धातु आयनों की विषाक्तता: एक विस्तृत अध्ययन (Toxicity of metal ions : A comprehensive study)


सारांश


धातु आयन (सोडियम, पोटैशियम, कैशियम, मैगनिशियम, जिंक, मैगनीज कॉपर, मालिब्डेनम आदि) जीवधारियों के स्वास्थ्य तथा जीवन के लिये अत्यंत आवश्यक हैं। परन्तु इनमें से प्रत्येक की एक निश्चित मात्रा होती है, जहाँ तक वे किसी प्राणी के रक्त में उपस्थित रहते हैं। निश्चित मात्रा में धातु आयनों का रक्त में उपस्थित होना स्वास्थ्यवर्धक है। इसके विपरित यदि किसी प्रकार किसी प्राणी के परिसंचरण तंत्र में कोई धातु आयन अपनी निश्चित मात्रा से अधिक मात्रा में पहुँच जाए और उसका शीघ्र उत्सर्जन न हो पाये तो रक्त में विषाक्तता उत्पन्न हो जाती है। जिसके फलस्वरूप अनेक प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती है। धातु आयनों के विषैले प्रभाव को दूर करने के लिये मिश्रित संकरों द्वारा विषाक्त धातु आयनों को विस्थापित किया जा सकता है।

Abstract


Metal ions (Na, Ca, Mg, Zn, Mn, Cu, Mo etc.) are essential for health and life of human beings. But there is a certain amount of each of them, where they are present in the blood of any creature. Certain amount of metal ions to be present in the blood is healthy. Conversely, if any circulatory system of an animal, metal ions in excess of your account reaches a certain amount, and its not quick excretion, there is in the blood are the accumulation leads to toxicity. Resulting in many sorts of diseases to occur. Toxic effect of these metal ions can be removed by mixed complexes of these toxic metal ions and thus, excreted.

1. प्रस्तावना


जीवधारियों के स्वास्थ्य तथा जीवन के लिये आवश्यक धातु तत्वों को तीन वर्गों में वर्गीकृत कर सकते हैं (1) स्थूल धातुएं – Na, K, Ca, Mg जो किसी भी जन्तु में पाये जाने वाले धातुओं के अंश का लगभग 99.5 प्रतिशत होते हैं। इसका कार्य मुख्य रूप से अस्थि संस्थान तथा परासरणी साम्यावस्था से संबंधित है। (2) आयरन तथा अन्य आवश्यक सूक्ष्ममात्रिक धातु तत्व Zn, Cu, Mn, Mo जो धात्विक एंजाइमों के रूप में अथवा एंजाइम उत्प्रेरक के रूप में कार्य करते हैं। शेष अन्य धातुओं को तीसरे वर्ग में रखा जा सकता है। ये प्राय: बहुत ही सूक्ष्म मात्रा में उपस्थित रहती हैं। और इनका कोई विशेष जैव कार्य नहीं होता। यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यद्यपि उपर्युक्त धातुओं में से प्रत्येक की अपनी एक निश्चित मात्रा होती है। जहाँ तक वे किसी प्राणी के रक्त में उपस्थित रहते हैं। और यह प्राणियों के लिये भिन्न-भिन्न होती है। इसी स्तर तक इन धातु आयनों का रक्त में उपस्थित होना स्वास्थ्यवर्धक है। इसके विपरीत यदि किसी प्रकार किसी प्राणी के परिसंचरण तंत्र में कोई धातु आयन इस सीमा से अधिक मात्रा में पहुँच जाए और उसका शीघ्र उत्सर्जन न हो पाये तो विशाक्तता उत्पन्न हो जाती है। इसके फलस्वरूप शरीर का लवण-संतुलन बिगड़ जाता है। कई अंगों में विशेष रूप से गुर्दों में उत्तेजना तथा दाह उत्पन्न हो जाता है। केंद्रीय स्नायु संस्थान (मस्तिष्क आदि) प्रभावित हो जाता है। तथा अनेक एन्जाइम अभिक्रियाओं में व्यतिकरण आ जाता है। पोटैशियम का सामान्य बहिकोशिकीय स्तर 16-20 मि.ग्रा. प्रतिशत होता है। परन्तु यह दूना हो जाए तो स्नायुओं तथा मांसपेशियों के कार्य पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। यहाँ तक कि हृदय की गति के अवनमन1 के कारण मृत्यु भी हो सकती है। जिंक तथा कॉपर लवणों से उल्टी होने लगती है, तथा पाचक अंगो में उत्तेजना आ जाती है। विल्सन के रोग में कॉपर के स्तर को नियंत्रित करने वाली प्रक्रिया बिगड़ जाती है। जिसके फलस्वरूप कॉपर का अवशोषण तो बढ़ जाता है, पर उसका उस सीमा तक उत्सर्जन नहीं हो पाता और धीरे-धीरे विशेष अंग यकृत में कॉपर जमा होने लगता है। लेड की विषाक्तता से गठिया रोग उत्पन्न हो जाता है। रक्त में इसका सामान्य स्तर 0.03 मि.ग्रा. प्रतिशत होता है। और 0.08 मि.ग्रा. प्रतिशत के स्तर पर पहुँचने पर इसकी विषाक्तता के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। बेरिलियम युक्त धूल के निश्वसन से फेफड़े नष्ट हो जाते हैं। आर्सेनिक, मरकरी, एन्टिमनी, कैडमियम आदि सभी प्रबल विष हैं। (यूरेनियम2 U4+ तथा UO2++) गुर्दे की कोशिकाओं में स्थित एन्जाइमों पर अपना विषैला प्रभाव डालते हैं।

2. विषाक्तता की प्रक्रिया


संकरण के निम्न सामर्थ्य वाले आयनों, जैसे K+, Ba++, Li+ आदि की विषाक्तता मुख्य रूप से लवण संतुलन बिगड़ जाने के कारण होती है, अथवा यह इनके धन आवेश के कारण होती है, क्योंकि ये भी किसी जैव निकाय में उपस्थित ऋणीय स्थानों पर अधिशोषण की स्पर्द्धा कर सकते हैं, अथवा प्रोटीन के हाइड्रोजन अथवा अन्य धनायनों को विस्थापित करके उसके गुणों को परिवर्तित कर सकते हैं। ये गुण इन आयनों के आवेश तथा जलयोजित आयनों के आकार पर निर्भर हैं। इनके विपरीत अन्य धातु आयन जिनमें संकर निर्माण की क्षमता होती है, प्रोटीन के अनेक प्राप्य द्वाता परमाणुओं से उपसहसंयोजित होकर संकर बना लेते हैं। इनमें कुछ धातु आयनों में कुछ विशेष दाता परमाणुओं के प्रति अधिक बन्धुता होती है। उदाहरणार्थ मरकरी, आर्सेनिक, एन्टिमनी आदि में सल्फर के लिये विशेष बंधुता होती है। कुछ अधिक प्रबल संकरकारी धातु आयन निर्बल आयनों को उनके उपसहसंयोजन के स्थानों से विस्थापित भी कर सकते हैं।

धातु आयनों की विषाक्तता तथा उपसहसंयोजन के परस्पर संबंध का सुझाव 1923 में वोग्तलिन3 ने दिया था, जिनका विचार था कि जीवित कोशों पर आर्सेनिक की विषाक्तता क्रिया का कारण प्रोटोप्लाज्म में उपस्थित कुछ आवश्यक थाँयाल यौगिकों से उसका संयोग है। बाद में पीटर्स4, स्टाकेन5 तथा थामसन6 आदि वैज्ञानिकों ने युद्ध में प्रयोग की जाने वाली आर्सेनिकीय गैसों के अध्ययन द्वारा इस निष्कर्ष की पुष्टि की। आर्सेनाइट आयन से पाइरूवेट-ऑक्सीडेस एंजाइम निकाय की क्रिया का निरोध हो जाता है। जिससे रक्त में पाइरूवेट स्तर बढ़ जाता है, त्वचा द्वारा श्वसन क्रिया घट जाती है। और फफोले पड़ जाते हैं। इसका कारण आवश्यक एन्जाइमों के उपयुक्त- SH समूहों के साथ आर्सेनिक III के कीलेट का निर्माण है। मरकरी, कैडमियम, गोल्ड, जिंक, बिस्मथ, एन्टिमनी तथा संभवत: लेड के साथ भी समान अभिक्रियाएं होती हैं। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि आर्सेनिक तथा संभवत: एन्टिमनी भी- S- दाता समूहों से उपसहसंयोजन करना अधिक पसंद करते हैं और नाइट्रोजन से उपसहसंयोजन नहीं करते, परंतु मरकरी नाइट्रोजन से प्रबल बंधन कर सकता है, अत: पेप्टाइडों के -NH समूहों से भी बंध सकता है।

आर्सेनिक-एन्जाइम कीलेट के दिदंती प्रकृति के प्रमाण मोनो तथा डाईथॉयाल द्वारा इसके विषाक्त प्रभाव को दूर करने संबंधी अध्ययनों6 द्वारा प्राप्त हुए हैं। डाइ थॉयाल द्वारा इसकी विषाक्तता सफलतापूर्वक दूर की जा सकती है, परन्तु मोनो थायाल कोई प्रभावकारी सिद्ध नहीं होते हैं। इसी प्रकार एन्टिमोनिल टार्टरेट, टेट्राक्लोरो आरेट (III) तथा मरक्यूरिक क्लोराइड मस्तिष्क के पाइरूविक अक्सीडेस का निरोध कर देते हैं और उनका यह विषाक्त प्रभाव डाइ थॉयाल द्वारा दूर हो जाता है।7 कोबाल्ट (II) भी -SH एंजाइमों का निरोध कर देता है और इसकी विषाक्तता सिस्टीन द्वारा दूर हो जाती है।

शोध पत्र


इस प्रकार यह निश्चित है कि धातु आयनों की विषाक्तता तथा उनके द्वारा उपसहसंयोजन की क्षमता में गहरा संबंध है। यही नहीं जल के जीवों, मछलियों, टैडपोल आदि पर अध्ययनों के द्वारा यह सुझाव दिया गया है कि धातु आयनों की विषाक्तता तथा उनके संकरों के स्थायित्व में एक गहरा संबंध है और इनके घटने-बढ़ने का क्रम इर्विग विलियम8 क्रम Mn(II)9 कुछ एन्जाइमों जैसे यूरिऐज, डायस्टेस आदि के लिये भी पाया जाता है।

3. मिश्रित यौगिकों द्वारा धातु आयन विषाक्तता का उपचार


औषधि विज्ञान में धातु आयनों की विषाक्तता के उपचार के लिये कीलेटकारी यौगिकों का प्राय: व्यवहार किया जाता है। इसका कारण यह है कि ये यौगिक परिसंचरित तथा जैव निकायों में बंधित दोनों प्रकार के धातु आयनों से सरलता से विलेय संकरों का निर्माण कर लेते हैं, जो फिर उत्सर्जित हो जाते हैं। इसके लिये आवश्यक दशा यह है कि कीलेटकारी तथा निर्मित कीलेट को धातु आयनों की अपेक्षा बहुत कम विषैला होना चाहिए इसे उपापचयी अभिक्रियाओं में भाग नहीं लेना चाहिए तथा इसमें धातु आयन के संग्रह स्थानों तक अन्तर्भेदन की क्षमता होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त इससे निर्मित कीलेट को बहुत अधिक स्थायी होना चाहिए और वरीयता की दृष्टि से बहुदंती लिगैंड होना चाहिए। बहुदंती लिगैंडों के उपयोग से धातु के सभी प्रमुख उपसहसंयोजन के स्थान भर जाते हैं, जिससे एन्जाइम के दाता समूहों के उपयोग के द्वारा मिश्रित संकरों के निर्माण की सम्भावना बहुत घट जाती है। अत: ये अधिक उपयोगी हैं।

युद्ध में प्रयुक्त आर्सेनिकीय गैसों से -SH एन्जाइमों की रक्षा के हेतु 2,3 - डाइमरकैप्टो प्रोपैनाल10 (BAL) (II) अतिउपयोगी पाया गया है और अब इसका उपयोग मरकरी आर्सेनिक, एन्टिमनी, गोल्ड तथा बिस्मथ की विषाक्तता के उपचार में किया जाने लगा है। ये सभी BAL के साथ संकर निर्माण करते हैं। उदाहरणार्थ Hg(II) के साथ यह दो मोनो तथा बिस संकर बनाता है। इनमें से मोनो संकर विद्युत अनपघट्य है, जबकि बिस संकर एक अम्ल है, जोकि शरीर के पीएच पर एक अति विलेय ऋणायन के रूप में रहता है। इसी प्रकार मोनो मरकरी (II) कीलेट के समान आर्सीनियस तथा एन्टीमोनस अम्लों से As(III) तथा Sb(III) के भी कीलेट बन जाते हैं, जिनमें इनके दो हाइड्रॉक्सी समूहों के स्थान पर S- उपधातु बंध बन जाते हैं हाइड्रॉक्सिल समूहों की उपस्थिति के कारण ये भी अम्लीय होते हैं।

कार्बनिक पारदीय यौगिकों जैसे क्लोरेमेरोड्रिन Cl-HgCH2CH(OCH3)CH2NHCoNH2 का व्यवहार मूत्रल औषधियों के रूप में किया जाता है। ये अधिकतर पारदयुक्त कार्बनिक अम्ल होते हैं। और (R-Hg)+ के रूप में कार्य करते हैं। इनकी क्रिया वृक्कीय नलिकाकार कोशिकाओं के -SH एन्जाइमों के निरोध द्वारा प्रतीत होती है। BAL से यह एक मोनो (BAL) कीलेट बना लेता है। अत: BAL के प्रयोग से इसकी मूत्रल क्रिया तथा वाह्य विषैली अभिक्रियाएं नष्ट हो जाती हैं। इसी प्रकार कार्बनिक आर्सेनिकीय11 यौगिक भी प्रबल औषधि है, तथा उनकी स्पाइरोकीट तथा प्रोटोजोआ विरोधी अभिक्रियाएं R.As(OH)2 समूह के द्वारा होती है, जिससे एन्जाइम निष्क्रिय पड़ जाते हैं। BAL तथा अन्य –SH युक्त यौगिकों की उपस्थिति में इन पराजीवों की रक्षा हो जाती है। वे इन औषधियों से नष्ट नहीं होते।

लेड12 (सीसा) के विषैले प्रभाव को दूर करने के लिये EDTA के कैल्शियम कीलेट Na2[Ca-EDTA] तथा DTPA के कैल्शियम13,14 कीलेट के इन्जेक्शन दिये जाते हैं। कैलिशयम आयन अधिक प्रबल संकरकारी लेड के द्वारा विस्थापित हो जाता है। और फिर लेड EDTA तथा लेड DTPA के कीलेट के रूप में उत्सर्जित हो जाता है। इसे आयरन15 की गंभीर विषाक्तता के उपचार में तथा शरीर में उपस्थित रेडियो सक्रीय16 धातुओं को गतिशील करके उत्सर्जित करने में भी अति उपयोगी पाया गया है।

पेनिसिलामीन तथा 2,2 डाइमेथिल थायोजोलिडीन -4- कार्बोक्सिलिक एसिड निम्न विषाक्तता वाले द्विदंती लिगैन्ड होते हैं। इनका उपयोग विल्सन के रोग में संग्रहीत कॉपर को गतिशील बनाने में किया गया है।17,18 आरिन ट्राइकार्बोक्सिलिक एसिड रंजक में एरोमैटिक वलयों में उपस्थित में कार्बोक्सिलिक समूहों की आर्थों स्थितियों में तीन ऑक्सीजन परमाणु होते हैं। और यह इनके द्वारा एक द्विदन्ती लिगैन्ड की भांति व्यवहार करता है। इसे बेरिलियम19 के विषाक्तता के उपचार में अति प्रभावकारी पाया गया है। मिश्रित संकरों (मल्टीमेटल मल्टी लिगैन्डों)20,21 के द्वारा शरीर में उपस्थित कई विषाक्त धातु आयनों को एक साथ विस्थापित किया जा सकता है। जो कीलेट के रूप में मूत्र द्वारा उत्सर्जित हो जाता है।

यद्यपि कीलेटकारी यौगिक धातु आयनों को गतिशील करके उत्सर्जित करने के अत्यन्त प्रभावकारी पाये गये हैं। परंतु इस प्रकार निर्मित उनके कीलेट स्वयं भी विषैले होते हैं। अत: इनके प्रयोग से भी काफी सावधानी रखने की आवश्यकता है। उदाहरणार्थ BAL की अधिक मात्रा की उपस्थिति में जिंक तथा कैडमियम के BAL संकर सरल आयनों की अपेक्षा गुर्दे की नलिकाओं को अधिक हानि पहुँचाते हैं। बेरीलियम के सिट्रेट आयनों के द्वारा सिट्रेट संकर के रूप में शीघ्रता से उत्सर्जित किया जा सकता है, परंतु इस उपचार की अपेक्षा अनुपचारित प्राणियों के जीवित बचने की संख्या अधिक22 पाई गई है। यद्यपि BAL मरकरी (II) की विषाक्तता से रक्षा करता है परंतु इसका पूर्व निर्मित बिस कीलेट मुक्त धातु आयन के ही समान अधिक विषैला होता है। इसका कारण संभवत: यह है कि शरीर में विशेषकर गुर्दे में थॉयाल लिगैन्ड के वियोजन तथा ऑक्सीकरन के द्वारा धातु आयन अधिक मात्रा में मुक्त हो जाते हैं। इन कीलेट संकरों की विषाक्तता की व्याख्या इस प्रकार भी की जा सकती है कि यदि संकर का पूर्ण वियोजन तथा मुक्त धातु आयनों का उन्मुक्त होना न भी संभव हो तो (i) संकर के किसी कीलेटकारी समूह की हानि द्वारा, अर्थात बहुदंती कीलेटों में किसी उपसहसंयोजन के स्थान के मुक्त हो जाने से संकर का आंशिक वियोजन हो सकता है अथवा (ii) पूरा कीलेट स्वयं विषैला हो और वह आवश्यक एन्जाइमों से उपयुक्त स्थानों पर बिना सहसंयोजक बंध बनाये स्थिर विद्युत आकर्षक तथा वाण्डरवाल की शक्तियों द्वारा बंधित हो जाए। इस प्रकार के बंध धनायनिक संकरों के लिये विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है।

4. निष्कर्ष


उपर्युक्त लेख में विभिन्न प्रकार के धातु आयनों की विषाक्तता का वर्णन किया गया है जिसकी अधिकता अथवा कमी शरीर की उपापचयी क्रियाओं पर विपरित प्रभाव डालती है। वैज्ञानिक मतों के अनुसार शरीर से विषाक्त धातु आयनों को दूर करने के लिये मिश्रित यौगिकों का उपयोग अत्यंत प्रभावकारी सिद्ध होते हैं जिसके अनुकरण से अनेक प्रकार के रोगों से बचा जा सकता है।

संदर्भविजय शंकर
असिस्टेंट प्रोफेसर, रसायन विज्ञान विभाग, बीएसएनवीपीजी कॉलेज, लखनऊ-226001, यूपी, भारतRao.vijay55@gmail.com

Vijay shankar
Assistant Professor, Department of Chemistry, B.S.N.V.P.G. College, Lucknow-2226001, U.P., India, Rao.vijay55@gmail.com

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