भूजल की खोज और अवधारणा (Discovery and concept of groundwater in Hindi)

भूजल की खोज और अवधारणा
भूजल की खोज और अवधारणा

भूमि के नीचे पाये जाने वाले जल को ही भूजल कहते हैं। वर्षा के जल अथवा बर्फ के पिघलने से पानी का कुछ भाग भूमि द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है या कुछ जलराशि भूजल की ऊपरी परत से रिस-रिसकर जमीन के नीचे चली जाती है और यही जल भूमि जल बनता है।

उत्तर प्रदेश एक कृषि प्रधान प्रदेश है, जहां पर लगभग 23 करोड़ की जनसंख्या निवास करती है, जिसका कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 240 लाख हेक्टेयर है। प्रदेश में लगभग 70 प्रतिशत कृषि तथा लगभग 80 प्रतिशत पेयजल की आपूर्ति भूजल से होती है। गरीबी उन्मूलन एवं आर्थिक विकास की दृष्टि से भूजल एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है। सामाजिक अर्थ व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में भूगर्भ जल कई सकारात्मक प्रभाव डालता है। सिंचित कृषि निर्भर क्षेत्रों में जल स्रोतों की विश्वसनीयता और उनके परिणाम स्वरूप होने वाला उच्च उत्पाद से छोटे किसानों की आय में वृद्धि होती है, साथ ही साथ भूजल स्रोतों के विकास से दूसरे लोगों पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जल की आवश्यकता हेतु भूजल के प्राकृतिक स्रोतों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है, जिसके कारण भूजल के स्तर में निरन्तर गिरावट आ रही है।

क्यूफर्स (जलभरा / धरातलीय जल / पातालीय जल) क्या है?

यह जमीन के अंदर स्थित एक ऐसा स्थान है जहां सतही जल रिस कर भूमि के अन्दर एक स्थान पर एकत्रित होता है उसे धरातलीय जल (एक्वीफर्स) कहते हैं तथा उसमें से नलकूपों और हैण्डपम्पों के द्वारा हम उसका उपयोग करते हैं। सामान्य तौर पर इसे जलभरा / पाताल का पानी (एक्यूफर्स) कहते हैं। "भूजल पृथ्वी के अन्दर एक मीठे पानी के स्रोत के रूप में उपलब्ध एक प्राकृतिक संसाधन है।"अगर सरल भाषा में कहें तो एक्यूफर्स भूमि के अन्दर स्थित वह स्थान है जहां पर सतही जल मिट्टी की विभिन्न परतों से रिस कर इकट्ठा होता है, उस स्थान / परिक्षेत्र को ही एक्यूफर्स / जलभरा / पाताली पानी कहते हैं।

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एक्यूफर्स (जलभरा / धरातलीय जल)

सतही जल एवं भूमिगत जल में अंतर

पृथ्वी पर समस्त जल का स्रोत वर्षा है। जब वर्षा होती है तो पृथ्वी पर गिरने वाला जल धारा के रूप में प्रवाहित होकर झरनों, तालाबों अथवा झीलों में चला जाता है। यह जल सतही जल कहलाता है- उदाहरण- नदी, झील, तालाब इत्यादि।

वर्षा के द्वारा प्राप्त सतही जल का कुछ भाग धीरे-धीरे संचारित होकर गुरुत्वाकर्षण के कारण भूमि के नीचे चला जाता है। अतः भूजल बनने की यह क्रिया जलभृत कहलाती है और संचित जल भूजल कहलाता है। गुरुत्व प्रभाव के फलस्वरूप भूमिगत जल धीरे-धीरे मृदा के भीतर चला जाता है। निचले क्षेत्रों में यह झरनों एवं धारा के रूप में बाहर आ जाता है।

सतही जल एवं भूमिगत जल के मध्य मुख्य अन्तर इस प्रकार हैं:-

सतही जल एवं भूजल में अन्तर

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भूजल प्राप्त करने की विधियाँ

भूजल प्राप्त करने की अनेकों विधियाँ हैं। इनमें से सबसे अधिक सामान्य विधियाँ इस प्रकार हैं:-

  1. कुआँ खोदकरः यह प्रायः साधारणतया खुले कुएँ होते हैं जिन्हें जमीन में खोदकर या भूमिगत जल को धारण करने वाले स्तर से पानी निकालकर, उनके पानी का प्रयोग सिंचाई कार्य के लिए किया जाता है। ये मुख्यतः राज मिस्त्री द्वारा निर्मित कुएँ, कच्चे कुएँ एवं खुदाई किए हुए बोर-वेल हो सकते हैं। यह सभी कार्य निजी लोगों द्वारा अपनी उद्देश्य पूर्ति हेतु किये जाते हैं।
  2. उथला-ट्यूब-वेलः इसमें जमीन में एक बोरवेल बनाकरउसमें पाइप के द्वारा भूमिगत जल को प्राप्त किया जाता है। इसकी गहराई 60-70 मीटर से ज्यादा नहीं होती। इन ट्यूबवेलों का प्रयोग सिंचाई के दौरान 6-8 घंटे तक किया जाता है जिसमें 100-300 क्यूबिक मीटर पानी प्रतिदिन की दर से निकाला जा सकता है जिससे गड्डा खोदकर बनाये गये कुओं से 2-3 गुना ज्यादा पानी निकाला जा सकता है।
  3. गहरा ट्यूब-वेलः इसकी गहराई 100 मीटर से अधिक होती है तथा इससे 100-200 क्यूबिक मीटर पानी प्रति घंटे की दर से निकाला जा सकता है। सिंचाई के लिए इनका उपयोग दिन भर किया जाता है जो कि बिजली की उपलब्धता पर निर्भर करता है। इस ट्यूबेल से अधिक से अधिक भूमि की सिंचाई की जाती है।
  4.  हैंडपम्पः हैंडपम्प का प्रयोग ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में जहाँ भूजल स्तर काफी ऊँचा होता है प्रायः वहाँ लगाया जाता है जिसके द्वारा दैनिक उपयोग के लिए भूजल निकाला जाता है। ये हाथ से चलाये जाते हैं। इस प्रकार इनमें बिजली या अन्य किसी भी प्रकार की ऊर्जा का उपयोग नहीं होता परन्तु जल स्तर की तालिका में गिरने से इसकी मांग में निरन्तर कमी आयी है।

कृत्रिम पुनः भरण

कृत्रिम पुनःभरण (योजनाबद्ध तरीके को कृत्रिम पुनर्भरण कहते हैं) एक ऐसा तरीका है जिसमें जल को भूमि के नीचे इकट्ठा किया जाता है ताकि जल की कमी के समय इस जल को उपयोग में लाया जा सके। दूसरे शब्दों में, जलभृत का भरण करना पुनःभरण का सम्बन्ध में जल की गति मनुष्य द्वारा निर्मित उस प्रणाली से है, जिसमें सतही पानी को भूमि के अन्दर अथवा नीचे सुरक्षित रखा जाता है।

पुर्नभरण की विधियाँ - पुर्नभरण एक जल वैज्ञानिक विधि है, जिससे वर्षा जल को सतह से गहराई में लाया जाता है। आधुनिक जीवन को ध्यान में रखते हुए अब इसे कृत्रिम रूप से भरने की महत्वपूर्ण आवश्यकता है।

(क) फैले हुए बेसिन द्वारा - इस पद्धति में जमीन पर हौज बनाकर उसमें पानी को फैला (भर) दिया जाता है ताकि इसे मौजूदा भू-भाग में खुदाई कर प्राप्त किया जा सके। प्रभावी कृत्रिम पुनःभरण करने के लिये अच्छी गुणवत्ता की मृदा का होना आवश्यक है एवं पानी की परतों में अच्छी तरह रख-रखाव किया जा सके।

(ख) पुनर्भरण गर्त एवं शॉफ्ट - ऐसी दशायें जो कृत्रिम पुनःभरण के लिये सतह फैलाव विधियों के प्रयोग करने की स्थिति हो, बहुत ही दुर्लभ बात है। अक्सर कम पारगम्यता के क्षेत्रों में भूमि की सतह और वाटर टेबल होती है। इस प्रकार की परिस्थितियों में कृत्रिम पुनःभरण की प्रणालियाँ जैसे गर्त एवं शॉफ्ट प्रभावी हो सकते हैं।

(ग) खाईयाँ  - यह एक लम्बी पतली नाली की तरह होती है, जिसे हम खाई कहते हैं। जिसकी तलहटी अधिक चौड़ाई नहीं होती है। खाई पद्धति को जलवायु एवं भौगोलिक स्थिति के अनुरूप तैयार किया जाता है। इस प्रकार की खाई अधिकतर ढालू वाले स्थानों पर बनायी जाती है तथा कुछ लोग इस प्रकार की खाईयों से सिंचाई के लिए प्रयोग करते हैं तथा वर्षा के संचयन का यह एक तरीका है, जहां पर भूमि में उपलब्धता अधिक होती हैं वहां कुछ लोग बड़ी-बड़ी तथा लम्बी खाईयां भी बनाते हैं एवं ढालदार स्थानों पर पानी को एक जगह से दूसरी जगह ले जाके भी इसका उपयोग किया जाता है। ताकि खाई को उसके दिए गए स्थान पर बनाया जा सके ।

(घ) पुनर्भरण कुएँ - पुनःभरण कुओं का उपयोग सीधे पुनःभरण वाले जल को जमीन की गहराई से निकालने हेतु किया जाता है। पुनःभरण कुओं का निर्माण ऐसी जगहों पर ज्यादा प्रभावी होता है जहाँ पर मिट्टी की सतह ज्यादा मोटी है तथा जहाँ पर जलभृत यंत्र लगाये जाते हैं। ये कुएँ ऐसी जगहों पर भी लाभकारी होते हैं, जहाँ पर जमीन बहुत कम होती है। इस प्रणाली के द्वारा अधिकतम मात्रा में पुनर्भरण पानी प्राप्त किया जा सकता है।

पुनर्भरण की अन्य विधियाँ-

(क) स्ट्रीम बेड अंतःस्यंदन को बढ़ावा (प्रेरित अंतःस्यंदन) - 

इस विधि से प्रेरित पुनर्भरण एक गैलरी या कुओं की एक समांतर लाइन नदी के किनारे पर या उससे कुछ दूरी पर मिलकर बनती है। कुओं के बिना भूजल नदी की ओर बेरोकटोक बहता रहेगा। जब भूजल की थोड़ी सी मात्र इन गैलरी समान्तरों से नदी की तरफ ले जाती है, तब भूजल का नदी की ओर होने वाला पुनर्भरण कम हो जाता है। गैलरी द्वारा पानी की पुनप्राप्ति पूर्ण रूप से भूजल के कारण होती है।

(ख) संयोजी कुएँ - 

संयोजी कुँआ वह होता है जो उथले, परिरुद्ध जलभृत एवं गहरे आर्टिसियन जलभृत / पाताली पानी दोनों से मिलकर बना होता है। पानी को गहरे जलभृत से पम्प किया जाता है एवं जब इसकी सतह उथले जल तालिका से नीचे काफी कम होती है, उथले परिरुद्ध जलभृत / पाताली पानी से सीधे ही गहरे जलभृत में जल प्रवाहित हो जाता है। संयोजी कुओं द्वारा जल संवर्धन जल का रेत इत्यादि से मुक्त जल के उपयोग का लाभ प्राप्त होता है जिससे कुओं की अवरोधन सतह को नष्ट होने से काफी हद तक बचाया जा सकता है।

भूजल में आई कमी के कारण - 

  1.  यह मानव क्रियाओं द्वारा उत्पन्न हुआ संकट है। पिछले लगभग दो से तीन दशकों में, भारत के बहुत से भागों में अत्यधिक मात्रा में पानी निकालने से जल स्तर बड़ी तेजी के साथ नीचे गिरा है। भारत में तेजी से बढ़ती जनसंख्या व लोगों की जीवन शैली में आये बदलाव के कारण घरेलू जल की आवश्यकता / मांग भी बढ़ी है।
  2.  उद्योगों में पानी की बढ़ती आवश्यकता भी कुल मात्रा में वृद्धि को दिखाती है। प्रचण्ड प्रतिस्पर्धा के चलते प्रयोगकर्ता कृषि, उद्योगों एवं घरेलू सेक्टरों में पानी के बढ़ते उपयोग से भूजल तालिका (वाटर टेबल) का स्तर कम हुआ है। भूजल की गुणवत्ता भी बुरी तरह से प्रभावित हुई है, क्योंकि सतही जल का प्रदूषण काफी तेजी से फैल गया है। इसके साथ-साथ ठोस अपशिष्ट पदार्थों का निष्कासन भी भूजल को दूषित करता है, इसके कारण जल संसाधनों की गुणवत्ता में भी कमी आयी है।
  3. सतही संग्रहण की तरह, भूजल का संग्रहण भी अत्यंत धीमी गति से होता है। भूजल के दो घटक हैं, एक स्थिर भाग एवं दूसरा गतिशील भाग जो वार्षिक पुनर्भरण के योग के कारण को बताता है। वार्षिक उपयोग की जरूरतों को पूरा करना जरूरी है। पानी की कमी वाले वर्षों में, जबकि स्थिर भाग के घटकों से निकाला गया जल पुनः प्राप्ति के साथ अगले आने वाले वर्षों के लिये उपयोग किया जा सकता है।

भूगर्भ जल संरक्षण - 

यद्यपि जल इस ग्रह का सर्वाधिक उपलब्ध साधन है तदापि मानव उपयोग के लिये यह तेजी से दुर्लभ होता जा रहा है। पृथ्वी का दो-तिहाई भाग जल और एक तिहाई भाग थल है। इस अपार जलराशि का लगभग 97.5 प्रतिशत भाग खारा है और शेष 2.5 प्रतिशत भाग मीठा है। इस मीठे जल का 75 प्रतिशत भाग हिमखण्डों के रूप में, 24.5 प्रतिशत भाग भूजल, 0.03 प्रतिशत भाग नदियों, 0.34 प्रतिशत झीलों एवं 0.06 प्रतिशत भाग वायुमण्डल में विद्यमान है। पृथ्वी पर उपलब्ध जल का 0.3 प्रतिशत भाग ही साफ एवं शुद्ध है। लोकनायक तुलसीदास जी ने अपने महान ग्रंथ "रामचरितमानस" में लिखा है :-

"क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा । पंच तत्व मिलि रचा शरीरा ।।"

स्पष्ट है कि बिना जल के शरीर की रचना संभव नहीं है। जब रचना ही संभव नहीं है तो जीवन का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इसीलिए जल को जीवन कहा जाता है। जल मनुष्य ही नहीं अपितु समस्त जीव जन्तुओं एवं वनस्पतियों के लिये एक जीवनदायी तत्व है। इस संसार की कल्पना जल के बिना नहीं की जा सकती है। किसी जीव व वनस्पति को हवा के बाद पानी जीवन रक्षा के रूप में सबसे ज्यादा जरूरी है। हमारे शरीर में लगभग 60 से 70 प्रतिशत एवं वनस्पतियों में लगभग 95 प्रतिशत जल पाया जाता है तथा लगभग 5700 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी पर जल की उत्पत्ति हुई थी। ऋग्वेद में भी लिखा गया है कि "सलिल सर्वमाइदम" अर्थात जल सृष्टि के आरंभ से ही है।

जब से पृथ्वी बनी है पानी का उपयोग हो रहा है। ज्यो-ज्यों पृथ्वी की आबादी में वृद्धि एवं सभ्यता का विकास होता जा रहा है, पानी का खर्च बढ़ता जा रहा है। आधुनिक शहरी परिवार प्राचीन खेतिहर परिवार के मुकाबले छः गुना पानी अधिक खर्च करता है। संयुक्त राष्ट्र संगठन का मानना है कि विश्व के 20 प्रतिशत लोगों को पानी उपलब्ध नहीं है और लगभग 50 प्रतिशत लोगों को स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है। मानव जिस
तीव्र गति से जलस्रोतों को अनुचित शैली में दोहन कर रहा है वह भविष्य के लिये खतरे का संकेत है। इसलिये मानव जाति को वर्तमान एवं भावी पीढ़ी को इस खतरे से बचाने के लिये जल संरक्षण के उपायों पर सबसे अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।

बोरिंग अथवा नलकूपों के माध्यम से अत्यधिक पानी निकालकर हम कुदरती भूगर्भ जलभण्डार को लगातार खाली कर रहे हैं। शहरों में कंक्रीट का जाल बिछ जाने के कारण बारिश के पानी के रिसकर भूगर्भ में पहुंचने की संभावना कम होती जा रही है। इन परिस्थितियों में हम वर्षा के जल को भूगर्भ जलस्रोतों में पहुँचाकर जल की भूमिगत रिचार्जिंग कर सकते हैं। वर्षाजल को एकत्रित करने की प्रणाली चार हजार वर्ष पुरानी है। इस तकनीक को आज वैज्ञानिक मापदण्डों के आधार पर फिर पुनर्जीवित किया जा सकता है। भूगर्भ जल रिचार्जिंग की विधियाँ निम्नलिखित हैं:-

  1.  रिचार्ज पिट
  2.  रिचार्ज ट्रेंच
  3. रिचार्ज ट्रेंच कम बोरवेल
  4.  तालब, पोखर, सूखा कुआँ, बावली
  5. सतही जल संग्रहण, छोटे-छोटे चेक डेम
  6.  भूगर्भ जल रिचार्जिंग की कोई भी विधि

यह तकनीक स्थानीय हाइड्रोजियोलॉजी पर निर्भर करती है। भूगर्भ अपनाने के लिये निर्माण कार्य महीने से सवा-महीने में पूरा हो जाता है। छोटे अथवा मध्यम वर्ग के घरों की छत पर गिरने वाले बारिश के पानी को सिर्फ एक बार कुछ हजार रूपये खर्च करके भूगर्भीय जलस्रोतों में पहुँचाया जा सकता है। इस कार्य को करने के लिये यह जानकारी होना आवश्यक है कि किस इलाके में कौन सी विधि वैज्ञानिक पैमाने पर उपयुक्त रहेगी और छत का क्षेत्रफल कितना है। उदाहरण स्वरूप 1000 मिलीमीटर वर्षा होने पर घर की तकरीबन 100 वर्गमीटर क्षेत्रफल की छत पर, हर वर्ष बरसात में एक लाख लीटर जल गिरता है जो सीवरों व नालों में बहकर व्यर्थ चला जाता है। वर्षाजल संचयन की विधि अपनाकर इसमें से 80,000 लीटर पानी को भूजल भण्डारों में जल की भावी पूँजी के रूप में जमा किया जा सकता है।

यदि घर ऐसे क्षेत्र में है जहाँ सतह से थोड़ी गहराई पर ही बालू का स्तर मौजूद है अर्थात उथले स्तर वाले क्षेत्र हैं, तो रिचार्ज पिट फिल्टर मीडिया से भरा 02 से 03 मीटर गहरा गढ्ढा बनाकर छतों पर गिरने वाले वर्षाजल को जमीन के भीतर डायवर्ट किया जा सकता है। यदि छत का क्षेत्रफल 200 वर्गमीटर हो तो रिचार्ज पिट के बजाय बगीचे के किनारे ट्रेंच बनाकर बारिश के पानी को रिचार्ज किया जा सकता है। इसमें भी ट्रेंच में फिल्टर मीडिया (विभिन्न साइज के ग्रेवल) भरा जायेगा। जिन इलाकों में बालू का संस्तर 10 से 15 मीटर या अधिक गहराई पर मौजूद है अर्थात गहरे स्तर वाले क्षेत्र में वर्षाजल संरक्षण के लिये एक रिचार्ज चैम्बर बनाकर बोरवेल के जरिये रिचार्जिंग कराई जा सकती है।

जल संरक्षण के छोटे व आसान तरीके

  1. घर के लॉन को कच्चा रखें।
  2.  घर के बाहर सड़कों के किनारे कच्चा रखें अथवा लूज स्टोन पेवमेंट का निर्माण करें।
  3.  पार्कों में रिचार्ज ट्रेंच बनाई जाये।

किसानों द्वारा जल संरक्षण के उपाय

  1. फसलों की सिंचाई क्यारी बनाकर करें।
  2. सिंचाई की नालियों को पक्का करें।
  3. बागवानी की सिंचाई हेतु ड्रिप विधि व फसलों हेतु स्प्रिंकलर विधि अपनायें।
  4.  बगीचों में पानी सुबह ही दें जिससे वाष्पीकरण से होने वाला नुकसान कम किया जा सके ।
  5.  जल की कमी वाले क्षेत्रों में ऐसी फसलें बोयें जिसमें कम पानी की आवश्यकता हो ।
  6.  अत्यधिक भूगर्भ जल गिरावट वाले क्षेत्र में फसल चक्र में परिवर्तन कर अधिक जल खपत वाली फसल न उगाई जाये।
  7.  खेतों की मेड़ों को मजबूत व ऊँचा करके खेत का पानी खेत में रिचार्ज होने दें।

उद्योग एवं व्यावसायिक क्षेत्र में जल संरक्षण

  1.  औद्योगिक प्रयोग में लाये गये जल का शोधन करके उसका पुनः उपयोग करें।
  2.  मोटर गैराज में गाड़ियों की धुलाई से निकलने वाले जल की सफाई करके पुनः प्रयोग में लायें ।
  3.  वाटर पार्क और होटल में प्रयुक्त होने वाले जल का उपचार करके बार-बार प्रयोग में लायें ।
  4. होटल, निजी अस्पताल, नर्सिंग होम्स व उद्योग आदि में वर्षाजल का संग्रहण कर टॉयलेट, बागवानी में उस पानी का प्रयोग करें।

भूगर्भ जल रिचार्ज के लाभ - 

  1.  भूजल स्तर गिरावट की वार्षिक दर को कम किया जा सकता है।
  2. भू-गर्भ जल उपलब्धता व पेय जल आपूर्ति की मांग के अंतर को कम किया जा सकता है।
  3. दबाव ग्रस्त एक्विफर (भूगर्भीय जल स्तर) को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
  4.  भू-गर्भ जल गुणवत्ता में सुधार हो सकता है।
  5.  सड़कों पर जल प्लावन की समस्या से निजात मिल सकता है।
  6.  वृक्षों को पर्याप्त जल की आपूर्ति स्वतः संभव हो सकेगी।

कुछ सावधानियाँ - 

  1.  यथा संभव रिचार्ज पिट / ट्रेंच विधियों को ही प्रोत्साहित किया जाये।
  2.  रिचार्ज परियोजना में किसी तरीके के प्रदूषित तत्व भूगर्भ जल में न पहुँचे ।
  3.  छतों को साफ रखा जाये और किसी प्रकार के रसायन, कीटनाशनक न रखे जाये ।
  4. जल प्लावन से प्रभावित क्षेत्रों में रिचार्ज विधा न अपनाई जाये ।
  5.  वर्षाजल संचयन एवं रिचार्ज सिस्टम के निर्माण के साथ ही उसके आस-पास के क्षेत्र में वृक्षारोपण किया जाये।
  6.  वन विभाग के नियंत्रणाधीन छोटी पहाड़ियों तथा वन क्षेत्र में वृहद स्तर पर कंटूर बंध व वृक्षारोपण का कार्य किया जाये।
  7.  उपलब्ध परंपरागत जलस्रोतों की डिसिल्टिंग व मरम्मत का कार्य कराया जाये ।
  8.  सूखे कुँओं की सफाई करके उन्हें रिचार्ज सिस्टम के रूप में प्रयोग में लाया जाये ।
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Post By: Shivendra
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