धरती अंजुरी क्यों नहीं बन सकती?

क्यों न भरपूर सावन के उल्लास को हम संग्रहण के प्रण का भी एक अवसर बना लें। खुद से यह पूछना बहुत जरूरी है कि जल के लिए धरती अंजुरी क्यों नहीं बन सकती?

पिछले साल ठीकठाक बारिश हुई तो इस साल गर्मियों में पानी की जुगाड़ के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी। इससे पहले के सालों में छोटे से लेकर बड़े शहरों तक में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची थी। मध्यप्रदेश के कुक्षी, आलीराजपुर, राणापुर जैसे कस्बों में तो चार-चार दिन में पानी आता था। ये जगहें भले ही नर्मदा के समीप हों, लेकिन यहां आज भी जल वितरण पुराने जलस्रोतों या नलकूपों से ही होता है। 2010 से पहले अल्प वर्षा के कारण मध्यप्रदेश के पारंपरिक जलस्रोत भी सूख गए थे। इसी साल मार्च में मुझे बुंदेलखंड क्षेत्र के छतरपुर-खजुराहो से सटे कुछ गांवों में जाने का मौका मिला था। यह बेल्ट कभी बहुत अच्छी वर्षा और बहुत अच्छी फसल के लिए पहचाना जाता था, लेकिन पिछले कुछ सालों से यहां हालात बदले हुए हैं।

इस साल तो और बुरी स्थिति थी। ठंड के मौसम में पड़े पाले ने फसलों को खासा नुकसान पहुंचाया था। प्रशासन ने बुंदेलखंड पैकेज के रूप में प्राप्त सरकारी सहायता को किसानों में बांटा जरूर, लेकिन हमेशा की तरह कोई भी संतुष्ट नहीं हो पाया। कहीं पूरा मुआवजा नहीं मिलने की शिकायतें मिलीं, तो कहीं मुआवजे की रकम पंचायतों द्वारा हजम कर जाने की। इन्हीं में से एक गांव था रानीताल। फसलें मानसून का इंतजार करने के अलावा कुछ नहीं कर सकती थीं। पहले रानीताल गांव में फसल के लिए दो तालाब थे। वे पूरी तरह सूख चुके थे। साथ ही समीप ही साल भर बहने वाली नदी भी सालों बाद इस साल पूरी तरह सूखी थी। गांव में नलकूप भी एक ही था। गांव के बड़े-बुजुर्गों ने एक पुरानी बावड़ी को ताउम्र आबाद देखा था, लेकिन अब वह भी सूखी है।

इस साल अच्छी बारिश हो रही है, लेकिन इससे बुनियादी समस्या समाप्त नहीं हो जाती: वैकल्पिक जल संरचनाओं का अभाव और दम तोड़ते पारंपरिक जलस्रोत। इन परिस्थितियों में ‘रानीताल’ नाम विडंबनापूर्ण लगने लगता है। भारत के अंचलों में ऐसे कई रानीताल हैं। इन गांवों से पूछें कि जलदेवता क्यों रूठ गए तो चुप्पी छा जाती है। मानसून में अच्छा पानी भी पड़ा, लेकिन उस पानी को सहेज न पाएं तो ऐसे हालात तो निर्मित होना ही हैं। रानीताल जैसे गांव देश के उन तमाम गांवों, कस्बों और शहरों के समक्ष एक सवाल रखते हैं कि आकाश में बादलों की आमद के बारे में तो खैर कुछ नहीं किया जा सकता, लेकिन इन बादलों से अमृत की बूंदों की तरह जो पानी बरसा, वह क्यों रीत गया? ताल-तलैया, डबरे और बावड़ियां फूटे पेंदे वाले क्यों साबित हुए? पेंदा क्या वाकई फूटा था या फिर उसमें बेपरवाही की सेंध लगी है?

शुक्र है इस साल पिछले सालों की तुलना में अच्छी बारिश हो रही है। यह उत्सव का क्षण तो है ही, लेकिन यह सबक सीखने का भी अवसर है। इफरात की खुशी में किल्लत के सबक को भुला देना समझदारी नहीं कहा जा सकता। शहर अपना दायरा बढ़ाते जा रहे हैं। गांव कस्बे बनते जा रहे हैं और कस्बे शहरों में तब्दील होते जा रहे हैं। लेकिन पारंपरिक जलस्रोतों का सवाल आज भी अपनी जगह पर कायम है। बढ़ती आबादी की जरूरतों के साथ ही जिस मात्रा में पानी की खपत बढ़ रही है, क्या उसके अनुसार हमारी तैयारियां हैं? क्यों न इस बार के भरपूर सावन के उल्लास को हम संग्रहण के प्रण का भी एक अवसर बना लें। बूंद-बूंद सहेजने की जरूरत है। जल संग्रहण की अधुनातन तकनीकें अपनाई जाएं। धरती को बांध देने वाले सीमेंट-कांक्रीट के विकल्प खोजे जाएं। मिट्टी के बिखराव को रोका जाए। इस वर्षाकाल में हम सभी के लिए खुद से यह सवाल पूछना बहुत जरूरी है कि वर्षा के जल के लिए धरती अंजुरी क्यों नहीं बन सकती?
 

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