धन्न, बेतवा-माई

टोरन टोर, दौर के आई, धन्न, बेतवा माई।
पार-पारियां, कूंदत-फांदत, अपनी गैल बनाई,
भरत-चौकरीं, हिन्नन जैसी, जन-गन मन पै छाई।
ऐसी छनक-बनक ना देखी, लख नागिन सकुचाई,
चकाचौंध हो गए ‘गुन-सागर’, कवि-मन मो लए माई।।
गंगा-माता कल-जुग बारी, जीवन-प्रान हमारी।
धरम-पंथ-मत एक करत तुम, सांची गैल तुमारी,
आन ओंड़छे में कासी सौ, सुख सरसावे वारी।
भूमि, बुंदेलखंड की अपनी, जग-तारन महतारी,
‘गुन-सागर’ सोने सौ पानी, फैला रओ, हरयारी।।
जाबै कीसों कीरत बरनी, तुम ऐसी बैतरनी।
ककरीली-पथरीली माटी, बीहड़-बंजर धरनी,
प्यासी तलफ रईती कब से, तुम वा विपदा हरनी।
अंध्यारे में उजयारी कर, धन-सुख-संपत भरेनी,
‘गुन-सागर’ रामचरनन में लहरत-लहर सुमिरनी।।
-कवि श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’, (कुण्डेश्वर (टीकमगढ़)

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