धूल चश्मे पर थी, हम आईना साफ करते रहे

water
water

पानीयाद आ रहा है कि बचपन में कभी पढ़ा था कि लक्ष्य को हासिल करने के लिये तीन बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है। पहला है साध्य को अच्छी तरह समझना, दूसरा है साधनों का सही निर्धारण और उपयोग और तीसरा साधक की काबिलियत, उसका सही उपयोग और संजीदा तैयारी जो साध्य को हासिल करती है।

बचपन में भले ही हम उन बातों का मर्म अच्छी तरह नहीं समझते थे पर हमारे बुजुर्ग सफल लोगों की कहानियाँ सुना-सुनाकर उक्त तीनों बातों की भूमिका को गाहे-बगाहे प्रमाणित करते थे। उन सफल कहानियों को सुन-सुनकर हम लोग प्रेरित भी हुआ करते थे। हम मानते थे कि प्रत्येक काम की सफलता के पीछे उक्त बातों की ही भूमिका होती है। बुजुर्ग कहते थे कि जिसने उपरोक्त तीनों बातों को समझा और ईमानदारी से पालन किया, वह असफल नहीं होता।

पिछले कुछ सालों से देश, जल सेक्टर और खेती-किसानी की ऐसी समस्याओं से रूबरू है जो पहले कभी नहीं थी। समस्याएँ चिन्ता का विषय हैं और समाधान चाहती हैं। जल सेक्टर की समस्याओं का लक्ष्य है नदियों के कम होते प्रवाह की बहाली तथा प्रदूषित होते जलस्रोतों का शुद्धिकरण। उसकी सर्वभौम तथा सर्वकालिक उपलब्धता। वहीं खेती-किसानी की समस्या का लक्ष्य है खेती को लाभ का धन्धा बनाकर अन्नदाता को विकास की मुख्यधारा में बनाए रखना है।

जल सेक्टर की समस्याओं की कहानी कुछ अलग है। सालों से बाँधों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में तालाबों तथा स्टापडैमों पर हो रहे अन्धाधुन्ध खर्च के बावजूद, बहुत बड़ा इलाका असिंचित और मानसून की बेरुखी पर निर्भर है। देश में पेयजल संकट के नए-नए इलाके पनप रहे हैं। सूखती नदियों तथा प्रदूषित होते जलस्रोतों की संख्या बढ़ रही है। खेती, उद्योग और बसाहटों के प्रदूषित पानी को उपयोग में लाने के कारण सेहत पर खतरा बढ़ रहा है। पानी पाताल पहुँच रहा है। बादल आँख मिचौली खेल रहे हैं। बयानबाजी लोगों का मनोरंजन कर रही है।

खेती के साथ जुड़े संकट और समस्याएँ बहुआयामी हैं। उदार शर्तों पर कर्ज उपलब्ध कराने, भरपूर सब्सिडी और समर्थन मूल्य देने के बाद भी, किसानों की माली हालत में अपेक्षित सुधार नहीं हो रहा है। किसानों की आत्महत्या का ग्राफ साल-दर-साल बढ़ रहा है। किसान का खेती से मोहभंग हो रहा है। दूसरी ओर जोर है किसानों की आय दो गुना करने का। पहले बात जल सेक्टर की।

बाँधों सहित ग्रामीण क्षेत्रों में छोटी जल संरचनाओं पर उदारतापूर्वक खर्च के बावजूद भी जल संकट गहराता जा रहा है। जल संकट वाले नए इलाकों के पनपने के कारण आवश्यक है कि जल संरक्षण और उसके प्रबन्धन के मॉडल पर पुनर्विचार विचार किया जाये। उनके विकल्प के बारे में सोचा जाये। नए रास्ते तलाशे जाएँँ। मौजूदा साल का जल परिदृश्य डर पैदा करता है।

देश के अधिकांश बाँध पानी की कमी से जूझ रहे हैं। इसके अतिरिक्त सूखती नदियों तथा प्रदूषित होते जलस्रोतों की संख्या लगातार बढ़ रही है। भूजल पर आधारित कुएँ तथा नलकूपों ने अधिकांश जगह दम तोड़ना प्रारम्भ कर दिया है। उनके पानी में आर्सेनिक, फ्लोराड, नाइट्रेट के अतिरिक्त अन्य भारी धातुओं की उपस्थित दर्ज हो रही है। प्रदूषित पानी को उपयोग में लाने के कारण बीमारियों का खतरा नए संकट के रूप में सामने आ रहा है। इसीलिए बाँधों सहित नदियों और जलस्रोतों की स्थिति को बेहतर बनाने के लिये उनकी अस्मिता को लौटाया जाना बेहद जरूरी हो गया है।

नदियों का प्रवाह बढ़ाने के लिये उसके तल को गहरा करने या विशाल जलाशयों में जमा गाद को हटाने के लिये किनारे की मिट्टी हटाने जैसे दिखाऊ, अवैज्ञानिक और अस्थायी प्रयासों से बचा जाये। पानी की फिजूलखर्ची से बचा जाये। पानी का किफायत तथा बुद्धिमानी से उपयोग किया जाये। इसके लिये वही रोडमैप कारगर होगा जो पानी की सार्वभौम तथा सर्वकालिक उपलब्धता को सुनिश्चित करता है। संरचनाओं की लम्बी निरापद आयु को सुनिश्चित करता है। इसके लिये पर्यावरण पर आधारित मॉडल को अपनाना होगा। जो जहाँ है उसे वहीं पानी उपलब्ध कराना होगा। अब कुछ चर्चा खेती की।

किसानों की आय को दो गुना करने का प्रयास सर्वोच्च प्राथमिकता पर है। इस हेतु अनेक प्रयास किये जा रहे हैं। उन सभी प्रयासों के समक्ष असली चुनौती किसानों के माली हालत में अपेक्षित सुधार लाने की है। कुछ लोग मानते हैं कि माली हालत के बेहतर होने का संकेतक केवल आमदनी में इजाफा नहीं है। वह है आर्थिक स्वावलम्बन। वह है, हर सीजन के बाद होने वाली पर्याप्त बचत। पर्याप्त बचत का अर्थ है खेती और दो जून की रोटी पर होने वाले खर्च को पूरा करने के बाद बची पर्याप्त धनराशि।

यह धनराशि कम-से-कम इतनी होनी चाहिए कि किसान अपने बच्चों की उच्च शिक्षा का खर्च उठा सके। पारिवारिक जिम्मेदारियों का खर्च वहन कर सके। अस्पताल का खर्च उठा सके। उपलब्ध सुविधाओं पर आधारित खेती द्वारा यह व्यवस्था पूरी होते नहीं दिखती। यह काम, लागत के लगातार बढ़ने के कारण पूरा होता नहीं दिखता। राहत, सब्सिडी, कर्ज माफी जैसे प्रयासों के बावजूद भी पूरा होते नहीं दिखता। खेती से बढ़ता मोहभंग और किसानों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति इसका सटीक प्रमाण है।

उल्लेखनीय है कि उद्योगों को सस्ती जमीन, सस्ती बिजली, टैक्स में छूट जैसी अनेक सुविधाएँ दी जाती हैं। इसके बावजूद वे ही औद्योगिक इकाइयाँ सफल हो पाती हैं जो पर्याप्त मुनाफा कमाती हैं। सभी औद्योगिक इकाइयाँ अपने उत्पाद का मूल्य तय करती हैं। वे समर्थन मूल्य के दायरे में नहीं आती। औद्योगिक इकाइयों का मालिक अपने उत्पाद का मूल्य तय करते समय खरीददार की जेब पर पड़ने वाले बोझ की चर्चा नहीं करता। वह महंगाई बढ़ने की भी चर्चा नहीं करता। यह अन्तर इंगित करता है कि किसान और उद्योगपति के लिये मूल्य निर्धारण की अलग-अलग व्यवस्था है।

व्यवस्था के उक्त अन्तर के कारण, औद्योगिक इकाइयों के मालिक फल-फूल रहे हैं। किसान कर्ज में डूब रहा है। उसे अपने श्रम, समय तथा उत्पाद का सही मूल्य नहीं मिल रहा है। उसके लिये जीवन को सुरक्षा प्रदान करती बचत भी सुनिश्चित नहीं है। यदि यही होता रहा तो खेती से किसानों के होते मोहभंग का दायरा और बढ़ेगा।

लोग खेती से विमुख होंगे और इसकी कीमत होगी भविष्य में अन्य देशों से बड़ी मात्रा में अनाजों का आयात। यह दुखद होगा। साधक को चाहिए कि वह साध्य (लक्ष्य) को हासिल करने के लिये साधन (इनपुट और मौजूदा व्यवस्था) में आमूल-चूल बदलाव करे। नए तरीके से विचार करे। किसानों के लिये वही व्यवस्था कारगर होगी जो पर्याप्त बचत सुनिश्चित करती है। इसके लिये उस जादुई ताकत को किसान के साथ में सौंपना होगा जो आज बाजार के हाथों में है।

लगता है उचित समय आ गया है। अब हमें साध्य, साधन और साधक के रिश्ते को सामने रखकर जल और कृषि सेक्टर के लिये निर्धारित किये लक्ष्यों को हासिल करने के लिये अपनाए जा रहे तरीकों (नीतियों और योजनाओं के औचित्य) पर पुनर्विचार करना चाहिए। उनकी निष्पक्ष समीक्षा करनी चाहिए। उनमें आवश्यक बदलाव करना चाहिए क्योंकि इतनी लम्बी यात्रा तय करने के बाद लग रहा है कि सम्भवतः साध्य पर सही फोकस का अभाव है। साध्य (लक्ष्य), साधन और साधक में तालमेल के अभाव के कारण हम शायद भटक रहे हैं।

इसी कारण पानी की कुदरती व्यवस्था तथा उपलब्धता धार खो बैठी है। वह बेपटरी हो गई है। इसी किस्म के भटकाव के कारण हम प्रकृति विमुख खेती को साध्य मान बैठे हैं। इसके कारण होने वाली हानि से समझौता कर रहे हैं और कृत्रिम खेती के पीछे भाग रहे हैं। लगता है, सही फोकस के अभाव तथा बाजार के मायाजाल में, साध्य, साधन और साधक, मानो कहीं खो गए हैं। ऐसे हालात में लोगों को लग सकता है कि धूल चश्में पर है और हम बरसों से आईना साफ कर रहे हैं।

 

 

 

TAGS

policies for water conservation, techniques, farmer’s suicide, decreasing income of farmers, minimum support price, government policies for water conservation in india, water conservation policy example, laws passed by government of india to save water, national water policy 2017, government policies on water conservation, water policy pdf, national water policy 2017 india, national water policy 2012 upsc, farmers suiciding in india essay, farmers suiciding in india 2017, farmers suiciding in india statewise, effects of farmers suiciding in india, farmers suiciding in india introduction, farmers suiciding in india ppt, farmers suiciding in india pdf, prevention of farmers suiciding in india, annual income of a farmer in india, doubling farmers income by 2022 essay, doubling farmers income by 2022 ppt, doubling farmers income pdf, doubling farmers income ppt, doubling farm income by 2022, doubling farmers income committee, farmer income in india, minimum support price upsc, minimum support price wiki, minimum support price 2017-18 pdf, minimum support price rabi 2017-18, minimum support price 2018-19, minimum support price pdf, minimum support price in hindi, short note on minimum support price.

 

 

 

Path Alias

/articles/dhauula-casamae-para-thai-hama-ainaa-saapha-karatae-rahae

Post By: editorial
×