आदिवासियों का वन से घनिष्ठ संबंध रहा है क्योंकि वे प्राय: जंगल के बीच अथवा आस-पास रहते हैं, विभिन्न वृक्षों की पूजा करते हैं, विभिन्न जंगली फूलों से श्रृंगार करते हैं (स्त्री तथा पुरुष संताल आदिवासी कान में फूल लगाये और जंगल में बांसुरी बजाते हुए प्राय: दिखते हैं) और जंगल से फल-फूल, साग-सब्जी और कन्दमूल एकत्र करके घर ले जाते हैं, तथा जलावन की लकड़ी ले जाते हैं। मगर एक ओर ठेकेदारों ने और दूसरी ओर वन विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों की मिलीभगत से वनों का काफी विनाश हुआ है।
यह सर्वविदित है कि भारतीय संविधान के अध्याय 4 के अनुच्छेद 51 ए (जी) के तहत सभी भारतीय नागरिकों का यह मूल कर्तव्य है कि वे पर्यावरण (वनों, झीलों, नदियों, वन्य जीवों सहित) की सुरक्षा करें और उसका संवर्द्धन करें तथा सभी जीवित प्राणियों के प्रति करुणा-भाव रखें। दूसरी ओर भारतीय संविधान के अध्याय तीन, अनुच्छेद 21 में जीने का अधिकार सभी नागरिकों को प्राप्त है। यह बहुत बड़ा अधिकार है और इसकी परिधि में मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएं शामिल हो जाती हैं। इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने समय-समय पर विभिन्न मामलों में फैसले दिए हैं कि जीवन के अधिकार में पांच तरह के अधिकार अन्तर्निहित हैं :(क) भोजन का अधिकार
(ख) सम्मान के साथ जीने का अधिकार
(ग) सूचना का अधिकार
(घ) स्वास्थ्य का अधिकार
(ड.) काम का अधिकार
मगर भारत सरकार ने अभी तक सूचना के अधिकार को छोड़कर अन्य अधिकारों के बारे में अलग से कानून नहींं बनाया है। जहां तक भोजन का सवाल है, यह धरती पर निर्भर करता है। धरती के बारे में हमारे पूर्वजों ने जो परिकल्पना की है, वह अत्यंत विस्तृत है। प्राचीनकाल में रचित 'अथर्ववेद' में एक महत्वपूर्ण सूक्ति मिलती है- 'माता भूमि: पुत्रोSहं पृथिव्या:।’ इसका अर्थ है भूमि मेरी मां है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूं। यह सूक्ष्म रूप से ध्यान देने की बात है कि भूमि और पृथ्वी दो अलग-अलग शब्द प्रयुक्त हैं। स्वाभाविक है कि इस प्रयोग के पीछे यह उद्देश्य रहा हो कि जिस भूमि (खेत-बधार) से हम अन्न तथा अन्य भोज्य पदार्थ प्राप्त करते हैं, वह मेरी मां है।
जैसे मनुष्य किसी स्त्री के गर्भ से पैदा होता है, तो उसे मां कहता है। उसी प्रकार अन्न की मां भूमि है और अन्नादि के बिना मानव-जीवन संभव नहींं है, इसलिए भूमि हमारी माता हुई। इस प्रकार जब भूमि मेरी माता है तो ‘मैं पृथ्वी का पुत्र हूं’ यह कहने की क्या आवश्यकता थी? क्या 'भूमि का पुत्र' कहना पर्याप्त नहींं था ? यहां पर रचनाकार की विपुल बुद्धि और दूरदृष्टि सराहनीय है। रचनाकार ने पाया कि भूमि स्थानीय है, सीमित है, तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति करती है और एक तरह से व्यष्टि है, जबकि पृथ्वी पूर्व है, विशाल रूप है, सृष्टि के दीर्घ अस्तित्व का आधार है, वैश्विक क्षेत्रफल वाली है और समष्टि है। इसलिए संकीर्णता, क्षेत्रीयता और व्यष्टि के स्थान पर विशालता, पूर्णता और समष्टि का विकल्प लिया गया है। संस्कृत के साथ-साथ लोक भाषाओं में भी हम 'धरती माता’, ‘पृथ्वी माता' कहते हैं (जिसे यूनान में 'गैया' देवी कहते हैं), क्योंकि वह भूमि की भी माता है, आदि माता है। मगर अथर्ववेद के रचनाकार के इस विशाल उद्देश्य की अनदेखी करते हुए आजकल ‘भूमिपुत्र’ (सन ऑफ द सॉयल) की संकीर्ण भावना तेजी से फैल रही है।
खैर, बात लोक भाषाओं की हो रही थी। भोजपुरी में एक विदाई गीत अत्यंत मार्मिक है कि पिताजी, दहेज के लिए अपना खेत-बारी मत बेचना, मां के गहने मत बेचना, भले मैं कुंवारी ही रह जाऊं:
जिनि बेच्या खेत बधरिया,
जिनि बेच्या माई के जेवरिया
बलु हम रहबै कुआंर, हे बाबा
हिन्दी में कई महत्वपूर्ण गीत धरती के बारे में हैं। मजाज लखनवी का मशहूर गीत काफी प्रचलित है:
बोल अरी ओ धरती बोल
राज सिंहासन डांवाडोल
बादल बिजली रैन अंधियारी, दुख की मारी परजा सारी
बच्चे बूढ़े सब दुखिया हैं, दुखिया नर है दुखिया नारी
बस्ती-बस्ती लूट मची है, सब बनिए हैं सब व्यापारी
बोल कि तेरी खिदमत की है, बोल कि तेरा काम क्या है
बोल कि तेरे फल खाए हैं, बोल की तेरा दूध पिया है
इसी गीत में आम जनता के कष्ट का विवरण तो है ही, दूसरी ओर यह स्वीकार किया गया है कि मेरा-तुम्हारा रिश्ता बेटा और मां का है, दूध पिलाने वाली मां और मां का दूध सबसे ज्यादा पौष्टिक आहार है, यह चिकित्सकों द्वारा भी संपुष्ट है। इसीलिए तो भारत का राष्ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्’ है:
वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्।
सुफलां सुजलां, शस्य श्यामलां, मातरम्।।
रहीम ने भी कहा था:
वृक्ष कबहुं नाहीं फल भखै, नदी न सींचे नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर।।
मगर दुर्भाग्य है कि जिस रत्नगर्भा धरती (जिस देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती) हमें भोजन, वस्त्र, मकान से लेकर हीरे-जवाहरात नि:शुल्क दे रही है, उसका हम खनन-दोहन इस सीमा तक कर रहे हैं कि वह बदरंग और कुरूप हो गयी है। भारत में करीब आठ लाख हेक्टेयर भूमि हर साल बीहड़ में तब्दील हो रही है, जैसा कि विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र ने रेखांकित किया है।
पश्चिमी देशों में औद्योगीकरण की नींव प्राकृतिक संसाधनों के अधिकतम दोहन पर टिकी रही है, मगर भारतीय संस्कृति में प्रकृति से मात्र जरूरत भर चीजें (खाद, भोजन, फल, छाल, चारा आदि) लेने की परंपरा रही है, वन देवी की पूजा होती रही है, नदी एक देवी की तरह पूजी जाती है, पीपल, नीम, बरगद, तुलसी आदि में देवी-देवताओं का वास बताया गया है और ये हमारे दैनिक जीवन में घरेलू औषधि के रूप में भी प्रयुक्त होते रहे हैं। शायद इसीलिए कहा गया है: 'कितना पंछी उड़े आकाश। चारा है धरती के पास।' सो चारा के रूप में जीवन देती है धरती हमें। इसीलिए जो लोग तर्क, तथ्य और सत्य से विषयान्तर होकर हवाई बातें करते हैं, उन्हें कहा जाता है: ‘सरजमीन की बात करें।’
इस प्रकार धरती पर हम रहते हैं और जीविका (कृषि आदि) चलाते हैं, सो हम धरती के निकटस्थ हैं। भौतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सभी अर्थों में (जबकि आकाश काफी दूर है हमसे। उसके ओर-छोर की हम सिर्फ कल्पना कर सकते हैं, स्वयं महसूस नहींं कर सकते)।
एक लोक कथा प्रचलित है कि एक बार एक शैतान को किसी वीर राजा ने पकड़ कर कैद कर लिया, तो उसने कहा कि मुझे हमेशा कोई न कोई काम चाहिए। जिस दिन काम नहींं मिलेगा, वह राजा की सम्पत्ति नष्ट करना शुरू कर देगा। राजा ने उसे बहुत सारे काम दिये मगर उसने कम्प्यूटर से भी ज्यादा तीव्र गति से उन सबको निपटा दिया और अगले काम के बारे में पूछा। राजा चिंतित हो गये। उनके एक चतुर मंत्री ने सलाह दी- 'महाराज! इसे बांस लगाकर आकाश पर चढ़ने का काम दे दीजिये।’ राजा ने वैसा ही किया। और आज तक वह शैतान अकाश में बांस लगाकर चढ़ ही रहा है।
इस प्रकार धरती वास्तविकता का भी प्रतीक है। भारत में 1966-67 में हरित क्रान्ति फसलों की अत्यधिक उत्पादकता (उन्नतशील बीज, रासायनिक उर्वरक, रासायनिक कीटनाशक और सुनिश्चित सिंचाई) के रूप में हुई। मगर बीस वर्षों के बाद से उसके दुष्परिणाम सामने आने शुरू हो गये। पहला, पानी का स्तर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उ. प्र . (जो हरित क्रांति का केन्द्र रहा है) में काफी नीचे चला गया। दूसरा, मिट्टी मेंलवणीकरण की समस्या पैदा हो गयी। तीसरा, नये खर-पतवारों और कीटों में वृद्धि हुई। चौथा, अत्यधिक रसायनों के उपयोग से खाद्यानो में विषैली दवाओं का अंश घुल-मिल गया और खाने वालों के खून में भी उसका अंश पाया गया।
इन 'जादुई बीजों' और रसायनों के कारण मिट्टी का सत्व विनष्ट हो गया अर्थात् सूक्ष्म पोषक तत्वों (जिंक, लोहा, तांबा, मैग्नीज, मैग्नीशियम,मोलिबडेनम, बोरोन आदि) की नितांत कमी हो गयी, क्योंकि ये रासायनिक उर्वरक (परदेसी खाद) सूक्ष्म पोषक तत्व नहींं देते। सो अन्तत: उत्पादन-वृद्धि दर घटती जा रही है और भूमि बंजर बनती जा रही है। देसी खादों (गोबर, कम्पोस्ट, ढैंचा, सनई, खल्ली आदि) का उपयोग नगण्य हो गया है, जबकि इनमें सूक्ष्म पोषक तत्व पाये जाते हैं। दूसरी ओर किसान अज्ञानता और अपेक्षाकृत सस्ता होने के कारण प्राय: नाइट्रोजन उर्वरक का ही ज्यादा उपयोग करते हैं, क्योंकि पोटाशियम और फासफोरस उर्वरक ज्यादा महंगे हैं।
रांची कृषि कॉलेज के एक अध्ययन में यह भी पाया था कि एक हेक्टेयर में एक सौ किलो एन् पी के डालने से प्रति हेक्टेयर 629 ग्राम जिंक और 433 ग्राम तांबा कम हो जाता है अर्थात् ये रासायनिक उर्वरक सूक्ष्म पोषक तत्वों के दुश्मन हैं। यह भी पाया गया है कि एक वर्ष में जितना उर्वरक डालने से जो उत्पादन होता है, अगली बार उतना ही उत्पादन प्राप्त करने के लिये ज्यादा उर्वरक डालना पड़ता है। यह सिद्ध करता है कि मिट्टी की आंतरिक शक्ति इन उर्वरकों के कारण क्षीण हो रही है।
इसके अलावा भारत जैसे विकासशील देशों की खेती घाटे में रहकर अब खतरे की परिधि में आ गयी है। इसका प्रमुख कारण है विश्व व्यापार संगठन की शर्तों को मानना। 1995 से यह संगठन कार्यरत है और दस वर्षों में कृषि पर इसके गंभीर परिणाम हुए हैं। पहला, विश्व व्यापार संगठन की प्रमुख शर्त है कि विकासशील देश खेती पर अनुदान देना बंद कर दें। दूसरे, विदेशों से कृषि उत्पादों के आयात पर कोई प्रतिबंध नहींं लगे। तीसरे, विभिन्न फसलों के बीजों का पेटेंट विकासशील देशों को मानना होगा और पेटेंट किए हुए बीजों एवं अन्य बौद्धिक सम्पदाओं की खरीद में उसके अनुसंधानकर्ता व्यक्ति / संस्था की रायल्टी शामिल होगी औरवे विभिन्न देशों में उसका बाजारीकरण कर सकेंगे।
विश्व व्यापार संगठन के कृषि समझौते के कारण भारत के किसानों की स्थिति बदतर हो गयी है। एक तरफ खेती की लागत बढ़ गयी है और दूसरी ओर उन्हें अपनी उपज का सही बाजार-मूल्य नहींं मिल रहा है। महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के किसान कपास की खेती के लिये कर्ज में आकंठ डूब गये हैं। उन्हें बैंकों से कम ब्याज दर पर और समय पर ऋण नहींं मिलता जिसके कारण वे महाजनों से ऊंची ब्याज दर पर ऋण लेते हैं और सही दाम नहींं मिलने के कारण ऋण नहींं चुका पाते। वास्तविकता यह है कि प्रेमचन्द के जमाने के सूदखोर महाजनआज ज्यादा फल-फूल रहे हैं।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने स्वीकार किया है कि 2002-05 के दौरान महाराष्ट्र में एक हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के किसानों ने अपेक्षाकृत ज्यादा आत्महत्या की है। इसके अलावा बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने विभिन्न फसलों के बीजों पर एकाधिकार कायम कर लिया है। उदाहरणार्थ, मोनसेंटो नामक बहुराष्ट्रीय निगम ने बिहार के समस्तीपुर जिले में जो उन्नत खेती के लिये प्रसिद्ध है, मकई के प्रशोधित बीजों की आपूर्ति 2004 में बहुतायत मात्रा में की थी और वायदा किया था कि पारंपरिक बीजों की अपेक्षा इसमें कई गुना ज्यादा उत्पादकता होगी।
मगर मकई के हरे पौधों में बालें ही नहीं फूटी जिससे उन सारे किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ा। दुर्भाग्य यह भी है कि भारत में पर्याप्त मात्रा में उन्नतशील बीज उपलब्ध ही नहींं होते और बिहार में तो बिहार राज्य बीज निगम कब्र में सुस्ता रहा है। ये विदेशी बीज काफी महंगे होते हैं, दो-तीन सौ रुपये किलो। छोटा-सीमान्त किसान इन्हें खरीद नहींं सकता।
यह भी उल्लेखनीय है कि ये 'टर्मिनेटर' बीज होते हैं अर्थात् इनको तैयार करने में ऐसी आनुवंशिक प्रविधि उपयोग में लायी जाती है कि इन्हें खाया तो जा सकता है मगर बीज के रूप में उपयोग नहींं हो सकता- इनकी अंकुराने की आंतरिक शक्ति को 'बधिया' कर दिया जाता है। जबकि भारत जैसे विकासशील देशों में परंपरा रही है कि खलिहान से दाना घर में आने के बाद प्राय: तीन श्रेणियों में बांटा जाता है :
(क) पारिवारिक उपयोग के लिये
(ख) बाजार में बेचने के लिये
(ग) भविष्य में बोने के लिये बीज के रूप में
बीजों को सुरक्षित और संरक्षित करने की देशज प्रणालियां भारत के कोने-कोने में प्रचलित रही हैं और इसमें महिलाओं का योगदान काफी महत्वपूर्ण रहा है। यह कहना अप्रासंगिक नहींं होगा कि भारत में विभिन्न फसलों की हजारों देशी प्रजातियां बाहरी चीजों के कारण लुप्त हो गयी हैं जबकि ये कम समय में, कम उर्वरक खर्च में, कम पानी में आसानी से पैदा होती थी।
भारत में भू-क्षरण की समस्या भी काफी तेजी से बढ़ रही है। भारत में करीब 10 करोड़ हेक्टेयर जमीन परती है (जो गैर-जंगली क्षेत्र में है) और इसमें 33 प्रतिशत भू-क्षरण के कारण हैं। वनों का तेजी से विनाश, खनन की अवैज्ञानिक पद्धति, ज्यादा वर्षा होना और उसको रोकने की समुचित व्यवस्था न करना अन्य कारण हैं। जैसे एक वृक्ष काटने के दौरान जंगल में कई वृक्षों का नुकसान होता है, उसी प्रकार खनिजों की खुदाई के दौरान सड़क, रेल, रज्जुमार्ग, भवन, भंडार, आवास आदि के लिये खानों के क्षेत्रफल से काफी ज्यादा जमीन का दुरुपयोग होता है।
अब पानी का सवाल उठता है। वर्षा जल को भारत में बचाने का प्रयास प्राय: नगण्य रहता है जिसके कारण भूगर्भ जल का उपयोग ज्यादा करना पड़ता है। भूगर्भ जल का उपयोग घरेलू कार्यों हेतु, औद्योगिक कार्यों हेतु और कृषि कार्यों हेतु मुख्य रूप से किया जाता है। रोजग्रांट, रिंगलर और गरपेसियो के अनुसार 1995 में विकासशील देशों द्वारा घरेलू कार्य हेतु 147 बिलियन घन मीटर (6 प्रतिशत), कृषि कार्य हेतु 20-30 बिलियन घन मीटर (87 प्रतिशत) तथा औद्योगिक कार्य हेतु 170 बिलियन घन मीटर ( 7 प्रतिशत) जल का उपयोग किया जाता था। दूसरी ओर विकसित देशों द्वारा घरेलू कार्य हेतु 174 बिलियन घन मीटर (13 प्रतिशत), कृषि कार्य हेतु 664 बिलियन घन मीटर (47 प्रतिशत) तथा औद्योगिक कार्य हेतु 560 बिलियन घन मीटर (40प्रतिशत) जल का उपयोग किया जाता था। इस प्रकार पूरे विश्व में घरेलू कार्य हेतु 322 बिलियन घन मीटर, कृषि कार्य हेतु 2694 बिलियन घन मीटर और औद्योगिक कार्य हेतु 730 बिलियन घन मीटर जल का उपयोग किया जाता था। इससे स्पष्ट होता है कि जनसंख्या कम होने के बावजूद विकसित देशों के द्वारा घरेलू और औद्योगिक कार्यों हेतु काफी ज्यादा जल का उपयोग किया जाता है।इन विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि 2020 में पूरे विश्व में घरेलू कार्य हेतु 579 बिलियन घन मीटर (11 प्रतिशत), कृषि कार्य हेतु 3138 बिलियन घन मीटर 62 प्रतिशत तथा औद्योगिक कार्य हेतु 1344 बिलियन घन मीटर (27 प्रतिशत) जल की आवश्यकता होगी। इससे निश्चित रूप से हमारे भूगर्भ जल स्तर पर ज्यादा भार पड़ेगा। यदि निकट भविष्य में वर्षा में जल को संरक्षित नहींं किया गया, तो जल की काफी बड़ी समस्या पैदा हो सकती है। खेती की सिंचाई के लिए जल का दुरुपयोग भी किया जाता है। अर्थात् कम पानी की जरूरत होने पर भी पूरे खेत को पानी से लबालब भर दिया जाता है और दूसरी ओर ज्यादा पानी की जरूरत वाली फसलें (गन्ना, धान, केला) उगाई जाती हैं। इसलिए एक ओर कम पानी की जरूरत वाली फसलों को उगाने पर जोर देने की जरूरत है और दूसरी ओर सिंचाई की बेहतर प्रबंधन प्रविधि 'ड्रिप' को प्रचारित-प्रसारित करने की भी जरूरत है।
मगर बहुराष्ट्रीय कंपनियां सस्ती दर पर मजदूर उपलब्ध होने के कारण अपनी इकाइयां भारतजैसे विकासशील देशों में लगाना चाहती हैं। दूसरी ओर शासक वर्ग नयी आर्थिक नीति-उदारीकरण, भूमंडलीकरण तथा निजीकरण- के तहत बाहरी निगमों को अपने देश में पूंजी निवेश के लिए हाथ फैलाये स्वागत में खड़े होकर बुलाते हैं और उन्हें नाना प्रकार की रियायतें (सस्ती दर पर जमीन, जल, बिजली, सड़क आदि) भी देने को तैयार रहते हैं। सो बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी शर्तों पर विकासशील देशों में औद्योगिक इकाइयां खोलती हैं। उदाहरणार्थ, भारत में पेप्सी के 40 तथा कोकाकोला के 55 संयंत्र विभिन्न राज्यों में लगाए गये हैं। इनमें सीधे उत्पादन करने वाली फ्रेंचाइजी इकाइयां भी शामिल हैं। ये भूगर्भ जल का अंधाधुंध दोहन करती हैं जिसके लिए वे कोई राशि स्थानीय, राज्य सरकार या भारत सरकार को नहींं देती हैं।
केरल के पालघाट जिले में प्लाचीमाड़ा गांव में 2000 ई. में कोकाकोला संयंत्र लगाया गया जहां प्रतिदिन 12.24 लाख बोतल पेय रोजाना तैयार करने की क्षमता थी। पंचायत से मिली अनुज्ञप्ति से परे वह 15 लाख लीटर पानी प्रतिदिन निकालने लगा जिसके कारण वहां का जल स्तर 150 फीट से घटकर 500 फीट नीचे चला गया। इस तरह एक ओर इस संयंत्र ने पंचायत की जल सम्पदा की चोरी की और दूसरी ओर बचे हुए जल को प्रदूषित भी किया है, क्योंकि यह अपशिष्ट पदार्थों को संयंत्र के भीतर बने खाली कुओं में अवैध रूप से डालता है।
इसके फलस्वरूप 260 नलकूप जमीन के नीचे पानी न मिलने से सूख गये हैं। जब पंचायत के प्रधान के उस संयंत्र को 'कारण बताओं’ नोटिस दी तो उसने उन्हें तीन करोड़ रुपये रिश्वत देने की कोशिश की मगर उन्होंने इंकार कर दिया। 2003 में जिला चिकित्सा अधिकारी ने जांच कर रिपोर्ट दी कि प्लाचीमाड़ा में कुंए/ हैंडपंप आदि का पानी पीने योग्य नहींं है। तबसे वहां एक बड़ा आन्दोलन चल रहा है जिसमें ‘जल स्वराज अभियान' तथा 'आजादी बचाओ आन्दोलन' प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। विभिन्न आन्दोलनकारियों, विद्वानों तथा स्थानीय पंचायत के द्वारा प्याचीमाड़ा घोषणा पत्र घोषित किया गया है जिसमें निम्नलिखित बातें मुख्य है:
(क) जल जीवन का आधार है, यह प्रकृति का उपहार है तथा यह पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवित प्राणियों का है।
(ख) जल निजी सम्पत्ति नहींं है। यह सभी के जीवन-निर्वाह हेतु सांझा संसाधन है।
(ग) जल मनुष्य का मौलिक अधिकार है। इसका संरक्षण, सुरक्षा और प्रबंधन किया जाना चाहिये। जलाभाव और प्रदूषण को रोकना तथा इसे आने वाली कई पीढ़ियों के लिये बचाकर रखना हमारा मौलिक कर्तव्य है।
(घ) जल सामग्री नहींं है, इसे बाजारू बनाने, इसका निजीकरण और निगमीकरण करने वाली सभी आपराधिक कोशिशों का हमें विरोध करना चाहिये।
(ड.) इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर जल नीति बनायी जानी चाहिये।
(च) जल के संरक्षण, उपभोग और प्रबंधन का अधिकार पूर्णत: स्थानीय समुदाय में निहित है। जल जनतंत्र का मुख्य आधार है। इस अधिकार को कम करने अथवा इसे छीनने की बाबत किया गया कोई भी प्रयास अपराध है।
(छ) कोकाकोला, पेप्सीकोला निगम के जहरीले उत्पादों के उत्पादन और विपणन के परिणामस्वरूप पूर्ण बर्बादी होती है, प्रदूषण फैलता है और इससे स्थानीय समुदाय के अस्तित्व को भी खतरा है।
(ज) प्लाचीमाड़ा पुडुड्डेरी और विश्व के विभिन्न हिस्सों में हुए विरोध दुष्ट निगम गिरोह के विरुद्ध साहसिक संघर्ष का संकेत है जो हमारे जल की चोरी कर रहा है।
(झ) हम जो आदिवासियों के साथ युद्ध क्षेत्र में डटकर खड़े हैं और प्लाचीमाड़ा में भयानक व्यावसायिक ताकतों की ज्यादतियों के विरुद्ध आवाज उठाये हैं, दुनिया भर की जनता से अनुरोध करते हैं कि वह कोकाकोला और पेप्सीकोला के उत्पादों का बहिष्कार करें।
यह उल्लेखनीय है कि इन शीतल पेय पदार्थों ने विज्ञापन की दुनिया पर कब्जा करके शब्दों केअर्थ भी बदल दिया है। फिल्म अभिनेता शाहरुख खान, आमिर खान, अमिताभ बच्चन या क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेन्दुलकर और सौरभ गांगुली प्रचार करते हैं: 'ठंडा मतलब कोकाकोला', 'यह प्यास है बडी' अर्थात् ठंडा शब्द का हरण करके कोकाकोला तक सीमित कर दिया जिससे बड़ी से बड़ी प्यास बुझाने का दावा किया जाता है। चूंकि फिल्म अभिनेता या क्रिकेट खिलाड़ी बच्चों और नवयुवकों/युवतियों के आदर्श होते हैं, इसलिये वे उनकी नकल करते हैं। यहां उल्लेखनीय है कि शब्दों का अर्थ बदलना यहां की अर्थ व्यवस्था के ऊपर लटकी तलवार तो है ही, हमारी संस्कृति के ऊपर भी एक लटकी हुई तलवार है। एक बार चीन के विद्वान दार्शनिक कन्फ्यूसियस से एक व्यक्ति ने पूछा- ‘यदि आपको चीन का सम्राट बना दिया जाये, तो सबसे पहले आप क्या कार्य करेंगे?’
'शब्दों का परिशोध (रेक्टिफिकेशन) करूंगा'- उसने उत्तर दिया।
यह भी रेखांकित करने योग्य है कि इन शीतल पेय पदार्थों में कैलोरी,शक्कर और फास्फेट के अलावा कुछ नहींं रहता जबकि संतरे के जूस या दूध में विटामिन, फोलिक एसिड, कैल्सियम, पोटैशियम, मैग्नीशियम जैसे पोषक तत्व भी होते हैं। इतना ही नहींं, इसके पीने से डायबिटीज की बीमारी काफी हो रही है तथा इसमें कीटनाशकों तथा अन्य जहरीले तत्वों (फास्फोरिक एसिड, कैफीन, इथालिन, ग्लाइकोल) की मात्रा अनुमान्य सीमा से काफी अधिक है। अमेरिका और यूरोपीय संघ के देशों में कीटनाशकों के अवशेषों के अनुमान्य प्रतिशत से करीब 36 गुणा ज्यादा कीटनाशक अवशेष की मात्रा भारत में बिकने वाले पेप्सी और कोकाकोला में पायी जाती है। इसलिये कुछ लोग इसे 'पेस्टीकोला' भी कहते हैं। योगाचार्य बाबा रामदेव का यह कहना सही है कि पेप्सी और कोकाकोला शौचालय साफ करने तथा खेती में खाद के रूप में इस्तेमाल करने की चीज है, पीने की नहींं।
भारत में एक ओर इन शीतल पेयों का उद्योग करीब 7000 करोड़ रुपये का है, क्योंकि एक बोतल पर लागत खर्च 50 पैसे से कम होती है मगर उसे 15 रुपये में बेचा जाता है। इसी प्रकार बंद बोतल के पानी का कारोबार भारत में 1000 करोड़ रुपये का है। भारत में 660 करोड़ बोतल शीतल पेय पदार्थ प्रतिवर्ष पिये जाते हैं। पेप्सी और कोकाकोला की दो बहुराष्ट्रीय कंपनिया भारत में उपभोग किये जाने वाले शीतल पेयों को 90 प्रतिशत नियंत्रित करती हैं। इस प्रकार हमारे भूगर्भ जल का नि:शुल्क दोहन करके ये निगम हम भारतीयों को महंगी दर पर जहरीले और अस्वास्थ्यकर पेय पदार्थ बेचते हैं। यह इस पूंजीवादी विश्व व्यवस्था का प्रतिफल है जहां वैश्वीकरण के नाम संप्रभु राष्ट्र-राज्यों की स्वायत्तता खतरे में है। भले राजनीतिक गुलामी वाला साम्राज्यवाद अब नहींं है, मगर आर्थिक परतंत्रता हमारी खेती, उद्योग और सेवाओं में कण-कण में व्याप्त है। इसी वजह से प्रसिद्ध ब्रांडों वाली दवा कंपनियां लागत खर्च से सैकड़ों गुना अधिक दाम पर दवाएं बेचती हैं क्योंकि उनका एकाधिकार है और हमारे चिकित्सक, जो विभिन्न दवाओं का नुस्खा लिखने और खास पैथोलॉजिक जांच घरों में जांच लिखाने के लिये मोटा कमीशन पाते है, उन्हीं मंहगी दवाओं को लिखना श्रेयस्कर समझते हैं।
यह विडम्बनापूर्ण है कि भारत में कई राज्य यथा राजस्थान, आंध्र प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ प्राय: सूखे की चपेट में आ जाते हैं जिसके कारण वहां अकाल (अनाज की अनुपलब्धता), जलकाल (जल की कमी) और तिनकाल (चारा की कमी) की मार लोगों को झेलनी पड़ती है। भारत की कुल भूमि का 19 प्रतिशत हिस्सा और कुल आबादी के 12 प्रतिशत लोग प्राय: सूखे की चपेट में आते हैं। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में योजना आयोग के अनुसार सूखा पड़ने का अंतराल निम्नलिखित है:
(क) असम और उतर-पूर्वी भारत में बहुत कम सूखा पड़ता है- पचास वर्षों में एक बार।
(ख) पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, कोंकण, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार और केरल में 5 वर्षों में एक बार सूखा पड़ता है।
(ग) पूर्वी उतर प्रदेश, दक्षिणी कर्नाटक, विदर्भ में 4 सालों में एक बार सूखा पड़ता है।
(घ) पूर्वी राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, रायलसीमा, तमिलनाडु और कश्मीर में 3 सालोंमें एक बार सूखा पड़ता है।
(ड़) पश्चिमी राजस्थान में ढ़ाई वर्षों में एक बार सूखा पड़ता है।
भारत में भू-क्षरण की समस्या भी काफी तेजी से बढ़ रही है। भारत में करीब 10 करोड़ हेक्टेयर जमीन परती है (जो गैर-जंगली क्षेत्र में है) और इसमें 33 प्रतिशत भू-क्षरण के कारण हैं। वनों का तेजी से विनाश, खनन की अवैज्ञानिक पद्धति, ज्यादा वर्षा होना और उसको रोकने की समुचित व्यवस्था न करना अन्य कारण हैं। जैसे एक वृक्ष काटने के दौरान जंगल में कई वृक्षों का नुकसान होता है, उसी प्रकार खनिजों की खुदाई के दौरान सड़क, रेल, रज्जुमार्ग, भवन, भंडार, आवास आदि के लिये खानों के क्षेत्रफल से काफी ज्यादा जमीन का दुरुपयोग होता है। बिक्री योग्य एक टन कच्चे लोहे के साथ दो टन फालतू चीजें निकालकर फेंकी जाती हैं। ऐसे कचरों के कुछ भाग वर्षा के पानी में बहकर खेतों में चले जाते हैं जिससे जमीन अनुपजाऊ बन जाती है, नदियों में इससे गाद बढ़ जाती है और बाढ़ आ जाती है। योजना आयोग ने यह तथ्य गोवा में पाया है।
झारखंड के धनबाद-बोकारो-गिरिडीह आदि जिलों की खदानों में अक्सर आग लगती है अथवा नीचे से पानी आ जाता है या कार्बन डाईऑक्साइड गैस निकल जाती है जिसके कारण हजारों लोग मर चुके हैं। यह ‘धरती मांग रही बलिदान' का उदाहरण नहींं है बल्कि प्रबंधन की अकुशलता तथा अदूरदर्शिता, गरीबों का गरीबी के कारण अवैध खनन आदि मुख्य कारण है। अवैध तथा अत्यधिक खनन ने दून घाटी, मसूरी (जिसे 'पहाड़ियों की रानी' कहा जाता था) को नंगी बना दिया है। वहां मात्र 12 प्रतिशत हरियाली है जबकि घाटी में 60 प्रतिशत हरियाली होनी चाहिये। इन खदानों का मलबा नदी-नहर में बहकर चला जाता है जिससे पीने का पानी और सिंचाई का पानी दोनों दूषित हो जाता है। उस क्षेत्र के 18 गांवों के जल संसाधन में 50 प्रतिशत की कमी पायी गयी है। वहा गेहूं की पैदावार में 40 प्रतिशत तथा धान की पैदावार में 33 प्रतिशत की कमी पायी गयी तथा मवेशियों की संख्या में 35 प्रतिशत की कमी हुई जिससे गोबर की खाद नहींं बन सकी। इसके कारण 'महिला मंगल दल' ने आंदोलन किया और उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप पर रासायनिक विस्फोटों के उपयोग पर रोक लगी तथा खतरनाक श्रेणी की खदानों को बंद कर दिया गया।
बिहार के नालंदा जिले में मुहाने नदी को बांध के नाम पर बंद कर दिया गया जिसके विरुद्ध वहां के ग्रामीणों ने एकता परिषद् के नेतृत्व में लंबा आंदोलन किया, किंतु बिहार विधान परिषद् मेंलंबी बहस और जांच-पड़ताल के बावजूद उसका मुंह नहींं खुल सका- बिना जल की नदी होने से वह फल्गू नदी की बहन बन गई। दूसरी ओर उत्तर बिहार के अधिकतर जिले छह माह तक प्राय: बाढ़ से प्रभावित रहते हैं। बिहार सरकार के सिंचाई विभाग के अनुसार उत्तर बिहार के 21 जिलों के 55579 वर्ग किलोमीटर भौगोलिक क्षेत्र में से 44460 वर्ग किलोमीटर बाढ़ प्रवण क्षेत्र घोषित है और दक्षिण बिहार के 14 जिलों के कुल क्षेत्रफल 35850 वर्ग किलोमीटर में से 24340 किलोमीटर बाढ़ प्रवण क्षेत्र है। स्पष्ट है कि बाढ़ के कारण खेती नहींं हो पाती और उद्योग-धंधों के अभाव में लोग 'तीसरी फसल' (राहत) के ऊपर आस लगाये रहते हैं मगर उस पर कई नेताओं-अधिकारियों-ठेकेदारों और बिचौलियों की गिद्ध दृष्टि लगी रहती है और सभी अपने-अपने हिस्से की हड्डी लेकर चिचोरने में व्यस्त रहते हैं।
यह उल्लेखनीय है कि हिमालय से निकलने वाली पवित्र भागीरथी बंगाल की खाड़ी में पहुंचते-पहुंचते कीचड़ का रूप धारण कर लेती है। जो गंगाजल हिंदुओं के लिये सर्वाधिक पवित्र माना जाता है आज वह काफी दूषित है। बायो केमिकल ऑक्सीजन की अनुशंसित मात्रा दस मिलीग्राम प्रति लीटर के विरुद्ध अमला खोड़ी नदी (गुजरात) में 513 मर्कंडा (हरियाणा) में 509 खारी (गुजरात) में 229, साबरमती (गुजरात) में 100, खान (मध्य प्रदेश) में 71, कालीनदी (उ.प्र ) में 67, हिंडन (उ.प्र) में 48, मुसी (आंध्र) में 26, यमुना (दिल्ली) में 24, और भीमा (महाराष्ट्र) में 20 है। बिहार के 11 जिलों (बक्सर भोजपुर, सारण, वैशाली, समस्तीपुर, बेगूसराय, खगड़िया, भागलपुर, कटिहार, मुंगेर और पटना) में पीने के पानी में आर्सेनिक जैसे विषैले पदार्थ की काफी मात्रा पाई गई जिससे श्वास, कैंसर, गैंगरीन और मूत्राशय में खराबी होती है। दूसरी ओर बिहार के नवादा जिले के रजैली के कछरियाडीह गांव में पानी में फ्लोराइड की अधिक मात्रा के कारण 80 प्रतिशत ग्रामीण अपंग हो गये हैं जिनमें से अधिकतर दलित हैं।
आदिवासियों का वन से घनिष्ठ संबंध रहा है क्योंकि वे प्राय: जंगल के बीच अथवा आस-पासरहते हैं, विभिन्न वृक्षों की पूजा करते हैं, विभिन्न जंगली फूलों से श्रृंगार करते हैं (स्त्री तथा पुरुषसंताल आदिवासी कान में फूल लगाये और जंगल में बांसुरी बजाते हुए प्राय: दिखते हैं) और जंगल से फल-फूल, साग-सब्जी और कन्दमूल एकत्र करके घर ले जाते हैं, तथा जलावन की लकड़ी ले जाते हैं। मगर एक ओर ठेकेदारों ने और दूसरी ओर वन विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों की मिलीभगत से वनों का काफी विनाश हुआ है। मगर कुछ आदिवासियों ने भी लालच में या धोखे में इन ठेकेदारों-अधिकारियों के गठजोड़ में शामिल होकर नकारात्मक भूमिका निभायी है। झारखंड में कोल्हान क्षेत्र (सिंहभूम) में कुछ आदिवासी संगठनों ने संगठित होकर वनों की अवैध कटाई कराई और उनके पारंपरिक हथियारों (तीर-धनुष, गुलेल आदि) के सामने वन और पुलिस विभाग के कर्मचारी-अधिकारी कुछ नहींं कर पाये और न कर पा रहे हैं। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि झारखंड के अधिकतर क्षेत्रों में सरना स्थल (वृक्षों के पुंज) वृक्ष विहीन हो गये हैं। झारखंड राज्य बन जाने के बावजूद वहां जल, जंगल, जमीन के मुद्दे नहींं हल हो पाये।
धरती के बारे में 'वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भारतीय संस्कृति रही है जहां सारी पृथ्वी एक परिवार है मगर आज की सबसे ज्यादा प्रचलित आर्थिक नीति 'भूमंडलीकरण' वसुधैव कुटुम्बकम् के अर्थ में नहींं है क्योंकि इसमें मुख्यत: पूंजी का वैश्वीकरण होता है, श्रम का नहींं।
यह असमान विनिमय संबंधों पर आधारित है जहां विकसित देश अपने किसानों को कई गुणा अनुदान देकर विकसित देशों को कृषि-अनुदान बंद करने के लिए दबाव देते हैं, जहां मलेशिया का पामोलिन आने के कारण भारत के स्थानीय व्यापारियों का शुद्ध सरसों तेल नहींं बिकता और उसके बारे में बीमारी फैलाने का दुष्प्रचार किया जाता है, तथा नारियल का तेल मार खा जाता है, जहां विदेशी वनस्पति के आगे देसी घी नहींं बिकता, जहां विदेशी कार्नफ्लेक के आगे देसी मकई नहींं ठहरती, जहां ‘लेवाई’ जीन के सामने भारतीय सूती कपड़े नहींं टिकते, जहां गणपति पूजा, दीवाली और दुर्गा पूजा के अवसरों पर स्थानीय कुम्हारों द्वारा बनाये गये दीये, मूर्तियां और खिलौने चीनी दीयों, मूर्तियों और खिलौने की तुलना में आकर्षण के लिहाज से कहीं नहींं ठहरते, जहां चाय पीने के लिये कुल्हड़ बाट जोहता रहता है और प्लास्टिक का चमकता छोटा-सा कप बाजी मार ले जाता है।
सचमुच तब लगता है कि माटी कुम्हार से कह रही है कि वह दिन आ गया है, अब मैं तुम्हें रौदूंगी। वैसे तो भला हो पंचायत के मुखिया, अमीर, कुलक का जिन्होंने गांव के पुराने तालाबों का अतिक्रमण कर लिया है जिससे कुम्हार को बर्तन, खिलौने और मूर्तियां बनाने के लिये मिट्टी नहींं मिलती, गांव की महिलाओं को छठ पूजा करने के लिये पर्याप्त और साफ पानी नहींं मिलता। विवाह के दौरान मटकोड़ करने के लिये उपयुक्त जगह नहींं मिलती और बेघरों को कच्चा मकान बनाने के लिये मिट्टी नसीब नहींं होती। ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि महात्मा गांधी ने जिन सात सामाजिक पापों की निंदा की थी, आज उनकी घर-घर में स्तुति हो रही है:
सिद्धांतहीन राजनीति, बिना काम किये धन की प्राप्ति, अंतरात्मा के बिना आनंद, बलिदान के बिना पूजा, मानवता के बिना विज्ञान, नैतिकता के बिना वाणिज्य और चरित्र के बिना ज्ञान।
ऐसी स्थिति में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का यह गीत गुनगुनाते हुए सोचना पड़ता है कि क्या इसका वही अर्थ रह गया है जो गुरुदेव ने सोचा-समझा था:
देश की माटी, देश का जल
हवा देश की, देश के फल
सरस बनें प्रभु सरस बनें
देश के घर और देश के घाट
देश के बन और देश के बाट
सरस बनें प्रभु सरस बनें
देश के तन और देश के मन
देश के घर के भाई-बहन
विमल बने प्रभु विमल बनें
क्या धरती के दुश्मन, मगर सत्ता और समाज के ठेकेदार, समझ रहे हैं मेरी बात? मिर्जा गालिब के शब्दों को उधार लेना बहुत जरूरी है यहां:
यारब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको जुबां और।
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