अमेरिका में किसी भारतीय कंपनी की फैक्टरी में भोपाल गैस कांड सरीखी तबाही हुई होती, तो क्या अमेरिकी सरकार उस कंपनी और उसके लोगों को ऐसे ही छोड़ देती? क्या तब कानूनी प्रक्रिया के छेद से कोई भारतीय कंपनी निरापद बाहर निकल सकती थी क्योंकि वहाँ तो किसी अमेरिकी कंपनी को भी नहीं छोड़ा जाता। इसका प्रमाण है मेक्सिको की खाड़ी में बी.पी. तेल रिसाव को लेकर अमेरिकी सरकार की पहल।
भारत में हुई सबसे बड़ी औद्योगिक तबाही-भोपाल गैस कांड-से संबंधित मुकदमे का अन्यायपूर्ण फैसला आने के बाद केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री वीरप्पा मोइली ने इस तरह की तबाही से निपटने के लिए उपलब्ध कानूनों पर पुनर्विचार की जरूरत स्वीकार की है।
यह मान लिया गया है कि हमारी न्याय-व्यवस्था में इतनी खामियाँ या पेंच हैं कि अभियुक्त हर उपलब्ध कानूनी प्रावधान का इस्तेमाल करके न्यायिक प्रक्रिया को इतना लंबा खींच देता है कि पीड़ित जीते-जी न्याय की आशा ही छोड़ देता है, जबकि अभियुक्त की गर्दन तक न्याय का फंदा या तो पहुँचता ही नहीं और अगर पहुँचता है तो वह बहुत ढीला होता है।
भोपाल गैस कांड के मुकदमे में मुख्य अभियुक्त वॉरेन एंडरसन का तो बाल भी बाँका नहीं हुआ जबकि भारतीय अभियुक्तों को मात्र दो-दो साल की ही सजा मिली और उसमें भी उन्हें तत्काल जमानत मिल गई। वॉरेन एंडरसन को बचाने में न केवल अमेरिकी सरकार ने, बल्कि भारत सरकार ने भी मदद पहुँचाई और दुर्घटना की असली जिम्मेदार अमेरिका की यूनियन कार्बाइड कंपनी हाथ झाड़कर अलग खड़ी हो गई। उसने अपना अस्तित्व ही वियतनाम के युद्ध में अमेरिका के लिए नापाम बम बनाने वाली कुख्यात कंपनी डाउ केमिकल्स में तिरोहित कर लिया।
लोग पूछ रहे हैं कि अगर अमेरिका में किसी भारतीय कंपनी की फैक्टरी में भोपाल गैस कांड सरीखी तबाही हुई होती, तो क्या अमेरिकी सरकार उस कंपनी और उसके लोगों को ऐसे ही छोड़ देती? क्या तब कानूनी प्रक्रिया के छेद से कोई भारतीय कंपनी निरापद बाहर निकल सकती थी क्योंकि वहाँ तो किसी अमेरिकी कंपनी को भी नहीं छोड़ा जाता।
इसका जवाब है- नहीं, बिल्कुल नहीं। ऐसी घपलेबाजी भारत में ही हो सकती है। यहाँ तो भारतीय कंपनियों का ही कुछ नहीं बिगड़ पाता। वे बंद हो जाती हैं तो उनके कारखानों और मिलों की जमीनों का इस्तेमाल बदलकर उन्हें रिहायशी मकानों के लिए बेच दिया जाता है। कौड़ियों के दाम खरीदी गई जमीन करोड़ों-अरबों रुपए में बिकती है जबकि उनके मजदूर बेरोजगार होकर मारे-मारे फिरते हैं।
हमारे यहाँ यह चेतना तक नहीं है कि किसी औद्योगिक हादसे से जानमाल की तो क्षति होती ही है, पर्यावरण की भी भयावह क्षति हो सकती है। उसका पानी और मिट्टी पर भी दुष्प्रभाव हो सकता है। पशु-पक्षियों और मछलियों आदि के जीवन पर भी भारी असर पड़ सकता है। भोपाल गैस कांड को लेकर हमारी राज्य सत्ता की भूमिका की यदि बी.पी. तेल रिसाव कांड में अमेरिका में राष्ट्रपति ओबामा की सरकार की भूमिका से तुलना करें तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है।
बीपी अमेरिका में तेल और प्राकृतिक गैस का उत्पादन करने वाली सबसे बड़ी कंपनी है। इस कंपनी का मेक्सिको की खाड़ी में गहरे समुद्र में तेल निकालने के लिए एक रिग लगा हुआ है, जिसे सुविधा के लिए मुंबई-हाई में लगे अपने रिग के रूप में देखा जा सकता है। गत 20 अप्रैल को इसमें विस्फोट हुआ और फिर भारी मात्रा में तेल का रिसाव होना शुरू हुआ और करोड़ों गैलन तेल मेक्सिको की खाड़ी में समुद्र की सतह पर दूर-दूर तक फैल गया।
इस दुर्घटना में मरे तो सिर्फ 11 लोग हैं लेकिन समुद्री जीवन और पर्यावरण को बेहद नुकसान पहुँचा है। राष्ट्रपति ओबामा ने खुद अपने समुद्र तट का मुआयना किया और इस संकट की भयावहता को समझकर दो बार अपनी पहले से तय विदेश यात्राएँ स्थगित कीं। अमेरिकी मीडिया तो अमेरिकी मीडिया, विदेशी मीडिया में भी इस दुर्घटना की जोर-शोर से चर्चा हुई। इस संकट पर कुछ काबू पा लिया गया है लेकिन तेल रिसाव को पूरी तरह रोकने में अभी कुछ और महीने लगेंगे।
राष्ट्रपति ओबामा ने घोषणा की है कि अगर यह पता चला कि हमारे कानूनों को तोड़ा गया है तो जो जिम्मेदार हैं, उन्हें सजा दी जाएगी। यह बिल्कुल अलग बात है कि वॉरेन एंडरसन को भारत को सौंपने को अमेरिका न तब तैयार था और न अब तैयार है। दुर्घटना के बाद से ही अमेरिका में संघीय जाँचकर्ता इस काम में लगे हुए हैं कि बी.पी. कंपनी, रिग की मालिक 'ट्रांस ओशन' और समुद्र की सतह पर तेल के कुएँ का निर्माण करने वाली 'हैलीबर्टन' कंपनी पर कैसे आपराधिक धाराएँ लगाई जाएँ।
यह विचार उभर रहा है कि मेक्सिको की खाड़ी में विस्फोट के बाद भारी पैमाने पर शुरू हुआ तेल रिसाव न तो किसी तूफान, न बिजली गिरने और न किसी उपकरण के नाकाम होने के कारण हुआ है, बल्कि इसका कारण स्पष्ट रूप से आपराधिक लापरवाही है। इसलिए बीपी, ट्रांसओशन और हैलीबर्टन नामक तीनों कंपनियों पर स्वच्छ जल अधिनियम, प्रवासी पक्षी संधि अधिनियम और अवशिष्ट कानून के तहत आपराधिक मुकदमे चलाए जाएँ। इन्हीं कानूनों के तहत अमेरिका में एक्सान वाल्डेज नामक कंपनी पर मुकदमा चलाया गया था और उसे 12.50 करोड़ डॉलर का मुआवजा देना पड़ा था।
यह भी कहा जा रहा है कि इतनी कम राशि से शायद उत्तेजित जनता संतुष्ट नहीं होगी, इसलिए सरकार इन कंपनियों पर अरबों डॉलर का जुर्माना भी लगाए। अभी तक तेल प्रदूषण कानून के तहत 7.5 करोड़ डॉलर के मुआवजे के प्रावधान से विशेषज्ञ भी संतुष्ट नहीं हैं और वे माँग कर रहे हैं कि मेक्सिको की खाड़ी के तटवर्ती इलाके के लोगों के नुकसान की पूरी भरपाई तो नहीं हो सकती, इसलिए इन तीनों कंपनियों ने पृथ्वी के खिलाफ जो भीषण अपराध किया है, उसका मुआवजा वसूल कर लोगों को दिया जाए।
यह कंपनी इस दुर्घटना के बाद अपनी छवि बचाने के लिए विज्ञापनों आदि पर एक अरब डॉलर खर्च कर चुकी है। बीपी पहले भी ऐसे अपराध कर चुकी है, इसलिए सभी को यह चेतावनी दी जानी चाहिए कि भविष्य में ऐसे अपराध बर्दाश्त नहीं किए जाएँगे। कहा जा रहा है कि इसके लिए जरूरी हो तो कानूनों को और कड़ा बना दिया जाए।
इस पृष्ठभूमि में भोपाल गैस कांड को देखिए। इसमें एक कीटनाशक उत्पादन में मिथाइल आइसोसायनेट के प्रयोग के कारण जो जहरीली गैस पैदा हुई, उसने अब तक 20 हजार लोगों की जान ले ली है जबकि एक से दो लाख के बीच लोग प्रभावित हुए हैं।
हालत यह है कि आज भी बच्चे विकलांग पैदा हो रहे हैं। यूनियन कार्बाइड फैक्टरी का सामान उसके परिसर में ज्यों का त्यों पड़ा है और आज भी पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहा है। यानी पिछले 25 सालों से पर्यावरण के प्रति अपराध जारी है। हमारी सरकार का आलम यह रहा है कि वह भोपाल गैस कांड के बाद भी एमआईसी को भानवीय स्वास्थ्य के लिए बहुत घातक नहीं मानती थी।
दूसरी तरफ हमारा सुप्रीम कोर्ट इस नरसंहार जैसे मुकदमे में प्रयुक्त होने वाली कानूनी धाराओं में बदल रहा था। हादसे के बाद जब यूनियन कार्बाइड का प्रमुख वॉरेन एंडरसन भाग रहा था तो प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री सो रहे थे।
केंद्र सरकार ने मुआवजे तक के लिए कोर्ट के बाहर कंपनी से शर्मनाक समझौता किया और आज तक लोगों को पूरा मुआवजा नहीं मिला है। जब हम मौजूदा प्रावधानों के तहत ही दोषियों को दंडित नहीं कर सकते तो नया कानून बनाकर भी क्या कर लेंगे? हम पृथ्वी के खिलाफ अपराध करने के लिए क्या मुआवजा माँगेगे, जब अपने लोगों के जानमाल की ही हमें कोई परवाह नहीं है। सच तो यह है कि हम सब अपराधी हैं - अपने लोगों के, पर्यावरण के और इस पृथ्वी के।
भारत में हुई सबसे बड़ी औद्योगिक तबाही-भोपाल गैस कांड-से संबंधित मुकदमे का अन्यायपूर्ण फैसला आने के बाद केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री वीरप्पा मोइली ने इस तरह की तबाही से निपटने के लिए उपलब्ध कानूनों पर पुनर्विचार की जरूरत स्वीकार की है।
यह मान लिया गया है कि हमारी न्याय-व्यवस्था में इतनी खामियाँ या पेंच हैं कि अभियुक्त हर उपलब्ध कानूनी प्रावधान का इस्तेमाल करके न्यायिक प्रक्रिया को इतना लंबा खींच देता है कि पीड़ित जीते-जी न्याय की आशा ही छोड़ देता है, जबकि अभियुक्त की गर्दन तक न्याय का फंदा या तो पहुँचता ही नहीं और अगर पहुँचता है तो वह बहुत ढीला होता है।
भोपाल गैस कांड के मुकदमे में मुख्य अभियुक्त वॉरेन एंडरसन का तो बाल भी बाँका नहीं हुआ जबकि भारतीय अभियुक्तों को मात्र दो-दो साल की ही सजा मिली और उसमें भी उन्हें तत्काल जमानत मिल गई। वॉरेन एंडरसन को बचाने में न केवल अमेरिकी सरकार ने, बल्कि भारत सरकार ने भी मदद पहुँचाई और दुर्घटना की असली जिम्मेदार अमेरिका की यूनियन कार्बाइड कंपनी हाथ झाड़कर अलग खड़ी हो गई। उसने अपना अस्तित्व ही वियतनाम के युद्ध में अमेरिका के लिए नापाम बम बनाने वाली कुख्यात कंपनी डाउ केमिकल्स में तिरोहित कर लिया।
लोग पूछ रहे हैं कि अगर अमेरिका में किसी भारतीय कंपनी की फैक्टरी में भोपाल गैस कांड सरीखी तबाही हुई होती, तो क्या अमेरिकी सरकार उस कंपनी और उसके लोगों को ऐसे ही छोड़ देती? क्या तब कानूनी प्रक्रिया के छेद से कोई भारतीय कंपनी निरापद बाहर निकल सकती थी क्योंकि वहाँ तो किसी अमेरिकी कंपनी को भी नहीं छोड़ा जाता।
इसका जवाब है- नहीं, बिल्कुल नहीं। ऐसी घपलेबाजी भारत में ही हो सकती है। यहाँ तो भारतीय कंपनियों का ही कुछ नहीं बिगड़ पाता। वे बंद हो जाती हैं तो उनके कारखानों और मिलों की जमीनों का इस्तेमाल बदलकर उन्हें रिहायशी मकानों के लिए बेच दिया जाता है। कौड़ियों के दाम खरीदी गई जमीन करोड़ों-अरबों रुपए में बिकती है जबकि उनके मजदूर बेरोजगार होकर मारे-मारे फिरते हैं।
हमारे यहाँ यह चेतना तक नहीं है कि किसी औद्योगिक हादसे से जानमाल की तो क्षति होती ही है, पर्यावरण की भी भयावह क्षति हो सकती है। उसका पानी और मिट्टी पर भी दुष्प्रभाव हो सकता है। पशु-पक्षियों और मछलियों आदि के जीवन पर भी भारी असर पड़ सकता है। भोपाल गैस कांड को लेकर हमारी राज्य सत्ता की भूमिका की यदि बी.पी. तेल रिसाव कांड में अमेरिका में राष्ट्रपति ओबामा की सरकार की भूमिका से तुलना करें तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है।
बीपी अमेरिका में तेल और प्राकृतिक गैस का उत्पादन करने वाली सबसे बड़ी कंपनी है। इस कंपनी का मेक्सिको की खाड़ी में गहरे समुद्र में तेल निकालने के लिए एक रिग लगा हुआ है, जिसे सुविधा के लिए मुंबई-हाई में लगे अपने रिग के रूप में देखा जा सकता है। गत 20 अप्रैल को इसमें विस्फोट हुआ और फिर भारी मात्रा में तेल का रिसाव होना शुरू हुआ और करोड़ों गैलन तेल मेक्सिको की खाड़ी में समुद्र की सतह पर दूर-दूर तक फैल गया।
इस दुर्घटना में मरे तो सिर्फ 11 लोग हैं लेकिन समुद्री जीवन और पर्यावरण को बेहद नुकसान पहुँचा है। राष्ट्रपति ओबामा ने खुद अपने समुद्र तट का मुआयना किया और इस संकट की भयावहता को समझकर दो बार अपनी पहले से तय विदेश यात्राएँ स्थगित कीं। अमेरिकी मीडिया तो अमेरिकी मीडिया, विदेशी मीडिया में भी इस दुर्घटना की जोर-शोर से चर्चा हुई। इस संकट पर कुछ काबू पा लिया गया है लेकिन तेल रिसाव को पूरी तरह रोकने में अभी कुछ और महीने लगेंगे।
राष्ट्रपति ओबामा ने घोषणा की है कि अगर यह पता चला कि हमारे कानूनों को तोड़ा गया है तो जो जिम्मेदार हैं, उन्हें सजा दी जाएगी। यह बिल्कुल अलग बात है कि वॉरेन एंडरसन को भारत को सौंपने को अमेरिका न तब तैयार था और न अब तैयार है। दुर्घटना के बाद से ही अमेरिका में संघीय जाँचकर्ता इस काम में लगे हुए हैं कि बी.पी. कंपनी, रिग की मालिक 'ट्रांस ओशन' और समुद्र की सतह पर तेल के कुएँ का निर्माण करने वाली 'हैलीबर्टन' कंपनी पर कैसे आपराधिक धाराएँ लगाई जाएँ।
यह विचार उभर रहा है कि मेक्सिको की खाड़ी में विस्फोट के बाद भारी पैमाने पर शुरू हुआ तेल रिसाव न तो किसी तूफान, न बिजली गिरने और न किसी उपकरण के नाकाम होने के कारण हुआ है, बल्कि इसका कारण स्पष्ट रूप से आपराधिक लापरवाही है। इसलिए बीपी, ट्रांसओशन और हैलीबर्टन नामक तीनों कंपनियों पर स्वच्छ जल अधिनियम, प्रवासी पक्षी संधि अधिनियम और अवशिष्ट कानून के तहत आपराधिक मुकदमे चलाए जाएँ। इन्हीं कानूनों के तहत अमेरिका में एक्सान वाल्डेज नामक कंपनी पर मुकदमा चलाया गया था और उसे 12.50 करोड़ डॉलर का मुआवजा देना पड़ा था।
यह भी कहा जा रहा है कि इतनी कम राशि से शायद उत्तेजित जनता संतुष्ट नहीं होगी, इसलिए सरकार इन कंपनियों पर अरबों डॉलर का जुर्माना भी लगाए। अभी तक तेल प्रदूषण कानून के तहत 7.5 करोड़ डॉलर के मुआवजे के प्रावधान से विशेषज्ञ भी संतुष्ट नहीं हैं और वे माँग कर रहे हैं कि मेक्सिको की खाड़ी के तटवर्ती इलाके के लोगों के नुकसान की पूरी भरपाई तो नहीं हो सकती, इसलिए इन तीनों कंपनियों ने पृथ्वी के खिलाफ जो भीषण अपराध किया है, उसका मुआवजा वसूल कर लोगों को दिया जाए।
यह कंपनी इस दुर्घटना के बाद अपनी छवि बचाने के लिए विज्ञापनों आदि पर एक अरब डॉलर खर्च कर चुकी है। बीपी पहले भी ऐसे अपराध कर चुकी है, इसलिए सभी को यह चेतावनी दी जानी चाहिए कि भविष्य में ऐसे अपराध बर्दाश्त नहीं किए जाएँगे। कहा जा रहा है कि इसके लिए जरूरी हो तो कानूनों को और कड़ा बना दिया जाए।
इस पृष्ठभूमि में भोपाल गैस कांड को देखिए। इसमें एक कीटनाशक उत्पादन में मिथाइल आइसोसायनेट के प्रयोग के कारण जो जहरीली गैस पैदा हुई, उसने अब तक 20 हजार लोगों की जान ले ली है जबकि एक से दो लाख के बीच लोग प्रभावित हुए हैं।
हालत यह है कि आज भी बच्चे विकलांग पैदा हो रहे हैं। यूनियन कार्बाइड फैक्टरी का सामान उसके परिसर में ज्यों का त्यों पड़ा है और आज भी पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहा है। यानी पिछले 25 सालों से पर्यावरण के प्रति अपराध जारी है। हमारी सरकार का आलम यह रहा है कि वह भोपाल गैस कांड के बाद भी एमआईसी को भानवीय स्वास्थ्य के लिए बहुत घातक नहीं मानती थी।
दूसरी तरफ हमारा सुप्रीम कोर्ट इस नरसंहार जैसे मुकदमे में प्रयुक्त होने वाली कानूनी धाराओं में बदल रहा था। हादसे के बाद जब यूनियन कार्बाइड का प्रमुख वॉरेन एंडरसन भाग रहा था तो प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री सो रहे थे।
केंद्र सरकार ने मुआवजे तक के लिए कोर्ट के बाहर कंपनी से शर्मनाक समझौता किया और आज तक लोगों को पूरा मुआवजा नहीं मिला है। जब हम मौजूदा प्रावधानों के तहत ही दोषियों को दंडित नहीं कर सकते तो नया कानून बनाकर भी क्या कर लेंगे? हम पृथ्वी के खिलाफ अपराध करने के लिए क्या मुआवजा माँगेगे, जब अपने लोगों के जानमाल की ही हमें कोई परवाह नहीं है। सच तो यह है कि हम सब अपराधी हैं - अपने लोगों के, पर्यावरण के और इस पृथ्वी के।
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