उत्तराखंड के जंगलों में लगी भीषण आग ने जलते हुए पाहाडों व कन्दराओं में धारण किये इन्सानी चेहरे
कैनवास पर उतारी गई ये ना तो किसी मशहूर चित्रकार की पेंटिंग्स है न ही कोई चित्रकारी। इन रेखायें ने जिन्होंने मानो किसी बुजुर्ग महिला व किसी बुजुर्ग पुरुष का रूप धारण कर लिया हो और आपस मे सायद यही वार्तालाप कर रहे होंगे कि,,
आखिर जंगल मे आग लगाता कौन है??
उनके जमाने मे तो जंगल मे आग लगते ही ग्रामीण ही सबसे पहले आग बुझाने आते थे, क्योंकि उस जमाने गांव की समूची आर्थिकी जंगलों पर ही निर्भर थी। जंगलों से घास, लकड़ी, जलाऊ , इमारती, खेती बाड़ी, खेत खलियान, हवा , पानी, सिंचाई के लिए, पीने के लिए, पशुओं के लिये,,चारा पत्तियों से लेकर कृषि से संबंधित हल तागड, टोकरी से लेकर बोझ उठाने के लिए रिंगाल, मकान के लिए पत्थर गारे, मिट्टी, मकान की छत के लिए पटाल से लेकर कड़ी तख़्ते, लेपने पोतने के लिए मिट्टी से लेकर लाल मिट्टी, कमेडू, खाने के लिए जँगली फल फूल सभी कुछ तो जंगलों से ही मिलता था वो भी निशुल्क।
शायद इसी के चलते ग्रामीण ही सबसे पहले जंगल की आग बुझाने आते थे। अब तो जंगलों पर जंगलात वालों के अधिकार हैं। उनकी मर्जी से आप एक रिंगाल भी जंगल से काट कर नहीं ला सकते कलम,बनाने के लिए। लेकिन जंगलों पर अगर आज कोई भारी है तो खनन माफिया, लक्कड़ माफिया, जड़ी बूटी माफिया, वन्य जीव तस्कर और भू माफिया। इनके लिए सब माफ है।
जंगलों को आग से बचाना है तो जनता यानी ग्रामीणों व जंगलों के बीच आज से 50 वर्ष पुराने रिश्तों को फिर से जिंदा करने की आवश्यकता है। जब ग्रामीण जंगलों को जंगलात का नहीं खुद का समझने लगेंगे तो उस समय समझो कि जंगलों की आग को नियंत्रित किया जा सकता है।।
दूर से इन दोनों बुजुर्गों की बातचीत भी कोई सुन रहा था इसका आभास होते ही इन रेखाओं से बने बुजुर्गों ने अपनी बातचीत को बीच मे ही खत्म करना अपनी भलाई समझी और इन्होंने तत्काल अपना रूप भी बदल दिया ताकि उन्हें लोग दूर से एक जंगल की भीषण आग की तरह से ही देखें। नहीं तो सरकार और लोग जंगलों की भीषण आग में भी भावनाएं तलाशने लगेंगे।
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