पृथ्वी पर पिछले 150 वर्षों में तथाकथित विकास के नाम पर जो खराब होना था वह हो चुका! उस पर विलाप कर कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है। अब समय संभलने व सुधरने का है। नदी को पूरी समग्रता से समझकर उसके सम्पूर्ण जलग्रहण क्षेत्र को स्वस्थ रखने का है। जिन्हें संस्कृति बचाना हो वह भी नदियों का संरक्षण करें, जिन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा व रोजगार जैसे मुद्दों पर प्रगति करना हो वे भी इस काम में प्रवृत्त हों
जलवायु परिवर्तन व पर्यावरण असंतुलन का विश्व रंगमंच पर आज हो रहा हो-हल्ला आधुनिक जीवन शैली का परिणाम है। विश्व के तथाकथित सभ्य समाज ने जैसी दिनचर्या व जीवन रचना विकसित की यह सब उसका ही प्रभाव है। आज का शहरी नागरिक सुबह जगने के बाद के तीन घंटे में औसतन पचास लीटर पानी खर्च कर देता है। भोजन व नाश्ता करते समय करीब-करीब 30 प्रतिशत खाद्यान्न सभ्य समाज जूठा छोड़ देते हैं। भोजनालय व भोजन की टेबल पर होने वाले अन्न अपव्यय के कारण पूरे विश्व में लाखों टन कार्बन का व्यर्थ उत्सर्जन होता है। नगरीय व्यक्ति लघुशंका जाने के लिये हर बार शौचालय में औसतन 10 लीटर पानी खर्च कर देता है।
नलीय जीवन पद्धति (संगठित जल वितरण प्रणाली) ने छोटे मोटे नगरों व कस्बों से लगाकर बड़े-बड़े महानगरों में पानी की एक भूख खड़ी कर दी है। जो महाभारत की एक कथा की याद दिलाती है। जिसमें एक राक्षस को प्रतिदिन एक बैलगाड़ी अन्न, दो बैल और एक मनुष्य अनिवार्य रूप से खाने को चाहिए था। गाँव वाले प्रतिदिन मजबूरी में अपने में से एक-एक व्यक्ति को अनाज भरी बैलगाड़ी के साथ वहाँ पहुँचाते थे। इसी तरह आज की नगरीय रचना ने अपने आस-पास के नदी-तालाब व छोटे-बड़े जलस्रोतों को मारना शुरू कर दिया है। जिन नदियों को समाज मार न सका (सूखा न सका) उसको उसने इतना गंदा कर दिया है कि अब वे नदियों के बजाय बहते हुए नाले बन गये हैं। हमारे शहर व नगरों के मध्य या आस-पास से होकर जो बदबूदार नाला बह रहा है यथार्थ में कोई सौ वर्ष पहले वह एक स्वच्छ सुंदर नदी थी।
भारतीय संस्कृति में नदियों को बड़ी श्रद्धा से देखा गया है। उसे किसी कर्मकांड के अंतर्गत माता नहीं माना बल्कि पर्यावरण व प्रकृति को स्वच्छ बनाए रखने के लिये उसे मैय्या जैसा श्रद्धासूचक नाम व व्यवहार दिया। जो लोग नदी को दो किनारों के बीच बहता पानी मानते हैं वे भ्रम व भूल कर रहे हैं। वस्तुतः नदी की परिभाषा में उसका वह सम्पूर्ण जल ग्रहण क्षेत्र आता है, जहाँ बरसी हुई वर्षा की प्रत्येक बूँद बहकर नदी में आती हैं। इस भू-भाग में जो जंगल, खेत, पहाड़, बस्तियाँ, जानवर व अन्य सभी चल-अचल वस्तुएँ हैं वे भी उसका शरीर ही हैं। इसमें निवासरत कीटपतंगों से लगाकर बड़े-बड़े पहाड़ों तक से मानव जब व्यवहार में परिवर्तन करता है तो उसका सीधा प्रभाव नदी पर पड़ता है। चलते-चलते यह प्रभाव समान मात्रा में वहाँ निवास करने वाले लोगों पर भी पड़ने लगता है।
विश्व को सर्वाधिक ऑक्सीजन देने वाला अमेजन का घना जंगल राष्ट्रीय आय बढ़ाने के नाम पर दक्षिण अमेरिका में काटा जा रहा है। विश्व के वैज्ञानिक इसके दुष्प्रभाव की गणना कर समाज और सरकारों को चेतावनी दे चुके हैं। कम ज्यादा मात्रा में विश्व के अर्द्धविकसित व विकासशील देशों का भी यही व्यवहार अपनी प्राकृतिक सम्पदाओं के प्रति है। चिंता का विषय है कि पर्यावरण की मौलिक समझ का आज के अधिकतर योजनाकारों में भी अभाव है, जो विश्व-पर्यावरण संकट का प्रमुख कारण है। जबकि आज से चार सौ साल पहले शिवाजी महाराज अपने आज्ञापत्र (शासकीय आदेश) में स्पष्ट लिखते हैं कि अनावश्यक रूप से कोई भी वृक्ष ना काटा जावे, यदि अनिवार्य हो तो कोई बूढ़ा वृक्ष उसके मालिक की अनुमति के बाद ही काटा जावे।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्तराष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन। (यूएनएफसीसीसी) प्रतिवर्ष विश्व के किसी-न-किसी देश में जलवायु परिवर्तन पर एक पखवाड़े लम्बा अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करता है। जी-7 जैसी महाशक्तियाँ व चीन, भारत जैसे उभरते देशों से लगाकर तुवालु (न्यूजीलैण्ड के पास एक छोटा टापू देश) तक के राष्ट्र इसमें भाग लेते हैं। वहाँ पूरे समय गरमा-गरम बहस, वाद-प्रतिवाद व विचार-विमर्श होते हैं। पिछले पच्चीस-तीस सालों में यह प्रयत्न अगर किसी मुकाम तक नहीं पहुँच पाया है तो इसका एकमात्र कारण है, विश्व नायकों का प्राकृतिक संसाधनों की ओर देखने का सही दृष्टिकोण का अभाव। दृष्टि से ही व्यवहार और आचरण जन्म लेते हैं। अपरिपक्व दृष्टि शासन-प्रशासन में समाज संचालन के निरर्थक मार्ग तय करती है। जो सभी पर्यावरणीय संकटों की जड़ है।
पानी व कीटपतंगे बिगड़ते पर्यावरण से सबसे पहले प्रभावित होते हैं और अपने व्यवहार से उसे व्यक्त भी करते हैं। पृथ्वी पर तीन प्रकार का जल है- (1) समुद्र का खारा जल, (2) मीठा जल, (3) सूक्ष्म जल। पृथ्वी के पर्यावरण में बदलाव होने पर ये अपने-अपने प्रकार से प्रतिक्रिया करते हैं। जमा हुआ जल पिघलकर बहने लगता है। समुद्र में निरंतर बहने वाली धाराओं की दिशा व तापमान में बदलाव आता है। कालांतर में चलते-चलते समुद्र अपनी सीमा छोड़ने लगता है।
यह सब, समुद्र संसार के छोटे-बड़े जीवों, वनस्पतियों व सतहों पर प्रभाव डालते हैं। पृथ्वी पर उपलब्ध मीठे जल के स्रोतों में भी यही परिणाम आते हैं। अगर हम राख/भस्म, धातु या जीवाश्म जैसे तत्वों को छोड़ दें तो कम ज्यादा मात्रा में सभी जल का अस्तित्व होता है। यह जल अनुपात उसके अस्तित्व में प्रभावी भूमिका निभाता है। जल की मात्रा में हुआ परिवर्तन उसके स्वरूप को ही बदल देता है। प्रदूषण के कारण बदल रहा पर्यावरण इन तीनों जलों के वैश्विक अनुपात को तेजी से बदल रहा है। जो बीमार होती पृथ्वी का प्रतीक है।
जो विश्वशांति के पैरोकार हैं वे भी इस मंत्र का जाप करें क्योंकि आने वाले युग में विभिन्न देशों के मध्य बहने वाली नदियाँ ही युद्ध व अशांति का कारण बनेगी।
वस्तुतः पृथ्वी पर बहती हुई ये नदियाँ उसके देह पर लगे थर्मामीटर की तरह हैं जो निरंतर हो रहे जलवायु परिवर्तन, बढ़ते प्रदूषण व तापमान को दर्शाती हैं। नदियों के किनारे खड़े होकर या आसमान से देखकर हम उसके स्वास्थ्य को जान सकते हैं। यह समय कुंती (भारतीय दर्शन) के आदेश पर भीम बनकर भोगवादी आधुनिक जीवन-पद्धति रूपी राक्षस तक पहुँच, उसे समाप्त करने का है। यह जितनी जल्दी होगा नदियों के बहाने स्वयं को बचाने का कार्य हम उतना ही शीघ्र प्रारंभ होते देख सकेंगे।
लेखक परिचय
लेखक नदी संरक्षक, पर्यावरणविद व विचारक हैं। जल संसाधन पर संंसदीय स्थायी समिति के सदस्य हैं। लगातार तीसरी बार राज्य सभा सदस्य निर्वाचित हुए हैं। कई अन्य संसदीय समितियों में भी रहे हैं। गैर सरकारी संस्था नर्मदा समग्र के माध्यम से नर्मदा नदी के संरक्षण व स्वच्छता के लिये जाने जाते हैं। ईमेलः anilmadave@yahoo.com, amd.mpmp@gmail.com
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