सर्दी के आगमन के साथ दिल्ली में हवा के जहरीले होने की चर्चा सुर्खियों में है। दशकों से चर्चा का प्रारूप भी एक सा ही है, जिसमें पराली जलाना, पराली निस्तारण, प्रदूषण के लिए अनुकूल मौसम, पटाखे वाले त्योहार आदि-आदि। इस बार भी वायु प्रदूषण सूचकांक (एक्यूआई) अक्टूबर में ही 300 के पार हो गया। आखिर के चार दिनों से लगातार बहुत खराब स्तर पर बना हुआ है। यही हालत दिल्ली एनसीआर के ग्रेटर नोएडा, फरीदाबाद, गाजियाबाद और गुरुग्राम में भी है। सीपीसीबी के 31 अक्टूबर के एक्यूआई आंकड़ों के अनुसार, पंजाब और हरियाणा के शहरों (भटिंडा, भिवानी, जींद, कैथल, करनाल, रोहतक, कुरुक्षेत्र, सोनीपत, श्रीगंगानगर) को भी बहुत खराब' स्तर का सामना करना पड़ रहा है। शांत हवा और तापमान में गिरावट के कारण एक्यूआई में और भी कमी संभावित है। डीपीसीसी की मानें तो वायु प्रदूषण की स्थिति नवम्बर के मध्य तक अपने सबसे खराब स्तर पर हो सकती है, और गौर करने की बात है कि यह वह समय होता है जब पंजाब और हरियाणा में किसान को गेहूं की फसल के लिए खेत तैयार करने का दबाव होता है। हालांकि इस साल अब तक पराली के धुएं का दिल्ली वायु पर होने वाले असर का कोई स्पष्ट आंकड़ा सामने नहीं आया है।
सीएनजी के पहले के दौर के बाद दिल्ली में वायु प्रदूषण का यह दूसरा दौर दशकों से बना हुआ है। दिल्ली की सलाना वायु प्रदूषण की स्थिति को मार्च से सितम्बर तक और अक्टूबर से फरवरी तक के समय काल में बांटा जा सकता है। मार्च से सितम्बर में एक्यूआई अच्छा से मध्यम (2000 तक) रहता है, वहीं जाड़े की शुरुआत के साथ एक्यूआई खतरनाक स्तर तक बढ़ जाता है। 2016 में तो यह 999 को भी पार कर चुका था, जिसे अब लंदन स्मॉग की तर्ज पर 'दिल्ली स्मॉग' के रूप में याद किया जाता है। साल में अधिकतर दिन एक्यूआई मध्यम (101-200) स्तर का होता है।
हालांकि पिछले कुछ सालों में साल भर में एक्यूआई के हिसाब से 'अच्छे' दिनों की संख्या में वृद्धि हुई है, पर जाड़े के दिनों के वायु प्रदूषण की स्थिति में कोई संतोषजनक सुधार नहीं हुआ है, और कोविड के दौर (2020-21) को छोड़ दिया जाए तो यही हाल औसत वार्षिक एक्यूआई का भी है। विश्व स्वास्थ संगठन और हेल्थ इफेक्ट इंस्टीट्यूट ने दुनिया के 1650 और 7000 अलग-अलग शहरों पर दो अलग-अलग अध्ययनों में दिल्ली को सबसे प्रदूषित शहर पाया है।
पराली जलाना कुछ हफ्तों की परिघटना
वायु प्रदूषण के स्थानीय स्रोतों में गाड़ियों से निकला धुआं और धूल, औद्योगिक उत्सर्जन, भवन-निर्माण की धूल और कचरे को खुले में जलाने और लैंडफिल से निकला धुआं और लकड़ी व जीवाश्म ईंधन के जलने से निकलने वाला धुआं है। दिल्ली के कोयले आधारित पॉवर प्लांट बंद किए जा चुके हैं, पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में अब भी 11 कोयले आधारित पॉवर प्लांट कार्यरत हैं। पॉलिसी के स्तर पर दिल्ली में अब केवल हरित ऊर्जा वाले ईंधन इस्तेमाल होते हैं पर सच्चाई इससे इतर है। स्पष्ट है कि सर्दी की शुरुआत के साथ एक्यूआई में होने वाली गिरावट के मूल में शहर के अपने वायु प्रदूषण के स्रोत और स्थानीय मौसम की परिस्थितियों के अलावा पड़ोसी राज्यों में धान की पराली जलाने से निकला धुआं भी शामिल है। हालांकि पराली जलाने की घटना केवल कुछ हफ्तों तक सीमित रहती है, और इसका दिल्ली के प्रदूषण में योगदान 4-35% तक ही होता है, यहां तक कि पराली जलाने के दौर के बाद भी अगले कुछ हफ्तों तक (दिसम्बर-जनवरी) एक्यूआई बहुत ज्यादा होता है।
धान शुष्क पश्चिमोत्तर राज्यों की प्राकृतिक फसल नहीं है, बल्कि भू-जल के बेजा इस्तेमाल से किसानों में उपजी नई प्रवृत्ति है, जिससे पैदावार और आमदनी तो बढ़ी पर भू-जल का स्तर गर्त तक चला गया। हरियाणा और पंजाब सरकार ने धान की खेती के समय को 2009 में कानून द्वारा नियंत्रित कर प्रावधान किया कि क्रमशः 15 मई और 10 जून के बाद ही धान की रोपनी शुरू हो ताकि भू-जल के दोहन और वाष्पीकरण को नियंत्रित किया जा सके। इस वजह से किसान के पास रबी की खेती के लिए खेत तैयार करने के लिए पर्याप्त समय नहीं होता और पराली से निजात पाने के लिए इसे जलाने से बेहतर कोई और विकल्प नहीं दिखता।
दिल्ली का भूगोल भी प्रदूषण संकट के मूल में है। हिमालय पर्वत की दीवार धुएं को दिल्ली की ओर ढकेलती है, वहीं सर्दी में ठंडी पहाड़ी हवा हिमालय से दिल्ली की ओर आती है, और गर्म तराई हवा की एक परत के नीचे पहुंचती है, जो शहर के ऊपर आवरण बनाती है। इस प्रकार सर्दी की शुरुआत के साथ ही हवा में प्रदूषण के घुलने का आयतन गरम हवा की परत नीचे आ जाने के कारण काफी घट जाती है, और प्रदूषण की मात्रा स्थिर रहने बाद भी प्रदूषक तत्वों की सांद्रता कई गुणा बढ़ जाती है। इसके अलावा, हवा धीमे बहने से प्रदूषित हवा दिल्ली से बाहर तेजी से न जाकर दिल्ली और आसपास के शहरों में ही अटकी रह जाती है। ऐसे में जब दिल्ली में वायु प्रदूषण की सांद्रता बढ़ चुकी होती है, उसी समय पश्चिमोत्तर राज्यों में पराली का धुआं इसे और जहरीला बना देता है।
प्रकृति का अंधाधुंध दोहन है परेशानियों की जड़
दिल्ली में वायु प्रदूषण से निजात के लिए समग्रता से कार्य करने की जरूरत है क्योंकि यह सिर्फ वायु प्रदूषण की समस्या नहीं है। यह प्रकृति के अंधाधुंध दोहन से उत्पन्न परेशानियों का समुच्चय है। एजेंसियां क्षणिक फायदे के लिए कठोर कानून बना सकती हैं, आभियांत्रिक निदान लागू तो कर सकती है, जो कैंसर के दर्द को इंजेक्शन के माध्यम से थोड़ी देर के लिए रोकने जैसा ही है। पर दसों साल बाद भी नतीजा ढाक के तीन पात है। वायु प्रदूषण खासकर दिल्ली की समस्या एक सिंड्रोम के समान है, जिसके मूल में फसल चक्र में बदलाव, भू- जल का दोहन, गैर-नियंत्रित शहरीकरण, उपभोक्तावाद और कचरे की समस्या, कार संस्कृति से सीधे जुड़ा हुआ है।
हर आपदा एक अवसर देती है, और दिल्ली का खतरनाक स्तर का वायु प्रदूषण एक साथ ऊपर उल्लिखित समस्याओं का समग्रता से निदान ढूंढने का अवसर देता है। यह एक मौका है जब भू-जल संकट से जूझ रहे पंजाब, हरियाणा को धान के बदले अनुकूल खरीफ श्रीअन्न/मिलेट की खेती के लिए राजी कर सकते हैं। वहीं सम्यक नगर नियोजन, उचित उपभोक्ता प्रवृत्ति को बढ़ावा और सार्वजनिक परिवहन को सुदृढ़ कर कार की तरफ आकर्षित शहरी जनसंख्या को साफ हवा और कचरा मुक्त शहर दे सकते हैं, जैसा पश्चिम के देशों ने दशकों पहले वायु या जल प्रदूषण के बाद दिया था, जिसे गंदे नाली में बदल चुकी टेम्स नदी और लंदन स्मॉग जैसे उदाहरण से समझ सकते हैं। वायु प्रदूषण से जुड़ा सारा विमर्श पिछले कई सालों से केवल पराली और उसके निस्तारण तक सिमट गया है जबकि विमर्श होनी चाहिए कि पंजाब और हरियाणा जैसे कम बारिश वाले क्षेत्रों में धान की खेती के औचित्य पर ! बात होनी चाहिए मेट्रो की तर्ज पर बस सेवा का दायरा बढ़ाने की न कि स्मॉग टावर जैसे सतही उपादानों की सवाल पूछा जाना चाहिए कि पराली का निस्तारण पूरी तरह हो गया तो भी क्या दिल्ली को वायु प्रदूषण से निजात मिल पाएगी? धान की खेती के साथ क्या पूरे पश्चिम भारत से खत्म होता जा रहा भू-जल बच पाएगा?
लेखक कुशाग्र राजेन्द्र पर्यावरण विभाग, एमिटी यूनिवर्सिटी में विभागाध्यक्ष हैं।
स्रोत - हस्तक्षेप, 4 नवम्बर 2023, राष्ट्रीय सहारा
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