दूधातोली लोक विकास संस्थान 26 जनवरी को होगा सम्मानित

हिमालयी वनों के पुनर्जीवन के अनोखे प्रयास को सम्मान


हिमालय के 136 गांवों में शिक्षक सच्चिदानंद भारती की अगुवाई वाली ‘दूधातोली लोक विकास संस्थान’ ने लोगों को एकजुट करके कई दशक के अनवरत प्रयास से अरबों पेड़ लगाकर घने वन खड़े कर दिए हैं। 20 हजार से अधिक जलतलाई बना दी हैं, जिससे सूख गई नदी अब साल भर बहने लगी है।

इस बार समूचे उत्तर भारत में शीतलहर और ठंड के तीखेपन के एहसास ने जलवायु परिवर्तन की चिंताओं को कुछ ज्यादा चर्चा में ला दिया है। मौसम की इस अतिरेकी प्रकृति को कई वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग से जोड़कर देख रहे हैं। भारत में जंगलों की कटाई और खासकर हिमालय की दुर्दशा जलवायु परिवर्तन की बड़ी वजहें हैं, जिन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत हैं वरना खतरा सामने दिखने लगा है। ऐसे में हिमालय में वन और जल संरक्षण के प्रयासों की अहमियत बढ़ गई है। और अगर यह संरक्षण बिना किसी सरकारी या बाहरी समर्थन के स्थानीय प्रयासों और लोगों की सक्रिय भागीदारी से हो तो खासकर आज के बाजारवाद के जमाने में उसका जोड़ नहीं है। हिमालय के 136 गांवों में शिक्षक सच्चिदानंद भारती की अगुवाई वाली ‘दूधातोली लोक विकास संस्थान’ ने लोगों को प्रेरित व एकजुट करके कई दशक के अनवरत प्रयास से अरबों पेड़ लगाकर घने वन खड़े कर दिए हैं। 20 हजार से अधिक जलतलाई बना दी हैं, जिससे सूख गई नदी अब साल भर बहने लगी है।

पानी की समस्या दूर हो गई है। लोगों का पलायन रुक गया है। पर्यावरण संरक्षण के इस अद्भुत कार्य के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने 2011 का अपना प्रतिष्ठित ‘राष्ट्रिय महात्मा गांधी सम्मान’ ‘दूधातोली लोक विकास संस्थान’ को दिया है। यह सम्मान इस 26 जनवरी को भोपाल में दिया जा रहा है।

सच्चिदानंद भारतीसच्चिदानंद भारतीचंडीप्रसाद भट्ट की अगुवाई में चिपको आंदोलन से जुड़े रहे सच्चिदानंद भारती को पानी बचाने की सीख गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र से मिली। 1982 में ‘दूधातोली लोक विकास संस्थान’ की स्थापना ही इस आधार पर की गई कि इसमें किसी तरह की सरकारी या विदेशी मदद नहीं ली जाएगी। स्कूलों के अध्यापकों और छात्रों को इस संस्था से जोड़कर छात्रों के माध्यम से तरह-तरह के बीजों का संग्रह करके नर्सरी बनाई गई। नर्सरी में अखरोट के पौधों की बिक्री से आमदनी होने लगी। उससे और गांवों में नर्सरी बनाई जाने लगी। जहां से पौधे खरीद कर गांव के लोग अपने घर-आंगन, बगीचों, खेतों में लगाने लगे।

इस तरह हर साल शिविर और पौधे लगाने, उनके संरक्षण का काम चलने-बढ़ने लगा। गांव के स्कूलों, पंचायत भवन में शिविर लगते, जिसमें आस-पास के गांवों के लोग आने लगे और शिविर कभी-कभी 10 दिनों तक चलते। इसमें महिलाएं भी जुड़ती चली गईं। फिर राय बनी कि हर गांव का अपना जंगल हो और उसे संरक्षित करके इतना सघन बना दिया जाए कि उसी से गांव के ईंधन व चारे की व्यवस्था हो जाए। गांव के जंगलों की रखवाली की जिम्मेदारी महिलाओं ने संभाली। और उसके लिए हर गांव में एक महिला मंगल दल बन गया। हर दिन गांव की महिला मंगल दल की चार से पांच सदस्य एक दो-तीन घूंघरू बंधी साधारण लाठी (खांकर) के सहारे वन की रखवाली करती हैं। जंगल की रखवाली के बाद शाम को वापस आने पर ये महिलाएं लाठी गांव के किसी अन्य महिला के दरवाजे के सामने टिका देती हैं। दूसरे दिन वह महिला उस लाठी को लेकर अपने गांव के जंगल की रखवाली के लिए निकलती है। इस तरह पेड़ व जंगल संरक्षण का अभियान आगे बढ़ता गया। मेहनत रंग लाने लगी।

गांवों में जंगल लहलहाने लगे। लेकिन 1987 में सूखा पड़ा। कई गांवों में पानी नहीं मिलने के कारण पलायन होने लगा। तब गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र ने सिखाया कि गांवों की बंजर जमीन में, जंगल में खाली पड़ी जमीन पर कैसे 5 से 10 घनमीटर के गड्ढ़े या चालें या जलतलाइयां खोद कर हिमालय की गोद में बसे गांवों व जंगलों को सूखे से बचाया जा सकता है। 1988 में उफरैंखाल गांव, गाडखर्क गांव से शुरू हुआ जल संरक्षण का काम इतना जोर पकड़ा कि आज 136 गांवों में लगभग 20,000 जलतलाइयां बना दी गई हैं, और करोड़ों पेड़ लगा दिए गए हैं। लगभग 800 हेक्टेयर का घना जंगल लहलहा रहा है। सूख गई गाडगंगा अब पूरे साल बहती है।

1998 में इस क्षेत्र के वनों और जलागम क्षेत्रों के विकास के नाम पर विश्वबैंक की 90 करोड़ रुपए की योजना आई थी। तब दूधातोली लोक विकास संस्थान ने सरकार को लिखा कि यहां वनों व जल संरक्षण का बहुत अच्छा काम गांववाले खुद ही कर चुके हैं। तब सरकार यहां इन 90 करोड़ रुपए से और क्या काम करने जा रही है? इसके बाद अधिकारियों का एक दल आया। इस क्षेत्र में गांववालों के लगाए, पाले गए सुंदर घने वनों को देखकर वे चुपचाप लौट गए और 90 करोड़ रुपए की योजना वापस समेट ले गए। (लेखक पत्रकार हैं) , Krishnamohansingh1@gmail.com

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