धुंध का सच

दिल्ली के आस-पास बढ़ता वायु प्रदूषण
दिल्ली के आस-पास बढ़ता वायु प्रदूषण
दिल्ली के आस-पास बढ़ता वायु प्रदूषण (फोटो साभार - इण्डियन एक्सप्रेस)ठंडक का अहसास हुआ नहीं कि दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों की हवा की गुणवत्ता को लेकर हाय-तौबा मचाने की शुरुआत हो चुकी है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने एक ट्वीट के माध्यम से शुक्रवार को कहा कि दिल्ली आने वाले दिनों में एक गैस चैम्बर में तब्दील हो जाएगी जिसकी वजह केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा पराली जलाने किसानों के लिये कुछ न किया जाना है। उनके जूनियर यानि दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने भी गुरूवार को किसानों को सब्सिडी नहीं दिये जाने को केन्द्र, पंजाब और हरियाणा की सरकारों की विफलता बताते हुए केन्द्र से इस मामले में हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई है। इसके अलावा पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर पराली जलाने वाले किसानों के लिये सब्सिडी की राशि बढ़ाने की माँग की है। दरअसल, किसान, पराली की समस्या से निजात पाने के लिये जरूरी कृषि यंत्रों की खरीद पर ज्यादा सब्सिडी की माँग कर रहे हैं।

पुरातन काल से फसलों की कटाई के बाद खेतों में ही खासकर दिल्ली, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पराली जलाने की चली आ रही व्यवस्था ने दिल्ली और उसके आस-पास के शहरों की हवा की गुणवत्ता को काफी प्रभावित किया है। यही वजह है कि दिल्ली के साथ ही अन्य शहरों की हवा की गुणवत्ता में निरन्तर गिरावट दर्ज की जा रही है।

पिछले एक सप्ताह में दिल्ली में हवा की गुणवत्ता में काफी गिरावट दर्ज की गई है। वर्तमान एयर क्वालिटी इंडेक्स के मुताबिक दिल्ली के लोधी रोड इलाके में पीएम 2.5 और पीएम 10 कणों की हवा में मात्रा क्रमशः 224 और 272 बताई जा रही है जो सामान्य से काफी अधिक है।

इसकी वजह पड़ोसी राज्यों में किसानों द्वारा खेतों में जलाई जा रही पराली से निकले धूलकण बताए जा रहे हैं। सेटेलाइट से लिये गए चित्र और वैज्ञानिक आँकड़े भी यही सुझाते हैं कि पराली से निकलने वाले धुएँ का असर दिल्ली पर पड़ता है जिससे खासकर अक्टूबर और नवम्बर में हवा की गुणवत्ता में काफी गिरावट आती है।

इन दिनों हवा की गति कम होने के कारण हवा वातावरण में उपस्थित धूलकणों को बहा ले जाने में सक्षम नहीं हो पाती है जो लोगों के स्वास्थ्य के लिये एक गम्भीर खतरा है। पराली से निकलने वाले धुएँ से कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसे गैस भी निकलते हैं जो वातावरण को दूषित कर देते हैं।

सरकारी आँकड़े के मुताबिक अकेले पंजाब में हर साल 15 मिलियन टन धान की पराली जलाई जाती है। इतनी बड़ी मात्रा में पराली जलाई जाने की वजह है कटवाने पर आने वाला खर्च और उसका अनुपयोगी होना है।

गेहूँ की खेती से पैदा हुई पराली का इस्तेमाल पशुचारा के लिये होता है लेकिन धान की पराली का नहीं। इसकी वजह है धान की पराली में सिलिका की मात्रा काफी अधिक होती है जो पशुओं के लिये काफी खतरनाक होता है। चूँकि किसानों को खेतों में नई फसल लगानी होती है वे खेतों में ही पराली को जला देते हैं जिससे उन्हें मजदूरी का भी बोझ नहीं उठाना पड़ता है और समय की भी बचत होती है।

1980 के दशक के बाद फसलों की कटाई में हार्वेस्टर के बढ़ते इस्तेमाल के कारण यह समस्या और भी विकराल रूप लेते जा रही है। हार्वेस्टर से कटाई के दौरान पराली का 80 प्रतिशत हिस्सा खेत में ही रह जाता है जिसे किसान वहीं जला देते हैं। इसके कारण दिल्ली और आस-पास के इलाके तो धुएँ की परतों से भर जाते हैं।

इस समस्या की गम्भीरता को देखते हुए पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के विशेषज्ञों ने दो मशीनों को विकसित किया है जिन्हें हैप्पी सीडर और स्ट्रॉ स्प्रेडर का नाम दिया गया है। हैप्पी सीडर बिना पुआल हटाए गेहूँ की बुआई करने में सक्षम है। जब पराली को हार्वेस्टर में फिट किया गया स्ट्रॉ स्प्रेडर समान रूप से फैला देता है तो हैप्पी सीडर और भी अच्छा परिणाम देता है।

दरअसल, हैप्पी सीडर और स्ट्रॉ स्प्रेडर संयुक्त रूप से इस समस्या का पर्यावरण हितैषी समाधान हैं। इसके इस्तेमाल से पराली को जलने की बजाय खेतों में ही छोड़ दिया जाता है जिससे मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार होता है। फसलों की खाद पर निर्भरता कम होती है और कार्बन डाइऑक्साइड या अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भी कमी आती है। लेकिन यह तकनीक खेतों में पराली जलाने की प्रथा पर अंकुश लगाने में नाकाफी साबित हो रही है। इसकी वजह है इसकी कीमत का अधिक होना।

सरकार ने इस तकनीक को बढ़ावा देने के लिये इसकी खरीद पर 50,000 रुपए सब्सिडी देने की घोषणा की है फिर भी किसानों को इसकी खरीद पर 10,0000 रुपए का भुगतान करना पड़ता है। एक सरकारी आँकड़े के मुताबिक पंजाब और हरियाणा के कुल धान बुआई क्षेत्र के मात्र 1.7 प्रतिशत हिस्से में ही इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। इस तकनीक की विफलता की एक बड़ी वजह केन्द्र तथा इस समस्या से ग्रसित राज्य सरकारों के बीच भी सहयोग न होना बताया जा रहा है। हालांकि इन यंत्रों की खरीद पर सब्सिडी देने के लिये केन्द्र ने राज्यों को 591 करोड़ रुपए का बजट मुहैया कराया है।

इतना ही नहीं केन्द्र सहित पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने जीरो टोलेरेंस की पॉलिसी अपनाते हुए खेतों में पराली जलाने वाले किसानों पर आर्थिक रूप से भी दंड लगाने का प्रावधान किया है। इस पॉलिसी के अन्तर्गत ऐसा करने वाले किसानों पर 2500 रुपए प्रति एकड़ फाइन लगाने का प्रावधान है। इस वर्ष अब तक पंजाब में तीन लाख रुपए से ज्यादा का फाइन भी वसूला गया है लेकिन यह भी नाकाफी साबित हो रहा है।

पंजाब में इस बार 30 मिलियन क्षेत्र में धान की फसल उगाई गई है जो पिछले साल की तुलना में एक लाख मिलियन हेक्टेयर ज्यादा है। 14 अक्टूबर को नासा द्वारा जारी किये गए सेटेलाइट इमेज में दिखाया गया है कि किस तरह पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में पराली जलाने से धुंध का असर बढ़ रहा है। हालांकि इस इमेज के माध्यम से यह कहा जा रहा है कि इस बार धुंध में पिछले साल की तुलना में कमी आई है।

पराली के जलने से निकलने वाला धुआँ लोगों के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव डाल रहा है। 2016 में पंजाब में किये गए एक सर्वे के दौरान यह पाया गया कि बड़ी संख्या में लोग साँस सम्बन्धी बीमारियों से ग्रसित हो रहे हैं। इस सर्वे में शामिल आठ हजार से ज्यादा लोगों में 84 प्रतिशत लोग साँस सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं से ग्रसित पाये गए। देश की राजधानी दिल्ली भी इससे खासी प्रभावित हो रही है।

पिछले साल छाई धुंध के कारण दिल्ली के निवासियों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ा था। सरकारी आँकड़े की माने तो दिल्ली जाड़े के दिनों में छाने वाली धुंध का 17 से 72 प्रतिशत हिस्सा पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा जलाई जाने वाली पराली से पैदा होता है।


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