मौसम में तीव्र गति से परिवर्तन हो रहा है। यह सामान्य रूप से चर्चा का विषय बना हुआ है। अगर हम मौसम की दृष्टि से दिल्ली, मुंबई और अन्य जगहों की बातें करें तो सर्वप्रथम दिल्ली के बारे में चर्चा करना जरूरी है। इस साल अगर दिल्ली के मौसम का आंकड़ा लें तो कुछ अजीबोगरीब माहौल बना हुआ है, जैसे इस बार गर्मी काफी अधिक महसूस की गई और मानसून के साथ काफी कम बारिश और अधिक गर्मी के चलते दिल्लीवासियों को काफी परेशान होना पड़ा है। वैसे उत्तर भारत मानसून के समय कम वर्षा के कारण सूखाग्रस्त हो चुका है। दिसंबर 2008 में पिछले 108 साल के दरम्यान इतनी गर्मी कभी नहीं अनुभव की गई। यह आंकड़े मौसम विभाग के द्वारा उपलब्ध कराए गए हैं। फिर दिसंबर 2007 से जनवरी 2008 तक ठंड के मौसम में काफी परिवर्तन दिखा। 25 जनवरी से फरवरी के प्रथम सप्ताह में काफी ठंड पड़ी, जबकि इस समय हर साल ठंड काफी कम पड़ती थी। इसी तरह अगर मुंबई के मौसम का जिक्र करें तो मुंबई में पिछले साल जनवरी के अंतिम सप्ताह से फरवरी प्रथम सप्ताह में तापमान का पारा 8 से 9 डिग्री तक नीचे गया, जिसके चलते मुंबईवासियों ने काफी ठंड अनुभव की।
मौसम विभाग के अनुसार गत 45 वर्षों में इस तरह जाड़े का मौसम यहां देखने को नहीं मिला। इसी तरह राजस्थान के मरुभूमि जैसी जगहों में गत साल वर्षा के समय बाढ़ का ख़ौफ़ छाया रहा और उससे काफी जानमाल की क्षति हुई। इसी तरह मुंबई में जुलाई 2005 में लोगों को भयंकर बाढ़ का सामना करना पड़ा, सैकड़ों लोग मारे गए और काफी जान-माल की क्षति हुई, देखा गया कि एक ही मुंबई के उपनगरीय इलाकों में 24 घंटे में 900 मिलीमीटर वर्षा और शहरी इलाकों में 200 मिलीमीटर वर्षा रिकॉर्ड की गई। इस तरह हम देख रहे हैं कि मौसम में काफी अंतर आ रहा है।
स्थायी मानवीय मूल्य तो लगभग अपरिवर्तनीय हैं। मानव अस्तित्व का मूल आधार सृष्टि चक्र के साथ एक प्रकार का क़रीबी संबंध बनाकर चलता है। इसलिए मोटे तौर पर उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। किंतु जड़ जगत के साथ ऐसी बात नहीं है। इस पृथ्वी, ग्रह के इतिहास में कई बार ऐसा हुआ है। पृथ्वी ही क्यों अन्य ग्रहों, तारों, उपग्रहों और नेबुला आदि में भी भूतकाल में कई बार परिवर्तन आए हैं।
अतीत में न केवल पृथ्वी बल्कि अन्य ग्रहों के ध्रुवों में कई बार परिवर्तन हो चुका है । उनकी स्थिति परिवर्तन के कारण अनेक उपग्रहों का निर्माण और विकास होता रहा है। प्रागैतिहासिक काल में जब पृथ्वी का बाहरी आवरण आज की तरह कठोर नहीं था, तब मंगल जैसे विशाल ग्रह के विकसित होने से इस पृथ्वी पर विशाल प्रशांत महासागर का सृजन हुआ। यद्यपि मंगल ग्रह का जन्म पृथ्वी से हुआ तथापि वह पृथ्वी का उपग्रह नहीं बना। मंगल ग्रह को संस्कृत में कुजा कहा जाता है, जिसका अर्थ है-पृथ्वी से जन्मा । ‘कु’ अर्थात पृथ्वी और जा अर्थात जन्मा हुआ। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार के परिवर्तन अतीत में हुए वे भविष्य में भी हो सकते हैं।
ध्रुवीय परिवर्तन के कारण पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के काल में अंतर आ जाता है। साथ ही साथ सूर्य के परिक्रमा में लगने वाले समय में अंतर आने से वर्ष के दिनों की गणना भी बदल जाती है। इसी कारण से भूतकाल में कभी दिन-रात चौबीस घंटे का नहीं था। और एक वर्ष में 365/366 दिन नहीं थे। उस काल में ऋतु चक्र में भी व्यापक परिवर्तन देखा गया। भूतकाल में इसी कारण कैलेंडर की विधि व्यवस्था में भी परिवर्तन करना पड़ा था। वर्तमान युग में ऐसा देखा जा रहा है कि ऋतुएं अपनी स्थिति का अनुगमन नहीं कर रही हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि स्थिति में तेजी से बदलाहट आ रही है। इसी कारण से जहां एक ओर मास और मौसम में सामंजस्य समाप्त हो रहा है, वहीं दूसरी ओर पर्यावरण और परिवेश दोनों में स्पष्ट परिवर्तन दीख रहा है। इतना ही नहीं इस परिवर्तन के परिणाम स्वरूप सभी जीव जंतुओं और पेड़-पौधों के शारीरिक और जैविक संरचना में भी अंतर आने की पूरी संभावना है। इस संबंध में आनंद मार्ग के प्रवर्तक श्री प्रभात रंजन उर्फ श्री श्री आनंदमूर्ति सरकार 31 मई, 1986 को ध्रुवों के परिवर्तन के बारे में और मानव समाज एवं मौसम में उसका प्रभाव के बारे में विस्तृत वर्णन ‘एफ्यु परॉब्लम सॉल्व्ड’ पुस्तक में किए हैं। उसी से उद्धत यह लेख लिखा गया है।
स्थायी मानवीय मूल्य तो लगभग अपरिवर्तनीय है। इसलिए मोटे तौर पर उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। किंतु जड़ जगत के साथ ऐसी बात नहीं है। इस पृथ्वी, ग्रह के इतिहास में कई बार ऐसा हुआ है। पृथ्वी ही क्यों अन्य ग्रहों, तारों, उपग्रहों और नेबुला आदि में भी भूतकाल में कई बार परिवर्तन आए हैं। अतीत में न केवल पृथ्वी बल्कि अन्य ग्रहों के ध्रुवों में कई बार परिवर्तन हो चुका है। उनकी स्थिति परिवर्तन के कारण अनेक उपग्रहों का निर्माण और विकास होता रहा है। इस विश्व में सबकुछ परिवर्तनशील है। प्रत्येक सत्ता चल रही है। ध्रुवों में भी गति होनी स्वाभाविक है। इस दशा में जब परिवर्तन की गति त्वरित हो जाती है तब पृथ्वी पर शीतयुग भी आ सकता है। शीतयुग के प्रारंभ होने से उसके शेष होने तक का अंतराल लंबा भी हो सकता है। इस विकट परिस्थिति से जूझने के लिए मानव बुद्धि की सामर्थ्य से समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
जीव जंतुओं और उद्भिदों का जन्म और अस्तित्व परिवेशगत संतुलन पर आश्रित है। ध्रुवों की स्थिति में परिवर्तन के कारण पूर्वी गोलार्द्ध में उत्तरी ध्रुव उत्तर से दक्षिण की ओर तथा पश्चिमी गोलार्द्ध में दक्षिणी ध्रुव दक्षिण से उत्तर की ओर खिसक रहा है। यह कहना कठिन है कि उनकी आपेक्षिक दूरी भी अपरिवर्तित रह जाएगी। अतः हम लोगों को भविष्य में आने वाले पर्यावरण और परिवेशगत परिवर्तनों के लिए तैयार रहना होगा। इस परिवर्तन के कारण पृथ्वी की चुंबकीय संरचना में भी परिवर्तन आने की संभावना है जिसके कारण सौर्यमंडल के ग्रहों में तथा विद्युत चुंबकीय तरंगों में भी आश्चर्यजनक परिवर्तन देखा जा सकता है।इन विद्युत चुंबकीय तरंगों से मानवीय चिंतन धारा भी अवश्य प्रभावित होगी। विज्ञान और मानविकी दोनों क्षेत्रों में हमारी प्रगति बहुत चुंबकीय तरंगों एवं उनके अन्य अभिप्रकाशों के ज्ञान पर निर्भर है। ऐसी स्थिति में आने वाले परिवर्तनों के कारण विज्ञान और मानविकी के क्षेत्र पर पड़ने वाले प्रभावों को झेलने के लिए हमें अत्यंत सतर्क होने की आवश्यकता है। यह किसी सुदूर भविष्य की बात नहीं बल्कि वर्तमान में ही इसके प्रभाव दिख रहे हैं।
(लेखक आनंदमार्ग से जुड़े हैं)
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