एक चादर खून से सनी

बांग्लादेश की संसद के कुल सदस्यों में हर दसवाँ सांसद ऐसे ही किसी कपड़ा कारखाने का मालिक है। लगभग आधे सांसदों का धन और निवेश इस उद्योग में या तो सीधा है या अपरोक्ष रूप से है। इतना महत्त्व रखने वाले उद्योग में मजदूरों के प्रति जरा भी संवेदना नहीं है। इसका नतीजा है लाखों मजदूरों का कौशल और उनकी हाड़तोड़ मेहनत उन्हें एक अमानवीय तंत्र के शिकंजे से बचा नहीं सकती। बांग्लादेश में सिले-सिलाए कपड़ों का उद्योग खूब फला-फूला है। इसके दो कारण गिनाए जाते हैं। पहला, वहाँ की आबो-हवा एक खास तरह के सूती कपड़े के काम के लिये उपयुक्त है। दूसरा, वहाँ मजदूर बहुत ही सस्ती दर पर मिल जाते हैं। आबो-हवा तो प्रकृति की देन है इस नदियों से पटे इलाके में। पर सस्ती मजदूरी के पीछे विश्वव्यापी बाजार में कामगारों के शोषण की कहानी है।

सोनार कहे गए बांग्लादेश में श्रमिकों की आमदनी एक घंटे के काम के लिये 10-15 रुपए तक गिर जाती है। कोई एक करोड़ गरीब बनाए गए बच्चे, महिलाएँ और पुरुष अमानवीय हालात में परिधान उद्योग में काम करते हैं। यहाँ इस उद्योग के लगभग 5,000 कारखानें हैं। ये सब ढाका शहर में हैं, जिसे कई लोग एक असहनीय शहर की संज्ञा देते हैं।

इन मजदूरों और इन कारखानों पर ही बांग्लादेश की अर्थ व्यवस्था का ढाँचा टिका है। विदेशी मुद्रा में होने वाली उस देश की कुल कमाई का 80 प्रतिशत परिधान उद्योग से आता है। अर्थव्यवस्था के अलावा यह परिधान उद्योग इस देश की राजनीति को भी संवारता है।

बांग्लादेश की संसद के कुल सदस्यों में हर दसवाँ सांसद ऐसे ही किसी कपड़ा कारखाने का मालिक है। लगभग आधे सांसदों का धन और निवेश इस उद्योग में या तो सीधा है या अपरोक्ष रूप से है। इतना महत्त्व रखने वाले उद्योग में मजदूरों के प्रति जरा भी संवेदना नहीं है। इसका नतीजा है लाखों मजदूरों का कौशल और उनकी हाड़तोड़ मेहनत उन्हें एक अमानवीय तंत्र के शिकंजे से बचा नहीं सकती।

उनकी मेहनत से अमीर बने लोगों में और उनकी सरकार में इन मजदूरों को उनकी न्याय संगत कमाई देना तो दूर, उनके प्रति करुणा का भाव तक नहीं है। ‘सांग ऑफ द शर्ट’ नाम की किताब इन लाखों मजदूरों की कहानी बतातीहै। एक समय इस इलाके के हथकरघा उद्योगों की चर्चा दुनिया भर में थी।

पहले वे उद्योग उजाड़े गए, फिर एक नए तरह का उद्योग तंत्र यहाँ बैठाया गया। किताब के लेखक जेरेमी सीब्रुक ने बंगाल के बुनकरों के इतिहास की कहानी उनके मर्म के साथ सामने रखी है। इस वृत्तान्त में ब्रिटेन की आर्थिक नीतियों का बंगाल के बुनकरों पर असर साफ दीखता है।

इन बुनकरों के जगमगाते और दुनिया भर में विख्यात उद्योग गुलामी के समय ही नष्ट किये गए थे। उस उद्योगसे जुड़ी विशाल व्यवस्था को अंग्रेज हुकूमत ने तहस-नहस किया, क्योंकि अंग्रेज शासन अपने देश में लंकाशायर की मिलों में बना कपड़ा जबरदस्ती बेचना चाहता था। मिलों का कपड़ा हथकरघों के बनाए कपड़े की तुलना में बिक नहीं पाता था, इसलिये औपनिवेशिक शासकों ने बुनकरों का व्यापार ही चौपट कर दिया।

अंग्रेज हुकूमत से आजादी पाने और फिर पूर्वी पाकिस्तान के सन् 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद एक नए तरह का उद्योग पनपा। इस उद्योग ने बुनकरों को उनका पुराना जीवन्त रोज़गार वापस नहीं दिया। बल्कि उन्हें कारखानों में निर्जीव पुर्जे बना कर रख दिया। जब इंग्लैंड के लंकाशायर में कपड़ा मिलें बन्द हुईं तो वहाँ काम करने वाले मजदूरों को दूसरे काम मिल गए। लेकिन बांग्लादेश की कपड़ा मिलों में काम करने वालों के पास कोई पर्याय नहीं है।

कितनी भी गुरबत में उन्हें इन मिलों में काम करना पड़े, उनके पास कोई और चारा नहीं है। अगर दुनिया के किसी भी और हिस्से में उनसे भी कम पगार पर काम करने वाले मजदूर तैयार हो जाएँ तो बांग्लादेश के कपड़ा मिल मजदूरों को जो थोड़ा-बहुत रोज़गार मिलता है, वह भी शायद उनसे छिन जाये। हर कभी बांग्लादेश पर चक्रवात का खतरा मँडराता रहता है, इसलिये कोई और रास्ता ढूँढ़ना सम्भव नहीं है। नदियों से सालाना आने वाली बाढ़ से वैसे भी यहाँ की ग्रामीण व्यवस्था में लोग अपना जीवन नहीं चला पा रहे हैं।

यानी रोज़गार के लिये एक देश के मजबूर लोगों की प्रतियोगिता है, दूसरे देश के मज़दूरों के साथ। मजबूरी के इस शर्मनाक द्वंद में कामगारों का कोई सहारा नहीं है। साथ मिल कर यूनियन बना कर अपना हक माँगना भी मुश्किल है, क्योंकि इस तरह संगठनों को कमजोर और प्रभावहीन बना दिया गया है।

इस मजबूरी की कहानी कहने के लिये श्री सीब्रुक केवल मर्म और करुणा का सहारा नहीं लेते हैं। इसके लिये उन्होंने अथक मेहनत की है। कारखानों और घरों के भीतर के बदहाली के किस्से वे निकाल कर पाठकों के सामने रख देतेहैं। यहाँ भविष्य के लिये कोई आशा नहीं दिखती।

लाखों लोग गाँवों में बाढ़ और चक्रवात की चपेट से पलायन कर ढाका में परिधानों के ज्वलनशील कारखानों में आश्रय लेते हैं। यह आश्रय भी किसी कारावास से बहुत बेहतर नहीं होता। पिछले दशक में ही कम-से-कम 500 श्रमिकों की मौत आग लगने की दुर्घटनाओं में हुई है। इनमें ज्यादातर महिलाएँ थीं- बेटियाँ, पत्नियाँ, माँ-बहनें। जो पानी के प्रकोप से बच जाते हैं उन्हें आग के जोखिम से जूझना पड़ता है।

यह किताब इस भ्रमजाल की, इस विडम्बना की आधिकारिक कथा है। उस दरिद्रता की भी जो लाखों लोगों के जीवन को होम कर एक छोटे-से वर्ग की अमीरी जुटाती है। यह एक ऐसा काल्पनिक विकास है, जो हिंसा औरमानव-निर्मित आपदा को, दिनचर्या में बदल देता है।

श्री सीब्रुक ने यह किताब लिखने के लिये अपनी कलम करुणा और आक्रोश की स्याही में डुबा कर एक ऐसे समाज की सटीक कथा बताई है जो 200 साल से भारी उथल-पुथल से गुजर रहा है। लिखाई ऐसी है कि विस्तार और बारीकी, दोनों का समावेश है। बांग्लादेश में बने परिधान को खरीदने और पहनने वालों पर ही नहीं, यह किताब पाठक के मन में कई नैतिक सवाल छोड़ जाती है।

बार-बार यह डर लगता है कि दुनिया भर में फैला बाजार और उसके बाजारू मूल्य हमारा सारा-का-सारा ब्रह्माण्ड बनते जा रहे हैं। क्या इस फैलती, फूलती विषमता के क्षितिज के पार हमारा अस्तित्त्व ही नहीं है? क्या इस खून से रंगी चादर के ताने-बाने से हटकर, कोई साफ-सुथरी चादर हमारा समाज नहीं बुन सकता।

श्री सुधीरेंद्र शर्मा विज्ञान से जुड़े सामाजिक प्रश्नों पर लिखते हैं।
अंग्रेजी मूल से हिंदी रूपान्तर सोपान जोशी द्वारा।

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Post By: RuralWater
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