भारत-नेपाल की सीमाओं से जुड़े महाकाली एवं सरयू नदियों के अंचल में एक विशाल बाँध (जल विद्युत परियोजना - जो कि लगभग 288 मीटर ऊँची प्रस्तावित है) को फरवरी 1996 में हुई भारत-नेपाल सन्धि के परिणाम स्वरूप आंशिक स्वीकृति मिली है। अभी भारत एवं नेपाल की संसद द्वारा इस प्रस्ताव को स्वीकार किया जाना बाकी है।
दोनों ही देशों के प्रभावित एवं संवेदनशील नागरिकों के बीच इस प्रस्तावित परियोजना को लेकर गहरी चिन्ता व्यक्त की गई है। इस प्रस्तावित परियोजना के घेरे में आने वाले सीधे-सादे एवं मासूम लोगों के मन की बात जानने के लिये एक नागरिक दल ने 18 से 22 मई 1996 के बीच इस क्षेत्र के कुछ गाँवों का दौरा किया।
इस टीम में - ‘हिमालय सेवा संघ’, ‘सर्विस सिविल इंटरनेशनल’ और ‘हिमालयी-पर्यावरण शिक्षण-संस्थान’ नामक मानव अधिकार एवं पर्यावरण के मुद्दों पर काम कर रहीं स्वयंसेवी संस्थाओं के सक्रिय सदस्यों ने भाग लिया।
यह टीम, भारत में पिथौरागढ़ और नेपाल में बैतड़ी जिलों के बीचों-बीच विकासखण्ड लोहाघाट, बिंड, बाराकोट और मोनाकोट के कई गाँवों में लोगों के बीच, उनकी राय जानने गई। झूलाघाट में शुरू होकर कानडी; सीमू, बलतड़ी, पीपलतड़ा, तड़ी, जलतूरी, ध्याण, रूम, जमतड़ी, हल्दू, सौरया, भौरा रौवतगढ़ा एवं सेल गाँवों से होती हुई यह यात्रा महाकाली एवं सरयू नदियों के संगम पर स्थित प्राचीन पंचेश्वर मन्दिर पहुँची। पाँच दिन की इस पदयात्रा के दौरान क्षेत्र की महिलाओं, पुरुषों, नवयुवकों, ग्राम-प्रधानों, अध्यापकों एवं व्यापारियों से, टीम के सदस्यों ने विस्तार से बातचीत की।
इस सीमावर्ती पहाड़ी क्षेत्र के लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती है तथा जंगल उनके जीवन का मुख्य आधार। इन गाँवों में अन्न के साथ-साथ फलों एवं सब्जियों को भी इफरात से पैदा किया जाता है। कई गाँवों में किसान इस भूमि से चार-चार फसलें लेते हैं और अधिकांश गाँव पूरे वर्ष की आवश्यकता का अनाज पैदा करते हैं। क्षेत्र में प्रत्येक गाँव के लगभग सभी परिवारों से भारतीय सेना या अर्धसैनिक पुलिस दस्तों में नौजवान कार्यरत हैं। हर गाँव में कई सेवानिवृत्त फौजी भी हैं जिन्होंने सारे हिन्दोस्तान में घूमने और सेवा कर चुकने के बाद अपनी इस दुर्गम मगर मनोहारी मातृभूमि पर लौटकर ही चैन की साँस ली है।
पाठकों की जानकारी के लिये यह बताया जाना आवश्यक है कि यह समूचा क्षेत्र प्रकृति के बीचों-बीच मनुष्यों की आस्थाओं एवं परम्पराओं से निर्मित सहस्त्रों मन्दिरों, देवस्थानों एवं ‘पवित्र-वृक्ष-समूहों’ जंगलों एवं नदियों तथा धाराओं की भूमि है।
18 मई को बातचीत की शुरूआत झूलाघाट में स्थानीय लोगों के प्रयास से आयोजित एक मीटिंग से हुई। इसमें भाग लेने वाले अधिकांश पुरुष ही थे। चर्चा के दौरान यह पता चला कि :
1. इस प्रस्तावित परियोजना की विस्तृत जानकारी लोगों को नहीं है। जो थोड़ी बहुत सूचना उन्हें मिली है उसका मुख्य स्रोत रेडियो, दूरदर्शन या फिर अखबार ही हैं, जिससे कि कुछ भी स्पष्ट समझ में नहीं आता है।
2. इस कथित परियोजना के बारे में प्रभावित होने वाले ग्रामवासियों से न तो कभी शासन एवं प्रशासन के प्रतिनिधियों ने राय मशविरा लिया और न ही कभी उन्हें इससे सम्बन्धित कोई प्रामाणिक रपट मुहैया करवाई गई।
3. लोगों का कहना था कि : सन 1982-83 के दौरान इस परियोजना को लेकर तेजी आई थी, फिर राजनैतिक कारणों से सब ठंडा पड़ गया। अब इस ‘सन्धि’ ने दोनों देशों के प्रभावित लोगों को ‘असमंजस’ एवं अनिश्चितता में फिर से डाल दिया है।
4. लोगों ने कहा कि : वे लोग ‘टनकपुर से झूलाघाट-जौलजीवी’ मोटरमार्ग का निर्माण करवाना चाहेंगे। इससे इस सीमावर्ती क्षेत्र में व्यापार की सम्भावनाएँ बहुत खुल जाएँगी। मगर ऐसा हो नहीं पा रहा है। और यदि इस प्रस्तावित बाँध परियोजना पर काम शुरू होता है तो इस ‘सड़क योजना’ के काम को बन्द होना पड़ेगा। इसकी सम्भावनाओं पर चर्चा करके तथा उससे होने वाले विस्थापन के परिणामों को सोचकर सभी लोग चिन्तित थे।
5. लोगों का मानना था : यदि ऐसा हुआ तो यह एक बहुत बड़ी त्रासदी होगी चूँकि नदी के आर-पार दोनों ही देशों के लोगों में आपसी रिश्तेदारियाँ तथा साझा जमीनें, खेती एवं व्यापक नातेदारियाँ हैं।
5. इस मीटिंग के दौरान क्षेत्र के लोगों द्वारा एक समिति का भी गठन हुआ जो कि भविष्य में इस मुद्दे को लेकर ‘जन-चेतना’ का काम करेगी। झूलाघाट के श्री मुरली मनोहर भट्ट को इसका संयोजक बनाया गया।
6. कानड़ी - गाँव में गाँववासियों से चर्चा के दौरान यह पता चला कि क्षेत्र में ‘कथित’ विकास की परियोजनाओं ने दरअसल नई समस्याओं को ही जन्म दिया है। श्री नन्द का कहना था उनके गाँव में पहले सिंचाई एवं पेयजल के पर्याप्त साधन थे। गाँव का जलस्रोत उड़िया की गाढ़ क्षेत्र के लोगों की आवश्यकताओं के लिये काफी था। यहाँ तक कि उसके द्वारा गाँववासी अपने ‘घट’ भी चलाया करते थे। फिर आई ‘विकास की सड़क’ और उसके साथ ही बेतरतीब तोड़फोड़ ने उनके कई उपजाऊ खेतों को नष्ट करने के साथ-साथ स्थानीय जलस्रोतों को भी सुखा दिया। प्रस्तावित बाँध के बारे में तथा उसके सम्भावित परिणामों की उन्हें कोई जानकारी नहीं है। चर्चा के दौरान इस गाँव की सुश्री धारू देवी ने सभी महिलाओं की ओर से मुक्त स्वर में कहा “हम यहाँ से कहीं नहीं जाएँगे। जाएँगे भी कहाँ? हमें नहीं चाहिए पैसा-वैसा, हमें अपनी मट्टी में जीने-मरने दो...।”
7. बलतड़ी ग्रामसभा में स्थानीय युवक मंगल दल के मुखिया ‘किशन चन्द भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि क्षेत्रवासियों को इस परियोजना की तथा उसके परिणामों की कोई जानकारी सरकार द्वारा नहीं दी गई है।’ इस गाँव के लोगों का भी यह मानना है कि उन लोगों की सहमति एवं सलाह के बिना कोई कार्ययोजना उनके खेतों और जंगलों की छाती पर कैसे बन सकती है…?
8. तड़ी गाँव के दलबहादुर सिंह तथा सेना से सेवानिवृत्त होकर खेती बाड़ी में लगे गोपी चन्द ने कहा कि वे लोग चुप नहीं बैठेंगे तथा सरकार से इस मसले पर पूरी जानकरी की माँग करेंगे। सभी का मानना था कि ‘नदी किनारे की हमारी इस उपजाऊ जमीन को कोई कैसे उजाड़ सकता है….?’
9. ‘हल्दू’ गाँव में टीम के सदस्यों ने रात, प्रतापसिंह के आँगन में तारों की छाँव तले गुजारी। देर रात तक परिवार के सदस्यों से चर्चा करते समय 65 वर्षीय जमना देवी ने कहा : “मैं तो यहाँ से कहीं भी नहीं जाऊँगी, यहीं मेरे देवता और पितरों का वास है, मैं तो यहीं की मिट्टी और पानी में अपनी जान दे दूँगी, मगर हिलूँगी नहीं। अपने बहू-बेटों को भी ऐसा ही करने की सलाह देकर जाऊँगी।”
10. पंचेश्वर के करीब सेल ग्रामसभा के ग्राम प्रधान श्री केसर सिंह जी का कहना था कि यह हमारे ‘मानव-अधिकारों’ का सरासर हनन है और इसके लिये हम किसी स्तर तक भी संघर्ष करेंगे। सेल गाँव के ही लक्ष्मण सिंह इस मुद्दे पर बाकी लोगों से कुछ अधिक जानते हैं। उनके अनुसार उन्होंने 1982-83 के दौरान इस प्रस्तावित परियोजना के प्रारम्भिक परीक्षण दौर के ठेकों में छोटा-मोटा काम किया है।
इस परियोजना की विस्तृत जानकारी तो उन्हें या अन्य किसी गाँववासी को भी नहीं है।
इस प्रकार से सभी गाँवों में पुरुषों एवं महिलाओं ने टीम के सदस्यों को यह बताया कि
1. इस प्रस्तावित परियोजना की उन्हें सरकार द्वारा कोई प्रमाणित, जानकारी नहीं दी गई है। सभी ने इससे सम्बन्धित जानकारी प्राप्त करने की इच्छा जाहिर की है।
2. सभी ग्रामवासियों ने विशेषकर महिलाओं ने तो अपने इस पर्वतीय क्षेत्र से हटने की सम्भावनाओं से साफ इन्कार किया है।
3. महिलाओं की आस्था है कि हमारे देवता इस बाँध को नहीं बनने देंगे। आखिर हमारे देवस्थानों और पितृभूमि को कोई कैसे डुबा सकता है…?
पाठकों को यह ही चौंका देने वाली बात लगेगी कि ‘प्रजातंत्र’ एवं ‘पंचायती-राज’ के मंत्र का निरन्तर ‘जप’ करने वाले दो महान देशों की सरकारें तथा संविधान के संरक्षक किस प्रकार से सीधे-सादे गाँव वासियों के मानव अधिकारों को नजरअन्दाज करके इन बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को लोगों पर थोपने का प्रयास कर रहे हैं।
इस टीम के सदस्य, सभी संवेदनशील नागरिकों से यह अपील करते हैं कि :
1. इस प्रस्तावित ‘महाकाली-परियोजना’ को जन-आकांक्षाओं के विरुद्ध स्वीकृति देने का विरोध किया जाए।
2. तथा इससे सम्बन्धित सभी जानकारी प्रभावित होने वाले क्षेत्रवासियों को तत्काल उपलब्ध कराने के लिये प्रयास किए जाएँ।
हमारा मानना है कि :
जैविक विविधता से परिपूर्ण एवं भूकम्प की दृष्टि से अति-संवेदनशील इस हिमालयी क्षेत्र में ऐसी कोई भी बड़ी परियोजना को स्वीकृति मिलने से रोका जाए।
अध्ययन टीम के सदस्य
राधा भट्ट, रमेश पंत, सुरेश भाई, मनोज पाण्डे।
सम्पर्क पता
हिमालय सेवा संघ, 15 राजघाट कॉलोनी, नई दिल्ली - 110002, फोन : 3319685
सहयोगी संस्थाएँ
हिमालय सेवा संघ, सर्विस सिविल इन्टरनेशनल एवं हिमालयी पर्यावरण शिक्षण संस्थान। मुद्रण सहयोग ‘अंकुर’
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