अगर सरकार गरीब किसानों का सोचती तो उसे उन जलस्रोतों के बारे में भी सोचना पड़ता, जिन्हें सरकार की भागीदारी से बर्बाद किया गया है। उन बैलों के बारे में भी सोचना पड़ता जो हजारों पीढ़ियों से हमारी जमीन जोतते आ रहे हैं और शायद पैट्रोलियम के भंडार खतम होने पर वापस याद किए जाएं। ये बैल की वो नायाब नस्लें हैं, जो कई सौ साल की साधना से तैयार की गई थीं और जिन्हें सरकार के ‘अनुवंश सुधार’ कार्यक्रमों ने छितरा दिया है।
डीजल हमारे यहां पेट्रोल की तुलना में चौथाई या तिहाई सस्ता बिकता है। पेट्रोल पर आबकारी कर डीजल की तुलना में सात गुणा रखती है सरकार। डीजल को सस्ता रखा जाता है किसानों के लिए, जिन्हें सिंचाई के लिए पंपसेट चलाने होते हैं और जमीन जोतने के लिए ट्रेक्टर। फिर हर तरह की रसद की ढुलाई ट्रकों से होती है, जो डीजल से ही चलते हैं। इस ईंधन की कीमत बढ़ने से महंगाई एकदम बढ़ती है। इसलिए सरकार डीजल सस्ता रखती है। किसानों को दी इस रियायत का मजा उठाते हैं डीजल गाड़ियां चलाने वाले। चूंकि डीजल पेट्रोल की तुलना में कहीं सस्ता पड़ता है, इसलिए हमारे यहां लगभग सारी टैक्सियां डीजल पर चलती हैं। गाड़ी बनाने वाली कई कंपनियां केवल डीजल की ही गाड़ियां बनाती हैं।पिछले कुछ सालों में बड़ी और आलीशान गाड़ियां भी डीजल की ही बिकने लगीं हैं। ये विलासिता के वाहन चलाने में सस्ते पड़ते हैं क्योंकि ये तो किसानों के लिए सस्ते रखे ईंधन पर चलते हैं। महंगी गाड़ियों में पेट्रोल की जगह डलने वाले हर एक लीटर डीजल से सरकार को सात गुणा नुकसान होता है। और यह घाटा सरकार गरीब किसानों के लिए नहीं, अमीरों की विलासिता के एवज में उठाती है।
कई साल से बहस चल रही है कि इस अन्याय को कैसे रोका जाए। सरकार को मुश्किल यह है कि अगर वह डीजल पी जाने वाले इन अमीरों के लिए डीजल के दाम बढ़ाए तो उसकी गाज किसानों और ट्रक वालों पर भी गिरेगी। इसीलिए इतने साल से डीजल की इस आफत को सरकार ने जस का तस छोड़ रखा है।
लेकिन दो साल पहले योजना आयोग के श्री किरीट पारिख ने एक सुझाव रखा था। उन्होंने कहा कि डीजल की कारों पर सीधे 81,000 रुपए का अतिरिक्त आबकारी कर खरीद के समय ही लगा देना चाहिए।
संसद का बजट सत्र आ चुका है। इस बार पेट्रोल मंत्रालय ने श्री पारीख का सुझाव आगे बढ़ा दिया है। अब सरकार को तय करना होगा कि उसकी मंशा क्या है। आसान नहीं होगा यह। कार बनाने वाली कई बड़ी कंपनियों के मुनाफे डीजल गाड़ियों की बिक्री पर निर्भर हैं, और ये कंपनियां बहुत ताकतवर हैं। ये साम-दाम-दंड-भेद, हर एक उपाय ढूंढेंगी इस अतिरिक्त कर को रोकने के लिए। क्योंकि अगर यह कर आ गया तो डीजल गाड़ियों की बिक्री कम हो जाएगी।
हाल ही में कार कंपनियों ने एक ‘वैज्ञानिक’ सर्वे के मार्फत यह भी बतलाना चाहा है कि कारों में डीजल की खपत बहुत ही कम है। सर्वे की आलोचना भी हुई और कुछ जानकारों ने तो उसे फरेब ही बताया है।
डीजल के धुंए में ही ऐसे सूक्ष्म कण होते हैं, जिनसे कैंसर होता है और इन कणों का स्वभाव भी विचित्र है। ट्रकों से निकलने वाले काले धुंए में जो कण होते हैं, उन्हें हमारा शरीर श्वास नली के ऊपर ही रोक लेता है। लेकिन डीजल की आधुनिक गाड़ियों से जो अदृश्य धुंआ निकलता है, उसमें कैंसर करने वाले कण बहुत ही छोटे होते हैं। ये सीधे हमारे फेफड़े तक जाते हैं।
कंपनियों ने पहले ही कह दिया है कि कारें भारी उद्योग मंत्रालय के अंतर्गत आती हैं। इसलिए उन पर कर लगाने का अधिकार पेट्रोलियम मंत्रालय को है ही नहीं। उनका ये भी कहना है कि डीजल से चलने वाले बिजली जनरेटर भी विलास के साधन हैं। तो फिर उनकी बिक्री पर अतिरिक्त कर क्यों नहीं हो? अब तो खुद योजना आयोग के श्री पारिख अपने सुझाव से पीछे हट गए हैं। किस दबाव में ये कहना मुश्किल है। कारें हमारे यहां नई समृद्धि का प्रतीक बन चुकीं हैं और आर्थिक विकास की तोता रटंत में लगा हमारे समाज का ताकतवर वर्ग कारों की रफ्तार में ही अपनी ‘सद्गति’ देखता है। अब वित्त मंत्रालय को तय करना है कि वह इस समृद्धि के एवज में कितना घाटा उठाने को तैयार है।इस प्रकरण में हम सबके लिए कई सबक हैं। एक तो यह कि एक झूठ को छुपाने के लिए कई झूठ बोलने पड़ते हैं। यह सब जानते हैं कि हमारे यहां के साधारण किसान पंपसेट और ट्रेक्टर इस्तेमाल नहीं करते। ज्यादा करके ये सुविधाएं अमीर किसानों के पास ही होती हैं। देश के भूजल का जिस तेजी से विनाश हो रहा है, उसमें डीजल पंपसेट का योगदान अमूल्य रहा है। पर इससे एक तेज गति की अमीरी कुछ किसानों में दिखती है, जिसे हर सरकार ग्रामीण विकास की पराकाष्ठा मान लेती है।
अगर सरकार गरीब किसानों का सोचती तो उसे उन जलस्रोतों के बारे में भी सोचना पड़ता, जिन्हें सरकार की भागीदारी से बर्बाद किया गया है। उन बैलों के बारे में सोचना पड़ता जो हजारों पीढ़ियों से हमारी जमीन जोतते आ रहे हैं और शायद पैट्रोलियम के भंडार खतम होने पर वापिस याद किए जाएं। ये बैल की वो नायाब नस्लें हैं, जो कई सौ साल की साधना से तैयार की गई थीं और जिन्हें सरकार के ‘अनुवंश सुधार’ कार्यक्रमों ने छितरा दिया है। पर यह सब करना हो तो सरकार को अपने लोगों से उनकी भाषा में बात करनी पड़ेगी।
पर डीजल गाड़ियों को रोकने का एक और बहुत बड़ा कारण है। चाहे वह पेट्रोल हो या प्राकृतिक गैस, हर ईंधन के धुंए से प्रदूषण होता है। पर केवल डीजल के धुंए में ही ऐसे सूक्ष्म कण होते हैं, जिनसे कैंसर होता है और इन कणों का स्वभाव भी विचित्र है। ट्रकों से निकलने वाले काले धुंए में जो कण होते हैं, उन्हें हमारा शरीर श्वास नली के ऊपर ही रोक लेता है। लेकिन डीजल की आधुनिक गाड़ियों से जो अदृश्य धुंआ निकलता है, उसमें कैंसर करने वाले कण बहुत ही छोटे होते हैं। ये सीधे हमारे फेफड़े तक जाते हैं।
इसलिए उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली की सड़कों पर सार्वजनिक परिवहन से डीजल हटवाया था। लेकिन आज यह डीजल और कैंसर से लैस इसके कण हमारी छाती में बहुत महंगी और आलीशान गाड़ियों के सौजन्य से जा रहे हैं।
कुछ धुंआ तो हमारी अकल पर भी पड़ा है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और ‘गांधी शांति प्रतिष्ठान’ नई दिल्ली में ‘जल, थल और मल’ विषय पर शोध कर रहे हैं।
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