धारा

बहने दो,
रोक-टोक से कभी नहीं रुकती है,
यौवन-मद की बाढ़ नदी की
किसे देख झुकती है?
गरज-गरज वह क्या कहती है, कहने दो-
अपनी इच्छा से प्रबल वेग से बहने दो।
सुना, रोकने उसे कभी कुंजर आया था,
दशा हुई फिर क्या उसकी?
फल क्या पाया था?

तिनका-जैसा मारा-मारा
फिरा तरंगों में बेचारा-
गर्व गँवाया-हारा;
अगर हठ-वश आओगे,
दुर्दशा करवाओगे-बह जाओगे।

देखते नहीं? - वेग से हहराती है-
नग्न प्रलय का-सा तांडव हो रहा-
चाल कैसी मतवाली-लहराती है।
प्रकृति को देख, मींचती आँखें,
त्रस्त खड़ी है-थर्राती है।

आज हो गए ढीले सारे बंधन,
मुक्त हो गए प्राण,
रुका है सारा करुणा-क्रंदन।

बहती कैसी पागल उसकी धारा!
हाथ जोड़कर खड़ा देखता दीन
विश्व यह सारा।

बड़े दंभ से खड़े हुए ये भूधर
समझे थे जिसे बालिका,
आज ढहाते शिला-खंड-चय देख
काँपते थर-थर-
उपल-खंड नर-मुंड-मालिनी कहते उसे कालिका।

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