पिछले 200 बरसों में बने संबंधों, तरीकों इत्यादि को आवश्यकता अनुसार बदलना होगा और उनकी जगह जो बनेगा उसे प्रतिष्ठित करना होगा। यह काम केवल राजतंत्र व व्यवस्था में लगे लोगों का ही नहीं है। इसमें तो जनसाधारण को आगे आना पड़ेगा। अलग क्षेत्रों, प्रदेशों, दूसरे देशों इत्यादि से नये संबंध कायम करने पड़ेंगे, और ऐसा करने में देश के संतों, सन्यासियों, विद्वानों और आचार्यों से कहना पड़ेगा कि वे इस नयी स्थापना में रास्ता दिखलाएं और उनमें से जो स्वतंत्र घूम-घूम कर, देश-देशांतर के लोगों से वार्तालाप कर सकते है, वे उसमें लगें। इसी तरह भारतीय युवा वैज्ञानिकों का जो पश्चिम को कुछ समझने लगे हैं और व्यापारियों इत्यादि का जिनका इन देशों से परिचय है और वहां की भाषा समझते हैं, इस आपस के संबंध बनाने में बड़ा योगदान होगा।
अभी देशव्यापी सूखे की जो बात भारत में चली है वह एकदम नई नहीं है। पिछले 150-200 बरसों से अंग्रेजी राज़तंत्र की स्थापना से हमारे देश की सब तरह की ही व्यवस्थाएं टूटी हैं व कहीं-कहीं कठिनाई से अपने को बचाने में लगी हैं। हर दो-चार बरस में ऐसे बड़े सूखे आते रहते हैं। इनमें असंख्य बच्चे, स्त्री, पुरुष तो तरह-तरह से समाप्त होते ही हैं, जो बचते हैं उनकी दुर्बलता पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ती जाती है। और ऐसे ही हमारी गाय, बैल व दूसरे जीव, वन इत्यादि पिछले 150 से 200 बरसों से गहरी गिरावट में ही जा रहे हैं।लेकिन सूखे और बारह वर्ष के दुर्भिक्षों का महाभारत काल में भी वर्णन है। हो सकता है, यह महाभारत काल का वर्णन किसी एक ही 12 वर्ष के दुर्भिक्ष का वर्णन हो। इसमें विश्वामित्र जैसे ऋषि को भी भूख-प्यास से पीड़ित होकर एक कुत्ते की हड्डी की चोरी करनी पड़ती है। संभव है, ऐसा कई बार हुआ हो। विस्तृत भारतीय सभ्यता में ऐसा कभी-कभी हो जाना आश्चर्य की बात नहीं है।
लेकिन आज का सूखा और इसके पहले डेढ़-दो सौ बरस पूर्व होने वाले सूखे कुछ अलग-अलग तरह के हैं। पहले के सूखों में हमारे स्थानीय साधन व व्यवस्थाएं इन कमी-कभी होने वाली विपत्तियों से हमें पार करा देती थीं। और एक अच्छी बरसात बीतते ही पहले वाली खुशहाली, उपज एवं हंसी-खुशी वापस आ जाती थी, इसका एक बड़ा कारण यह भी रहा कि भारत अलग-अलग सांस्कृतिक व प्राकृतिक क्षेत्रों में व्यवस्थित था और इन क्षेत्रों की व्यवस्थाएं कुएं, तालाब, वन, दक्षिण के प्रदेशों की ऐरी, उत्तर के जोहड़, रज़वाड़े और हिमालय से निकली नदियां व महानदियां जैसे गंगा, यमुना, पंजाब-हरियाणा की नदियां, ब्रह्मपुत्र, इरावती, सरयू, शारदा, गंडक इत्यादि नदियां हमेशा ही पानी से परिपूर्ण होती थीं। ये सारी नदियां भी पिछले 50 से 100 बरसों में काफी हद तक अस्त-व्यस्त हो गयी हैं।
हमारे यहां के कुएं पिछले 100 से 150 बरसों में सूखने शुरु हुए। मुख्यत: इनका सूखना व काम का न रहना पिछले 50 बरस का है। उनके पानी के स्रोत कम होते गए, बहा हुआ जो वर्षा का पानी आता था वह सड़कों, रेल लाइनों, बांधों इत्यादि ने रोक दिया। तालाब, झीलें व जोहड़ भी इसी तरह सूखते चले गये। इनका पानी खराब होता है, यह कहकर सरकारी स्तर पर इन्हें बंद करवा दिया गया और इनके स्थान पर ज़हां-त्तहां नलकूपों का आमतौर पर गंदा पानी दिया जाने लगा। दिल्ली में तो नलकूपों का पानी अक्सर गंदा है इसकी पूरी सार्वजनिक मान्यता है।
पानी के साधन व उनके उपयोग पर भी पश्चिमी आधुनिकताओं व हमारी व्यवस्थाओं की टक्कर में हम हारे। विक्षिप्त हुए। हमारे साधन छीनकर आधुनिकता को दिये गये। आधुनिकता का काम शहरों को चलाना (जैसे-तैसे भी), कारखानों को चलाना व बड़ी-बड़ी सिंचाई व्यवस्थाओं की देखभाल करना रहा है। बाकी देश पर, लोगों पर, ग्रामों पर और वहां की व्यवस्थाओं पर क्या बीतता है, इसको देश के राजतंत्र ने अपनी जिम्मेदारी नहीं मानी। पानी, उपजाऊ जमीन व वनों को लेकर एक बड़ा युद्ध पश्चिमी आधुनिकता व भारतीयता में छिड़ा है। अभी तक तो भारतीयता ही त्रस्त हो रही है।
लेकिन यह कब तक चलेगा ? पिछले 50-60 बरस में हमारे राजतंत्र ने देश को पुन: पश्चिम के विद्वानों एव अर्थशास्त्रियों के जिम्मे छोड़ दिया है। समय बीतते-बीतते ऐसे विचारों व दृष्टिकोण से प्रभावित आज पांच से दस - लाख लोग तो भारत में हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका व यूरोप में बसे, आधुनिकता को मानने वाले भारतीय अलग से हैं। लेकिन न तो भारत में सर्वोच्च शिखर पर बैठने वालों को यह आता है कि भारत के समाज व लोगों का शीघ्र ही पश्चिमीकरण हो जाये, जिससे वे बराबर नहीं तो व्यवस्था व तकनीकी के क्षेत्रों में पश्चिम के लोगों के कहीं तीन चौथाई करीब तो पहुंचे, और न ही यह काम भारत से बाहर बसे आधुनिक भारतीयों की आज की समझ में बैठा है। वैसे आज से 100-150 बरस पहले जापान, चीन व कोरिया से पश्चिम गये युवाओं में यह समझ, शायद 1865 के बाद से, आने लगी थी और उनमें से काफी ने पश्चिम का जो कुछ वे अपनी व्यवस्थाओं से खपा सकते थे, उसको खपा लिया।
हमारे समक्ष तो आज एक नया देवासुर संग्राम है। हो सकता है इसमें पश्चिम के लोगों को आज 'देव' कहा जाये और भारतीयों को 'असुर'। लेकिन युद्ध तो है ही। और युद्ध के लिये जो करना पड़ता है वह सब हमें करना पड़ेगा।
आरंभ में तो हमें अपनी पुरानी व्यवस्थाओं, तकनीकों, साधनों और उनके उपयुक्त इस्तेमाल पर जाना ही पड़ेगा। चल पड़ने पर वे चाहें कितनी भी बदली जायें। हम अगर इन जाने हुए तरीकों को उपयोग में नहीं लेंगे तो आज जो यह विश्व बैंक, डब्ल्यूटीओ (विश्व व्यापार संगठन), कंप्यूटर लॉबी इत्यादि के गिरोह बने हैं। वे संसार में अपने से कमजोर को रौंद देंगे और जैसे ब्रिटेन में लड़ाई के दिनों में ( 1940-1945) वहां के प्रधानमंत्री श्री विन्स्टन चर्चिल चाहते थे कि पूरा जर्मनी एक चारागह जैसा बन जाये। वैसे ही यूरोप वालों को चाहे वे संयुक्त राज्य अमरीका के राष्ट्रपति क्लिंटन रहे हों, जॉर्ज बुश हों या ब्रिटेन के प्रधानमंत्री हों, या यूरोप के अन्य कुछ देशों के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हों, यह ठीक ही लगेगा कि अगर एशिया व अफ्रीका के देश व लोग आसानी से बचाये नहीं जा सकते तो उन्हें सब संभव तरीकों से पृथ्वी पर से हटा दिया जाये। ये सब उनके कब्जे में आयी पृथ्वी पर बोझ है और उनको पूरा हटाना ही यूरोपीय दर्शन के अनुसार आवश्यक कदम है। पिछले 500 बरसों में आस्ट्रेलिया, अफ्रीका, अमेरिका इत्यादि में यूरोप ने ऐसा ही किया है।
हमें इस युद्ध को लड़ना है। लड़ना है तो इसकी तैयारी करनी पड़ेगी। अपनी आज से पांच-छह सौ बरसों पहले तक स्थापित विश्व सभ्यता का चित्र सामने रखना होगा, यह सभ्यता 400-600 बरस पहले तक कैसे समृद्धि से रहती थी, इस पर सोचना होगा। तब हमारी सभ्यता का विस्तृत क्षेत्र पश्चिमी सभ्यता के संसार से व दूसरी अन्य सभ्यताओं से कैसा संबंध रखता था, क्या बौद्धमत की व्यवस्थाओं व सीखों ने इन बडी सभ्यताओं को अपने-अपने तरीके से अलग-अलग जीवित रखने की सीख दी थी, यह समझना होगा। हमारा पड़ोस 500 बरसपहले और अभी भी यूरोप व अमेरिका नहीं है। 1500 तक इस पृथ्वी पर बसा संसार कुल मिलाकर ठीक ही चलता था, ऐसा दिखता है।
हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और उनकी संतानों ने पश्चिम के सामने घुटने टेक दिये हैं, यह उतना ही बड़ा पाप है, जितना कि महात्मा गांधी बिहार में हुए 1934 के भूकंप के कारणों को कहते थे। एक तरह से हमारा पाप तो अधिक भयंकर है कि हमने अपनी ऐतिहासिक व पौराणिक धरोहर को भुला दिया और हमारे पड़ोसी व संबंधी कौन हैं, इसको भी भूल बैठे। हमने खुली आंखों, एक तरह के आज के राक्षसों - पश्चिम सभ्यता राक्षसी के अलावा और क्या कहीं जा सकती है - के साथ बेमेल गंठबंधन-सा कर लिया है। उनके जादू को हमने अपने ऊपर छा जाने दिया है और बेहोशी जैसी हालत में उनके पीछे-पीछे चल रहे हैं। ये स्वतंत्र लोगों के रास्ते नहीं हैं।
अगर हमें यूरोप व संयुक्त राज्य अमरीका की तरह बड़ा राक्षस ही बनना हो, तो उनसे कहीं आगे बढ़कर कुछ ऐसा काम करें जिससे वे हमारा लोहा मान जायें। 5-10 क्षेत्रों में तो वे जापान, चीन इत्यादि को अपने बराबर का आज मानते ही हैं।
हमारे सामने दो बड़े प्रश्न हैं। मुख्य प्रश्न तो यह है कि हमारे साधारण जन ( 80 करोड़, 90 करोड़, 95 करोड़) कैसे अपनी शक्ति, साधनों और बुद्धि के बल पर आज सुखी जीवन जी सकते हैं। भारत व भारत के उत्तर और पूर्व-दक्षिण के वासी बुद्धि, कौशल व दक्षता में संसार की दूसरी सभ्यताओं के लोगों से कुछ आगे ही रहे हैं, यह तो अब तक का ऐतिहासिक सत्य है। इसमें प्रकृति उनकी सहायक रही। यहां यह का देना आवश्यक है कि 1750 तक चीन व भारतीय क्षेत्र पृथ्वी पर होने वाले औद्योगिक उत्पादन का 73 प्रतिशत उत्पन्न करते थे, यह आज के विद्वानों की खोज व मान्यता है। वे साधारणत: हमेशा ही ऐसा जीवन जीते थे, ये सब तरह की कलायें जानते हैं (आज चाहे वे धूमिल हुई हों) इसमें कोई शक नहीं है।
इस डेढ़-दो सौ बरस के भयंकर बदलाव ने (जब उनमें से आधे भूख, प्यास और तरह-तरह की बीमारियों से मारे गये) उन्हें शारीरिक व बौद्धिक दृष्टि से कमजोर कर दिया है। और उनकी भूमि, वन, पानी, मिट्टी इत्यादि साधन या तो उनसे छीन लिये गये हैं या उन पर रुकावटें खड़ी कर दी गयी हैं।
अगर समूह व ग्राम से लेकर देश तक और देश से भी अधिक भारतीय सभ्यता के इस विशाल क्षेत्र में हम दोबारा से नया समाज व सभ्यता बनानी शुरू करेंगे तो हमारे रास्तों में जो अड़चने हैंं, वे हटती चली जायेंगी और न केवल सूखा ही जायेगा बल्कि इन दो-चार सौं बरसों में जो कूड़ा-करकट व सड़न देश में जमा हो गयी है, वह भी शीघ्र ही दूर होती चली जायेगी। ऐसा होने पर पड़ोस के देश भी हम पर हंसना बंद करके हमारा सम्मान करने लगेंगे और तब हमारे व उनके बीच करीब के संबंध बनने लगेंगे। तभी पश्चिमी सभ्यता भी हम से नये संबंध कायम करने के संदर्भ में सोचेगी। तब हम उनकी जूठन के पात्र नहीं रहेंगें, बल्कि उनके बराबर माने जाने लगेंगे। यह बदलाव ही हमारे पुनरूत्थान का प्रमाण होगा।
आज से 100-150 बरस पहले तक हर परिवार का अपनी स्थानीय बस्ती, गांव, कस्बे इत्यादि पर अलग-अलग तरह का अधिकार और उस के सापेक्ष कर्तव्य थे। हर एक का वहां का निवासी होने के नाते वहां की बस्ती की जमीन पर घर, आंगन, पिछवाड़ा इत्यादि बना लेने का अधिकार था। वह वहां का निवासी व नागरिक था, कोई दास व किरायेदार नहीं (जैसा कि यूरोपीय सभ्यता के अधिकांश लोग थे)। यह मान्यता और इसके अनुसार व्यवस्था सारे देश के जन को जन्मसिद्ध अधिकारों के नाते फौरन ही वापस मिलनी चाहिये। इसी तरह से जहां जो रहता है, वहां के पानी, मिट्टी, जमीन, वन और प्राकृतिक संपदा पर उसका सबके बराबर अधिकार रहा है और यह दोबारा स्थापित होना चाहिये। ऐसे अधिकारों को स्थापित होने पर 80-90 प्रतिशत भारतीय जन की दैनिक समस्याओं का हल निकल आयेगा और उनका समाज तब ऐसी व्यवस्था करने लगेगा कि सब के जीवन-यापन के लिये वहां के साधनों की उपलब्धता के अनुसार उपयोग होगा। तभी हर स्थान के लोग अपनी मिट्टी, पानी, वन संपदा इत्यादि की रक्षा करने लगेंगे, उसका आज का विनाश रोकेंगे। वह घटे नहीं, इसका इंतजाम करेंगे और मुसीबत के समय सबका काम चल जाये, इसका ध्यान रखेंगे। यहीं भारतीय तरीका था और यहीं महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज का असली आधार और चित्र है। महात्मा गांधी की व्याख्या में स्थानीयता और पड़ोस पर ही स्वदेशी टिका है। गांधीजी के अनुसार हमने पिछले 100-200 बरसों में जो पश्चिम से लिया है, वह सब एक बार तो पूरा त्याग देना चाहिये। बाद में इसमें से किसी की आवश्यकता होगी, तो अपने हिसाब से उसे समझ लेंगे।भारत के ग्रामों, कस्बों व दूसरी छोटी बस्तियों को अंग्रेजों द्वारा स्थापित राजतंत्र के दासत्व से मुक्त होने पर ही देश का साधारण जीवन-यापन चल सकेगा। आज के राजतंत्र की रचना ही इस दृष्टि से की गयी थी कि भारत में कहीं भी भारतीय अपने बल व बुद्धि से कुछ भी न चला सकें। डेढ़-दो सौ बरस की लाखों-करोड़ों अंग्रेजी दस्तावेजों में यहीं कहानी बार-बार आती है। 1800 में ही लंदन ने अपने अंग्रेज नौकरों को बतलाया था कि वे भारतीयों को समझा दें कि जो कुछ उन्हें मिला है, वह सब अंग्रेजों की देन है। भारतीयों का अपना कुछ भी नहीं है।
इस आदेश को और इसमें से जो निकला है, उन सब को पूर्ण रूप से बदले बिना भारत में किसी तरह का भी जीवन-यापन साधारण जन के लिए संभव नहीं है। इसलिये राजतंत्र का जाल ग्रामों इत्यादि से जितना शीघ्र हटे, उतना ही श्रेयस्कर है।
स्वतंत्र समूहों, ग्रामों, कस्बों, बस्तियों, छोटे-पुराने नगरों को दोबारा से पहले अपने क्षेत्र का, फिर प्रदेश का और फिर देश के राजतंत्र व उसकी व्यवस्थाओं की रचना करनी होगी। वह रचना क्षेत्रों, प्रदेशों इत्यादि में आज एक-दूसरे से कुछ भिन्न रहे, यह संभव है। किंतु क्षेत्रों, प्रदेशों इत्यादि की दृष्टि से उनके अधिक काम की भी होगी। ऐसी पुनर्रचना देश का भावी प्रतीक होगी, जो देश के स्वभाव, प्रकृति और संभावनाओं के अनुरूप होगी।
आज जो बच्चों को उनके घरों व समाज से अलग करके, यूरोप व अमेरिका की बनायी मान्यताएं प्रतिष्ठित की जा रही हैं, हमारा उनसे किसी तरह का संबंध नहीं बैठता। यूरोप में 200 बरस पहले वहां के बच्चों के साथ 4-6 बरस की उम्र से जो अत्याचार होता रहा, यह मान्यता उसी का एक तरह का पश्चाताप है। यूरोप के लिये ऐसा पश्चाताप आवश्यक ही था।लेकिन हमारे ग्राम, समाज, काम-काज और जीवन-यापन के तरीके तो भिन्न हैं, उनमें बच्चे भी उतने ही भागीदार हैं जैसे बड़े। क्योंकि उन्हें साधारणत: जिस समाज व स्थान पर वह पले और बड़े हुए, उसे चलाना है इसलिये बचपन से ही उन्हें उसे समझते रहना है, उसमें अपनी समझ व बुद्धि से आवश्यक बदलाव सोचने हैं इसलिये उन्हें समाज की दिनचर्या से दूर रखना एक बड़ी मूर्खता होगी।
ऐसा ही संबंध हमेशा से हमारा पड़ोसियों के साथ रहा है, चाहे वे बराबर के ग्राम के हों, व बराबर के देश के जैसे कि दक्षिण-पूर्व एशिया, पूर्व और मध्य एशिया व पूर्वी व दक्षिण अफ्रीका के देश हों। उनके साथ हमारी हमेशा से सहकार व भागीदारी चलती रही है जो यूरोप के बढ़ते आधिपत्य के कारण टूटती गई। यह सबंध जितने शीघ्र पुन: स्थापित हों, उतना अच्छा है।
समूहों और क्षेत्रों के सब तरह के फैसले अंत में मिलकर ही पक्के और प्रभावशाली बनते हैं, यह हमें दोबारा से समझना पड़ेगा। भारत व प्रदेशों की राजधानी व वहां स्थापित अलग-अलग संसद, विधान सभाएं इत्यादि इस तरह के फैसले करने के योग्य नहीं है। लेकिन देश ने चूंकि उन्हें वहां स्थापित किया है, इसलिये ग्रामों, क्षेत्रों व प्रदेशों में किये गये निश्चयों को समझना, ज़रूरी होने पर सुझाव देना और उन्हें प्रतिष्ठा दिलाना, उनका काम है। इसी तरह से इन संसदों इत्यादि को फौरन ही उस काम में लगना होगा जो 1947 में छूट गया, जो राजतंत्र 1947 में पूरी तरह से बदल जाना चाहिये था, वह अब तो एक-दो बरस के अंदर नये आधारों और मान्यताओं पर बना लिया जाये।
इसी तरह के कदम हमें विदेशों से रिश्ते और रक्षा और तकनीकी नीतियों के संबंध में उठाने होंगे। पिछले 200 बरसों में बने संबंधों, तरीकों इत्यादि को आवश्यकता अनुसार बदलना होगा और उनकी जगह जो बनेगा उसे प्रतिष्ठित करना होगा। यह काम केवल राजतंत्र व व्यवस्था में लगे लोगों का ही नहीं है। इसमें तो जनसाधारण को आगे आना पड़ेगा। अलग क्षेत्रों, प्रदेशों, दूसरे देशों इत्यादि से नये संबंध कायम करने पड़ेंगे, और ऐसा करने में देश के संतों, सन्यासियों, विद्वानों और आचार्यों से कहना पड़ेगा कि वे इस नयी स्थापना में रास्ता दिखलाएं और उनमें से जो स्वतंत्र घूम-घूम कर, देश-देशांतर के लोगों से वार्तालाप कर सकते है, वे उसमें लगें। इसी तरह भारतीय युवा वैज्ञानिकों का जो पश्चिम को कुछ समझने लगे हैं और व्यापारियों इत्यादि का जिनका इन देशों से परिचय है और वहां की भाषा समझते हैं, इस आपस के संबंध बनाने में बड़ा योगदान होगा।
ऐसा नहीं कि ऐसा सोच पिछले 70-80 बरस में नहीं हुआ। 1945 तक तो देश ऐसे ही सोचता था। उसके बाद भी बहुत से लोग, समूह इत्यादि समय-समय पर ऐसा सोचते रहे। 1977 में ही ऐसी बात उठी कि देश के आचार्य, संत इत्यादि देश के प्रश्नों पर मिलकर विचार करें और जहां-जहां आवश्यक हो वहां-वहां नयी दिशा सुझायें। लेकिन कई कारणों से उस समय ऐसा नहीं हो पाया।
अगर समूह व ग्राम से लेकर देश तक और देश से भी अधिक भारतीय सभ्यता के इस विशाल क्षेत्र में हम दोबारा से नया समाज व सभ्यता बनानी शुरू करेंगे तो हमारे रास्तों में जो अड़चने हैंं, वे हटती चली जायेंगी और न केवल सूखा ही जायेगा बल्कि इन दो-चार सौं बरसों में जो कूड़ा-करकट व सड़न देश में जमा हो गयी है, वह भी शीघ्र ही दूर होती चली जायेगी। ऐसा होने पर पड़ोस के देश भी हम पर हंसना बंद करके हमारा सम्मान करने लगेंगे और तब हमारे व उनके बीच करीब के संबंध बनने लगेंगे। तभी पश्चिमी सभ्यता भी हम से नये संबंध कायम करने के संदर्भ में सोचेगी। तब हम उनकी जूठन के पात्र नहीं रहेंगें, बल्कि उनके बराबर माने जाने लगेंगे। यह बदलाव ही हमारे पुनरूत्थान का प्रमाण होगा।
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