धुल गयी ग्लानि

कितने हुलस से-हरस से
नदी नहाने गए हम
घाट पर कीचड़-गंध से
घिना उट्ठा हमारा मन
फिर लौट चले हम
नहाए बिना ही

नदी की हालत देख
गहरी उदासी से
भर गया हमारा मन

वह तो दूसरे दिन
घाट की सफ़ाई में जुटे जब लोग
कीचड़-काई को उखाड़ फेंका

निहार-निहार यह
खिलखिला उट्ठी नदी
और क़तरा-क़तरा बह चली
नदी की प्रसन्न-निर्मलता

फिर-
फिर तो नदी में डुबकी लगाते-नहाते
धुल गयी हमारी सारी ग्लानि!

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