धुन्ध धुआँ और 24 घंटे

स्मॉग
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जहाँ तक बात इन रिपोटर्स की है, तो मैं उन पर पूरा भरोसा नहीं करता। कभी-कभी इन्हें बढ़ा-चढ़ाकर भी पेश किया जाता है। हाँ, मैं यह मानता हूँ कि हमारे देश में प्रदूषण भंयकर समस्या है, लेकिन हर प्रकार की मौत को केवल प्रदूषण से जोड़ देना सही नहीं। वहीं, यह सच है कि प्रदूषण श्वास, अस्थमा आदि बीमारियों को बढ़ाने का काम करता है। -डॉ. अनिल कुमार सिंह, रीजनल ऑफिसर, उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड

धुन्ध है, धुआँ है और धुएँ में दफन होती सांसें मिन्नतें कर रही हैं कि धुआँ छटे। लेकिन, ये धुआँ अब हमारे परिवेश का हिस्सा बन चला है। यह हमारी हर हरकत से 24 घंटे जुड़ा है। फिल्म ‘गमन’ में एक गीत है, “सीने में जलन आखों में तूफान सा क्यों है, इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है?” यह गाना सबको अपनी कहानी सी लगती है। आज हमारे दिन की शुरुआत यह पता करने से होती है कि आज शहर की आबोहवा कैसी है? आसमान में धुन्ध और धुआँ कितना है? आलम यह हो चला है कि हम घर से बाहर निकलने से पहले जानना चाहते हैं कि हवा में कितना जहर है, फिर देखते हैं कि जहर से बचने के इन्तजाम क्या हैं और बाहर निकलना ही पड़ा तो कितना जहर झेल पाएँगे।

हर रोज पता चलता है कि देश का दिल कहे जाने वाले दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले लोगों के दिल, दिमाग, फेफड़े और पूरे शरीर पर धीरे-धीरे हवा में घुले जहर का बहुत बुरा असर हो रहा है। सरकार भी अभी तय नहीं कर पा रही है कि क्या करें, जिससे देश के दिल की सेहत सम्भाली जा सके। हाथ में कैलेंडर लें और किसी भी महीने की किसी भी तारीख पर आँखें बन्दकर उंगली रखें, यकीन मानिए उस दिन का एयर क्वालिटी इंडेक्स यही बताएगा कि शहर की हवा सेहत के लिये हानिकारक है।

हालांकि, अब बात सिर्फ दिल्ली की ही नहीं रह गई है, बल्कि पूरा देश ही धुन्ध और धुएँ के जोखिमों से जूझ रहा है। लेकिन रह, रहकर दिल्ली-एनसीआर का जिक्र इसलिये होता है क्योंकि यहाँ कि आबोहवा के हालात दिन-ब-दिन बदतर हो रहे हैं। यह एक दिन का सिलसिला नहीं है, जैसे-जैसे सर्दी बढ़ेगी, शहरों की हवा और खराब होती जाएगी।

याद होगा, जब पिछले साल दिसम्बर में भारत-श्रीलंका की क्रिकेट टीमों के बीच हो रहे टेस्ट मैच के दौरान श्रीलंका के कई खिलाड़ी मुँह पर मास्क पहनकर मैदान पर पहुँचे थे और उनकी शिकायत थी कि उन्हें मैदान में सांस लेने में दिक्कत हो रही थी, यहाँ तक कि कुछ खिलाड़ियों को उल्टी भी हुई थी। उस समय कुछ लोगों ने श्रीलंका के खिलाड़ियों की आलोचना की थी और कहा गया था कि वे जानबूझकर इस मामले को तूल दे रहे हैं। भले ही ज्यादातर लोगों के दिमाग के पर्दे से इस घटना की तस्वीरें उतर गई हों, लेकिन हकीकत अब भी वही है। अब सड़क पर चलते ऐसे लोग, जो मुँह पर मास्क लगाए रहते हैं, हमें एलियन नजर नहीं आते, क्योंकि हम जानते हैं कि आज नहीं तो कल हम भी ऐसे ही नजर आने वाले हैं।

हाल ही में पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की तरफ से शुरू किये गए ‘सिस्टम ऑफ एयर क्वालिटी फोरकास्टिंग एंड रिसर्च’ (सफर) ने बताया है कि प्रदूषण से बचने के लिये एन-95 व पी-100 जैसे मास्क इस्तेमाल करना बेहतर होगा। सफर की आशंका है कि जल्द ही दिल्ली की हवा में 2.5 माइक्रॉन के पदार्थ कणों की तादाद 450 प्रति घन मीटर हो सकती है। जबकि मानकों के मुताबिक 2.5 पीएम का 100 प्रति घन मीटर से ज्यादा होना नाजुक लोगों के लिये दिक्कत खड़ी कर सकता है। ज्यादा दिन नहीं हुए हैं, जब यह एडवाइजरी जारी की गई थी कि जरूरत हो तभी बाहर जाएँ।

सवाल यह उठता है कि बाहर जाने से खुद को कब तक रोका जा सकता है? यही नहीं, पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि दिल्ली-एनसीआर में केवल ग्रीन पटाखे ही इस्तेमाल किये जाएँ। कोर्ट ने पटाखे जलाने की समय सीमा भी तय कर दी थी, लेकिन क्या ऐसा हुआ? सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु और पुदुच्चेरी जैसे देश के दूसरे राज्यों को भी पटाखे चलाने के सम्बन्ध में दिशा-निर्देश जारी किये थे।

सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में समय बदला जा सकता है, लेकिन यह दो घंटे से ज्यादा नहीं होना चाहिए। कोर्ट ने कहा था कि तमिलनाडु समेत दक्षिणी राज्यों में पटाखों का समय 4-5 से 9-10 के बीच होना चाहिए। इन आदेशों से क्या हमने कोई सीख ली है?

घर के अन्दर भी खतरा

भले ही बाहर आसमान में धुन्ध और धुआँ छाया हो लेकिन हम घर के अन्दर खुद को महफूज समझते हैं। हमारा इस बात पर भरोसा तब और बढ़ जाता है, जब सरकार की तरफ से बताया जाता है कि घर के अन्दर रहें, तो प्रदूषण से बचाव सम्भव है। लेकिन, हमारे इस भरोसे और हमारी सरकार की सलाह से उलट डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट दावा करती है कि 2016 में भारत में घरों के अन्दर वायु प्रदूषण से पाँच वर्ष से कम उम्र के 66,800 बच्चों की मृत्यु हुई थी।

ये मौतें बाहर के वायु प्रदूषण से हुई मौतों से 10 फीसदी ज्यादा थीं। वैश्विक स्तर पर पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिये घर की प्रदूषित हवा, बाहर के प्रदूषण से ज्यादा खतरनाक साबित हो रही है। ठोस ईंधन (लकड़ी -कोयला) और कुकिंग में इस्तेमाल होने वाला केरोसिन बच्चों के लिये घर को मौत का कुआँ बना देता है।

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक भारत में पाँच से कम उम्र के 98 फीसदी बच्चे उन क्षेत्रों में रह रहे हैं, जहाँ पीएम 2.5 का स्तर मानकों से काफी ज्यादा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर पिछले कुछ वर्षों में इनडोर प्रदूषण से 38 लाख बच्चों की मौत हो चुकी है।

 

 

 

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