसी कारण इस पर किसी का अधिकार ज्यादा किसी का कम नहीं हो सकता।

वन की महत्ता से जुड़ा एक और पहलू गौरतलब है, जिस पर गम्भीरता से बहुत कम ही सोचा जाता है। वन रोजगार का एक पारम्परिक साधन तो अभी भी है, पर अगर सही नीति और योजना बनाई जाये तो वन पूर्ण रोजगार के लक्ष्य को पाने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम हो सकता है। वन क्षेत्र का विस्तार विराट है, खाली, नंगी या बंजर वन भूमि भी काफी है, पत्ते-फूल-फल के बहुतेरे उपयोग हैं, जो कुछ जाने-पहचाने, कुछ अनजाने हैं, जिन्हें शोधों के जरिये जाना जा सकता है। अगर वन क्षेत्र को छोटी-छोटी इकाइयों में विकेन्द्रित कर दिया जाये और उसे बेरोजगार-अर्धबेरोजगार लोगों को वृक्षारोपण, वन संरक्षण, वन संवर्धन, उत्पाद-संग्रहण, उत्पाद- परिष्करण, विक्रय आदि कार्यों के लिये दे दिया जाये तो बहुत बड़े पैमाने पर रोजगार दिया जा सकता है। वन बंद हैं, वन विभाग के निरंकुश अधिकार में है, सिर्फ इस कारण से सम्भव रोजगार भी उपलब्ध नहीं कराया जा रहा, उसे जंगल जाकर जलावनी लकड़ी कटवाकर या चुनकर दो दिन की मेहनत से पचास रुपये कमाने वाले गरीब लोगों को अपराधी करार दिया जा रहा है। बड़े वनों के लिये यह व्यवस्था बनाने में काकी माथापच्ची करनी पड़ सकती है, पर छोटे वनों को ग्रामसभा, ग्राम-पंचायत के जिम्मे देकर यह काम बहुत आसानी से किया जा सकता है।

आज के दौर में जब निजीकरण को जादुई मंत्र की तरह बखाना जा रहा है, वन को भी पूँजीपतियों के निजी मालिकी में दिया जा रहा है, इस परिघटना एवं अवधारणा पर निर्णायक तौर पर कुछ कहना आवश्यक है। प्राकृतिक संसाधनों के निजीकरण यानी कुछेक हाथों में संकेन्द्रण का अर्थ जिन्दगियों पर, इंसानों पर कुछेक लोगों का नियंत्रण होगा, यानी अधिकांश जिन्दगियों पर नई किस्म की गुलामी थोपना होगा। भूमि के निजीकरण का हश्र जमींदारी प्रथा, बेगारी, भूमिहीनता, बेरोजगारी, गरीबी, बदहाली, गरीबों पर भूपतियों के अमानुषिक अत्याचार आदि के रूप में दिखता रहा है। नदी पर या पानी तक, जंगल पर निजीकरण का हश्र पीने के पानी, सिंचाई के पानी के लिये पूँजीपतियों पर निर्भर होने के रूप में ही नहीं, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में वर्षा और हवा के लिये भी पूँजीपतियों पर निर्भर होने के रूप में कल आ सकता है। इस हश्र को भयग्रस्त या अति आशंकावादी कल्पना मानने वाले को ओजोनपरत क्षय और अंतरिक्ष को निजी मिलकियत और व्यापारिक केन्द्र के रूप में तब्दील करने की भावी योजनाओं और उनके परिणामों पर गहराई से गौर करना चाहिये। जीवनमूलक अवधारणा तो यही है कि प्राकृतिक संसाधनों पर किसी की निजी मिलकियत न हो, विकेन्द्रित स्तर का सामाजिक नियंत्रण-संचालन प्रबन्धन हो। उसके तहत जरूरी समझा जाने पर वैयक्तिक उपभोग और उत्पादन सम्बन्धी अधिकार भले ही दिये जायें।

सूत्र रूप में कहें तो कोई भी वन-दृष्टि, वन नीति, वन सम्बन्धी योजनाएँ और कार्यक्रम इन मूलभूत बातों पर आधारित होनी चाहिये, तभी वन अपनी नैसर्गिक भूमिका में रह पायेगा, सही मायने में वन संरक्षण होगा, वन जनहितकारी होगा, समता, रोजगार और आत्मनिर्भरता का माध्यम बन पायेगा।

1. वन जन से अभिन्नत: जुड़ा है। वन गाँव का या इसी तरह की उच्चतर जन इकाइयों का हिस्सा है। वन से लोगों को, गाँवों को हटाना, वन और जन दोनों के हित के खिलाफ है। जंगलों को स्पष्ट रूप से निकटतम गाँवों और गाँव समूहों के साथ जोड़ा जाना चाहिये।
2. छोटे वनों पर गाँव-समाज को नियंत्रण और संचालन मिलना चाहिये।
3. वन क्षेत्र पर निजी स्वामित्व कतई नहीं दिया जाना चाहिये।
4. उद्योगपतियों को वन-जमीन का पट्टा भी नहीं दिया जाना चाहिये। यह पट्टा वन-श्रमिकों, भूमिहीनों, महिलाओं को वैयक्तिक या सहकारी तौर पर दिया जाना चाहिये। सहकारी समूहों को निजी के मुकाबले वरीयता मिलनी चाहिये।
5. वन सुरक्षा समितियाँ ग्रामसभा और पंचायती राज संस्थाओं द्वारा बनाई जानी चाहिये।
6. रैयती जमीन के पेड़ों पर वन विभाग का कोई नियंत्रण नहीं होना चाहिये।
7. वन से जुड़ी किसी भी परियोजना या कार्यक्रम को उस स्तर की संबद्ध ग्राम-सभाओं की संयुक्त बैठकों की स्पष्ट, लिखित, प्रामाणिक सहमति के बिना क्रियान्वित नहीं किया जाना चाहिये।
8. गैर मजरूआ जमीन पर खड़े पेड़ों पर भूमिहीनों और महिलाओं का हक होना चाहिये।
9. लघु वनोपजों पर प्राथमिक उपभोगाधिकार भूमिहीनों और महिलाओं का ही होना चाहिये।
10. वनों के ओषधीय वृक्षों एवं पौधों की देशज जानकारी का समग्र संकलन होना चाहिए। स्थानीय स्तर के जानकारों और ग्रामसभा जैसी इकाइयों के अधिकारपूर्ण पहल के जरिये स्थानीय औषध-वन विकसित किये जाने चाहिये।

इसी तरह की कई और बातें सम्भव और आवश्यक हो सकती हैं। इसके लिये एक नियोजित विमर्श अभियान चलाने की आवश्यकता है।

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