प्रमुख नदियों का उदगम् क्षेत्र हिमालय इतना विविध होने के बाद भी पानी के लिये विवादपूर्ण रहा है। उत्तराखंड में सिंचाई का माध्यम या तो नदियाँ है या धौले जिसका पानी लेकर वहाँ के लोग अपने-अपने खेतों को सींचते हैं। उत्तराखंड में पानी के स्त्रोतों का बँटवारा भी हमेशा विवादपूर्ण रहा है। पानी के स्त्रोतों पर स्थानीय लोग अपना-अपना हक हमेशा जताते रहे हैं। ऐसा एक मामला गढ़वाल क्षेत्र के अल्मोड़ा जिले में लड्यूरा और बयाला खालसा ग्रामसभाओं का है जो पानी के बँटवारे के लिये हमेशा आपस में उलझती रही हैं। लड्यूरा ग्रामसभा संलोज और हिटोली पानी के स्त्रोत से सिंचाई का पानी लेते हैं और इसी पानी के स्त्रोत से बयाला खालसा ग्रामसभा भी सिंचाई का पानी लेती है। लड्यूरा ग्रामसभा सू्र्योदय से लेकर सूर्यास्त तक पानी लेती है और बयाला खालसा ग्रामसभा सूर्यास्त से लेकर सूर्योदय तक पानी लेती है। इन दोनों ग्रामसभाओं के बीच पानी का संघर्ष बहुत पुराना है। जिसका अब तक भी कोई हल नहीं निकल पाया है।
उत्तराखण्ड के हिमालय क्षेत्र में आज भी कई पारम्परिक सिंचाई प्रणालियाँ जारी हैं और स्थानीय समुदायों द्वारा ही उनका सारा इन्तजाम किया जा रहा है। अल्मोड़ा जिले में लड्यूरा और बयाला खालसा ग्रामसभाएँ अपनी सिंचाई प्रणालियों का प्रबन्धन खुद ही करती हैं। लड्यूरा, सलोंज और हिटोली-सिंचाई का पानी दो स्रोतों से लेते हैं, जो सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच 40 हेक्टेयर खेत सींच देते हैं। बयाला खालसा ग्रामसभा, जो धारा के निचले हिस्से में पड़ती है, उसमें भी तीन गाँव हैं। इनका कुल सिंचित क्षेत्र 24 हेक्टेयर है और उन्हें सूर्यास्त से सूर्योदय के बीच पानी मिलता है।
इन दोनों गाँवों के बीच पानी के इस्तेमाल को लेकर होने वाले झगड़ों का एक लम्बा इतिहास है। उनके बीच पहला कानूनी मामला वर्ष 1855 में बना था, जब एक योग्य न्यायिक प्राधिकरण ने उनके बीच पानी के उपयोग का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। वर्ष 1944 में ये दोनों गाँव एक बार फिर अपने मामले के निपटारे के लिये न्यायालय की शरण में गए। तब न्यायालय ने फैसला दिया, “यह सिद्ध करने के लिये कोई सबूत नहीं है कि समय के लिहाज से लड्यूरा गाँव को बयाला गाँव से पहले ही पानी मिलना जरूरी है” और कहा कि लड्यूरा गाँव सूर्योदय से सूर्यास्त तक धारा के समूचे पानी का अधिकारी है, जबकि धारा के निचले हिस्से में पड़ने वाले गाँवों को सूर्यास्त से सूर्योदय तक पानी मिलना चाहिए।
लड्यूरा गाँव में एक औपचारिक रूप से स्थापित और प्रभावी सिंचाई संगठन वर्ष 1952 से ही चलता आ रहा है। इस क्षेत्र पर आई पिछली रिपोर्ट में इस क्षमता स्तर का एक भी संगठन नहीं है। हर छह महीने में होने वाली इसकी बैठकों का ब्यौरा बड़ी दक्षतापूर्वक सहेजकर रखा होता है। लेकिन नीचे के गाँवों में इस तरह का कोई भी संगठन नहीं है।
लड्यूरा ग्रामसभा में तीन गाँव हैं और इसमें कुल 163 परिवार रहते हैं। इन तीनों गाँवों में लड्यूरा और हिटाली में राजपूत बहुसंख्यक हैं और सलांज में ब्राह्मण और हरिजन बहुसंख्यक हैं। सिंचाई व्यवस्था के सभापति लड्यूरा के और आमतौर पर ठाकुर ही होते हैं। ज्यादातर खेतिहर जमीन की मिल्कियत ब्राह्मणों और राजपूतोें के पास है, लेकिन ब्राह्मणों ने अपनी जमीनें ठाकुरों और हरिजनों को पट्टे पर दे रखी हैं।
यहाँ की सामान्य सिंचित फसलें गेहूँ, जौ, सरसों और आलू हैं। रबी के मौसम में अक्सर दालें और खरीफ के मौसम में तीन-चार सिंचाई के विपरीत रबी के मौसम में एक-दो सिंचाई ही उपलब्ध हो पाती है, जबकि खरीफ के लिहाज से जुलाई से सितम्बर तक पर्याप्त बारिश भी होती रहती है। गेहूँ या अन्य रबी फसलों के लिये पानी पहले अक्टूबर के दौरान रोपनी से पहले ही सिंचाई के लिये उपलब्ध रहता है और फिर दिसम्बर से फरवरी के बीच। खरीफ के धान के लिये जुलाई और अगस्त में दो सिंचाइयाँ उपलब्ध कराई जाती हैं। उसके बाद सितम्बर के अन्त तक लगातार पानी चाहिए होता है।
किसी भी धारा के शीर्ष पर ही ज्यादा पानी लेकर नीचे के इलाकों को कहीं सूखा रहने को मजबूर न कर दिया जाये, इसके लिये एक आसान तरीका अपनाया गया है। पानी लेने की हर जगह एक छोटा पत्थर रख दिया जाता है। पानी लेने की जगहों पर लगने वाले ये पत्थर आकार में क्रमशः छोटे होते जाते हैं और इस तरह पानी के बँटवारे में एक न्यूनतम समता सुनिश्चित कर दी जाती है।
लड्यूरा गाँव में पानी का बँटवारा एक सिंचाई समिति द्वारा किया जाता है जिसका पंजीकरण वर्ष 1956 में कराया गया था। इसके दस सदस्य हैं, जिनमें एक चौकीदार भी शामिल है। ग्रामसभा के सदस्य, जो जल वितरण व्यवस्था से परिचित हैं, इसकी बैठकों के दौरान सदस्यों के रूप में समाहित कर लिये जाते हैं। बड़े फैसले एक आमसभा में लिये जाते हैं जो गाँव के हर निवासी के लिये खुली होती है।
लड्यूरा ग्रामसभा के तीनों गाँव दिन में जलापूर्ति के लिये अधिकृत हैं- सूर्यास्त के बाद पानी का इस्तेमाल सिर्फ नीचे के गाँव ही कर सकते हैं और दो गुहल उसे सींचते हैं। ऊपर की ग्रामसभा का सिंचित क्षेत्र 24 हेक्टेयर है और दो गुहल उसे सींचते हैं, जबकि नीचे की ग्रामसभा का सिंचित क्षेत्र सिर्फ 16 हेक्टेयर है। विवाद का विषय यह रहा है कि नीचे के गाँव कम क्षेत्रफल के बावजूद उतने ही घंटे पानी पाता है और इस प्रकार ऊपर के गाँवों से ज्यादा लाभ में रहता है।
चूँकि धारा ऊपर के गाँवों से होती हुई नीचे आती है, लिहाजा रिसाव से होने वाला नुकसान और रात में पानी चुरा लेने की गुंजाईश ऊपर के गाँव को लाभ की स्थिति में पहुँचा देते हैं। जाड़े में नीचे के गाँवों को लम्बी रातों का फायदा मिलता है। लेकिन यह कोई फायदा नहीं होता, क्योंकि जाड़े में किसान खेतों को आमतौर पर सिर्फ एक बार ही सींचते हैं और वह भी थोड़े समय के लिये।
लड्यूरा ग्रामसभा की सिंचाई समिति अधिक सुव्यवस्थित है और उसके पास एक असरदार सिंचाई निकाय है। उपस्थिति का लेखा-जोखा और बैठकों का ब्यौरा विधिवत दर्ज किया जाता है। इस समिति को चलाने और सिंचाई प्रणाली जारी रखने में ग्रामीणों और समिति सदस्यों द्वारा काफी रुचि ली जाती है। समिति सिंचाई, धारा की सफाई और मरम्मत के काम की तारीख घोषित करती है। जिन बैठकों में ये फैसले लिये जाते हैं, वे फसली मौसम शुरू होने से कुछ पहले की जाती हैं।
पहाड़ के किनारे-किनारे से होकर जाने वाली नालियाँ बनाई गईं और उन अनुबन्धकर्ताओं ने ही उनका संचालन और देखरेख की, जो किसानों के साथ सिंचाई के लिये पानी देने का तीस साल का दीर्घकालिक अनुबन्ध कर चुके थे। इसके बदले में उपज का एक हिस्सा ठेकेदार को देना पड़ता था, जो अुनबन्ध प्रणाली की शुरुआत में कुल उपज की एक-तिहाई जितनी राशि भी हुआ करती थी। नालियों की पुरानी प्रणालियों में, जो आज भी चल रही हैं, ठेकेदार की जिम्मेदारी उस प्रणाली को सुचारू रूप से चलाने तक ही सीमित है।
साल में दो-चार, सामान्यतः इतवार के दिन ग्रामीण संयुक्त रूप से सिंचाई प्रणाली की सफाई और मरम्मत का काम करते हैं, जिसमें विविध गुहलों से गाद, झाड़-झंखाड़, काई आदि निकालना शामिल होता है। जो लोग इस काम में नहीं लग पाते, वे भाड़े के मजदूर भेजते हैं। विधवाएँ और विकलांग या तो भागीदारी से मुक्त कर दिये जाते हैं या उन्हें भाड़े के मजदूर भेजना होता है।
चौकीदार की जिम्मेदारियों में हर व्यक्ति के खेत में पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करना और फसलों को पशुओं से बचाना शामिल है। लड्यूरा ग्रामसभा में पानी का बँटवारा गुहल की ढलान पर एक साल ऊपर से नीचे की ओर और अगले साल नीचे से ऊपर की ओर होता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि ऊपर से नीचे की व्यवस्था लगातार दो साल चलती रहती है। लेकिन उसके बाद के दो वर्षों में वह बँटवारा नीचे से ऊपर की ओर होता है। ऐसे मामले सिंचाई समिति द्वारा निपटाए जाते हैं। जब भी क्रम में कोई बदलाव किया जाता है, पूरा ग्राम समुदाय समिति के साथ बैठता है। पानी बँटवारे के क्रम को लेकर अभी तक कोई बड़ा विवाद नहीं खड़ा हुआ है और एक बार जब कोई फैसला ले लिया जाता है तो हर किसी को उस पर अमल करना होता है।
चौकीदार यह सुनिश्चित करता है कि पानी खेत तक पहुँचे और कोई उसके बहाव को रोके नहीं। यदि कोई बहाव रोकता पाया गया या अपनी बारी के बगैर पानी लेता पाया गया तो चौकीदार उसे रोकता है। यदि गलती करने वाला अपना काम जारी रखता है तो यह उस व्यक्ति का नाम सम्बन्धित ग्रामीण को बता देता है। यहाँ गलती करने वाले का नाम पूछना ही उसके विरुद्ध शिकायत दर्ज करना है। यदि कोई और व्यक्ति शिकायत सुनने की स्थिति में नहीं है तो चौकीदार और प्रभावित व्यक्ति की गवाही को ही शिकायत के लिये पर्याप्त समझा जाता है। फिर न्याय पंचायत उस व्यक्ति को सजा दिलाने की कार्यवाही शुरू करती है। जिस तारीख पर यह न्याय पंचायत बुलाई जाती है, वह तारीख पहले ही तय कर दी जाती है और उसकी सूचना भेज दी जाती है।
अपना कर्तव्य पूरा करने के लिये चौकीदार को हर खेतिहर द्वारा एक नाली (1.5-2 किलो के लगभग) अनाज दिया जाता है। अच्छी फसल होने की स्थिति में चौकीदार को और भी अनाज दिया जा सकता है और यदि फसल खराब हो तो उसे कम भी दिया जा सकता है। इसके अलावा पानी बँटवारे को लेकर होने वाले झगड़ों में मिलने वाले जुर्माने की राशि का एक हिस्सा और पशुओं के खेतों में घुस जाने पर लगने वाले अर्थदंड का आधा भी चौकीदार को दिया जाता है, जिसके चलते वह इसे लेकर हमेशा सजग रहता है। जुर्माने से मिलने वाली सालाना राशि का इस्तेमाल या तो मरम्मत के काम में या सिंचाई प्रणाली के सुधार में या फिर ऐसी चीजों को खरीदने में किया जाता है जो पूरे समुदाय के उपयोग में आती है।
हारा प्रणाली
उत्तराखण्ड की पहाड़ियों में अन्य किसान प्रबन्धित सिंचाई प्रणालियाँ भी हैं। अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जिलों की सीमा पर सेराघाट के पास सरयू घाटी में एक अनुबन्ध प्रणाली पाई जाती है। बताया जाता है कि ये प्रणालियाँ कुछ उद्यमियों द्वारा 1920 के दशक की शुरुआत में बनाई गई थीं, लेकिन उनमें से सबसे पुरानी प्रणालियों को वर्ष 1896 में शुरू किया गया था। पहाड़ के किनारे-किनारे से होकर जाने वाली नालियाँ बनाई गईं और उन अनुबन्धकर्ताओं ने ही उनका संचालन और देखरेख की, जो किसानों के साथ सिंचाई के लिये पानी देने का तीस साल का दीर्घकालिक अनुबन्ध कर चुके थे। इसके बदले में उपज का एक हिस्सा ठेकेदार को देना पड़ता था, जो अुनबन्ध प्रणाली की शुरुआत में कुल उपज की एक-तिहाई जितनी राशि भी हुआ करती थी। नालियों की पुरानी प्रणालियों में, जो आज भी चल रही हैं, ठेकेदार की जिम्मेदारी उस प्रणाली को सुचारू रूप से चलाने तक ही सीमित है। मौजूदा दर उपज के दसवें से 18वें हिस्से तक हुआ करती है। इससे लाभान्वित यह अपेक्षा करते हैं कि ठेकेदार इस प्रणाली की अच्छी तरह मरम्मत करे, इसे संचालित करे, खेत के मुहाने इस प्रणाली तक पानी पहुँचा दे, और यहाँ तक कि कभी-कभार सिंचाई करने की जिम्मेदारी भी ले।
ठेकेदार और इससे लाभ लेने वाले लोगों के बीच सामान्यतः एक लिखित समझौता होता है, जिसे उचित मूल्य के एक रसीदी टिकट द्वारा पुख्ता किया जाता है। इस अनुबन्ध को आमतौर पर दो से चार वर्षों की प्रारम्भिक आजमाइश की अवधि के बाद दर्ज कर लिया जाता है। ठेकेदार को अधिकार रहता है कि जो भी किसान अदायगी से मुकर जाये उसकी जलापूर्ति बन्द कर दे। शुरू में ठेकेदारों ने नई सिंचाई प्रणालियों को बनाने में काफी धन लगाया था। ठेकेदार यदि पानी की पर्याप्त मा़त्रा मुहैया नहीं करा पाता तो समुदाय उसे हटा सकता था। खुद ठेकेदार भी एक निश्चित अर्थदंड देने के बाद, बशर्ते अनुबन्ध में इसकी व्यवस्था हो, इस अनुबन्ध से हट सकता है। इस प्रणाली के कई फायदे हैं। पानी के बँटवारे और प्रणाली की देखरेख दोनों ही लिहाज से किसानों के बीच होने वाले झगड़ों से छुटकारा मिल जाता है। लम्बी नहरों में, जिनमें मोड़ बिंदु पर जल स्तर में उतार-चढ़ाव के साथ जल बहाव घटता-बढ़ता रहता है, नाली तोड़कर पानी ले लेने का खतरा काफी होता है। लिहाजा इनकी कड़ी देखरेख करनी होती है, जिसकी व्यवस्था ठेकेदार करता है। मजदूरों की भारी किल्लत की स्थिति में यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है। हारा प्रणाली के तहत प्रणाली का आकार 15 से 50 हेक्टेयर के बीच होता है। ऐसी प्रणालियों के तहत आने वाले इलाकों में अच्छी फसलें देखी जा सकती हैं।
बहुमुखी प्रणालियाँ
अल्मोड़ा जिले की मनसारी घाटी में किसान प्रबन्धित प्रणालियों का एक समूह एक ही जलस्रोत से काम करता देखा जा सकता है। ऐसे समूह उत्तर प्रदेश की पहाड़ियों के सुदूर इलाकों में लगभग हर जगह देखे जा सकते हैं। मनसारी गधेरा एक सदानीरा धारा है, जो कोसी नदी के पूर्वी हिस्से से निकलकर 12 किमी चलती हुई पहाड़ियों से बाहर निकलती है। गधेरा 10-15 मीटर चौड़ा है और समूची लम्बाई में 400-500 मीटर चौड़े खेतों की सिंचाई करती है। अपनी समूची लम्बाई में यह धारा बहुत सारे गाँवों को करीब 30 किसान प्रबन्धित प्रणलियों द्वारा सींचती है। इन प्रणालियों की अपनी आदिम मोड़ और संचरण संरचनाएँ हैं जो पानी का बँटवारा इस ढंग से करती हैं कि गाँव की जरूरतें ठीक-ठीक पूरी हो जाती हैं। इस लम्बी घाटी में ऊपर और नीचे के गाँवों में कहीं भी जल बँटवारे को लेकर कोई बड़ा टकराव नहीं है। इन प्रणालियों के दायरे में 350 हेक्टेयर जमीन आती है।
हर प्रणाली की शुरुआत में पानी को एक अस्थायी बाँध के जरिए मोड़ा जाता है। हर प्रणाली की सीमित नाली क्षमता यह सुनिश्चित करती है कि पानी की एक निश्चित मात्रा ही इसमें आये। मानसून के दिनों में अक्सर मोड़ संरचना बह जाया करती है, लेकिन जल्द ही इससे लाभ लेने वालों के द्वारा इसकी मरम्मत कर दी जाती है और वे इसके लिये सामूहिक प्रयास करते हैं। अपने खेत से होकर आने वाली नाली की सफाई का जिम्मा खेत के मालिक किसान का होता है। धान की सिंचाई के लिये पानी को ऊपरी खेतों से निचले खेत की ओर बहने की अनुमति दी जाती है। इस इलाके के किसान धान और गेहूँ के अलावा लहसुन आलू, धनिया और बरसीम भी बोते हैं।
पवित्र तालाब जीपी काला और दिनेश जोशी
प्राचीन काल से उत्तराखण्ड के पहाड़ी लोग नौला या हौजी कहे जाने वाले छोटे कुओं और तालाबों से पानी लेते रहे हैं। नौला उत्तराखण्ड की विशेष भूजल संचय विधि है। भूजल धारा पर एक पत्थर की दीवार बनाकर जल संग्रह किया जाता है। ग्रामीण आबादी और उपलब्ध जलस्रोत के अनुसार हर गाँव में दो या इससे ज्यादा नौले हुआ करते थे। नौले पारम्परिक रूप से ग्रामीणों द्वारा काफी भक्तिभाव से बनाए जाते थे और नौला बनाते समय कई सारे कर्मकांड किये जाते थे। यह सब कोई मन्दिर बनाने जैसा होता था। नौला के पानी की शुद्धि के लिये उसमें नियमित रूप से जड़ी-बूटियाँ और आँवले के फल डाले जाते थे। वाष्पन घटाने के लिये नौले के किनारे बड़े छायादार पेड़ लगाए जाते थे। स्थानीय लोगों में नौले और पेड़ों की पूजा का रिवाज था। इसका दोहरा प्रभाव पड़ता था- यह ग्रामीणों को नौला साफ रखना और जल संरक्षण, दोनों ही सिखाता था। नौला निर्माण की तकनीक बहुत पुरानी है। पत्थरों से पशुओं के लिये हौजी बनाई जाती थीं। ये नौले और हौजियाँ हमेशा पानी से भरे होते थे। लेकिन जंगलों की समाप्ति और सड़क निर्माण ने 95 प्रतिशत नौलों और सोतों को सुखा दिया है और ज्यादातर को विलुप्ति के कगार पर पहुँचा दिया है। हर तीसरा गाँव आज पानी की किल्लत से जूझ रहा है। हालांकि नौलों को पुनर्जीवित करना असम्भव नहीं है। अस्थायी पत्थर की बंधियाँ और सरंध्र व स्थायी ठोकर बाँध भी बनाए जा सकते हैं। पानी का बहाव रोककर पाँच से पन्द्रह मीटर ऊँचे सीमेंट के बाँध भी बनाए जा सकते हैं और उनसे छोटी धाराएँ निकाली जा सकती हैं। इन धाराओं से नौले पुनर्जीवित किये जा सकते हैं। वनस्पतियों की छाया उन्हें सुरक्षा दे सकती है। दुर्भाग्यवश, नियंत्रित विकास के चलते बांज और बुरांस के पेड़ों की जगह चीड़ के पेड़ लेते जा रहे हैं, जो वर्षाजल को सोख लेते हैं और वनस्पतियों के फैलाव को प्रभावित करते हैं। हिमालय पर्यावरण एवं ग्राम विकास संगठन गढ़वाल जिले के खिरसू विकास खण्ड के 22 गाँवों में जल संग्रह के उपाय विकसित कर रहा है। |
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