केरल के पश्चिमी घाट में अपने खेतों में फसल काटने वक्त 70 साल की कलिअम्मा नंजन गाना गाती हैं। वे बड़ी चतुराई से पलक्कड़ जिले की अट्टापड़ी की ढ़लानों का पता लगाती है। उनके 3.5 एकड़ के खेत हैं। खेतों में जाते ही वे काम में जुट जाती हैं, जिससे उनके सिल्वर चमकीले बाल और चमकीली साड़ी का रंग फीका पड़ने लगता है। उन्होंने एक-एक एकड़ में धान, सामा और रागी उगाया है, जबकि शेष बचे खेत में रोजाना उपयोग की सब्जियां, बीन्स, दाल और मकई लगाई हैं। ‘पंचऋषि’ पारंपरिक और सतत कृषि पद्धतियों को पुनर्जीवित और मुख्यधारा में जोड़ने के लिए कृषि-विविधता को कलिअम्मा बढ़ावा दे रही हैं। इसके लिए वें कुदुम्बश्री मिशन के साथ ‘मास्टर किसान’ के रूप में एक अनूठी परियोजना का हिस्सा है। वास्तव में ये एग्रोबायोडाइवर्सिटी का फार्म उनका अपना स्वर्ग है।
एग्रोबायोडायवर्सिटी विभिन्न जैविक संसाधनों का निरंतर प्रबंधन है, जिसमें खेतों और जंगलों के भीतर बहु-फसल, पेड़, जड़ी-बूटियाँ, मसाले, पशुधन, मछली की प्रजातियाँ और गैर-घरेलू संसाधन शामिल हैं। कुदुम्बश्री परियोजना कृषि उत्पादकता को बढ़ाती है, पोषण सुरक्षा को बढ़ावा देती है और दूरदराज के क्षेत्रों में रह रहे आदिवासी समुदायों के इन उत्पादों को बाजार तक पहुंच प्रदान कराती है।
भूख मिटाने के लिए एग्रोबायोडायवर्सिटी
कुदुम्बश्री केरल की एक परियोजना है, जिसमें 4.3 मिलियन से अधिक सदस्यों के साथ महिलाओं के सशक्तीकरण और गरीबी उन्मूलन के लिए कार्य किया जा रहा है। इसने पलक्कड़ में 745 वर्ग किमी अट्टापड़ी ब्लाॅक में रहने वाली आदिवासी महिलाओं के लिए 2017 में विशेष परियोजनाएं शुरू की हैं। कुदुम्बश्री के जिला कार्यक्रम प्रबंधक शिथिश वीसी ने बताया कि ‘‘आदिवासी इलाकें सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहे हैं। इन्हीं मुद्दों का पता लगाने के लिए ये कार्यक्रम शुरु किया गया।’’ पंचकृषि प्रोग्राम सतत कृषि और जैव रासायनिक विविधता के संरक्षण पर केंद्रित है, जिससे किसानों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है और बाजार तक उत्पाद बेचने के लिए उनकी पहुंच भी आसान हो जााएगी। वास्तव में पश्चिमी घाट एक एग्रोबायोडाइवर्सिटी का एक हाॅटस्पाॅट है और अट्टापड़ी में पंचकृषि जैसे स्वदेशी तरीके से यें सुरक्षित हैं।
अट्टापड़ी में 10,000 से अधिक आदिवासी रहते हैं, लेकिन अधिकांश ने खेती छोड़ी दी है। भूमि विवाद, सघन खेती, आदिवासी इलाकों को हाशिए पर रखने के कारण सामाजिक व आर्थिक स्थिति बिगड़ रही है, जिससे कुपोषण, बाल मृत्यु और भूमि संकट के कारण खाद्य संकट गहरा रहा है। साथ ही पारंपरिक खेती को भी नुकसान हो रहा है। अट्टापड़ी में 58 लोगों को कुपोषण का दावा होने के बाद 2012-2014 यहां कुदुम्बश्री परियोजना शुरु की गई। पलक्कड़ में जिला मिशन समन्वयक साईं दलवी ने बताया कि कहा कि ‘‘इस परियोजना के लिए कुदुम्बश्री ने अपना समुदाय-आधारित नेटवर्क संगठित किया और राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत महिला किसान सुरक्षा योजना के साथ गठबंधन किया। यहां 192 बस्तियों और 840 हेक्टेयर से ज्यादा में पंचकृषि खेती होती है, जिनमें दाल, कंद, धान, बाजरा, और सब्जियों का उत्पादन किया जाता है। बायोवर्सिटी इंटरनेशनल से जुड़े जेनेटिसिस्ट रामानाथ राव ने बताया कि ‘‘सरकार और किसान संगठनों को आधार बनाने की जरूरत है, लेकिन किसानों को स्वायत्तता होनी चाहिए।’’
एग्रोबायोडायवर्सिटी को मुख्यधारा में लाना
रामानाथ राव ने कहा कि ‘‘हमें ध्यान देना चाहिए कि किसान क्या चाहते हैं।’’ उत्पादन उन्मुख कृषि ने पर्यावरण संरक्षण और प्रकृति संरक्षण से समझौता करते हुए कृषि और किसानों के कल्याण को एक प्रकार से नुकसान पहुंचाया है, लेकिन इन पहलुओं को हमने एकीकृत दृष्टिकोण के बिना असमान रूप से देखा है।’’ 2016 में प्रकाशित ‘मेनस्ट्रीम एग्रोबायोडायवर्सिटी इन सस्टेनेबल फूड सिस्टम्स’ में आपसी लाभ के लिए अन्य क्षेत्रों में मुख्यधारा में जैव-विविधता के विशिष्ट घटकों को एकीकृत करना शामिल है। हालाकि ये एक पद्धति या दृष्टिकोण नहीं है, जो एक ही आकार में सभी में फिट बैठे। सरकारें, किसान संगठन और उपभोक्ता संगठन ऐसे कार्यक्रमों और नीतियों को प्रभावित कर सकते हैं, जो पर्यटन, संरक्षण, उत्पादकता में वृद्धि, लचीलापन, जलवायु परिवर्तन शमन या अनुकूलन, पोषण सुरक्षा, खाद्य संप्रभुता या गरीबी उन्मूलन के साथ कृषि विविधता को जोड़ सकते हैं।
केरल में एमएसएसआरएफ क्म्युनिटी एग्रोबायोडायवर्सिटी सेंटर इन वायनाड के निदेशक शकीला वी. ने बताया कि बड़े पैमाने पर कच्चे माल का उत्पादन और माइक्रो-क्राॅपिंग के लिए संसाधनों का अकुशल व ज्यादा उपयोग ने पर्यावरण और किसानों पर दीर्घकालिक प्रभाव डाला है। दशकों से पश्चिमी घाटों में भी वायनाड में रबर, काली मिर्च, चाय और चावल का गहन उत्पादन होता आया है। दरअसल, शकीला छोटे किसानों को पारंपरिक कृषि-विविधता का ज्ञान उपयोग करने और सतत खेती का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित करती है तथा वायनाड में पाई जाने वाली फसलों, पेड़ों और जंगली पौधों की 1,000 से अधिक प्रजातियों के संरक्षण की देखरेख करती है। केरल में किए गए अध्ययनों से प्रजातियों की संख्या में वृद्धि और पौधों के घनत्व में कमी के साथ आकार में वृद्धि हुई है और पौधों की कुल संख्या 600 प्रति हेक्टेयर से अधिक हो गई है। यहां इंसानों के भोजन के रूप में दर्ज 5000 से 70000 पौघों की प्रजातियां हैं। ये दुनिया के आधी पौधों की प्रजातियों से प्राप्त कैलोरी चावल, गेहूं और मक्का प्रदान करते हैं। खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार 1990 के दशक से किसानों ने आनुवंशिक रूप से समान, उच्च उपज वाली किस्मों के लिए स्थानीय किस्मों और भूमि को छोड़ दिया है, जिस कारण 90 प्रतिशत से अधिक फसल किस्में और 75 प्रतिशत से अधिक पौधों की आनुवंशिक विविधता खो गई है। विश्व आर्थिक मंच के अुनसार ‘कृषि क्षेत्र के 800 मिलियन से अधिक लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं।’
पोषण का पूरा ध्यान रखती हैं महिलाएं
शोध से पता चला है कि दुनिया भर में महिला किसान और स्वदेशी लोग कृषि-विविधता के ज्ञान और संरक्षण में सबसे आगे हैं। विशेष रूप से छोटे भू-भाग में, जहां वे पौधों की किस्मों का चयन, सुधार और अनुकूलन करते हैं, पशुधन का प्रबंधन करते हैं और भोजन, चारा व दवा के लिए उपयोग किए जाने वाले जंगली पौधों का अधिक विशिष्ट ज्ञान रखते हैं। राव ने बताया कि खेती में जेंडर (लिंग- महिला व पुरुष) भूमिकाओं को स्वीकार करना किसी भी परिवर्तन को प्रभावित करने के लिए आवश्यक है। ऐतिहासिक रूप से, महिलाओं ने अपने परिवार के पोषण और स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित किया है। इन जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न प्रकार की फसलों और जंगली और अर्ध-जंगली पौधों को लगाने के लिए प्राथमिकता दी है। अगाली ब्लाॅक के 66 वर्षीय सीमांत किसान पूनमा ने पूछा कि ‘अगर मैं केवल केले या चावल लगाता हूं, तो मैं बाकी साल क्या खाऊंगा। मैं जितनी संभव हो उतने किस्मों को उगाता हूं, इसलिए हमें भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। मैं बाजार से शायद ही कुछ खरीदता हूं।’ अगाली की महिला किसान उन लोगों में से हैं, जिन्होंने पंचकृषि का त्याग नहीं किया है। दालवी ने कहा कि हमारा उद्देश्य उन लोगों को ढूंढना है, जो इसे अभ्यास करते हैं और अगली पीढ़ी के किसानों को प्रशिक्षित करते हैं।
अपने पड़ोसियों की तरह पूनमा के पास भी अपने परिवार की पोषण संबंधी जरूरतों को सुरक्षित करने के लिए मुर्गियाँ, बकरियाँ और गाय हैं। उन्होंने कहा कि यदि कीट के हमले, बारिश या अन्य अप्रत्याशित कारणों से एक फसल खराब होती है, तो दूसरी फसल सफलतापूर्वक हो जाती है। उदाहरण के लिए, इस मौसम में कलिम्मा की फसल में 40 किलोग्राम धान, 50 किलोग्राम मकई, 30 किलोग्राम दालें, 15 किलोग्राम बीन्स और 180 किलोग्राम से अधिक सब्जियां शामिल हैं। इसका अधिकांश हिस्सा उसके परिवार के उपयोग के लिए बचा लिया जाता है और बाकी बेच दिया जाता है। हाल ही में आई बाढ़ से उपज पर असर पड़ने के बावजूद, ये उसके परिवार के दस से अधिक सदस्यों के खाने के लिए पर्याप्त है। उदाहरण के लिए, बाजरा जैसी फसलें उतनी प्रभावित नहीं होती। क्योंकि बाजरा उष्ण जलवायु की फसल है। यह कम वर्षा में लगाया जाता है। इसमें ज्वार से अधिक सूखा सहने की क्षमता होती है। उत्तर भारत में खरीफ के मौसम में ही बाजरे की खेती होती है और ये पोषक तत्वों से भरपूर होती हैं।
वैश्विक तापमान में वृद्धि के करण केरल के पलक्कड़ को भी जलवायु परिवर्तनशीलता का सामना करना पड़ रहा है। पहले ये इलका सूखे और पानी की कमी से प्रभावित था, लेकिन बाद में आई बाढ़ ‘खेती’ प्रभावित हो रही है। कम उत्पादन के बावजूद, पंचकृषि ने अब तक इन महिलाओं को खेती पर जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम करने और पहचानने में मदद की है।
बाजार से जुड़ने का महत्व
मास्टर किसान के रूप में कलिअम्मा का काम युवा किसानों और छात्रों को अपना पंचकृषि ज्ञान प्रदान करना है। उनके अनस्क्रिप्टेड सिलेबस में विभिन्न प्रकार के अनाज, दालें और सब्जियों की बहु-फसली तकनीक तथा मौसम पढ़ना, मृदा स्वास्थ्य का आंकलन, खेत के कचरे को खाद में बदलना और उनके खेत के पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित करना शामिल है। हालाकि इसके लिए प्रशिक्षण पर्याप्त नहीं है। आदिवासी किसानों को मुख्यधारा में लाने के लिए, बाजार से जुड़ाव सुनिश्चित करने में किसान संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण है। कुदुम्बश्री पश्चिमी घाट के उत्पादों का प्रतिनिधित्व करते हुए ‘इन-हाउस ब्रांड हिल वैल्यू’ के तहत अपने स्थानीय सामुदायिक रसोईघरों और खुदरा बिक्री के लिए महिलाओं के खेतों से उपज की खरीद करती है। शकीला ने बताया कि अगर किसानों की कमाई नहीं होती है, तो एग्रोबायोडायवर्सिटी की पहल काम नहीं करेगी। कमाई के लिए सप्लाई चेन और बाजार होना भी जरूरी है। उन्होंने कहा कि जब से स्थानीय उपभोक्ताओं द्वारा बाजरा की स्थानीय किस्मों को ले जाने से कलिअम्मा उत्साहित हैं। मैंने इसे बेचने का उन्हें आश्वासन दिया है। राव ने बताया कि बाजरा की कीमतें कुछ साल पहले 30-40 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़कर 100-120 रुपये तक पहुंच गई हैं, क्योंकि देशी खाद्य और उत्पादों की मांग बढ़ी है। किसानों के लिए इसका उत्पादन करना एक प्रोत्साहन है। जिससे इसे लुप्त होने से रोका जा सके। इसे हम उपयोग के माध्यम से संरक्षण कहते हैं।
मूल लेख पढ़ने के लिए देखें - Agrobiodiversity initiatives open women’s horizons in Kerala
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