ए मेघा तू पानी दे

लोक ने जीवन के विभिन्न पहलुओं को छककर जिया है। हास-परिहास के क्षण, आनन्द-उल्लास के क्षण, सुख-दुख के क्षण सब को कभी हँसकर जीया है, कभी रोकर, तो कभी गाकर। आदमी कुछ जीता है कुछ भोगता है और कुछ झेलता है। लोक इससे परे नहीं। जो कुछ आया उसे सहा और जो कुछ कहते बना, कहा।

अवर्षण तो अकाल का पर्याय होता है। पानी का न बरसना जीविका और जीवन दोनों के लिए घातक होता है। ऐसे क्षणों में कुछ टोटके, कुछ परोग जो सर्वथा लोक रीति या लोक परम्परा से जुड़े हैं उनका स्वरूप देखने को मिलता रहा है। अपने बचपन में बहुत देखा और सुना अब ये प्रथाएँ लुप्तप्राय हैं। ऐसे क्षणों में वर्षा आवाहन के जो कुछ अंश स्मृतियों में हैं उन्हें क्रमशः अंकित करने का प्रयास कर रहा हूँ।

आषाढ़ मास बिना बरसात आधा बीत जाता या आर्द्रा नक्षत्र में वर्षा न होती तो बच्चों को एकत्र करके जमीन पर पानी गिरा दिया जाता। बच्चे उसी में लोट-पोट करते, यह गीत गाते थे-

काल कलउती उज्जर धोती
ए मेघा तू पानी दे
पानी दे गुड़ धानी दे
ए मेघा तू पानी दे

कूटल जाई पेरल जाई
पीसै बदे दरेरल जाई
सबही आस लगा के बइठल
घानी घानी घानी दे
ए मेघा तू पानी दे


मेघ यानी बादल से पानी भागा जा रहा है। साथ ही गुड़ धानी (गुड़ और धनियाँ), जिसका प्रयोग गणेश पूजन में इस अंचल में होता रहा है जो सुख-समृद्धि और सम्पन्नता का प्रतीक है, की भी माँग की गई है। अन्न में धान को कूटने की बात कही गई है, गन्ना और तिलहन को पेरने की बात और दलहन के दरने के साथ गेहूं को पीसने की बात है। सबके लिए घानी की याचना है। घानी एक बार में जितना कूटा जा सके, पेरा जा सके पीसा जा सके वह मात्रा घानी कही जाती है।

यह गीत भी बच्चों द्वारा ही सम्पन्न होता रहा है। बच्चे सिवान में या किसी खुली जगह एकत्र हो दोनों हाथ फैलाकर घुमरी घुमते और गाते हैं-

आन्ही पानी आवैले
घुंघरू बजावै ले
हमनी के बान्हि बान्हि
घुमरी खेलावै ले

और इसी के साथ हाथ में हाथ थामकर बच्चे एक वृत्त बनाकर घूमते हुए गाते हैं-

बरसी बदरिया खेलई छपकोरिया,
मूसवा के बीली ओरी ताकैले बिलरिया

यानी वर्षा होगी उसमें लोग चलेंगे तो छपक-छपक होगा। चूहे के बिल की ओर बिल्ली बराबर देख रही है, क्योंकि वर्षा होगी तो चूहे की बिल में पानी जाएगा। जान बचाने के लिए चूहा बिल से निकलेगा और बिल्ली उसे पकड़ लेगी। इससे स्पष्ट होता है कि बरसात होगी।

चाक डोलै चकबन्ही डोलै
खैर पीपर कबहू न डोलै
पिपरा के आरी आरी गोर बइठावै
दिनवैं कहानी घर भरना सुनावै
बुधनी के मम्मा गइलैं पैंड़ा भुलाई
एतनै में बदरी गइल ओर माई
पानी आई, अंगने भराय जाई थरिया
बुधनी कै माई भरी घरिया पर घरिया

चाक चलती है, चकबन्धी चलती है लेकिन खैरा पीपर कभी नहीं डोलता। चरवाहे उसकी छाह में चारों ओर जानवर बिठाते हैं। दिन में ही एक चरवाहा, जिसका नाम है- घरभरना, कहानी सुनाता है। लोक मान्यतानुसार दिन में कहानी कहनी या सुननी नहीं चाहिए इससे कहने या सुनने वाले के मामा रास्ता भूल जाते हैं। इतने में बदली फिर आती है, पानी इस तरह बरसता है कि आँगन में थाली भर जाती है. भइयादूज पर बुधनी की माँ घरिया पर घरिया भरेगी। उसके भाई के मिलने के साथ अच्छी बरसात से अच्छी उपज के संकेत हैं।

बच्चे वृत्ताकार हाथ में हाथ बाँधकर खड़े होते हैं, उनमें एक बीच में रहता है। वह पहले कमर पर, फिर छाती पर, फिर कांधे पर हात रखकर संकेत करता है। एतना पानी, सभी लड़के बोलते हैं घो घो रानी। यानी उसी में रहो। फिर वह बाहर निकलने के लिए जुड़े हुए हाथों पर वार करने को कहता है, ई दुअरिया काटी। दूसरा वर्ग कहलाता है- मूसरा से मारीं। इसी में झटके से वार कर वह घेरे से बाहर हो किसी ऊँचे स्थान पर हो जाता है। ऊँचे स्थान पर पहुँचने से पहले पकड़े जाने पर फिर वहीं झेलना होगा। नहीं तो जहाँ देस निकला है वहाँ के बायें या दाहिने वाले को बीच में जाना होगा। ऊँचें जाने का मतलब वहाँ तक पानी नहीं पहुँचेगा, नीचे के लोग डूब जाएँगे।

कमर पर हाथ रखकर-एतना पानी घोघ्घा रानी
छाती पर हाथ रखकर- एतना पानी घोघ्घो रानी
कंधे पर हाथ रखकर- एतना पानी घोघ्घो रानी
ई दुअरिया काटीं मूसरा से मारीं
काट के दुअरिया भागल नोनरा पराय के
ठाढ़ भयल ऊँच के चउतरा पर जाय के

अवर्षण की त्रासदी का यह गीत


खोंतवा से आय के चिरइया माँगैं पानी
रोइ-रोइ आपनी धरती मइया माँगैं पानी
झरना उदास लागै नदिया पियासल
कुइयाँ इनार बाटैं केतनी तरासल
पोखरा पोखरिया के फटली बेवाई
देखि-देखि गइया नाहीं बछरू पियाई
दूध नाहीं होई तब कइसे जी हैं लइका
उपजी न कुच्छो घरे कइसे बनी खइका
उपजी न कुच्छो घरे कइसे बनी खइका
दइव राजा हट्ठुर जिन करा मनमानी
विनती करीला बरसाय देता पानी


गर्मी से त्रस्त चिड़िया अपने घोंसले से बाहर आकर पानी माँग रही है। रो-रो कर अपनी धरती माता पानी माँग रही है। झरने उदास हैं। नदियाँ प्यासी हैं कुएँ का जल बहुत नीचे चला गया है। पोखरे में दरारें पड़ गई हैं। गाय अपने बछड़े को दूध नहीं पिला रही है। दूध कैसे पिलाये, कहीं चारा नहीं तो दूध कहाँ से हो। दूध नहीं मिलेगा तो बच्चे कैसे जियेंगे। कुछ पैदा नहीं होगा तो घर पर भोजन कैसे बनेगा। इसलिए-हे दैव राजा! अपनी जिद छोड़कर पानी बरसा दीजिए, यही विनती है।

धूरी में गँवरइया लोटै गदहा पोतै कनई
जाम के झुराय जाली खेतवा कै सनई
बरखा न होई खेती बारी कइसे होई
झंखै रसोइयाँ घेरे छइल बटलोई
चला जलभरी करै गोठ के सिवाला
अरघा भराय के चढ़ावै फूल माला
बूड़ जाई पिण्डी त जरूर होई बरखा
उपजी फरिलिया सियाई नवा नरखा।

धूल में गँवरइया नहाये और गधा कनई (गीली मिट्टी) में लोटे, खेत में सनई जामकर सूख जाय तो वर्षा नहीं होने की उम्मीद होती है। वर्षा नहीं होगी। तो खेती कैसे होगी? खेती नहीं होगी तो अन्न पैदा नहीं होगा। रसोई घर में रखी बटुई (जिसमें भात बनता है) झंखन में पड़ी है। ऐसे में लोग अनुष्ठान करते हैं और शिवजी के मंदिर में जलभरी करते हैं। अरघा से पानी न निकले इसके लिए उसका सुराख बन्द कर देते हैं। शिवलिंग जल मग्न हो जाता है। तब वर्षा होती है। वर्षा होगी तो फसल उपजेगी। फसल उपजेगी तो नया-नया कुर्ता सिलाया जाएगा।

केथुआ कै हाथ गौड़ केथुआ कै डोली
आवै दुलहिनियाँ बइठ के खटोली
ढोवैल कहरवा त कन्हवा पिराला
अड़गुड़ रहिया में गोड़ बिछिलाला
घुंघटा उधार देखै बदरी बहुरिया
डब डब होय जाली नैन पुतरिया
जेके देखा तेही ओके देखै बदे तरसै
घेर के बदरिया झमाझम बरसै

किस चीज का हाथ पैर है किस चीज की डोली है। खटोली में बैठकर दुल्हन आ रही है। राह अड़गुड़ाह है यानी ठीक नहीं है। कहार ढो रहे हैं उनका कन्धा दुख रहा है। पाँव फिसल जाते हैं। डोली गिर जाती है। बदरी दुल्हन घूँघट उठाकर देखती है। उसकी आँखे डबडबा जाती हैं। जिसको देखे वही उसे देखने को तरसता है और बदरी घेर कर झमाझम पानी बरसती है।

दऊराजा तोंहसे बड़ा न कोई दानी
तोहईं से चलै जिनगानी कै कहानी
पेड़ पालो घास फूस चाहे होवै खरई
बँसवारी, सरपत होय चाहे नरई
फूल मुरझाय जाय पड़ले बिन पानी
जीव जन्तु होयँ चाहे चिरइ चुंगुरवा
पैंडा नापै धनियाँ कै नइहर ससुरवा
दिन गिनै भितिया पर खीच के चिन्हानी
बरखा न होई त जुलुम होई भारी
नीक नाहीं लागी तिहुआर तिहुआरी
भंम ररी सगरो, देखाय नाहीं पानी
भेज के बदरवा तू पानी बरसाय दा
धरती के लोगवा कै जिनीगी बचाय दा
नेकिया निहोरा समे तोहरइ मानी

हे दैव राजा! तुमसे बड़ा कोई दानी नहीं है। तुम्हीं से जिन्दगी की कहानी चल रही है। पेड़, वनस्पतियाँ, घास, खर, बाँस, सरपत और नरई सभी पानी न पाकर मुरझाये से हैं। जीव, जन्तु, पक्षी सभी उदास हैं। धनियाँ के नइहर और ससुराल के लोग बेचैन हैं। बिरहिन भीत पर लकीर खींचकर प्रिय के आगमन के दिन जोहर रही है। वर्षा नहीं होगी, जुलुम हो जाएगा। पैदावार नहीं होगी, लोग क्या खायेंगे? तीज-त्यौहार अच्छे नहीं लगेंगे। कहीं पानी नहीं दिखेगा तो उजाड़ खण्ड लगेगा। इसलिए बादल भेजकर पानी बरसा दीजिए, धरती के लोगों की जान बचा लीजिए। सभी नेकी-निहोरा मानेंगे।

डाढ़ो रानी झुनुन-झुनुन घुघुना बजावैं
अंगने खटोलवा पर लइका खेलावैं
गाइ-गाइ गीतिया सुनावैली कहानी
एक बेरी गइली कोहाय बरखा रानी
बहुतै चेरउरी भइलीं, भइलीं मनवनियाँ
बान्हि-बान्हि सबही चढ़ावै कचवनियाँ
बीतल असढ़वा धरतिया न भीजल
काह करेजिया न बदरी पसीजल
कइके गोहार हार लोगवा हहरलैं
दिनवाँ महिनवाँ के भहरलैं
कोखिया में अपने जोगाय के असरवा
अरज सुनावैले पसार के अंचरबा
अपजस लागै नाहीं हमरे सपनवाँ
कहि कहि बरबस ढुरू कैं नयनवाँ
करूणा भूल सुनि ममता के बानी
पिघलि बदरिया भइल पानी-पानी

डाढ़ो रानी के बारे में कहा जाता है कि ‘जहवाँ गइलीं डाढ़ो रानी उहवाँ परलै पाथर पानी।’ ऐसी ही डाढ़ो रानी घुघुना बजाकर आँगन में लेटे खटोले पर बच्चे को खेला रही थीं और गीत गाकर कहानी सुना रही थीं। यह देखकर एक बार बदरी नाराज हो गई। लोगों ने बहुत मनाया, उनको प्रसन्न करने के लिए कचवनियाँ (कच्चे चावल और घी तथा शक्कर से बना लड्डू) चढ़ाया। आषाढ़ बीत चला धरती भीगी नहीं कठ करेजी बदली तनिक न पसीजी। सब लोग गोहार लगा के विनती करके हार गये, दिन महीने ठहर गये, कोई असर नहीं हुआ। एक गर्भवती महिला अपनी कोख में पल रहे को जोगाती हुई आँचल पसारकर अरज सुनाती है। मेरे सपने को (शिशु को) अपयश न लगे कि इसके कोख में आते ही अकाल पड़ गया। उसके नैनों से आँसू की धार बह रही थी। करुणा से भरी ममता की वाणी सुनकर बदरी पिघल गई, पानी पानी हो गई यानी खूब जल बरसा। लोगों के मन में उल्लास और आनन्द समा गया, सारी उदासी मिट गई।

चारो ओर पियासल धरती पानी दो हो
बदरू पानी दा हो, सँवरू पानी दो हो,
छन-छन गोड़वा जरै न दिनवाँ चलैं डहरिया राही
जनम-जनम से तोहईं हउवा ए दुखवा कै दाही
बदरू पानी दा हो
हहरल हिया हुलासल धरती पानी दा हो
बदरू पानी दा हो सँवरू पानी दा हो
मुहवाँ बउले ताल तलइया जरै नदी कै रेता
अब कहिया ले बरखा करबा राजा हउवा चेता
बदरू पानी दा हो
सेखि पताल तरासल धरती पानी दा हो
बदरू पानी दा हो सँवरू पानी दा हो
तिरिया आँखै घरे निहारै गोसयां पड़ल दुअरवा
काम काज कै दिन पानी बिन अंखैला खेतिहरवा
बदरू पानी दा हो

मनवाँ मारि निरासल धरती पानी दा हो
बदरू पानी दा हो सँवरू पानी दा हो।
गरद खोर लुगदी उतारि के नई छींट पहिरावा
हरियर कंचन बरन चुनरिया भुइयां तनिक बिछावा
बदरू पानी दा हो
बिन हरी भरी उदासल धरती पानी दा हो
बदरू पानी दा हो सँवरू पानी दा हो

बरसात में देर होने पर लोग बादल से जल की याचना करते हैं। चारों ओर धरती प्यासी है। हे बदरू! पानी दो, हे संवरू! पानी दो। तपती डगर में चलते नहीं बनता। छन-छन पाँव जल रहे हैं। जनम-जनम से तुम्हीं इस दुख से मुक्ति दिलाने वाले हो। हुलास से भरा हिया हहर उठा है। ताल तलइया मुँह बाये हैं। नदी की रेत जल रही है। अब कब वर्षा करोगे, तुम्हीं रक्षक ही राजा हो अब तो चेतो। पाताल सोखकर धरती का जल स्तर बहुत नीचे चला गया है। किसान की पत्नी घर में बैठी तरस रही और किसान दरवाजे पर बैठा है। कामकाज का दिन है।, पानी की आस लगाये है। गर्दखोर पुरानी जीर्णशीर्ण लुगरी (पुरानी साड़ी) उतारकर नयी छींट पहिराओं। धरती को हरी चूनर पहिराओ, यानी चारों ओर हरियाली बिछा दो। बिना हरियाली के धरती उदास लगती है, इसलिए पानी-पानी धरती को तृप्त कर दो। हे बादल महाराज! तुम पानी दो, पानी दो, पानी दो।

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