सीतापुर। मेंथा की खेती के प्रति किसानों का बढ़ता रुझान और जमीनी पानी के अंधाधुंध दोहन धरती की कोख को सुखा रहा है। पिछले कई सालों से किसानों के बीच नगदी फसल के रुप में लोकप्रिय मेंथा किसानों की जेबें तो गर्म कर रही है, साथ ही यह फसल भूगर्भ जल स्तर को भी तोजी से नीचे खिसका रही है। जिले के गांजरी इलाके के बिसवां, सकरन, पहला, रेउसा, महमूदाबाद ब्लाकों के ग्रामीण अंचलों में मेंथा ऑयल बनाने का काम कुटीर उद्योग की तरह होता है। मेंथा की खेती कर रहे किसानों का कहना है कि तीन माह की इस फसल को औसतन दस से बारह बार सिंचाई की जरूरत होती है। एक बार की सिंचाई में एक बीघे मेंथा की फसल में औसतन 30 से 35 हजार लीटर पानी की जरूरत होती है। इस लिहाज से एक बीघे की पूरी फसल के लिए तीन से साढ़े तीन लाख लीटर पानी की खपत होती है। फसल तैयार हो जाने के बाद इससे मेंथा ऑयल बनाया जाता है। एक लीटर मेंथा तेल के लिए करीब 1200 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। इस फसल के प्रति बढ़ती दिलचस्पी से भूजल स्तर को गंभीर खतरा पैदा हो गया है। इन इलाकों में जल स्तर काफी तेजी से नीचे जा रहा है।
जानकारों ने बताया कि इस पर अंकुश न लगाया गया तो स्थिति भयावह हो सकती है। उधर चिकित्सा विशेषज्ञों का दावा है कि भूजल को नुकसान पहुंचाने के साथ फसल तैयार करने में लगे लोग भी मेंथा के दुष्प्रभाव से कई गंभीर रोगों से ग्रस्त हो रहे हैं। इस वर्ष जिले में करीब 875 हेक्टेयर में मेंथा की खेती की जा रही है। दिसंबर से फरवरी के मध्य इसका रोपण किया जाता है। मार्च से मई के मध्य फसल पूरी तरह से तैयार हो जाती है। इन दिनों जिले में मेंथा ऑयल बनाने का काम जोरों पर है। उन्होंने बताया कि मेंता के दामों में प्रतिवर्ष होने वाले उतार-चढ़ाव को देखते हुए इसे आमदनी का अच्छा जरिया माना जाता है।
जिला चिकित्सालय के टीबी रोग विभाग के डा. एके मिश्रा का मानना है कि मेंथा फसल को तैयार करने में लगे कृषकों व मजदूरों में सांस की बीमारी बहुतायत में होती है। साथ ही ऐसे लोगों में टीवी होने की आशंका भी बढ़ जाती है। मेंथा के खेतों में काम करने वालों को आंखों की भी परेशानी भी हो सकती है।
‘मेंथा की बढ़ती खेती भू-जल स्तर के लिए गंभीर खतरा बन रही है। इसकी सिंचाई में बेतहाशा पानी की जरूरत होती है। हालात अगर ऐसे ही रहे तो वह दिन–दूर नहीं जब हम लोगों को भी पानी की एक-एक बूंद के लिए लम्बा संघर्ष करना पड़ेगा।’ (आरके सक्सेना, सेवानिवृत्त अवर अभियंता लघु सिंचाई विभाग)
‘सीतापुर जिले में फिलहाल भूजल को लेकर कोई समस्या नहीं है। लेकिन किसानों को चाहिए कि एक बार यदि वह अधिक पानी वाली फसल लेते हैं, तो दूसरी बार कम पानी वाली फसल बोये, ताकि संतुलन बना रहे। ऐसा न होने पर भविष्य में पानी का संकट गहरा सकता है।’ (राजिव जैन, सहायक अभियंता, लघु सिंचाई)
जानकारों ने बताया कि इस पर अंकुश न लगाया गया तो स्थिति भयावह हो सकती है। उधर चिकित्सा विशेषज्ञों का दावा है कि भूजल को नुकसान पहुंचाने के साथ फसल तैयार करने में लगे लोग भी मेंथा के दुष्प्रभाव से कई गंभीर रोगों से ग्रस्त हो रहे हैं। इस वर्ष जिले में करीब 875 हेक्टेयर में मेंथा की खेती की जा रही है। दिसंबर से फरवरी के मध्य इसका रोपण किया जाता है। मार्च से मई के मध्य फसल पूरी तरह से तैयार हो जाती है। इन दिनों जिले में मेंथा ऑयल बनाने का काम जोरों पर है। उन्होंने बताया कि मेंता के दामों में प्रतिवर्ष होने वाले उतार-चढ़ाव को देखते हुए इसे आमदनी का अच्छा जरिया माना जाता है।
रोग भी पनप रहे
जिला चिकित्सालय के टीबी रोग विभाग के डा. एके मिश्रा का मानना है कि मेंथा फसल को तैयार करने में लगे कृषकों व मजदूरों में सांस की बीमारी बहुतायत में होती है। साथ ही ऐसे लोगों में टीवी होने की आशंका भी बढ़ जाती है। मेंथा के खेतों में काम करने वालों को आंखों की भी परेशानी भी हो सकती है।
‘मेंथा की बढ़ती खेती भू-जल स्तर के लिए गंभीर खतरा बन रही है। इसकी सिंचाई में बेतहाशा पानी की जरूरत होती है। हालात अगर ऐसे ही रहे तो वह दिन–दूर नहीं जब हम लोगों को भी पानी की एक-एक बूंद के लिए लम्बा संघर्ष करना पड़ेगा।’ (आरके सक्सेना, सेवानिवृत्त अवर अभियंता लघु सिंचाई विभाग)
‘सीतापुर जिले में फिलहाल भूजल को लेकर कोई समस्या नहीं है। लेकिन किसानों को चाहिए कि एक बार यदि वह अधिक पानी वाली फसल लेते हैं, तो दूसरी बार कम पानी वाली फसल बोये, ताकि संतुलन बना रहे। ऐसा न होने पर भविष्य में पानी का संकट गहरा सकता है।’ (राजिव जैन, सहायक अभियंता, लघु सिंचाई)
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