डूबता टिहरी तैरते सवाल

 

प्राकृतिक तबाही मानव समाज की लगातार की गई गलतियों का हिसाब सूद सहित लौटाती है। बगैर किसी भेदभाव के कहर ढाती है। इसीलिये सभी पर डर की छाया एक-सी होती है। प्रकृति के साथ साहचर्य बिठाकर चलने से ही ऐसे खतरों को टाला जा सकता है।

बड़ी परियोजनाओं के चलते बड़े पैमाने पर लोगों का विस्थापन होता आया है। विकास की यह कीमत भारत की जनता, खासकर आदिवासी समुदायों ने न जाने कितनी बार चुकाई है। इस विस्थापन के आँकड़े विख्यात लेखिका अरुंधति राय ने अपने एक लेख ‘हाँ हरसूद और बगदाद में बहुत समानता है’ में दिये हैं। इन आँकड़ों के मुताबिक भारत में साढ़े तीन करोड़ लोगों को सिर्फ बड़े बाँधों के कारण विस्थापित होना पड़ा है।

परियोजना क्षेत्र के जंगलों, वहाँ बसी आबादी और शिद्दत से रची और बसाई गई उसकी संस्कृति को बगैर किसी समझौते या उचित मुवाअजे के उजाड़ दिया जाता है। अब यह कोई अचरज में डालने वाली बात नहीं रही है, क्योंकि विकास के फायदे किस कीमत पर मिलेंगे, इस पर बहस की गुंजाईश पूँजीवादी सत्ता नहीं छोड़ती है। यही वजह है कि परियोजनाओं के लाभ तो बढ़-चढ़ कर बताए जाते हैं, पर अपने घर-बार उजड़ने के रूप में स्थानीय लोग उनकी जो कीमत चुकाते हैं, उसे कभी मूल्यांकन कर कसौटी नहीं बनाया जाता। यही नहीं परियोजना में निहित कुदरती जोखिमों और खतरों की भी कोई चर्चा नहीं होती।

टिहरी जलाशय में 1,600 सौ एकड़ घना जंगल डूब रहा है। भारत में वनभूमि के सरकारी आँकड़ों को सच मान लिया जाये तो भी यह 19 प्रतिशत ही है। सिद्धान्ततः कुल क्षेत्रफल का 33 प्रतिशत भूखण्ड वनाच्छादित होना चाहिए। पर्यावरण संकट के इस दौर में 1,600 एकड़ सघन वनों को डुबोया जाना किसी बड़ी साजिश जैसा प्रतीत होता है। ऐसी परियोजनाओं को मानवीय दृष्टिकोण से देखा जाये तो परिणाम हमेशा नकारात्मक रहे हैं।

हरसूद की बरसी के आँसू अभी सूखे भी नहीं थे कि टिहरी के मातम की तैयारी विकास के हमारे पुरोधाओं ने शुरू कर दी। हालांकि इसकी योजना कोई नई नहीं है, बल्कि यह वर्षों में बहुत तेजी से तैयार की गई परियोजना है। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालय जियोलॉजी के तत्कालीन अध्यक्ष एसपी नौटियाल ने टिहरी परियोजना पर शुरुआती दौर में ही चिन्ता व्यक्त करते हुए आगाह किया था कि इस क्षेत्र की सारी चट्टानें दरकने वाली किस्म की हैं, इसीलिये इतने बड़े आकार के बाँध की सशक्त नींव नहीं रखी जा सकती है, लेकिन उनकी चेतावनी अनसुनी कर दी गई।

इस परियोजना से एक हजार मेगावाट बिजली मिलने की उम्मीद दिखाकर करोड़ों लोगों की आस्था को तिलांजलि दी जा रही है। गंगा, गोदावरी, यमुना और भगीरथी तो हमारे संस्कार में रच-बस गई हैं। आश्चर्य यह है कि गंगा को हिन्दू संस्कृति का प्रतीक मानने वाली राजनीतिक शक्तियों की सारी ताकत अयोध्या में ‘मन्दिर वहीं बनाएँगे’ की मुहिम चलाने और रथयात्रा निकालने में ठस हो गई दिखती है। जनता अब उनके ढोंग को समझ कर उनसे बिदकने लगी है।

बिजली न हो, विकास न हो, ऐसी बात करना तो बेमानी (बेईमानी) होगी। मगर अब तक के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए परियोजनाओं के स्वरूप पर अवश्य विचार होना चाहिए। परियोजनाएँ छोटी हों तो उनके जोखिम सीमित होते हैं, जबकि उनसे होने वाला विकास टिकाऊ होता है। चीन में लगभग नौ हजार छोटी-छोटी विद्युत परियोजनाएँ चल रही हैं। ऐसी परियोजनाओं से न विस्थापन के खतरे उत्पन्न होते हैं, न हजारों एकड़ जंगल बर्बाद होते हैं और न ही किसी आपदा की आशंका रहती है। ऐसी परियोजना की देखभाल हमारा समाज कम खर्च में कर सकता है।

दरअसल परियोजनाओं के नीति-निर्धारण में समाज की हिस्सेदारी होनी चाहिए, ऐसी बात कोई भी प्रमुख राजनीतिक दल नहीं सोचता है। वरना इतने लोगों की तबाही कैसे इतनी आसानी से स्वीकार कर ली जाती?

टिहरी परियोजना पर लगभग 8,000 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। हालांकि शुरुआती दौर में इस पर महज दो सौ करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान किया गया था। इतनी विशाल राशि खर्च करके हमें जो हासिल होगा, उसका हिसाब लगाते समय विस्थापन के नुकसान और भविष्य में उत्पन्न होने वाले खतरों की ओर से आँखें मूँद ली गईं। हालांकि सुरंग वाली परियोजना का निर्माण आसान होता है, पर टिहरी में सुरंग के खतरे को देखते हुए ऐसी परियोजना की इजाजत देना एक बड़ी भूल साबित होगी।

पश्चिमी हिमालय में जहाँ टिहरी परियोजना को आकार दिया है, वहाँ भूकम्प के अन्देशे बहुत ज्यादा हैं। 2,605 मीटर ऊँची यह परियोजना एशिया की सबसे भीमकाय परियोजना है। इस बाँध की झील पाँच वर्ग किलोमीटर में फैली हुई है और 23 मीटर गहरी है। भूगर्भ विज्ञानी प्रो. टी शिवाजी राव तो इसे ‘टाइम बम’ मानते हैं। उनका मानना है कि अगर किसी कारणवश टूटन या दरार पड़ती है तो यह बाँध आधे घंटे में खाली हो जाएगा। इससे मचने वाली तबाही पश्चिम बंगाल तक गंगा के तटवर्ती इलाकों में फैलेगी। ऐसे कई क्षेत्रों की पहचान की गई है, जो खतरे के रास्ते में नहीं पड़ते हैं, पर अगर बाँध टूटता है तो हिमाचल प्रदेश ऋषिकेश, हरिद्वार, बिजनौर, हापुड़, मेरठ, बुलन्दशहर में भी बाढ़ से भयंकर तबाही मचेगी। इस क्षेत्रा में भूकम्प की आशंका एक अलग चुनौती लिये समाज में भय उत्पन्न करती रहेगी। 1991 में उत्तरकाशी की धरती रिक्टर पैमाने पर 6.6 की तीव्रता से और चमोली 6.5 की तीव्रता से हिल उठी थी। इससे हुई तबाही को याद करके आज भी वहाँ के निवासियों की आँखें नम हो जाती हैं।

प्राकृतिक तबाही मानव समाज की लगातार की गई गलतियों का हिसाब सूद सहित लौटाती है। बगैर किसी भेदभाव के कहर ढाती है। इसीलिये सभी पर डर की छाया एक-सी होती है। प्रकृति के साथ साहचर्य बिठाकर चलने से ही ऐसे खतरों को टाला जा सकता है।

 

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

 

 

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