इसके बिना न होय दिवाली इसके बिना न होय पूजा।
भुनकर खिले, उबलकर निखरे, है दुनिया में कोई दूजा?
एक सौ करोड़ से ज्यादा किसान धान की खेती से दूसरों का पेट भरते हैं और अपना पेट पालते हैं। कोई एक सौ से ज्यादा देशों में धान की खेती की जाती है। लेकिन दुनिया का 90 प्रतिशत धान एशिया में ही उगाया और खाया जाता है। धान के पौधे को हर तरह की जलवायु पसंद है। नेपाल और भूटान में 10 हजार फुट से ऊंचे पहाड़ हों, या केरल में समुद्रतल से भी 10 फुट नीचे पाताल-धान दोनों जगह लहराते हैं।जी ठीक ही पहचाना आपने। इसे धान, चावल, अक्षत, तंदुल किसी भी नाम से पुकारिये। जब तक बताशों के साथ खील न हो तो दिवाली कैसी? पूजा की थाली में अक्षत यानी चावल के दाने और रोली का लाल रंग न हो तो पूजा बेरंग। भुनने के बाद ऐसा खिलता है कि भुने धान की खील या मुरमुरों के लड्डू या चना-मुरमुरे भला किसे नहीं लुभाते। झोपड़ी से लेकर आलीशान होटलों तक हर जगह दुनिया में धान की मांग है। एशिया के दो सौ करोड़ से ज्यादा लोगों की जान है धान। उधर अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में भी करोड़ों लोग चावल खाते हैं। और फिर यूरोप, अमेरिका में भी तो इस अनाज ने अपनी जगह बना ली है। धरती का हर तीसरा व्यक्ति किसी न किसी रूप में हर रोज चावल खाता है। एक सौ करोड़ से ज्यादा किसान धान की खेती से दूसरों का पेट भरते हैं और अपना पेट पालते हैं। कोई एक सौ से ज्यादा देशों में धान की खेती की जाती है। लेकिन दुनिया का 90 प्रतिशत धान एशिया में ही उगाया और खाया जाता है। धान के पौधे को हर तरह की जलवायु पसंद है। नेपाल और भूटान में 10 हजार फुट से ऊंचे पहाड़ हों, या केरल में समुद्रतल से भी 10 फुट नीचे पाताल-धान दोनों जगह लहराते हैं।
दूसरे पौधों की तरह धान भी पहले जंगल में ही उगता था- अपने आप। तेज हवा चली। पके दानों से भरी बालियां हिलीं। बीज बिखर गए। मिट्टी में गिरे। वर्षा हुई। अंकुर फूटे। करोड़ों साल तक यही सिलसिला चलता रहा होगा।
तेरह करोड़ साल पहले धरती के सातों महाद्वीप जुड़े हुए थे। फिर ये एक-दूसरे से दूर खिसकने लगे। बर्फीले ध्रुव-प्रदेश के सिवा हर जगह कहीं-न-कहीं पुराने जंगली धान मिले हैं। आज जो धान उगाया जाता है, उसका सबसे पुराना पुरखा उत्तरी हिमालय में मिला था। यहीं से धान हमारे देश के बाकी हिस्सों में और अफ्रीका के अलावा सारे संसार में फैला।
हमारे देश में तो कुछ ऐसा है कि जहां खोदो वहीं पुराने धान निकल आते हैं। हमारे यहां कम से कम 37 जगहों की खुदाई में पुराने जमाने के धान मिले हैं। मोहनजोदड़ो (अब पाकिस्तान में) के अतिरिक्त गुजरात में लोथल और रंगपुर में ईसा से दो हजार साल पहले के धान मिले हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल में प्राचीन स्थलों की खुदाई से भारत की प्राचीन धान-प्रधान संस्कृति का पता चलता है। चीन, जापान, कोरिया और थाइलैंड आदि देशों में की गई खुदाईयों में भी पुराने धान मिले।
अलग-अलग भाषाओं में उनके नामों से भी कौन पौधा कहां से कहां गया, इसका पता चल सकता है। धान के लिए लैटिन भाषा का ‘ओराइजा’ और अंग्रेजी का ‘राइस’ ये दोनों नाम तमिल भाषा के ‘अरिसि’ शब्द से उपजे हैं। अरब के सौदागर अपने साथ अरिसि ले गए तो वह अरबी भाषा में ‘अल-रूज’ या ‘अरुज’ बन गया। आगे जाकर स्पेनिश में ‘अरोज’ हो गया। ग्रीक में यही ‘औरिजा’ और लैटिन भाषा में ‘ओराइजा’ बन गया। इतालवी में ‘राइसो’, फ्रेंच में ‘रिज’, जर्मन में ‘रीइस’ रूसी में ‘रीस’ और अंग्रेजी भाषा में ‘राइस’ बन गया।
संस्कृत में रोपा धान को ‘व्रीहि’ कहते हैं। तेलुगु में इसी से वारी शब्द बना। अफ्रीका के पूर्वी तट पर बसे देश मैडागास्कर की ‘मलागासी’ भाषा में भी धान को ‘वारी’ या ‘वारे’ कहते हैं। ईरान की फारसी भाषा में ‘व्रीहि’ से ही ब्रिज बना।
कौटिल्य या चाणक्य ने अपने संस्कृत ग्रंथ अर्थशास्त्र में साठ दिन में पकने वाले षष्टिक धान का वर्णन किया है। इसे आजकल साठी कहते हैं।
बौद्ध संस्कृति में भी धान ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। गौतम बुद्ध के पिता का नाम था- शुद्धोदन। यानी शुद्ध चावल। वट वृक्ष के नीचे तप में लीन गौतम बुद्ध ने एक वन-कन्या सुजाता के हाथ से खीर खाने के बाद बोध प्राप्त किया और बुद्ध कहलाए। बौद्ध धर्म के साथ ही धान-संस्कृति और धान-कृषि भारत के पड़ोसी देशों- बर्मा, इंडोनेसिया, थाइलैंड, चीन, जापान और कोरिया तक फैली। धान भारत का ही दान है।
अपने लड़कपन के साथी सुदामा के लाए तंदुल (भुने चावल यानी मुरमुरे) पर भगवान श्रीकृष्ण ऐसे प्रसन्न हुए कि उस दो मुट्ठी तंदुल के बदले सुदामा को दो लोक मृत्यु लोक यानी पृथ्वी और स्वर्ग लोक दे डाले। अगर रुक्मणी ने उनका हाथ न पकड़ लिया होता तो तीसरा लोक- ब्रह्म लोक भी दे डालते।
चीन की राजधानी बीजिंग में शहर के दाएं तरफ एक मंदिर हुआ करता था। नाम था- स्वर्ग मंदिर। यहां पर सदियों तक कृषि-उत्सव होता रहा। उत्सव के दिन चीन के राजा किसानों की पीली पोशाक पहनकर आते थे। स्वर्ग मंदिर की बगल में ही एक खेत में गाजे-बाजे के साथ राजा हल चलाते। ईसा से कोई ढाई हजार साल पहले हुए इसी राजा शुन नुंग ने चीन के लोगों को पांच अनाजों की खेती करना सिखाया था। इनमें से एक था - ताओ यानी धान।
उस जमाने में देशों के बीच सड़कें नहीं थीं। फिर भी धान के दाने और उन्हें उगाने के तरीके दूर-दूर तक फैलते रहे। समुद्री सौदागर, हमलावर और प्रवासी यात्री जहां-जहां गए उनके साथ धान भी चलता गया। जिन्होंने कभी चावल देखा भी नहीं था, वे सोने-चांदी के बदले भी चावल लेते थे!
आज से कोई 15 हजार से 16 हजार साल पहले हिमालय की उत्तरी और दक्षिणी ढलानों में जंगली धान लहराते थे। ‘इंडिका’ किस्म के धान तापमान में हेर-फेर, यहां तक कि सूखा भी सह लेते थे। हिमालय से ये धान उत्तरी और पूर्वी भारत में और दक्षिण-पूर्व एशिया के उत्तरी भाग में और फिर दक्षिणी चीन में फैल गए।
जापान में धान पहले-पहल कोई 3 हजार साल पहले पहुंचा था। फिर जल्दी ही धान जापानी जीवन का अभिन्न अंग बन गया। वहां बचपन से ही धान को आदर देना सिखाया जाता है, मानो धान न हो, घर का कोई बड़ा-बूढ़ा हो। आज भी हर महीने के पहले, पंद्रहवें और अट्ठाइसवें दिन और सभी त्यौहारों पर जापानी घरों में लाल चावल बनाते हैं।
अफ्रीका में भी जंगली धानों से खेती वाला धान पनपा। इसकी खेती कोई साढ़े तीन हजार साल पहले शुरू हुई थी। जावा से एशियाई धान ईसा से चंद सदियों पहले अफ्रीका पहुंचा। उन दिनों की पालदार नौकाओं में हवाओं के साथ-साथ बहते हुए लोग गए और अपने साथ धान भी लेते गए। अफ्रीका के पूर्वी समुद्र तट पर मैडागास्कर में बस कर इन लोगों ने धान की खेती शुरू की। बाद में दक्षिण भारत के पूर्वी समुद्र तट से भी भारतीय समुद्री यात्री यहां पहुंचे। ये लोग ओमान होते हुए उसी समुद्री मार्ग से गए, जिससे मलाया और श्रीलंका के लोग और अरब व्यापारी गए थे। इसी प्रकार धान के बीज मानसूनी हवाओं के साथ यात्रा करते रहे। किसी ने सही लिखा है कि अफ्रीका में एशियाई अनाजों के आगमन की कथा हवाओं के हाथों लिखी गई थी।
बाइबिल में चावल का उल्लेख नहीं है और न मिस्र के प्राचीन अभिलेखों में। नील नदी की घाटी में पहली बार धान की खेती 639 ई. के आस-पास शुरू हुई। सिकंदर जब भारत से लौटा तो (327-324 ई. पू.) अपने साथ धान लेता गया। उसके गुरु अरस्तू पहले यूरोपीय विद्वान थे, जिन्होंने अपनी एक किताब में ‘ओरिज’ कहकर धान का नाम लिया।
यूरोप में धान कई रास्तों से गया। पहली से ग्यारहवीं सदी के बीच अरब सौदागरों के साथ भारत से धान ईरान और फिर मिस्र पहुंचा। वहां से धान ने स्पेन और सिसली में प्रवेश किया। स्पेन के इटली में प्रवेश किया। स्पेन के मूर लोग 8वीं सदी में उसे पुर्तगाल ले गए। वहां से धान ने बुल्गारिया, यूगोस्लाविया और रूमानिया की यात्रा की।
रूस को पहली बार धान देखने का मौका वहां के सम्राट पीटर प्रथम ने दिलाया। उन्होंने 1700 ई. के शुरू में ही ईरान से चावल मंगवाया था। रूस में कुछ धान पूर्वी एशिया से भी पहुंचा था। इसकी खेती कैस्पियन सागर के तटवर्ती प्रदेश में गई थी।
अमेरिका को पहली बार 17वीं सदी के शुरू में धान मिला। सन् 1685 में मैडागास्कर से एक जहाज चला जो रास्ते में खराब हो गया। मरम्मत के लिए जहाज को दक्षिण कैरोलाइना के बंदरगाह चार्ल्सटन में रुकना पड़ा। जाते समय जहाज का कप्तान वहां के लोगों को एक बोरा धान दे गया। इस तरह कैरोलाइना में धान की खेती शुरू हुई।
अमेरिकी राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन इटली की ‘पो’ नदी की घाटी में उगने वाले ‘लंबाडी’ धान पर ऐसे फिदा हुए कि वापस लौटते समय उसे जेब में छुपा कर अमेरिका ले उड़े। यह सन् 1784 की बात है।
गेहूं से लदा एक जहाज सन् 1522 ई. में मैक्सिको पहुंचा तो उसमें गेहूं के साथ धान भी मिला हुआ था। यह मिलावट ही मैक्सिको के लिए धान का वरदान लेकर आई थी।
हमारे देश में तो कोई भी पूजा और अनुष्ठान बिना रोली-चावल के संपन्न ही नहीं होता। पहले माथे पर पानी से गीली रोली लगाते हैं और उसके बाद चावल के कुछ दाने। इसी को कहते हैं- तिलक करना। दूल्हे को विवाह-मंडप से उठने से पहले कन्याएं दूब और साठी धान का अक्षत लेकर बांया हाथ नीचे करके और दायां हाथ ऊपर करके ऊपर से नीचे तक स्पर्श करती हैं। विदा के समय स्त्रियां हाथ में अक्षत लेकर दूल्हा-दुल्हन पर उसकी वर्षा करती हैं। यह प्रथा सारी दुनिया में लगभग एक से रूप में मिलती है- सब धर्मों में। हर जगह नए जोड़े पर चावल बिखेर कर, उन्हें धान की तरह ही फलने-फूलने का आशीर्वाद दिया जाता है। इस तरह धान संपूर्ण विश्व मंा जीवन का अटूट अंग बन गया था।
धान उगाने वाले किसान शुरू से ही जानते थे कि इसको पानी प्रिय है। धान के खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए उन्होंने तालाब और कुएं खोदे, नहरें बनाईं और तरह-तरह से सिंचाई के तरीके खोजे। कांपूचिया में अंगकोर की खुदाई में 60 किलोमीटर लंबी नहर मिली है। यह एकदम नाक की सीध में बनी है।
हमारे पड़ोसी देश बर्मा में 46 लाख हैक्टेयर में धान की खेती की जाती है। यहां के कारेन कबीले के लोग धान में आत्मा मानते हैं और उसे केला कहते हैं। इंडोनेशिया कोई 36 हजार द्वीपों का देश है। यहां बाली और सुमात्रा के किसान धान-माता को देवी-श्री और धान-नाना को देवी-नीनी कहते हैं। बीज बोने से पहले उनमें से सबसे बढ़िया बालियां चुनकर देवीश्री बनाई जाती हैं। इन्हें सिर पर रखकर नाचते-गाते खेत में या कोठार में सजा देते हैं।
जापान तो धान का पुजारी है। वहां हमेशा धान को बड़ा आदर दिया जाता है। जापान के एक प्रधानमंत्री (सन् 1987) माकोसोने-सान के नाम का मतलब है: श्री मध्य जड़। इनसे पहले के प्रधानमंत्री थे मुकुदा यानी ‘श्री भरे खेत और तनाका हैं श्री बिचौले खेत। यहां खेत का मतलब धान के खेत से ही है। होंडा नाम हमने मोटर गाड़ियों, मोटर साईकिलों की कंपनी की तरह सुना है। लेकिन होंडा के माने हैं मुख्य धान खेत और टोयोटा का मतलब है भरपूर फसल वाला धान का खेत। जापान के एक प्रमुख हवाई अड्डे का नाम है नारिटा यानी फूलता फलता धान खेत।
धान की प्रधानता की जापान में बड़ी पुरानी परंपरा है। यहां देहातों में धान-देवता इनारी का मंदिर जरूर मिलेगा। एक और देवता जीजो हैं यहां। इनके पांव हमेशा कीचड़ में सने रहते हैं। कहते हैं कि एक बार जीजो का एक भक्त बीमार पड़ गया। भगवान अपने भक्तों का खूब ध्यान रखते थे। उसके खेत में जीजो देवता रात भर काम करते रहे। तभी से उनके पांव कीचड़ में सने रहने लगे। धान की खेती में बिजाई, रोपाई और काटने से कूटने और पकाने तक अधिकतर काम प्रायः महिलाएं ही पूरे करती हैं। पानी भरे खेत के कीचड़ में धंसे पैर और दिन भर झुके-झुके पौध रोपना। इस कमरतोड़ मेहनत के बीच भी उसके हंसते होठों पर कोई न कोई मीठी तान रहती है। इनकी पीड़ा को फिलिपीन्स के एक गीत में कुछ इस तरह व्यक्त किया गया हैः “पौध रोपना मुश्किल काम, सुबह से शाम, नहीं विराम, कमर नहीं सीधी कर पाए, झुके-झुके ही पौध लगाएं।”
जापान तो धान का पुजारी है। वहां हमेशा धान को बड़ा आदर दिया जाता है। जापान के एक प्रधानमंत्री (सन् 1987) माकोसोने-सान के नाम का मतलब है। श्री मध्य जड़। इनसे पहले के प्रधानमंत्री थे मुकुदा ‘श्री भरे खेत और तनाका हैं श्री बिचौले खेत। यहां खेत का मतलब धान के खेत से ही है। होंडा नाम हमने मोटर गाड़ियों, मोटर साईकिलों की कंपनी की तरह सुना है। लेकिन होंडा के माने हैं मुख्य धान खेत और टोयोटा का मतलब है भरपूर फसल वाला धान का खेत। जापान के एक प्रमुख हवाई अड्डे का नाम है नारिटा यानी फूलता फलता धान खेत।वियतनाम के गांवों में यह माना जाता है कि धान की आत्मा घर की सबसे बूढ़ी मां में निवास करती है। वहां एक कहानी चलती है कि किसी जमाने में धान का दाना नारियल जितना गोल और बड़ा होता था। पकने पर मोटे गोल दाने फुटबाल की तरह लुढ़कते हुए खुद ही झोपडि़यों में आ जाते थे। उनके स्वागत में हर झोपड़ी सजाई जाती थी। एक बार कोई सुस्त वियतनामी किसान बिना सजाए अपनी झोपड़ी बंद करके सो गया। बस उसी दिन से धान महाराज ऐसे रूठे कि नारियल-सा बड़ा रूप त्यागकर बारीक चावल बन गए। खुद ही लुढ़कर आना भी छोड़ दिया। अब तो पूरी मेहनत करो। खेत जोतो, बोओ, रोपो, निराओ, पानी लगाओ, कीड़े मारो, पकने पर काटो, गहाई करो तो धान के दाने घर आएंगे।
जब खेत तैयार करके पानी भरा जाता है तो लगता है जैसे रूपहली चांदनी बिछी हो। यही खेत धान की रोपाई के बाद हरियाली के सागर में बदल जाते हैं। भीनी-भीनी हवा और रिमझिम बरसात में हरी कोपलें गर्दन मटका-मटका कर लहराने लगती हैं। सागर में बनती-मिटती लहरों की तरह हरे धान के खेत पर भी हवा वही समां बांध देती है। पकने पर धान के सुनहरे खेत नदी में नहाए लगते हैं। इन दिनों एक मीठी-सी धानी सुगंध हवा में तैरती रहती है।
बालियों में से अनाज के दाने अलग करने की क्रिया को गहाई कहते हैं। किसी जमाने में पूरे गांव का एक खलिहान होता था। अब तो हाल यह है कि घर में अगर चार भाई तो उनके खेत भी अलग, खलिहान भी अलग और चूल्हे भी अलग-अलग। नहीं तो पूरा गांव मिलकर जहां फसल पहले पकी, उस खेत का धान पहले काटते। गोबर से लिपे कच्चे फर्श पर सुखाए हुए धान के पूले बिछा देते। इसे पैर या लांक के बीच में खंभे से बंधी बल्ली को भैंसे या बैल की गर्दन में जुए की तरह डाल देते। कोल्हू के बैल की तरह घूमता हुआ जानवर कुचल-कुचल कर बालियों से दाने अलग करता। कहीं-कहीं जानवरों की जगह मजदूर से ही जोतवा दिए जाते थे। धान की बालियों के तीखे तीकुर धान कुचलती महिलाओं के पांवों को भी छील देते हैं। पर अब कुछ जगह इस काम के लिए मशीनें भी आ गई हैं। हमारे देश में अकेले पंजाब में ढाई लाख से ज्यादा ऐसी मशीनें चल रही हैं। किसी जमाने में चांदनी रात में खलिहान में इकट्ठे होकर गांव के लड़के-लड़कियां आपस में हंसी मजाक करते हुए ‘दांय’ चलवाते थे। युवकों और गांव की युवतियों के वे गीत अब तो इन थ्रैशर-मशीनों की गुर्र-गुर्र में डूब गए हैं।
नए धान को कूटे जाने से आंगन में एक अद्भुत गंध फैलती है। पांव से चलाई जाने वाली ढेकी से भी धान कूटे जाते हैं। हाथ के कुटे या हथकुटे धान का चावल पौष्टिक होता है। उसमें प्रोटीन वाली परत बची रहती है। इसी को ‘ब्राउन राइस’ या लाल चावल कहते हैं।
सेला चावल बनाने की तकनीक बाकी देशों में हमारे देश से ही गई है। पहले धान को पानी में भिगोया जाता है। फिर निथारकर पानी फेंक देते हैं और धान को भाप देकर गर्म करते हैं। इसके बाद सुखा देते हैं। फिर इसको कूटकर कड़ा छिलका अलग कर देते हैं। इस तरह चावल की ऊपरी परत पक्की होकर मूसल या मिल की कुटाई के बाद भी चिपकी रहती है। इससे चावल में पीलापन लिए शीशे-सी चमक आ जाती है। बाकी चावलों से सेला चावल कड़ा भी होता है और पौष्टिक भी। दुनिया भर का पांचवा हिस्सा चावल सेला बनाकर बिकता है।
लेकिन सेला चावल बनाने के इस भारतीय तरीके का महत्व दुनिया ने काफी कीमत चुकाने के बाद समझा। सन् 1882 की बात है। एक जापानी जहाज नौ महीने की समुद्र यात्रा के बाद वापस आया तो उसके 276 कर्मचारियों में से 25 की मौत हो चुकी थी। बाकी भी बेदम से ही हो रहे थे। पता चला कि जहाजियों ने हर रोज तीन बार उबले चावल खाए थे। यह मिल का चावल था-पॉलिशवाला। यानी इसकी पौष्टिक परत उतरी हुई थी। इन्हीं दिनों जावा और मलेशिया में जहाजियों में यही बीमारी पाई गई। इसे बेरी-बेरी कहा गया। सिंहली भाषा में इसका मतलब होता है- बेहद कमजोर। इसमें हाथ-पांव की मांस-पेशियां इतनी ढीली हो जातीं कि चलना-फिरना दूभर हो जाता। मिल में चावल की सफेदी बढ़ाने के चक्कर में उसके विटामिन उतर गए। इन विटामिनों को ‘विटामिन-बी’ नाम दिया गया था। मिल का चावल खिलाने पर मुर्गियां तक बीमार पड़ गई थीं पर फिर जब उन्हें सेला चावल खिलाया तो वे ठीक हो गईं। इस खोज से पहले विटामिन नाम की किसी चीज का पता नहीं था। डच वैज्ञानिक डॉ. आइखमैन ने इस बारे में सबसे पहले खोज की थी। मरने से साल भर पहले सन् 1929 में उन्हें इसी काम पर नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
चीनी दार्शनिक कंफ्यूशियस ने कहा था, ‘खाने को पुराने चावल हों, पीने को पानी हो और बांह टिकाने को तकिया हो, तो फिर आनंद ही आनंद। पुराने चावलों में कुछ ऐसे रसायन बन जाते हैं, जो पकने पर सुगंध बिखेरते हैं। यह सुगंध एशियाई देशों में ही पसंद की जाती है।
सन् 1947 में फिलिपीन्स में बेरी-बेरी रोग के कारण कोई 24 हजार मौतें हुई थीं। तब वहां पौष्टिक चावल बांटा गया था। इस पौष्टिक चावल को बांटने के बाद 21 महीनों में ही बेरी-बेरी रोग गायब हो गया था।
सन् 1882 की बात है। एक जापानी जहाज नौ महीने की समुद्र यात्रा के बाद वापस आया तो उसके 276 कर्मचारियों में से 25 की मौत हो चुकी थी। बाकी भी बेदम से ही हो रहे थे। पता चला कि जहाजियों ने हर रोज तीन बार उबले चावल खाए थे। यह मिल का चावल था-पॉलिशवाला। यानी इसकी पौष्टिक परत उतरी हुई थी।अभी कुछ ही पहले तक हमारे घरों में चावल का मांड आमतौर पर फेंका नहीं जाता था। यह गाढ़ा पानी बड़ा ही पोषक होता है। किसान तो खाने के बाद बचे हुए भात को मिट्टी के बर्तन में पानी या घड़े में भिगो देते हैं। दूसरे दिन सुबह इसी का नाश्ता करके दिन भर धान के खेतों में कड़ी मेहनत करते हैं। तेलुगु में इसका नाम है- सल्दीअन्नम् यानी पानी वाला चावल। सिर्फ दक्षिण भारत में ही नहीं बंगाल और उड़ीसा, छत्तीसगढ़ में भी रात भर पानी में भीगे भात को बड़े चाव से खाया जाता है।
दूसरे अनाज को पचने में दो से चार घंटे लगते हैं, पर चावल घंटे भर में ही पच जाता है। चावल इतना फूलता है कि एक कटोरी उबालो और तीन कटोरी खाओ। उबालते समय चावल के पौष्टिक तत्व बने रहें, इसके लिए पानी उतना ही होना चाहिए, जितना चावल सोख ले। फिर मांड फेंकने का प्रश्न ही नहीं उठता।
चीनी और जापानी भात या पुलाव खाना टेढ़ी खीर है। इसे लकड़ी की बनी चॉपस्टिक या डंडियों से खाना पड़ता है। जापानी चॉपस्टिक तो जरा लंबी और पतली पेंसिल जैसी होती है। चीनी चॉपस्टिक लंबाई में उसकी आधी होती है, पर मोटी ज्यादा होती है। जापानी चिपकना भात तो दोनों हाथों में पकड़ी गई चॉपस्टिक गड़ा कर उखाड़ा भी जा सकता है। पर चीनी खिलेंवां भात को चटन में लपेटकर ही चॉपस्टिकों पर चढ़ने के लिए राजी किया जा सकता है। मगर कभी-कभी चीनी चावलों में गुच्छी या खुंभिया भी होती हैं। ये इतने फिसलने वाले होते हैं कि चॉपस्टिक देखते ही भाग लेते हैं।
भात और मुंह के बीच का फासला तय करने में सबसे ज्यादा साथ देते हैं हाथ। और हमारे यहां तो भात खाने का मजा भी तभी आता है।
चीन के पास ताइवान देश में एक नगर है साइनान। इसके निकट में एनपिंग में एक पुराने किले के खंडहर हैं। यह किला कोई 300 साल पहले यहां हॉलैंड से आए लोगों ने बनाया था। यह किला चावल के मांड से बनाया गया था। बड़े-बड़े भगौनों में चावल उबालकर उसमें इतनी ही खांडसारी मिलाई जाती है। फिर शंख और सीपियों का चूरा मिलाते हैं। इस मसाले को सीमेंट की तरह इस्तेमाल करते हैं। सूखने पर यह बिलकुल पत्थर हो जाता है।
चीन में पुराने जमाने से चावल के आटे की लेई बनाते रहे हैं क्योंकि चावल के दानों में 90 प्रतिशत स्टार्च ही होता है। दाने के अलावा धान के पौधे के दूसरे हिस्सों के भी सैकड़ों उपयोग हैं। धान की भूसी भी बड़ी उपयोगी होती है।
दाने झाड़ने के बाद बचे धान के पौधे का मुख्य हिस्सा ‘पुआल’ है। यह 1-2 मीटर से लेकर 7 मीटर तक लंबा हो सकता है। बाढ़ के क्षेत्रों में बोए जाने वाले तैरते धानों के पुआल सचमुच इतने लंबे हो जाते हैं।
धान के पुआल और भूसी में प्रोटीन कम होता है। इसे पानी में भिगोकर चूना, अमोनिया, यूरिया वगैरह मिलाकर गाय-भैंस को खिलाया जाता है।
खुंभी उगाने के लिए धान का पुआल बड़े काम की चीज है। यह घुड़सालों में भी काम आती है। इस बिछावन को बाद में पशुओं के दाने या खाद की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं।
मकान की चिनाई का गारा बनाने के लिए सीमेंट में बालू की जगह धान की भूसी और मिट्टी भी मिलाई जाती है। इनकी बड़ी-बड़ी ईंटें भी बनती हैं। इसमें धान की भूसी की राख आधे सीमेंट की जगह ले सकती है। ईंटें बनाने में 10 भाग मिट्टी में एक भाग धान की राख मिला सकते हैं। धान की भूसी में सिलिका नाम का एक तत्व होता है। इससे सिलीकन निकाला जाता है। सिलीकन को शोधकर चिप और सोलर सैल बनाए जाते हैं। ये कंप्यूटर और तमाम तरह की इलैक्ट्रॉनिक मशीनों में काम आने लगे हैं। कांच और तामचीनी उद्योग में तो धान की भूसी का उपयोग न जाने कब से होता ही चला आया है।
धान के पुआल और भूसी में खमीर उठाने से ईथेनोल या पॉवर अलकोहल बन जाता है। यह भविष्य में मोटरकार चलाने में पेट्रोल की जगह काम आ सकता है। धान की भूसी के चूरे से फाईबर-बोर्ड बन रहे हैं। इमारती बोर्ड बनाने में लकड़ी के बुरादे या चिप की जगह धान की भूसी भी जमा सकते हैं। धान की भूसी से पानी को पीने के काबिल बना सकते हैं। झील या ताल के पानी को पहले नारियल के रेशे में से गुजारें और फिर धान की जली भूसी में से। ठोस कीचड़ वगैरह रेशे में रुक जाता है और बारीक बैक्टीरिया आदि भूसी की राख के पार नहीं जा पाते।
इतने काम की होने के बाद भी ज्यादातर पुआल और भूसी जलाऊ ईंधन के ही काम आते हैं। हमारे देश में 30 प्रतिशत भूसी बॉइलरों की भट्टियों में झोंकी जाती है। ज्यादातर किसान तो धान काटने के बाद बचे हुए पुआल को खेतों में और चावल निकालने के बाद भूसी को खलिहानों में जला देते हैं। वैसे यह चलन अभी कुछ ही समय पहले आया है।
धान की कोराई में 15 से 20 प्रतिशत तेल होता है। तलने लायक। भारत, जापान और चीन ब्रान के सबसे बड़े तेली हैं। तेल धान की ब्रान या कराई से निकाला जाता है। भूसी तो हुई धान का ऊपरी छिलका। इसके अंदर की बादामी परतें हैं- ब्रान या कोराई। इसी तरह दाने के अंदर भू्रण का कोना कनी कहलाता है। ब्रान और कनी तेल में धनी हैं। इसमें प्रोटीन भी होता है और कार्बोहाइड्रेट भी। बिटामिन-बी के तो ये भंडार हैं।
हमारे पुराणों के अनुसार जब प्रलय हुआ तो धरती के सभी प्राणी और सारी वनस्पतियां डूब गईं। उस समय बच रहे थे मनु। उन्होंने अपनी नौका में बस दो ही अनाज रखे थे- धान और जौ। इन दोनों के दाने कड़े खोल में बंद रहते हैं और लंबे सफर में उन्हें खराब होने से बचाते हैं।
हमारे गांवों में अगहनी फसल आ जाने पर धान की बालियों के बंदनवार द्वार पर टांग दिए जाते हैं। चिड़ियां आए, दाने चुगें और चहचहाहट से आंगन भर दें। धन्य-धन्य में धान कितना सुख देता है, यह तो धनवान ही जाने लेकिन धान्य तो गृहस्थ के घर को आनंद से, चहचहाहट से भरता ही चला आया है।
लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वरिष्ठ वैज्ञानिकों में गिने जाते थे। इस वर्ष अच्छे मानसून के कारण देश में धान का बुवाई क्षेत्र भी बढ़ा है और फसल भी सर्वाधिक होने का अनुमान है। ऐसे विशेष अवसर पर धान की सुगंध बिखेरता उनका यह लेख प्रस्तुत करते हुए हम उन्हें श्रद्धा सुमन भी अर्पित करते हैं।
भुनकर खिले, उबलकर निखरे, है दुनिया में कोई दूजा?
एक सौ करोड़ से ज्यादा किसान धान की खेती से दूसरों का पेट भरते हैं और अपना पेट पालते हैं। कोई एक सौ से ज्यादा देशों में धान की खेती की जाती है। लेकिन दुनिया का 90 प्रतिशत धान एशिया में ही उगाया और खाया जाता है। धान के पौधे को हर तरह की जलवायु पसंद है। नेपाल और भूटान में 10 हजार फुट से ऊंचे पहाड़ हों, या केरल में समुद्रतल से भी 10 फुट नीचे पाताल-धान दोनों जगह लहराते हैं।जी ठीक ही पहचाना आपने। इसे धान, चावल, अक्षत, तंदुल किसी भी नाम से पुकारिये। जब तक बताशों के साथ खील न हो तो दिवाली कैसी? पूजा की थाली में अक्षत यानी चावल के दाने और रोली का लाल रंग न हो तो पूजा बेरंग। भुनने के बाद ऐसा खिलता है कि भुने धान की खील या मुरमुरों के लड्डू या चना-मुरमुरे भला किसे नहीं लुभाते। झोपड़ी से लेकर आलीशान होटलों तक हर जगह दुनिया में धान की मांग है। एशिया के दो सौ करोड़ से ज्यादा लोगों की जान है धान। उधर अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में भी करोड़ों लोग चावल खाते हैं। और फिर यूरोप, अमेरिका में भी तो इस अनाज ने अपनी जगह बना ली है। धरती का हर तीसरा व्यक्ति किसी न किसी रूप में हर रोज चावल खाता है। एक सौ करोड़ से ज्यादा किसान धान की खेती से दूसरों का पेट भरते हैं और अपना पेट पालते हैं। कोई एक सौ से ज्यादा देशों में धान की खेती की जाती है। लेकिन दुनिया का 90 प्रतिशत धान एशिया में ही उगाया और खाया जाता है। धान के पौधे को हर तरह की जलवायु पसंद है। नेपाल और भूटान में 10 हजार फुट से ऊंचे पहाड़ हों, या केरल में समुद्रतल से भी 10 फुट नीचे पाताल-धान दोनों जगह लहराते हैं।
दूसरे पौधों की तरह धान भी पहले जंगल में ही उगता था- अपने आप। तेज हवा चली। पके दानों से भरी बालियां हिलीं। बीज बिखर गए। मिट्टी में गिरे। वर्षा हुई। अंकुर फूटे। करोड़ों साल तक यही सिलसिला चलता रहा होगा।
तेरह करोड़ साल पहले धरती के सातों महाद्वीप जुड़े हुए थे। फिर ये एक-दूसरे से दूर खिसकने लगे। बर्फीले ध्रुव-प्रदेश के सिवा हर जगह कहीं-न-कहीं पुराने जंगली धान मिले हैं। आज जो धान उगाया जाता है, उसका सबसे पुराना पुरखा उत्तरी हिमालय में मिला था। यहीं से धान हमारे देश के बाकी हिस्सों में और अफ्रीका के अलावा सारे संसार में फैला।
हमारे देश में तो कुछ ऐसा है कि जहां खोदो वहीं पुराने धान निकल आते हैं। हमारे यहां कम से कम 37 जगहों की खुदाई में पुराने जमाने के धान मिले हैं। मोहनजोदड़ो (अब पाकिस्तान में) के अतिरिक्त गुजरात में लोथल और रंगपुर में ईसा से दो हजार साल पहले के धान मिले हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल में प्राचीन स्थलों की खुदाई से भारत की प्राचीन धान-प्रधान संस्कृति का पता चलता है। चीन, जापान, कोरिया और थाइलैंड आदि देशों में की गई खुदाईयों में भी पुराने धान मिले।
अलग-अलग भाषाओं में उनके नामों से भी कौन पौधा कहां से कहां गया, इसका पता चल सकता है। धान के लिए लैटिन भाषा का ‘ओराइजा’ और अंग्रेजी का ‘राइस’ ये दोनों नाम तमिल भाषा के ‘अरिसि’ शब्द से उपजे हैं। अरब के सौदागर अपने साथ अरिसि ले गए तो वह अरबी भाषा में ‘अल-रूज’ या ‘अरुज’ बन गया। आगे जाकर स्पेनिश में ‘अरोज’ हो गया। ग्रीक में यही ‘औरिजा’ और लैटिन भाषा में ‘ओराइजा’ बन गया। इतालवी में ‘राइसो’, फ्रेंच में ‘रिज’, जर्मन में ‘रीइस’ रूसी में ‘रीस’ और अंग्रेजी भाषा में ‘राइस’ बन गया।
संस्कृत में रोपा धान को ‘व्रीहि’ कहते हैं। तेलुगु में इसी से वारी शब्द बना। अफ्रीका के पूर्वी तट पर बसे देश मैडागास्कर की ‘मलागासी’ भाषा में भी धान को ‘वारी’ या ‘वारे’ कहते हैं। ईरान की फारसी भाषा में ‘व्रीहि’ से ही ब्रिज बना।
कौटिल्य या चाणक्य ने अपने संस्कृत ग्रंथ अर्थशास्त्र में साठ दिन में पकने वाले षष्टिक धान का वर्णन किया है। इसे आजकल साठी कहते हैं।
बौद्ध संस्कृति में भी धान ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। गौतम बुद्ध के पिता का नाम था- शुद्धोदन। यानी शुद्ध चावल। वट वृक्ष के नीचे तप में लीन गौतम बुद्ध ने एक वन-कन्या सुजाता के हाथ से खीर खाने के बाद बोध प्राप्त किया और बुद्ध कहलाए। बौद्ध धर्म के साथ ही धान-संस्कृति और धान-कृषि भारत के पड़ोसी देशों- बर्मा, इंडोनेसिया, थाइलैंड, चीन, जापान और कोरिया तक फैली। धान भारत का ही दान है।
अपने लड़कपन के साथी सुदामा के लाए तंदुल (भुने चावल यानी मुरमुरे) पर भगवान श्रीकृष्ण ऐसे प्रसन्न हुए कि उस दो मुट्ठी तंदुल के बदले सुदामा को दो लोक मृत्यु लोक यानी पृथ्वी और स्वर्ग लोक दे डाले। अगर रुक्मणी ने उनका हाथ न पकड़ लिया होता तो तीसरा लोक- ब्रह्म लोक भी दे डालते।
चीन की राजधानी बीजिंग में शहर के दाएं तरफ एक मंदिर हुआ करता था। नाम था- स्वर्ग मंदिर। यहां पर सदियों तक कृषि-उत्सव होता रहा। उत्सव के दिन चीन के राजा किसानों की पीली पोशाक पहनकर आते थे। स्वर्ग मंदिर की बगल में ही एक खेत में गाजे-बाजे के साथ राजा हल चलाते। ईसा से कोई ढाई हजार साल पहले हुए इसी राजा शुन नुंग ने चीन के लोगों को पांच अनाजों की खेती करना सिखाया था। इनमें से एक था - ताओ यानी धान।
उस जमाने में देशों के बीच सड़कें नहीं थीं। फिर भी धान के दाने और उन्हें उगाने के तरीके दूर-दूर तक फैलते रहे। समुद्री सौदागर, हमलावर और प्रवासी यात्री जहां-जहां गए उनके साथ धान भी चलता गया। जिन्होंने कभी चावल देखा भी नहीं था, वे सोने-चांदी के बदले भी चावल लेते थे!
आज से कोई 15 हजार से 16 हजार साल पहले हिमालय की उत्तरी और दक्षिणी ढलानों में जंगली धान लहराते थे। ‘इंडिका’ किस्म के धान तापमान में हेर-फेर, यहां तक कि सूखा भी सह लेते थे। हिमालय से ये धान उत्तरी और पूर्वी भारत में और दक्षिण-पूर्व एशिया के उत्तरी भाग में और फिर दक्षिणी चीन में फैल गए।
जापान में धान पहले-पहल कोई 3 हजार साल पहले पहुंचा था। फिर जल्दी ही धान जापानी जीवन का अभिन्न अंग बन गया। वहां बचपन से ही धान को आदर देना सिखाया जाता है, मानो धान न हो, घर का कोई बड़ा-बूढ़ा हो। आज भी हर महीने के पहले, पंद्रहवें और अट्ठाइसवें दिन और सभी त्यौहारों पर जापानी घरों में लाल चावल बनाते हैं।
अफ्रीका में भी जंगली धानों से खेती वाला धान पनपा। इसकी खेती कोई साढ़े तीन हजार साल पहले शुरू हुई थी। जावा से एशियाई धान ईसा से चंद सदियों पहले अफ्रीका पहुंचा। उन दिनों की पालदार नौकाओं में हवाओं के साथ-साथ बहते हुए लोग गए और अपने साथ धान भी लेते गए। अफ्रीका के पूर्वी समुद्र तट पर मैडागास्कर में बस कर इन लोगों ने धान की खेती शुरू की। बाद में दक्षिण भारत के पूर्वी समुद्र तट से भी भारतीय समुद्री यात्री यहां पहुंचे। ये लोग ओमान होते हुए उसी समुद्री मार्ग से गए, जिससे मलाया और श्रीलंका के लोग और अरब व्यापारी गए थे। इसी प्रकार धान के बीज मानसूनी हवाओं के साथ यात्रा करते रहे। किसी ने सही लिखा है कि अफ्रीका में एशियाई अनाजों के आगमन की कथा हवाओं के हाथों लिखी गई थी।
बाइबिल में चावल का उल्लेख नहीं है और न मिस्र के प्राचीन अभिलेखों में। नील नदी की घाटी में पहली बार धान की खेती 639 ई. के आस-पास शुरू हुई। सिकंदर जब भारत से लौटा तो (327-324 ई. पू.) अपने साथ धान लेता गया। उसके गुरु अरस्तू पहले यूरोपीय विद्वान थे, जिन्होंने अपनी एक किताब में ‘ओरिज’ कहकर धान का नाम लिया।
यूरोप में धान कई रास्तों से गया। पहली से ग्यारहवीं सदी के बीच अरब सौदागरों के साथ भारत से धान ईरान और फिर मिस्र पहुंचा। वहां से धान ने स्पेन और सिसली में प्रवेश किया। स्पेन के इटली में प्रवेश किया। स्पेन के मूर लोग 8वीं सदी में उसे पुर्तगाल ले गए। वहां से धान ने बुल्गारिया, यूगोस्लाविया और रूमानिया की यात्रा की।
रूस को पहली बार धान देखने का मौका वहां के सम्राट पीटर प्रथम ने दिलाया। उन्होंने 1700 ई. के शुरू में ही ईरान से चावल मंगवाया था। रूस में कुछ धान पूर्वी एशिया से भी पहुंचा था। इसकी खेती कैस्पियन सागर के तटवर्ती प्रदेश में गई थी।
अमेरिका को पहली बार 17वीं सदी के शुरू में धान मिला। सन् 1685 में मैडागास्कर से एक जहाज चला जो रास्ते में खराब हो गया। मरम्मत के लिए जहाज को दक्षिण कैरोलाइना के बंदरगाह चार्ल्सटन में रुकना पड़ा। जाते समय जहाज का कप्तान वहां के लोगों को एक बोरा धान दे गया। इस तरह कैरोलाइना में धान की खेती शुरू हुई।
अमेरिकी राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन इटली की ‘पो’ नदी की घाटी में उगने वाले ‘लंबाडी’ धान पर ऐसे फिदा हुए कि वापस लौटते समय उसे जेब में छुपा कर अमेरिका ले उड़े। यह सन् 1784 की बात है।
गेहूं से लदा एक जहाज सन् 1522 ई. में मैक्सिको पहुंचा तो उसमें गेहूं के साथ धान भी मिला हुआ था। यह मिलावट ही मैक्सिको के लिए धान का वरदान लेकर आई थी।
हमारे देश में तो कोई भी पूजा और अनुष्ठान बिना रोली-चावल के संपन्न ही नहीं होता। पहले माथे पर पानी से गीली रोली लगाते हैं और उसके बाद चावल के कुछ दाने। इसी को कहते हैं- तिलक करना। दूल्हे को विवाह-मंडप से उठने से पहले कन्याएं दूब और साठी धान का अक्षत लेकर बांया हाथ नीचे करके और दायां हाथ ऊपर करके ऊपर से नीचे तक स्पर्श करती हैं। विदा के समय स्त्रियां हाथ में अक्षत लेकर दूल्हा-दुल्हन पर उसकी वर्षा करती हैं। यह प्रथा सारी दुनिया में लगभग एक से रूप में मिलती है- सब धर्मों में। हर जगह नए जोड़े पर चावल बिखेर कर, उन्हें धान की तरह ही फलने-फूलने का आशीर्वाद दिया जाता है। इस तरह धान संपूर्ण विश्व मंा जीवन का अटूट अंग बन गया था।
धान उगाने वाले किसान शुरू से ही जानते थे कि इसको पानी प्रिय है। धान के खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए उन्होंने तालाब और कुएं खोदे, नहरें बनाईं और तरह-तरह से सिंचाई के तरीके खोजे। कांपूचिया में अंगकोर की खुदाई में 60 किलोमीटर लंबी नहर मिली है। यह एकदम नाक की सीध में बनी है।
हमारे पड़ोसी देश बर्मा में 46 लाख हैक्टेयर में धान की खेती की जाती है। यहां के कारेन कबीले के लोग धान में आत्मा मानते हैं और उसे केला कहते हैं। इंडोनेशिया कोई 36 हजार द्वीपों का देश है। यहां बाली और सुमात्रा के किसान धान-माता को देवी-श्री और धान-नाना को देवी-नीनी कहते हैं। बीज बोने से पहले उनमें से सबसे बढ़िया बालियां चुनकर देवीश्री बनाई जाती हैं। इन्हें सिर पर रखकर नाचते-गाते खेत में या कोठार में सजा देते हैं।
जापान तो धान का पुजारी है। वहां हमेशा धान को बड़ा आदर दिया जाता है। जापान के एक प्रधानमंत्री (सन् 1987) माकोसोने-सान के नाम का मतलब है: श्री मध्य जड़। इनसे पहले के प्रधानमंत्री थे मुकुदा यानी ‘श्री भरे खेत और तनाका हैं श्री बिचौले खेत। यहां खेत का मतलब धान के खेत से ही है। होंडा नाम हमने मोटर गाड़ियों, मोटर साईकिलों की कंपनी की तरह सुना है। लेकिन होंडा के माने हैं मुख्य धान खेत और टोयोटा का मतलब है भरपूर फसल वाला धान का खेत। जापान के एक प्रमुख हवाई अड्डे का नाम है नारिटा यानी फूलता फलता धान खेत।
धान की प्रधानता की जापान में बड़ी पुरानी परंपरा है। यहां देहातों में धान-देवता इनारी का मंदिर जरूर मिलेगा। एक और देवता जीजो हैं यहां। इनके पांव हमेशा कीचड़ में सने रहते हैं। कहते हैं कि एक बार जीजो का एक भक्त बीमार पड़ गया। भगवान अपने भक्तों का खूब ध्यान रखते थे। उसके खेत में जीजो देवता रात भर काम करते रहे। तभी से उनके पांव कीचड़ में सने रहने लगे। धान की खेती में बिजाई, रोपाई और काटने से कूटने और पकाने तक अधिकतर काम प्रायः महिलाएं ही पूरे करती हैं। पानी भरे खेत के कीचड़ में धंसे पैर और दिन भर झुके-झुके पौध रोपना। इस कमरतोड़ मेहनत के बीच भी उसके हंसते होठों पर कोई न कोई मीठी तान रहती है। इनकी पीड़ा को फिलिपीन्स के एक गीत में कुछ इस तरह व्यक्त किया गया हैः “पौध रोपना मुश्किल काम, सुबह से शाम, नहीं विराम, कमर नहीं सीधी कर पाए, झुके-झुके ही पौध लगाएं।”
जापान तो धान का पुजारी है। वहां हमेशा धान को बड़ा आदर दिया जाता है। जापान के एक प्रधानमंत्री (सन् 1987) माकोसोने-सान के नाम का मतलब है। श्री मध्य जड़। इनसे पहले के प्रधानमंत्री थे मुकुदा ‘श्री भरे खेत और तनाका हैं श्री बिचौले खेत। यहां खेत का मतलब धान के खेत से ही है। होंडा नाम हमने मोटर गाड़ियों, मोटर साईकिलों की कंपनी की तरह सुना है। लेकिन होंडा के माने हैं मुख्य धान खेत और टोयोटा का मतलब है भरपूर फसल वाला धान का खेत। जापान के एक प्रमुख हवाई अड्डे का नाम है नारिटा यानी फूलता फलता धान खेत।वियतनाम के गांवों में यह माना जाता है कि धान की आत्मा घर की सबसे बूढ़ी मां में निवास करती है। वहां एक कहानी चलती है कि किसी जमाने में धान का दाना नारियल जितना गोल और बड़ा होता था। पकने पर मोटे गोल दाने फुटबाल की तरह लुढ़कते हुए खुद ही झोपडि़यों में आ जाते थे। उनके स्वागत में हर झोपड़ी सजाई जाती थी। एक बार कोई सुस्त वियतनामी किसान बिना सजाए अपनी झोपड़ी बंद करके सो गया। बस उसी दिन से धान महाराज ऐसे रूठे कि नारियल-सा बड़ा रूप त्यागकर बारीक चावल बन गए। खुद ही लुढ़कर आना भी छोड़ दिया। अब तो पूरी मेहनत करो। खेत जोतो, बोओ, रोपो, निराओ, पानी लगाओ, कीड़े मारो, पकने पर काटो, गहाई करो तो धान के दाने घर आएंगे।
जब खेत तैयार करके पानी भरा जाता है तो लगता है जैसे रूपहली चांदनी बिछी हो। यही खेत धान की रोपाई के बाद हरियाली के सागर में बदल जाते हैं। भीनी-भीनी हवा और रिमझिम बरसात में हरी कोपलें गर्दन मटका-मटका कर लहराने लगती हैं। सागर में बनती-मिटती लहरों की तरह हरे धान के खेत पर भी हवा वही समां बांध देती है। पकने पर धान के सुनहरे खेत नदी में नहाए लगते हैं। इन दिनों एक मीठी-सी धानी सुगंध हवा में तैरती रहती है।
बालियों में से अनाज के दाने अलग करने की क्रिया को गहाई कहते हैं। किसी जमाने में पूरे गांव का एक खलिहान होता था। अब तो हाल यह है कि घर में अगर चार भाई तो उनके खेत भी अलग, खलिहान भी अलग और चूल्हे भी अलग-अलग। नहीं तो पूरा गांव मिलकर जहां फसल पहले पकी, उस खेत का धान पहले काटते। गोबर से लिपे कच्चे फर्श पर सुखाए हुए धान के पूले बिछा देते। इसे पैर या लांक के बीच में खंभे से बंधी बल्ली को भैंसे या बैल की गर्दन में जुए की तरह डाल देते। कोल्हू के बैल की तरह घूमता हुआ जानवर कुचल-कुचल कर बालियों से दाने अलग करता। कहीं-कहीं जानवरों की जगह मजदूर से ही जोतवा दिए जाते थे। धान की बालियों के तीखे तीकुर धान कुचलती महिलाओं के पांवों को भी छील देते हैं। पर अब कुछ जगह इस काम के लिए मशीनें भी आ गई हैं। हमारे देश में अकेले पंजाब में ढाई लाख से ज्यादा ऐसी मशीनें चल रही हैं। किसी जमाने में चांदनी रात में खलिहान में इकट्ठे होकर गांव के लड़के-लड़कियां आपस में हंसी मजाक करते हुए ‘दांय’ चलवाते थे। युवकों और गांव की युवतियों के वे गीत अब तो इन थ्रैशर-मशीनों की गुर्र-गुर्र में डूब गए हैं।
नए धान को कूटे जाने से आंगन में एक अद्भुत गंध फैलती है। पांव से चलाई जाने वाली ढेकी से भी धान कूटे जाते हैं। हाथ के कुटे या हथकुटे धान का चावल पौष्टिक होता है। उसमें प्रोटीन वाली परत बची रहती है। इसी को ‘ब्राउन राइस’ या लाल चावल कहते हैं।
सेला चावल बनाने की तकनीक बाकी देशों में हमारे देश से ही गई है। पहले धान को पानी में भिगोया जाता है। फिर निथारकर पानी फेंक देते हैं और धान को भाप देकर गर्म करते हैं। इसके बाद सुखा देते हैं। फिर इसको कूटकर कड़ा छिलका अलग कर देते हैं। इस तरह चावल की ऊपरी परत पक्की होकर मूसल या मिल की कुटाई के बाद भी चिपकी रहती है। इससे चावल में पीलापन लिए शीशे-सी चमक आ जाती है। बाकी चावलों से सेला चावल कड़ा भी होता है और पौष्टिक भी। दुनिया भर का पांचवा हिस्सा चावल सेला बनाकर बिकता है।
लेकिन सेला चावल बनाने के इस भारतीय तरीके का महत्व दुनिया ने काफी कीमत चुकाने के बाद समझा। सन् 1882 की बात है। एक जापानी जहाज नौ महीने की समुद्र यात्रा के बाद वापस आया तो उसके 276 कर्मचारियों में से 25 की मौत हो चुकी थी। बाकी भी बेदम से ही हो रहे थे। पता चला कि जहाजियों ने हर रोज तीन बार उबले चावल खाए थे। यह मिल का चावल था-पॉलिशवाला। यानी इसकी पौष्टिक परत उतरी हुई थी। इन्हीं दिनों जावा और मलेशिया में जहाजियों में यही बीमारी पाई गई। इसे बेरी-बेरी कहा गया। सिंहली भाषा में इसका मतलब होता है- बेहद कमजोर। इसमें हाथ-पांव की मांस-पेशियां इतनी ढीली हो जातीं कि चलना-फिरना दूभर हो जाता। मिल में चावल की सफेदी बढ़ाने के चक्कर में उसके विटामिन उतर गए। इन विटामिनों को ‘विटामिन-बी’ नाम दिया गया था। मिल का चावल खिलाने पर मुर्गियां तक बीमार पड़ गई थीं पर फिर जब उन्हें सेला चावल खिलाया तो वे ठीक हो गईं। इस खोज से पहले विटामिन नाम की किसी चीज का पता नहीं था। डच वैज्ञानिक डॉ. आइखमैन ने इस बारे में सबसे पहले खोज की थी। मरने से साल भर पहले सन् 1929 में उन्हें इसी काम पर नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
चीनी दार्शनिक कंफ्यूशियस ने कहा था, ‘खाने को पुराने चावल हों, पीने को पानी हो और बांह टिकाने को तकिया हो, तो फिर आनंद ही आनंद। पुराने चावलों में कुछ ऐसे रसायन बन जाते हैं, जो पकने पर सुगंध बिखेरते हैं। यह सुगंध एशियाई देशों में ही पसंद की जाती है।
सन् 1947 में फिलिपीन्स में बेरी-बेरी रोग के कारण कोई 24 हजार मौतें हुई थीं। तब वहां पौष्टिक चावल बांटा गया था। इस पौष्टिक चावल को बांटने के बाद 21 महीनों में ही बेरी-बेरी रोग गायब हो गया था।
सन् 1882 की बात है। एक जापानी जहाज नौ महीने की समुद्र यात्रा के बाद वापस आया तो उसके 276 कर्मचारियों में से 25 की मौत हो चुकी थी। बाकी भी बेदम से ही हो रहे थे। पता चला कि जहाजियों ने हर रोज तीन बार उबले चावल खाए थे। यह मिल का चावल था-पॉलिशवाला। यानी इसकी पौष्टिक परत उतरी हुई थी।अभी कुछ ही पहले तक हमारे घरों में चावल का मांड आमतौर पर फेंका नहीं जाता था। यह गाढ़ा पानी बड़ा ही पोषक होता है। किसान तो खाने के बाद बचे हुए भात को मिट्टी के बर्तन में पानी या घड़े में भिगो देते हैं। दूसरे दिन सुबह इसी का नाश्ता करके दिन भर धान के खेतों में कड़ी मेहनत करते हैं। तेलुगु में इसका नाम है- सल्दीअन्नम् यानी पानी वाला चावल। सिर्फ दक्षिण भारत में ही नहीं बंगाल और उड़ीसा, छत्तीसगढ़ में भी रात भर पानी में भीगे भात को बड़े चाव से खाया जाता है।
दूसरे अनाज को पचने में दो से चार घंटे लगते हैं, पर चावल घंटे भर में ही पच जाता है। चावल इतना फूलता है कि एक कटोरी उबालो और तीन कटोरी खाओ। उबालते समय चावल के पौष्टिक तत्व बने रहें, इसके लिए पानी उतना ही होना चाहिए, जितना चावल सोख ले। फिर मांड फेंकने का प्रश्न ही नहीं उठता।
चीनी और जापानी भात या पुलाव खाना टेढ़ी खीर है। इसे लकड़ी की बनी चॉपस्टिक या डंडियों से खाना पड़ता है। जापानी चॉपस्टिक तो जरा लंबी और पतली पेंसिल जैसी होती है। चीनी चॉपस्टिक लंबाई में उसकी आधी होती है, पर मोटी ज्यादा होती है। जापानी चिपकना भात तो दोनों हाथों में पकड़ी गई चॉपस्टिक गड़ा कर उखाड़ा भी जा सकता है। पर चीनी खिलेंवां भात को चटन में लपेटकर ही चॉपस्टिकों पर चढ़ने के लिए राजी किया जा सकता है। मगर कभी-कभी चीनी चावलों में गुच्छी या खुंभिया भी होती हैं। ये इतने फिसलने वाले होते हैं कि चॉपस्टिक देखते ही भाग लेते हैं।
भात और मुंह के बीच का फासला तय करने में सबसे ज्यादा साथ देते हैं हाथ। और हमारे यहां तो भात खाने का मजा भी तभी आता है।
चीन के पास ताइवान देश में एक नगर है साइनान। इसके निकट में एनपिंग में एक पुराने किले के खंडहर हैं। यह किला कोई 300 साल पहले यहां हॉलैंड से आए लोगों ने बनाया था। यह किला चावल के मांड से बनाया गया था। बड़े-बड़े भगौनों में चावल उबालकर उसमें इतनी ही खांडसारी मिलाई जाती है। फिर शंख और सीपियों का चूरा मिलाते हैं। इस मसाले को सीमेंट की तरह इस्तेमाल करते हैं। सूखने पर यह बिलकुल पत्थर हो जाता है।
चीन में पुराने जमाने से चावल के आटे की लेई बनाते रहे हैं क्योंकि चावल के दानों में 90 प्रतिशत स्टार्च ही होता है। दाने के अलावा धान के पौधे के दूसरे हिस्सों के भी सैकड़ों उपयोग हैं। धान की भूसी भी बड़ी उपयोगी होती है।
दाने झाड़ने के बाद बचे धान के पौधे का मुख्य हिस्सा ‘पुआल’ है। यह 1-2 मीटर से लेकर 7 मीटर तक लंबा हो सकता है। बाढ़ के क्षेत्रों में बोए जाने वाले तैरते धानों के पुआल सचमुच इतने लंबे हो जाते हैं।
धान के पुआल और भूसी में प्रोटीन कम होता है। इसे पानी में भिगोकर चूना, अमोनिया, यूरिया वगैरह मिलाकर गाय-भैंस को खिलाया जाता है।
खुंभी उगाने के लिए धान का पुआल बड़े काम की चीज है। यह घुड़सालों में भी काम आती है। इस बिछावन को बाद में पशुओं के दाने या खाद की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं।
मकान की चिनाई का गारा बनाने के लिए सीमेंट में बालू की जगह धान की भूसी और मिट्टी भी मिलाई जाती है। इनकी बड़ी-बड़ी ईंटें भी बनती हैं। इसमें धान की भूसी की राख आधे सीमेंट की जगह ले सकती है। ईंटें बनाने में 10 भाग मिट्टी में एक भाग धान की राख मिला सकते हैं। धान की भूसी में सिलिका नाम का एक तत्व होता है। इससे सिलीकन निकाला जाता है। सिलीकन को शोधकर चिप और सोलर सैल बनाए जाते हैं। ये कंप्यूटर और तमाम तरह की इलैक्ट्रॉनिक मशीनों में काम आने लगे हैं। कांच और तामचीनी उद्योग में तो धान की भूसी का उपयोग न जाने कब से होता ही चला आया है।
धान के पुआल और भूसी में खमीर उठाने से ईथेनोल या पॉवर अलकोहल बन जाता है। यह भविष्य में मोटरकार चलाने में पेट्रोल की जगह काम आ सकता है। धान की भूसी के चूरे से फाईबर-बोर्ड बन रहे हैं। इमारती बोर्ड बनाने में लकड़ी के बुरादे या चिप की जगह धान की भूसी भी जमा सकते हैं। धान की भूसी से पानी को पीने के काबिल बना सकते हैं। झील या ताल के पानी को पहले नारियल के रेशे में से गुजारें और फिर धान की जली भूसी में से। ठोस कीचड़ वगैरह रेशे में रुक जाता है और बारीक बैक्टीरिया आदि भूसी की राख के पार नहीं जा पाते।
इतने काम की होने के बाद भी ज्यादातर पुआल और भूसी जलाऊ ईंधन के ही काम आते हैं। हमारे देश में 30 प्रतिशत भूसी बॉइलरों की भट्टियों में झोंकी जाती है। ज्यादातर किसान तो धान काटने के बाद बचे हुए पुआल को खेतों में और चावल निकालने के बाद भूसी को खलिहानों में जला देते हैं। वैसे यह चलन अभी कुछ ही समय पहले आया है।
धान की कोराई में 15 से 20 प्रतिशत तेल होता है। तलने लायक। भारत, जापान और चीन ब्रान के सबसे बड़े तेली हैं। तेल धान की ब्रान या कराई से निकाला जाता है। भूसी तो हुई धान का ऊपरी छिलका। इसके अंदर की बादामी परतें हैं- ब्रान या कोराई। इसी तरह दाने के अंदर भू्रण का कोना कनी कहलाता है। ब्रान और कनी तेल में धनी हैं। इसमें प्रोटीन भी होता है और कार्बोहाइड्रेट भी। बिटामिन-बी के तो ये भंडार हैं।
हमारे पुराणों के अनुसार जब प्रलय हुआ तो धरती के सभी प्राणी और सारी वनस्पतियां डूब गईं। उस समय बच रहे थे मनु। उन्होंने अपनी नौका में बस दो ही अनाज रखे थे- धान और जौ। इन दोनों के दाने कड़े खोल में बंद रहते हैं और लंबे सफर में उन्हें खराब होने से बचाते हैं।
हमारे गांवों में अगहनी फसल आ जाने पर धान की बालियों के बंदनवार द्वार पर टांग दिए जाते हैं। चिड़ियां आए, दाने चुगें और चहचहाहट से आंगन भर दें। धन्य-धन्य में धान कितना सुख देता है, यह तो धनवान ही जाने लेकिन धान्य तो गृहस्थ के घर को आनंद से, चहचहाहट से भरता ही चला आया है।
लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वरिष्ठ वैज्ञानिकों में गिने जाते थे। इस वर्ष अच्छे मानसून के कारण देश में धान का बुवाई क्षेत्र भी बढ़ा है और फसल भी सर्वाधिक होने का अनुमान है। ऐसे विशेष अवसर पर धान की सुगंध बिखेरता उनका यह लेख प्रस्तुत करते हुए हम उन्हें श्रद्धा सुमन भी अर्पित करते हैं।
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