एक और हरित क्रांति

(लेख पर हिमांशु ठक्कर की प्रतिकिया)

यदि सूखे की आशंका आपको खाए जा रही है तो एक काम कीजिए। दिल्ली से उत्तर में आप जितनी दूर जा सकते हैं, ड्राइव करते हुए चले जाइए। शिमला जाइए, चंडीगढ़ जाइए या फिर अमृतसर, लेकिन सड़क मार्ग से जाइए, उड़कर नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि एक सुखद आश्चर्य आपका इंतजार कर रहा होगा, ऐसा आश्चर्य जिस पर आपको एकबारगी तो यकीन ही नहीं होगा। हाईवे के दोनों तरफ धान के हरे-भरे लहलहाते खेत ही खेत नजर आएंगे, न कोई ओर न कोई छोर, दूर-दूर क्षितिज तक फैले हुए खेत।

 

तो सूखा कहां है? कहां हैं खेतों में पड़ी वे दरारें, वे मुरझाते पौधे जिनसे सूखे का आभास होता है? विश्वास कीजिए, पंजाब और हरियाणा उन राज्यों में शामिल हैं जिन पर अल्पवर्षा की सबसे ज्यादा मार पड़ी है। कई जगहों पर तो 50 से 70 फीसदी तक बारिश कम हुई है। आप पूछ सकते हैं, आखिर यह हो क्या रहा है?अब आप इन दोनों राज्यों की सरकारों से पूछिए। वे बताएंगी कि इस साल कितनी कम बारिश हुई है, उनके बांध व तालाब सूखते जा रहे हैं।

 

लेकिन साथ ही बड़े आत्मविश्वास और गर्व के साथ यह भी कहेंगी, ‘एक सूखे का सामना तो हम चुटकियों में कर लेंगे, दूसरे की भी फिक्र नहीं है।’ इस क्षेत्र में इस बार का सूखा सबसे भयावह है जिससे कृषि अर्थव्यवस्था पर काफी हद तक असर पड़ेगा। किसानों को डीजल और बिजली पर अधिक खर्च करना होगा, लेकिन इसके बावजूद उत्पादन कमोबेश उतना ही रहने वाला है। मानसून की गलत भविष्यवाणी, जिसमें बताया जाता रहा कि मानसून देर-सबेर अपनी खानापूर्ति कर लेगा, की वजह से कई किसान धान की शुरुआती बुआई से वंचित रह गए। हालांकि वे जल्दी ही संभल गए और बासमती की बुआई की तरफ मुड़ गए। बासमती को थोड़ा विलंब से भी बोया जा सकता है। इससे उन किसानों को कहीं अधिक पैसा मिलेगा। हालांकि धान के राष्ट्रीय भंडार में वे उतना योगदान नहीं कर पाएंगे।

 

आखिर ऐसा क्या है कि पंजाब, हरियाणा और एक सीमा तक पश्चिमी उत्तरप्रदेश के इलाकों के किसान कम से कम एक भयावह सूखे को मुस्कराते हुए सहन कर सकते हैं? इसकी वजह है क्षेत्रीय नेताओं और कुछ केंद्र सरकारों की दूरदर्शिता जिन्होंने पचास और साठ के दशक में सिंचाई के क्षेत्र में निवेश कया। इस निवेश ने इसे हरित क्रांति के क्षेत्र में बदल दिया। भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु नदियों के जल के बंटवारे ने भी क्षेत्र को इस बात के लिए प्रेरित किया कि बांधों में जितना संभव हो सके, उतना पानी बचाने के लिए योजनाएं बनाई जाएं।

 

इसका एक फायदा यह हुआ कि इससे भूमिगत जल संसाधनों के सतत रिचार्ज में मदद मिली। शुक्र है, ऐसा उस समय ही कर लिया गया जब विकास विरोधी पर्यावरण और झोलेवाला आंदोलन अस्तित्व में नहीं आए थे।साठ का दशक इस क्षेत्र में किसान राजनीति (या कह सकते हैं जाट राजनीति) के उदय का भी दशक था। इसने कैरो, बादल, चरण सिंह, देवीलाल, अजित सिंह जैसे कई किसान नेता पैदा किए। वाम विचारधारा वाले गरीबी ‘विशेषज्ञ’ इन्हें सम्पन्न किसान मानकर खारिज करते रहे, लेकिन इन्होंने यह सुनिश्चित किया कि सरकारें सिंचाई और बिजली में निवेश करती रहें।

 

इस क्षेत्र में प्रत्येक किसान के पास, चाहे वह बड़ा हो या सीमांत, एक चीज जरूर है जो इस सूखे में उसकी तारणहार बनेगी। यह है पंपिंग सेट। इसी का नतीजा है कि यहां धान के खेतों में हरियाली छाई हुई है, जबकि देश के अन्य भागों मं फसलं सूख रही हैं। इसमें पश्चिमोत्तर और पूर्वी भारत के मैदानी इलाके, राजस्थान, बिहार, पूर्वी उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश का अधिकांश हिस्सा शामिल है।

 

बिहार के कुछ इलाकों को छोड़ दें, तो बाकी जगह बारिश पंजाब और हरियाणा से ज्यादा ही हुई है। विडंबना यह है कि इनमें से अधिकांश इलाकों में विशेषकर उत्तरप्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश के कुछ क्षेत्रों में भूजल स्तर काफी ऊपर है, लेकिन यहां के किसानों के पास या तो पंपिंग सेट नहीं हैं या फिर उन्हें चलाने के लिए ऊर्जा नहीं है। एक क्षेत्र इतने भयावह सूखे का सामना आसानी से कर रहा है, लेकिन दूसरा क्षेत्र नहीं। आखिर क्यों? इसका जवाब राजनीति में निहित है। लोकतंत्र में वोट और वोटरों की जागरूकता ही तय करती है कि राज्य को कहां निवेश करना चाहिए। सफलता की एक और उल्लेखनीय कहानी गुजरात की है जहां पटेलों के सशक्तीकरण से राज्य में मजबूत सिंचाई प्रणाली के निर्माण व विकास में मदद मिली। यहां भी नेताओं (चाहे किसी भी पार्टी के हों) ने अपने राज्य को लोगों को नर्मदा बांध के निर्माण का विचार दिया। सबसे संगठित, प्रचारित और वैश्विक समर्थन हासिल बांध विरोधी आंदोलन भी इस विचार को साकार रूप लेने से नहीं रोक पाया। इस साल गुजरात भी सूखे का सामना कहीं बेहतर ढंग से कर रहा है।

 

यही कहानी महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में दोहराई गई है। खासकर शरद पवार के प्रभाव वाले इलाकों में सिंचाई की समस्या से पार पा लिया गया है, लेकिन बारिश के अभाव में विदर्भ जैसे क्षेत्र सूखे से जूझ रहे हैं। ऐसा ही एक और राज्य है आंध्रप्रदेश जहां राजशेखर रेड्डी सिंचाई के क्षेत्र में भारी निवेश कर रहे हैं। हालांकि इनमें से कई परियोजनाओं को अमल में लाने मंे वक्त लग सकता है, लेकिन वे अंतत: सूखे से लड़ने में कृषि पावरहाउस साबित होंगी।

 

आज आप चाहें तो बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश और कुछ हद तक मध्यप्रदेश में खराब राजनीति और घटिया प्रशासन को कोस सकते हैं या फिर इस सूखे को समस्या के स्थायी समाधान के एक मौके के रूप में भुना सकते हैं। चूंकि हम पिछले दो दशकों से अच्छे मानसून के दौर से गुजरते आए हैं, ऐसे में हमने सिंचाई की चुनौतियों को भी हाशिए पर डाले रखा। पिछली यूपीए सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम मं एक बहुत ही अच्छी पंक्ति लिखी हुई थी, ‘सभी अधूरी सिंचाई योजनाओं को पूरा किया जाएगा।’ लेकिन किसी ने भी इस वादे की याद नहीं दिलाई। सभी सरकारें जल संसाधन मंत्रालय को महत्वहीन मानती आई हैं।

 

इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि अधिकांश लोगों को जल संसाधन मंत्री का नाम तक याद नहीं रहे। यदि यह सिंचाई पर ध्यान केंद्रित करने का मौका है तो वहीं दूसरी ओर शरद पवार के लिए कृषि मंत्री के रूप में प्रायश्चित करने का अवसर भी है। पवार इस पद के लिए सर्वाधिक योग्य व्यक्ति माने गए, लेकिन वे कृषि के लिए अब तक कुछ भी नहीं कर पाए हैं। बेहतर होगा कि वे क्रिकेट को परे रखकर खेतों में उतरें और उभरते हुए भारत के इस पहले वास्तविक सूखे का इस्तेमाल एक और हरित क्रांति का बिगुल फूंकने में करें। हमारे २८ राज्यों में से मात्र ढाई राज्यों की ही गिनती हरित क्रांति वाले राज्यों में की जाती है। यकीन मानिए, पांच साल तक 8 फीसदी की विकास दर हासिल करने वाले हमारे देश में इससे कहीं बेहतर प्रदर्शन करने की क्षमता है।

(शेखर गुप्ता इंडियन एक्सप्रेस के एडिटर इन चीफ हैं)

(लेख पर हिमांशु ठक्कर की प्रतिकिया)

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