विकास के इस मॉडल में उद्योगीकरण श्रमिकों के शोषण, कृषि भूमि के विनाश, किसानों के विस्थापन, खनिज संपदा की लूट और पर्यावरण के विनाश का कारण बन गया है। प्रकृति और पूंजी के बीच शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध पैदा हो जाने से पर्यावरण बुरी तरह क्षतिग्रस्त होता जा रहा है। हमें यह बात अच्छी तरह समझनी होगी कि पानी, कोयला और परमाणु भट्ठियों से उत्पन्न यह समस्त ऊर्जा और जल, जंगल, जमीन जैसे समस्त जीवनदायी स्रोतों और प्राकृतिक खनिज संपदा का उपयोग कर मिल-कारखानों द्वारा उत्पादित समस्त माल मेहनतकश जनता के लिए नहीं है, बल्कि यह अमीरों के भोग-विलास के लिए, उनके अकूत मुनाफे की असीम भूख को तृप्त करने के लिए है।
अरावली पर्वतमाला से घिरा दक्षिणी राजस्थान मेवाड़ और मारवाड़ के दो प्राकृतिक क्षेत्रों में विभाजित है। मेवाड़ में जहां दुर्गम जंगल, पहाड़, नदियां और झील-झरने हैं, वहीं मारवाड़ या मरु प्रदेश रेत के टीलों के बीच खड़ी हवेलियों और प्राचीन दुर्गों को अपने अंक में समेटे हुए सूखा प्रदेश नजर आता है। यहां हम मेवाड़ पर एक नजर डालेंगे। जयपुर से आगे बढ़ने पर चित्तौड़गढ़ पार करने के बाद पहाड़ियों से घिरा झीलों का शहर उदयपुर आता है। इसके चारों ओर फैले दुर्गम जंगल-पहाड़ और घाटियां कभी राणा पुंजा भील और महाराणा प्रताप के हल्दी घाटी का रणक्षेत्र रही थीं। दूर-दूर तक फैले इस आदिवासी अंचल के बीच में आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, राजसमंद, प्रतापगढ़, चित्तौड़गढ़, पाली और सिरोही आदि शहर चमकते टापू-से दिखते हैं। प्रात:काल जीविकोपार्जन के लिए इन कस्बों-शहरों में मजदूरी के लिए जाते हुए और सायंकाल जंगलों में अपनी केलूपोत घास-फूस की झोपड़ियों में लौटते हुए आदिवासियों को देखा जा सकता है। मोतीलाल तेजावत, गोविंद गुरु, काली बाई खांट, विजय सिंह पथिक आदि के नेतृत्व में इन आदिवासियों के पूर्वज अनेक वर्षों तक अंग्रेजों और राजा-महाराजाओं से लड़ते रहे।सत्ता हस्तांतरण के बाद भी आज तक वे जीविका के साधनों से वंचित जिन दुर्गम जंगल-पहाड़ों में भूखे-नंगे अपनी जिंदगी के दिन काट रहे हैं, उन्हीं जंगलों के भूगर्भ में अमूल्य खनिज संपदा के भंडार भरे पड़े हैं। इस पर औद्योगिक घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिद्ध-दृष्टि पड़ चुकी है, मगर इसकी जानकारी यहां के बाशिंदों को नहीं है। उन्हें तो यह भी पता नहीं है कि वे जंगल की जिस जमीन पर अपने झोपड़े बना कर रहे हैं, वहां सोना उगलने वाली जमीन है। यहां हम इस प्राकृतिक संपदा की कुछ जानकारी संक्षेप में दे रहे हैं। आज जो खोज-अंवेषण हो रहे हैं, उनसे पता चला है कि उदयपुर के देवारी और डबोक के बीच स्थित तुलसीदास की सराय गांव में तीन सौ तीस से लेकर दो सौ पचास करोड़ वर्ष तक पुरानी खनिज संपदा की ऐसी चट्टानें हैं, जिनमें पायराफिलाइट नामक खनिज का भंडार है। उदयपुर में मिट्टी के टीलों के नीचे दबी हुई चार हजार वर्ष पुरानी आहाड़ सभ्यता के प्रमाण यहां खनन कर्म की प्राचीनता को स्वत: स्पष्ट कर देते हैं। तांबे की उपलब्धता के कारण ही आहाड़ सभ्यता तांबे की नगरी के नाम से जानी जाती थी। इसी तरह, राणा प्रताप की राजधानी गोगुंदा के रास्ते में पड़ने वाले ईसवाल या आयसवाल और नठारा की पाल में मिली भट्ठियां लोहा गलाने का संकेत देती हैं।
20 मई 2010 को एक दैनिक समाचार पत्र ने लिखा था कि ‘जावर माइंस में तो सतह से ही (ओपन कास्ट माइनिंग) चांदी निकलती है। यहां सीसा भी निकलता रहा है। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में भी जावर में व्यवस्थित खनन के प्रमाण मिलते हैं।’ इस अखबार में जावर माइंस की गलन भट्ठियों के पुरावशेष का चित्र भी प्रकाशित किया गया था। इससे स्पष्ट होता है कि आठ सौ साल पहले जावरमाला की पहाड़ियों में खनिजों का व्यवस्थित खनन होता था। उसके पास ही प्रगलन भट्ठियां भी मिली हैं। इसके बाद धीरे-धीरे खनन बढ़ता रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1942 में ‘मेवाड़ मिनरल कॉरपोरेशन’ कंपनी मोचिया में खनन करती थी। 1945 में मेवाड़ कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया नामक निजी कंपनी आई। इसी वक्त मेवाड़ इंडस्ट्रियल ऐंड कमर्शियल सिंडिकेट भी बनी थी जिसके निदेशक मोहनलाल सुखाड़िया, भीलवाड़ा के मानसिंहका, जमनालाल बजाज आदि थे। 10 जनवरी 1966 को हुए राष्ट्रीयकरण के बाद हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड की स्थापना हुई थी।
खनिज संपदा की खोज का यह क्रम निरंतर जारी रहा है। उपर्युक्त दैनिक ने नवीनतम खोजों के हवाले से ‘खनिजों से भरी मेवाड़ धरा’ कहते हुए तथ्यों के आधार पर 7 अगस्त 2011 को यह खबर प्रकाशित की थी: ‘‘सर्वे के अनुसार बांसवाड़ा जिले के लोहारिया में तीस मिलियन टन, बारी लालपुरा में पंद्रह मिलियन टन, कमेरा उंडवाला में तीन सौ छियासी मिलियन टन, दांता और केला मेला में सौ मिलियन टन लाइमस्टोन दबा है। सिरोही जिले के कुई सिवाया में तीन मिलियन टन और उदयपुर जिले के सेंदमारिया-बीकरनी में एक सौ चौंतीस मिलियन टन लाइमस्टोन है।’’ बांसवाड़ा से डूंगरपुर तक की जमीन की पट्टी के अंदर स्वर्ण भंडार होने के इस नवीनतम समाचार से कई लोग चौंक उठे थे। समाचार के अनुसार ‘‘डूंगरपुर जिले के पादर अमझेरा और उदयपुर जिले के जनजानी और जावर के वन क्षेत्र में बेस मेटल्स दबा है। इसमें कॉपर, जिंक, शीशा हैं। बांसवाड़ा जिले के जगपुरा-भूखिया में सैकड़ों मिलियन टन सोना दबा है, जिसे वन क्षेत्र होने के कारण फिलहाल हाथ लगाना संभव नहीं है। उदयपुर जिले में नठारा की पाल में आयरन और बाघदड़ा क्षेत्र में कई मिलियन टन रॉक फास्फेट है।’’
औद्योगिक घराने और बहुराष्ट्रीय कंपनियां मेवाड़ क्षेत्र में खनिज संपदा की खोज में लगी हुई हैं, ताकि इसका दोहन कर अपने मुनाफे के लालच को पूरा कर सकें। देश और राज्य की सरकारें विकास और उद्योगीकरण का नारा देकर इसमें उनका सहयोग कर रही हैं। खनन कार्य शुरू होते ही यहां के आदिवासियों को विस्थापन का शिकार होना पड़ेगा। स्वर्ण भंडारों के अलावा मेवाड़ क्षेत्र के बांसवाड़ा जिले में मैगनीज नामक एक ऐसे खनिज पदार्थ का दोहन भारतीय इस्पात प्राधिकरण द्वारा किया जा रहा है जिसका उपयोग विशेष रूप से रक्षा उपकरणों, यानी टैंक, बंदूक, मिसाइल आदि के निर्माण में किया जाता है। उदयपुर और नाथद्वारे के बीच स्थित चीखा का घाटा और कैलाशपुरी (इकलिंगजी) के मध्य में बसे बड़ीसर नामक स्थान में भी मैगनीज के भंडार का पता चला है। इसी प्रकार उदयपुर और राजसमंद जिलों के बीच स्थित ईशवाल, लोसिंग-कड़िया, कठार, मचीन, खमनेर-हल्दी घाटी आदि क्षेत्रों में तांबा, शीशा, चांदी, अभ्रक आदि खनिजों के भंडार होने की संभावनाएं व्यक्त की जा रही हैं।
अभी नवीन खोजों के आधार पर दक्षिणी राजस्थान में पेट्रोलियम का भी पता लगा है। इस संबंध में सबसे पहले वर्ष 2006 में भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण (जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) द्वारा की गई खोजबीन से पता चला कि दक्षिणी राजस्थान में भी तेल के भंडार हैं। हवाई सर्वे द्वारा लिए गए अंतरिक्ष मानचित्र में दर्शनी चट्टानों को धरती के ऊपर निकला दर्शाया गया है। ये दर्शनी चट्टानें उसी अवस्था में ऊपर पाई जाती हैं, जब पहले उस स्थान पर समुद्र रहा हो और वहां भौगोलिक उथल-पुथल हुई हो। उदयपुर में रॉक सल्फेट की बहुतायत यह सिद्ध करती है कि पहले यहां समुद्र था। इसलिए यह स्पष्ट है कि यहां के भूगर्भ में तेल भंडार है, जो शायद मेवाड़-बागड़ अंचल के उन्नीस हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र तक फैला हुआ है। मेवाड़ का आदिवासी अंचल दुर्लभ जड़ी-बूटियों का खजाना भी है। मेवाड़ के उदयपुर, सिरोही, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ आदि जिलों के दुर्गम अंचलों में अनेक ऐसी दुर्लभ जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं जिनकी अच्छी जानकारी कुछ आदिवासियों और कथूड़ी लोगों को है। ये औषधीय वनस्पतियां और पौधे रोजगार के अच्छे साधन हो सकते हैं। लेकिन न तो सरकार की इसके विकास में कोई रुचि है और न ही इन्हें प्रशिक्षण देने वाला कोई है। इसी प्रकार यहां के जंगलों में बीड़ी बनाने में उपयोगी टिमरू के पत्ते, खजूर, गोंद, शहद, आंवला, सफेद मूसली आदि वनोपज बड़ी मात्रा में पाई जाती हैं।
शीशम, सागवान, महुआ, बांस आदि के वृक्ष गरीब आदिवासियों की जीविका के साधन बन सकते हैं। मगर तस्करों के साथ मिलीभगत से वन विभाग इसे लुटवाने में लगा हुआ है। सच तो यह है कि जब से जंगल सरकार के नियंत्रण में गए हैं, तभी से खनिज संपदा के साथ-साथ वन संपदा भी उद्योगपतियों को मिली लूट की छूट के कारण खत्म होती जा रही है। यह बात मेवाड़ के अलावा देश के दूसरे बहुत-से इलाकों में भी लागू होती है। कर्नाटक का बेल्लारी क्षेत्र अवैध खनन और भ्रष्टाचार के कारण सुर्खियों में रहा है। मगर इस पर चर्चा नहीं हुई कि लौह अयस्क के तेजी से और अतिशय दोहन के कारण बेल्लारी के पर्यावरण का क्या हाल हुआ। खनन का दायरा बढ़ते जाने से वनक्षेत्र सिकुड़ते जा रहे हैं। ऐसे क्षेत्रों में खनन के लिए पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी अनिवार्य है। फिर भी वनक्षेत्रों में खनन का सिलसिला बढ़ता जा रहा है तो इससे यही जाहिर होता है कि या तो पर्यावरण मंत्रालय अपने दायित्वों को लेकर गंभीर नहीं है या उसे पर्यावरण से अधिक खनन उद्योग के हितों की चिंता है।
अंत में, प्रश्न यह है कि सोना उगलने वाले वन प्रदेशों की जमीन में आदिवासी भूखे-नंगे, चिथड़ों में लिपटे हुए, जर्जर घासफूस की झोपड़ियों में ही अपनी जिंदगी गुजारने को मजबूर क्यों हैं? सोने की खानों की प्राप्ति के बाद भी इन क्षेत्रों के निवासियों का विकास क्यों नहीं हुआ है। चाहे वह दक्षिणी राजस्थान हो, झारखंड हो या फिर छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और उड़ीसा का आदिवासी बहुल अंचल हो। इसका मूल कारण यह है कि भूमंडलीकरण के तहत अपनाया गया विकास का मॉडल ही गलत है। विकास के इस मॉडल में असीमित पूंजी और नवीनतम तकनीकी के बल पर हो रहा उद्योगीकरण श्रमिकों के शोषण, कृषि भूमि के विनाश, किसानों के विस्थापन, खनिज संपदा की लूट और पर्यावरण के विनाश का कारण बन गया है। चंद लोग और ज्यादा अमीर होते जा रहे हैं, तो व्यापक जनता और ज्यादा गरीब होती जा रही है। प्रकृति और पूंजी के बीच शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध पैदा हो जाने से पर्यावरण बुरी तरह क्षतिग्रस्त होता जा रहा है। हमें यह बात अच्छी तरह समझनी होगी कि पानी, कोयला और परमाणु भट्ठियों से उत्पन्न यह समस्त ऊर्जा और जल, जंगल, जमीन जैसे समस्त जीवनदायी स्रोतों और प्राकृतिक खनिज संपदा का उपयोग कर मिल-कारखानों द्वारा उत्पादित समस्त माल मेहनतकश जनता के लिए नहीं है, बल्कि यह अमीरों के भोग-विलास के लिए, उनके अकूत मुनाफे की असीम भूख को तृप्त करने के लिए है। यह व्यवस्था नब्बे प्रतिशत मेहनतकश जनता की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं है।
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