
आजादी के बाद से छोटे से द्वीप माजुली में रहने वाले लोगों ने कई चुनाव देखे हैं। लेकिन हर बार उनको राजनेताओं के खोखले वादों से ही सन्तोष करना पड़ा है। अब असम में चार अप्रैल को हुए पहले चरण के मतदान से द्वीप के 1.68 लाख की आबादी के मन में पहली बार उम्मीद की एक नई किरण पैदा हुई है। लोगों को लगता है कि अगले महीने जब मतपेटियाँ खुलेंगी तो उसके साथ इस द्वीप और यहाँ के लोगों की किस्मत भी खुल जाएगी।
स्थानीय लोगों की उम्मीद की कई वजहें हैं। पहली तो यह कि यहाँ से भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार सर्बानंद सोनोवाल चुनाव मैदान में हैं। इसके अलावा पहली बार देश का कोई प्रधानमंत्री इस द्वीप पर आया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनावी रैली में इस द्वीप को मुख्यभूमि से पुल से जोड़ने का भरोसा दिया है। वैसे इससे पहले बीते महीने ही केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी एक पुल का शिलान्यास कर चुके हैं।
इन तमाम वजहों से माजुली ने चुनावों से पहले काफी सुर्खियाँ बटोरी हैं। इससे पहले माजुली आखिरी बार साल 1997 में सुर्खियों में उस समय आया था। जब उग्रवादी संगठन उल्फा ने संजय घोष नामक एक सामाजिक कार्यकर्ता का पहले अपहरण कर रहस्य जनक हालात में हत्या कर दी थी। हालांकि घोष का शव कभी बरामद नहीं हो सका। घोष उस समय एक गैर-सरकारी संगठन के साथ मिलकर ब्रह्मपुत्र के भूमि-कटाव से माजुली को बचाने के काम में जुटे थे।
असम के जोरहाट जिले में ब्रह्मपुत्र के बीच स्थित दुनिया का यह सबसे बड़ा नदी द्वीप माजुली दशकों से अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है। दिलचस्प बात यह है कि यह सबसे बड़ा नदी द्वीप असम का सबसे छोटा विधानसभा क्षेत्र है। आजादी के बाद से ही एक के बाद एक सत्ता में आने वाली राजनीतिक पार्टियों ने समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाले इस द्वीप को बचाने की कोई ठोस पहल नहीं की।
अपनी विशेषताओं के चलते दुनिया भर में मशहूर माजूली का अस्तित्व अब साल-दर-साल आने वाली बाढ़ और भूमि कटाव के चलते खतरे में पड़ गया है। पहले इसका क्षेत्रफल 1278 वर्ग किमी था। लेकिन साल-दर-साल आने वाली बाढ़ और भूमि कटाव के चलते अब यह घटकर 557 वर्ग किलोमीटर रह गया है।

बरसात के चार महीनों के दौरान बाहरी दुनिया से इस द्वीप का सम्पर्क कट जाता है और लोगों का जीवन दूभर हो जाता है। द्वीप की सड़कें खस्ताहाल हैं। बरसात के दिनों की बात छोड़ भी दें, तो साल के बाकी महीनों के दौरान भी द्वीप के कई इलाकों में जाना तकरीबन असम्भव है। राज्य में एक के बाद एक आने वाली सरकारों ने इस ओर कभी कोई ध्यान ही नहीं दिया।
नतीजन जिस माजुली को दुनिया के सबसे आकर्षक पर्यटन केन्द्र के तौर पर विकसित किया जा सकता था। वह आज अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है। यहाँ पर्यटन का आधारभूत ढाँचा तैयार करने में किसी ने कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई। द्वीप की अस्सी फीसदी आबादी रोजी-रोटी के लिये खेती पर निर्भर है। माजुली के मानस बरूआ कहते हैं कि स्थानीय लोग अपना पेट पालने के लिये खेती पर निर्भर हैं। लेकिन हमारे ज्यादातर खेत हर साल पानी में डूब जाते हैं और फसलें चौपट हो जाती हैं।
मोनी सैकिया भी यही रोना रोते हैं। वे कहते हैं कि बाढ़ हर साल आती है। लेकिन हमें कोई सहायता नहीं मिलती। बाद में सब लोग चुप्पी साध लेते हैं। स्थानीय पत्रकार विपुल सैकिया कहते हैं, ‘खासकर साल 1975 में आई बाढ़ के बाद यहाँ भूमि कटाव की समस्या तेज हो गई है। इसकी वजह से हजारों परिवारों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है।’
विश्व धरोहरों की सूची में इसे शामिल कराने के तमाम प्रयास भी अब तक बेनतीजा ही रहे हैं। यूनेस्को की बैठकों के दौरान राज्य सरकार या तो ठीक से माजुली की पैरवी नहीं करती या फिर आधी-अधूरी जानकारी मुहैया कराती है। नतीजन यह कोशिश परवान नहीं चढ़ सकी है।

यह द्वीप अपने वैष्णव सत्रों के अलावा रास उत्सव, टेराकोटा और नदी पर्यटन के लिये मशहूर है। माजुली को असम की सांस्कृतिक राजधानी और सत्रों की धरती भी कहा जाता है। असम में फैले तकरीबन 600 सत्रों में 65 माजुली में ही थे। राज्य में वैष्णव पूजास्थलों को सत्र कहा जाता है। माजुली तक पहुँचना आसान नहीं है। जिला मुख्यालय जोरहाट से 13 किमी दूर निमताघाट से दिन में पाँच बार माजुली के लिये बड़ी नावें चलती हैं। इस सफर में एक से डेढ़ घंटे लगते हैं।
दरअसल, भाजपा सरकार ने इस द्वीप को मुख्य भूमि से जोड़ने के लिये पुल बनाने का फैसला सोनोवाल की उम्मीदवारी तय होने के बाद ही किया। माजुली में आधी से ज्यादा आबादी मिसंग, देउरी व सोनोवाल काछारी जनजातियों की है।
वैसे, सोनेवाल के लिये माजुली कोई नई जगह नहीं है। यह उनके संसदीय क्षेत्र लखीमपुर का ही हिस्सा है। सोनोवाल कहते हैं, ‘यहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य, ताजी हवा और धनी सांस्कृतिक विरासत है। मैं इसे पर्यटन के वैश्विक ठिकाने के तौर पर विकसित करना चाहता हूँ।’ उन्होंने राज्य को अवैध घुसपैठ से पूरी तरह मुक्त करने का दावा किया है।
मुख्यमंत्री तरुण गोगोई भी मानते हैं कि उनकी सरकार माजुली के लिये कुछ खास नहीं कर सकी है। वे कहते हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद भूमिकटाव की समस्या पर प्रभावी तरीके से अंकुश नहीं लगाया जा सका है। यहाँ नावें लोगों के जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं।

माजुली के सरकारी स्कूल में अंग्रेजी के शिक्षक बिटूपन बोरा कहते हैं, ‘पहली बार मुख्यमंत्री पद का कोई उम्मीदवार माजुली से चुनाव लड़ा है। इसी तरह मोदी यहाँ आने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री हैं। इससे स्थानीय लोगों को अपने दिन बहुरने की आस है।’ वैसे पुल बनाने के भरोसे से एक नई आशंका भी सिर उठा रही है। बोरा कहते हैं कि इससे नावों के जरिए रोजी-रोटी कमाने वाले लोगों की आजीविका खतरे में पड़ जाएगी। उनके लिये कोई वैकल्पिक इन्तजाम जरूरी है।
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Post By: RuralWater