भारत में बढ़ते प्लास्टिक के पहाड़ आने वाले दिनों में शायद बीते दिनों की बात हो जाएँ। इसकी वजह है देहरादून स्थित इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ पेट्रोलियम (Indian Institute of Petroleum, IIP) ने प्लास्टिक कबाड़ से डीजल, पेट्रोल और घरेलू गैस बनाने की तकनीक विकसित कर ली है। आईआईपी के वरिष्ठ वैज्ञानिक सनत कुमार ने बताया कि इंस्टीट्यूट ने ऐसी तकनीक विकसित कर ली है जिससे प्लास्टिक कबाड़ से पेट्रोलियम प्रोडक्ट बनाए जा सकेंगे।
मालूम हो कि केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी आँकड़े के अनुसार भारत के 60 प्रमुख शहरों से प्रतिदिन 15,000 टन कचरा निकलता है जिसमें से 9000 टन की ही रीसाइक्लिंग हो पाती है। प्रतिदिन 6000 टन कचरा यूँ ही पड़ा रह जाता है। रोज इतनी बड़ी मात्रा में जमा हो रहे प्लास्टिक कचरे से देश के तमाम शहरों के कई इलाके में प्लास्टिक के पहाड़ बन गए हैं। आईआईपी द्वारा प्लास्टिक कबाड़ से पेट्रोलियम प्रोडक्ट बनाने की विकसित की गई यह तकनीक भारत में प्लास्टिक कचरा प्रबन्धन की समस्या को कम अथवा समाप्त करने में मील का पत्थर साबित हो सकती है।
इस तकनीक के विकसित हो जाने के बाद अब भारत भी जर्मनी, जापान, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों के लीग में शामिल हो चुका है जिन्होंने प्लास्टिक कबाड़ से ईंधन बनाने की तकनीक विकसित कर लिया है। सनत कुमार ने बताया कि आईआईपी द्वारा जल्द ही व्यावसायिक स्तर पर प्लास्टिक कबाड़ से डीजल बनाने का काम शुरू किया जाएगा। उन्होंने कहा कि इसके लिये इंस्टीट्यूट परिसर में ही एक यूनिट का निर्माण किया जाना है जिसमें एक हजार टन प्लास्टिक कबाड़ से 800 लीटर डीजल बनाया जा सकेगा।
भारत के लिये यह अच्छी खबर है। ईंधन के एक नए स्रोत के विकसित होने के कारण देश में आसमान छूती डीजल की कीमतों में कमी आएगी। आईआईपी के वैज्ञानिकों की मानें तो इस विधि से तैयार किये गए पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स की कीमत बाजार में अभी उपलब्ध साधारण डीजल की कीमत कम होगी। उनका कहना है कि प्लास्टिक कबाड़ से तैयार किये गए डीजल की गुणवत्ता बाजार में अभी उपलब्ध डीजल से काफी अच्छी होगी। इससे चलाई जाने वाली गाड़ियाँ भी सामान्य डीजल से चलाई जाने वाली गाड़ियों की तुलना में प्रति लीटर दो से तीन किलोमीटर ज्यादा दूरी तय कर पाएँगी।
कई देश भी हैं जहाँ लोग व्यावसायिक स्तर पर ईंधन बना रहे हैं और लाभ कमा रहे हैं। ऐसा ही एक उदाहरण सीरिया में देखने को मिला जहाँ एक परिवार प्लास्टिक कबाड़ से ईंधन बनाकर मालामाल हो गया। इनके द्वारा बनाए गए ईंधन से न सिर्फ गाड़ी चल रही है, बल्कि जेनरेटर और गैस चूल्हे में भी इसका इस्तेमाल हो रहा है।
परिवार के लोग प्लास्टिक की खोज में जुटे रहते हैं। जब यह अच्छी मात्रा में इकट्ठा हो जाते हैं तो वे इन्हें सुखाने के बाद एक सीलबंद भट्टी में डाल देते है और तेज आँच पर उसे पकाते हैं। इस डब्बे से एक पाइप जुड़ा होता है जो एक वाटर टैंक में जाता है। यह पाया गया है कि ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में प्लास्टिक को जब तेज आँच पर गर्म किया जाता है तो वह भाप में परिवर्तित हो जाता है।
इस तरह सीलबंद भट्टी से जुड़े पाइप से भाप वाटर टैंक में जाता है और पानी की सतह पर तरल अवस्था में परिवर्तित होकर तैरने लगता है। फिर पानी की सतह को छूते हुए लगे एक पाइप से होकर यह एक अन्य टैंक में जमा होता है। टैंक में जमा हुआ यह हिस्सा ही ईंधन होता है जिसे रिफाइन कर डीजल, पेट्रोल, केरोसीन में आसानी से बदला जा सकता है।
भट्टी से निकला सारा भाप तरल अवस्था में नहीं बदल पाता है कुछ हिस्सा उसी में बचा रह जाता है। यह भाप वाटर टैंक के ऊपरी हिस्से में लगे पाइप से दूसरे ड्रम में जमा होता है। ड्रम में जमा इस भाप का इस्तेमाल गैस चूल्हे को जलाने में किया जाता है। यह उसी तरह जलता है जैसे घरेलू गैस जलती है।
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