बांग्लादेश, गांबिया, मोजांबिक और नेपाल जैसे देशों ने विकसित यूरोपीय देशों के साथ मिलकर नए समझौते पर अमेरिका, चीन, भारत और ब्राजील जैसे देशों से अपील कर रहे थे कि इस दिशा में प्रभावी कदम उठाने में वे सहयोग करें। ये गठबंधन तीन बातों पर जोर दे रहा है- पहला तो ये कि क्योटो प्रोटोकॉल जिसकी प्रभावी अवधि अगले साल समाप्त हो रही है वो सार्थक रूप से जारी रहे, वित्तीय मदद को लेकर जो भी संकल्प किये गये थे वे पूरे हों और कानूनी रूप से बाध्यकारी सीमा तय करने वाली संधि जो प्रदूषण फैलाने वाले प्रमुख देशों पर रोक लगा सकें।
दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर में जलवायु परिवर्तन पर बैठक संयुक्त राष्ट्र वार्ता उपायों के एक पैकेज पर सहमति के साथ समाप्त हो गयी। मेजबान देश दक्षिण अफ्रीका के मुताबिक, संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन वार्ता में कार्बन उत्सर्जन के मुद्दे पर सहमति बनी है। इससे पहले भी कोपेनहेगन और कानकुन में इस तरह की बैठक हुई थी, जिसमें कोई ठोस नतीजा नहीं निकल पाया था। इससे पहले दक्षिण अफ्रीका ने आगाह किया था कि अगर ये वार्ता विफल होती इस पूरी प्रक्रिया पर ही संकट खड़ा हो जायेगा। आखिरकार दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर में जलवायु परिवर्तन पर हो रहा सम्मेलन कुछ मुद्दों पर सहमति के साथ समाप्त हो गया। हालांकि, शुरू में भारत और यूरोपीय संघ के बीच एक नये वैश्विक समझौते के प्रारूप की स्पष्टता को लेकर विवाद पैदा हो गया था, जिसके कारण वार्ता के संपन्न होने में देरी हुई। भारत नहीं चाहता था कि नया फ्रेमवर्क कानूनी रूप से बाध्यकारी हो। प्रारूप यूरोपीय संघ, लघु द्विपक्षीय राज्यों के संघ और अल्प विकसित देशों के गुट द्वारा तैयार किया गया था। ये तीनों संगठन इस बात को लेकर चिंतित थे कि सभी देशों को दायरे में लेने वाले नये कानूनी समझौते के बगैर वैश्विक औसत तापमान, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित, दो डिग्री तापमान की सीमा लांघ जायेगा। जिसका असर विनाशकारी होगा।इस सम्मेलन में इस बात पर सहमति बनी कि सभी देशों को दायरे में लेने वाले नये कानूनी समझौते पर वार्ता अगले साल शुरू होगी और इसे 2015 अंजाम दे दिया जायेगा। इस समझौते को 2020 से प्रभावी किया जायेगा। इसमें गरीब देशों के लिए जलवायु सहायता कोष के प्रबंधन पर भी सहमति बनी। हालांकि धन कहां से आयेगा और कैसे जुटाया जायेगा, इस बारे में कोई स्थिति साफ नहीं पायी। गौर से देखा जाये तो कहा जा सकता है इस सम्मेलन का हाल भी कोपेनहेगन और कानकुन सम्मेलन जैसा रहा, जिसमें दुनिया के देशों के नेता सहमत होने की जगह असहमत होने को ही तरजीह देते रहे। डरबन में होने वाले सम्मेलन के दौरान सबसे ज्यादा विवादित मुद्दा रहा क्योटो प्रोटोकॉल और इसका कार्यकाल क्योटो के बाद के समझौते पर सहमति। क्योटो प्रोटोकॉल का पहला कार्यकाल वर्ष 2012 में समाप्त हो रहा है। पहले प्रतिबद्धता कार्यकाल एवं दूसरे प्रतिबद्धता कार्यकाल के बीच किसी समय अंतराल की स्थिति नहीं आये, इसके लिए डरबन में क्योटो प्रोटोकॉल को लेकर निर्णय लेना जरूरी था।
डरबन सम्मेलन के दौरान क्योटो प्रोटोकॉल को दूसरा जीवनदान देने पर मुहर लग सकती थी या इसके समापन की घोषणा की जा सकती थी। सम्मेलन में जिस समझौते पर सहमति बनी उसे क्योटो प्रोटोकॉल की समाप्ति के तौर पर ही देखा जा सकता है। अब जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए एक तरह से 10 साल का ब्रेक ले लिया गया है। यह बेहद चिंताजनक ही कहा जा सकता है कि विश्व नेताओं ने जलवायु परिवर्तन की हकीकत से मुंह मोड़ लिया है। धरती के गर्म होने के सारे आंकड़े रद्दी के ढेर में डाले जा रहे हैं। यह तब हुआ है जब हर किसी को मालूम है कि पिछला दशक अब तक का सबसे गरम दशक के तौर पर दर्ज किया गया। इस दौरान जिस तरह से दुनिया के विभिन्न हिस्सों में सूखा और बाढ़ की समझ से परे घटनाएं देखी गयी, आर्कटिक और अंटाकर्टिक सहित दुनिया भर के ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार में वृद्धि हुई, गरीब देशों में मौसम की मार के कारण छोटे किसानों पर आजीविका का संकट गहराता गया और वे गरीबी के भंवर में फंसते गये, इन सब सच्चाईयों को स्वीकार करके आगे की राह निकालने की ईमानदारी विश्व नेता नहीं दिखा पाये।
विवाद के मुख्य बिंदु
अमीर और आर्थिक रूप से उभरते देश ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर कोई मुश्किल समझौता नहीं चाहते। ऐसे देश 2020 तक किसी बाध्यकारी समझौते के पक्ष में नहीं है। अमेरिका, चीन, भारत, ब्राजील यूरोपीय संघ और दर्जन भर दूसरे देश 80 फीसदी कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं। कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण को गर्म करने में मुख्य भूमिका निभाता है। अमेरिका और अन्य प्रमुख विकासशील देशों का कहना है कि इस बारे में कोई भी चर्चा अगर शुरू होनी भी है तो अभी न होकर 2015 में हो और जो भी बाध्यकारी सीमाएं तय होनी हैं, वे 2020 से लागू हों। मगर छोटे द्विपीय देश और गरीब देशों का कहना है कि तब तक काफी देर हो जायेगी, क्योंकि तापमान में डेढ़ डिग्री से ज्यादा की बढ़ोतरी हो जायेगी। गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा खतरा इन छोटे द्वीपीय देशों को ही है और आशंका जतायी जा रही है कि अगर धरती के गर्म होने की गति ऐसी ही रहे तो ये देश जल्द ही समुद्र में समा जायेंगे।
यूरोपीय यूनियन कानूनी बंदिश के लिए तो तैयार है, लेकिन उसका जोर इस बात पर है कि पर्यावरण को गंदा करने के लिए किये गये पुराने पापों को भुला दिया जाये और कुछ साल बाद (वर्ष 2015 या 2020 से) अमीर-गरीब सभी को एक समान मानकर बंदिश लगें। गरीब और विकासशील देश कहते हैं कि पहले पुराने समझौतों को लागू करो और हमें बिजली बनाने की आधुनिक तकनीक सस्ते में मुहैया कराओ, फिर आगे नई संधि करने पर बात होनी चाहिए। मजेदार बात यह है कि चीन भी (जिसका प्रदूषण अमेरिका और यूरोप की तरह धुआंधार बढ़ रहा है) इन गरीबों के पीछे छिपकर अपना हित साध रहा है, लेकिन भारत इस ताकतवर साथी को खोना नहीं चाहता। ऐसे में अमीरों को यह कहने का मौका मिल गया कि भारत और चीन जैसे देशों को भी जिम्मेदारी संभालना सीखना चाहिए, तभी बात बनेगी। इस बीच अमीर देश दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे देशों पर डोरे डाल रहे हैं, ताकि विकासशील देशों के ग्रुप में फूट पड़ सके।
क्यों जरूरी है जलवायु पर समझौता
हाल में आयी वैज्ञानिक रिपोर्टो से साफ है कि जलवायु परिवर्तन के भीषण परिणामों को कम करने के लिए तुरंत जरूरी कदम उठाये जाने जरूरी है। पांच साल के भीतर अगर कोशिशें नहीं की गयी तो बहुत देर हो जायेगी।
किसका क्या स्टैंड
भारत, चीन, ब्राजील, अमेरिका और यूरोपीय देश भी 10 साल तक कोई बाध्यकारी समझौते को तैयार नहीं हैं। यूरोप की इच्छा एक ऐसे रोडमैप के निर्माण की थी जिसके तहत 2015 तक एक नयी जलवायु नीति बनायी जायेगी और जिसे 2020 तक लागू किया जायेगा। जलवायु वार्ता में भारत की भूमिका पिछले कुछ वर्षों से लगातार सुर्खियों में रही है। गौरतलब है कि क्योटो प्रोटोकॉल पर अमेरिका के दस्तखत न करने के कारण उसे डील ब्रेकर कहा गया था। उसी तरह क्योटो से बाद के समझौते के मामले में अमेरिका के साथ भारत पर भी डील ब्रेकर का किरदार निभाने का आरोप लगाया गया। वैसे चीन भी नये समझौते को लेकर अपनी मांगों के साथ अड़ गया। डरबन में भारत और यूरोपीय संघ के बीच मतभेद की स्थिति देखी गई। सम्मेलन के दौरान भारत की पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने यह जोर देकर कहा कि किसी भी नये समझौते पर पहुंचने से पहले विकसित देशों को अपनी मौलिक प्रतिबद्धता का पालन करना चाहिए।
भारत ने अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए कहा कि वह वर्ष 2020 के बाद ही इस तरह की नयी संधि का हिस्सा बनने पर विचार करेगा, लेकिन उसके पहले विकसति देश अपना उत्सर्जन कम करें और विकासशील देशों को इसके लिए वित्तीय मदद एंव प्रौद्योगिकी उपलब्ध कराने की मौलिक प्रतिबद्धता का पालन करें। भारत यह भी चाहता है कि इस मामले में समानता, व्यापार में बाधा और बौद्धिक संपदा अधिकार से जुड़ी चिंताओं का भी समाधान किया जाना चाहिए। साथ आये यूरोप और अफ्रीकी देश डरबन में हो रहे संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में भारत, चीन और अमेरिका पर अपने कड़े तेवर कुछ ढीले करने का काफी दबाव था। यूरोपीय संघ और दुनिया के कुछ बेहद गरीब देशों ने मिलकर सम्मेलन में एक मजबूत संधि बनाने की मांग की थी। यूरोपीय देशों के अलावा अफ्रीकी और ऐशयाई देशों के मंत्रियों ने एक संयुक्त प्रेस सम्मलेन करके भारत, चीन और अमेरिका से किसी नए बाध्यकारी समझौते तक पहुंचने की अपील की थी। यह जलवायु वार्ता के मसले पर नये युग की शुरुआत जैसा था। कुछ समय पहले तक जलवायु परिवर्तन के मसले पर बहस अमीर देशों और गरीब देशों के बीच हुआ करती थी।
सब कुछ अमीर बनाम गरीब था मगर अब इस बहस का स्वर बदल गया। अब रेखा के एक ओर वो देश खड़े हैं, जो ग्लोबल वार्मिग को रोकने के लिए एक मजबूत और प्रभावशाली संधि चाहते हैं और दूसरी ओर वे देश हैं जो ऐसी कोई संधि फिलहाल नहीं चाहते। बांग्लादेश, गांबिया, मोजांबिक और नेपाल जैसे देशों ने विकसित यूरोपीय देशों के साथ मिलकर नए समझौते पर अमेरिका, चीन, भारत और ब्राजील जैसे देशों से अपील कर रहे थे कि इस दिशा में प्रभावी कदम उठाने में वे सहयोग करें। ये गठबंधन तीन बातों पर जोर दे रहा है- पहला तो ये कि क्योटो प्रोटोकॉल जिसकी प्रभावी अवधि अगले साल समाप्त हो रही है वो सार्थक रूप से जारी रहे, वित्तीय मदद को लेकर जो भी संकल्प किये गये थे वे पूरे हों और कानूनी रूप से बाध्यकारी सीमा तय करने वाली संधि जो प्रदूषण फैलाने वाले प्रमुख देशों पर रोक लगा सकें। वर्ष 2015 तक कानूनी रूप से सारे देशों पर यह जिम्मेदारी डालने की कोशिश हो रही है कि वे कार्बन उत्सर्जन कम करें।
बाध्यकारी कानून से क्या है परेशानी
मुश्किल यह है कि अमेरिका इस कानूनी बाध्यता को नहीं मानना चाहता। यूरोपीय यूनियन कानूनी बंदिश के लिए तो तैयार है, लेकिन उसका जोर इस बात पर है कि पर्यावरण को गंदा करने के लिए किये गये पुराने पापों को भुला दिया जाये और कुछ साल बाद (वर्ष 2015 या 2020 से) अमीर-गरीब सभी को एक समान मानकर बंदिश लगे। गरीब और विकासशील देश कहते हैं कि पहले पुराने समझौतों को लागू किया जाये और हमें बिजली बनाने की आधुनिक तकनीक सस्ते में मुहैया कराओ, फिर आगे नयी संधि करने पर बात होनी चाहिए।
क्लाइमेट फंड की बात
एक क्लाइमेट फंड बनाने को लेकर भी बात चल रही है। इसमें बड़े देश गरीबों के लिए चंदा देंगे, लेकिन डरबन में तो यही लग रहा है कि अमेरिका और यूरोपीय देश फिलहाल ऐसी किसी कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के लिए तैयार नहीं हैं। वे चंदे के नाम पर खाली डिब्बा दिखा रहे हैं।
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