सुंदरवन में जलवायु परिवर्तन का असर - भाग 5
सुंदरवन का घोड़ामारा आइलैंड तेजी से पानी में समा रहा है। इससे यहां रहनेवाले लोगों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है, लेकिन 30 वर्षीय शेख दिलजान के लिए ये कमाई का जरिया बन कर आया है। घोड़ामारा की बर्बादी देखने के लिए इन दिनों देशी-विदेशी एनजीओ से लेकर पत्रकारों की आमद बढ़ी है। शेख दिलजान इनके लिए गाइड का काम करने लगे हैं। इसके एवज में हर महीने उन्हें कुछ रुपए आ जाते हैं। इलाके के लोग प्यार से उन्हें मोआ कहते हैं। दिलजान को नहीं मालूम कि उन्हें ये नाम कैसे मिला। बस इतना याद है कि बचपन से ही उन्हें मोआ कहा जा रहा था और उन्होंने भी इस पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई। हालांकि, शेख दिलजान भी घोड़ामारा के कटाव का शिकार हैं। उनके दादा के जमाने में उनका 100 बीघा से ज्यादा खेत था यहां। अब्बू का जमाना आते-न-आते जमीन का रकबा घटकर 10 बीघा हो गया। अब उनके पास महज 2 बीघा जमीन बची हुई है। दिलजान कहते हैं, ‘नदी ने 8 बीघा जमीन निगल ली है। जो दो बीघा बची हुई है, कुछ सालों में वो भी खत्म हो जाएगी।’
कोई 11 साल पहले वह भी अपने क्षेत्र के युवकों के साथ केरल चले गए थे, लेकिन वहां बमुश्किल तीन महीने ही काम कर पाए। उन्होंने कहा, ‘वहां ईंट-बालू ढोने का काम करता था। सीढ़ी से सामान पीठ पर लाद कर ले जाना पड़ता था। 250 रुपए दिहाड़ी थी। सामान ले जाने में बड़ी तकलीफ होती थी, इसलिए तीन महीने ही काम कर पाया और लौट गया।’ घोड़ामारा द्वीप के लिए दिनभर में 5 से 6 लांच ही चलते हैं। यह कोलकाता से दूर भी है और आने-जाने की सुविधाएं बहुत अच्छी नहीं है, इसलिए वहां पहुंचकर उसी दिन लौट जाना अक्सर मुमकिन नहीं होता।
शेख दिलजान के दो बच्चे हैं। वह फिलहाल अपनी पत्नी और बच्चे के साथ अलग रहते हैं। उनका घर मिट्टी का है और उसकी बनावट कुछ अलग किस्म की है। शायद तूफान प्रवण इलाकों में ऐसे ही घर बनाए जाते होंगे। सुंदरवन का इलाका तूफान से भी काफी प्रभावित रहा है। वर्ष 2009 में आए आइला तूफान ने सुंदरवन में काफी तबाही मचाई थी। इसमें सैकड़ों लोगों की जान चली गई थी। शेख दिलजान के घर के ठीक सामने थोड़ा-सा खेत है और बगल में एक छोटा तालाब। इसी तालाब के पानी से घरेलू काम निपटाए जाते हैं। पीने का पानी चांपाकल से आता है। वह पिछले 10 साल से ठेला चला रहे है। उस वक्त उन्होंने 2500 रुपए में ठेला खरीदा था। इसी ठेले पर माल और पैसेंजरों की भी ढुलाई करते हैं। पैसेंजरों की ढुलाई तभी होती है, जब नाव से लोग लॉट नंबर आठ से घोड़ामारा और घोड़ामारा से लॉट नंबर आठ की तरफ जाते हैं। हालांकि वैसे पैसेंजरों की संख्या कम ही होती है, जो ठेले पर सवार होकर घाट तक जाते हैं। शेख दिलजान बताते हैं, ‘यहां रहनेवाले लोग गरीब तबके के हैं। 4-8 रुपए खर्च कर घाट तक जाना उनके लिए खर्चीला मामला होता है। इसलिए वे पैदल ही चले जाते हैं। कुछ बुजुर्ग व महिलाएं ही सवार होती हैं। यहां कंस्ट्रक्शन का कुछ सरकारी काम अक्सर होता रहता है। इसकी ढुलाई से ठीकठाक कमाई हो जाती है।’ दरअसल, जलवायु परिवर्तन के कारण जलस्तर बढ़ने से घोड़ामारा द्वीप का एक बड़ा हिस्सा पानी में समा चुका है। स्थानीय लोगों के मुताबिक, पहले इस टापू का क्षेत्रफल 8 वर्ग किलोमीटर के आसपास था, जो घटकर अभी 4.43 वर्ग किलोमीटर रह गया है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर इसी तरह जमीन का कटाव जारी रहा, तो कुछ दशकों में इसका वजूद खत्म हो जाएगा।
जलवायु परिवर्तन के इस दुष्परिणाम को लेकर हाल के वर्षों में रिपोर्टिंग भी खूब हुई है। तमाम देशी-विदेशी मीडिया संस्थानों ने इस पर रिपोर्ट लिखी हैं। लगातार रिपोर्टिंग होने से दूसरे मीडिया संस्थानों और एनजीओ की भी नजर इस पर पड़ी, तो ये लगातार यहां आने लगे। ऐसे में वहां किसी स्थानीय व्यक्ति की जरूरत महसूस हुई, जो न केवल पूरे क्षेत्र को घूमाता बल्कि ऐसे लोगों से भी मिलवा देता, जो इस पर खुलकर बोल सकें। उसी वक्त शेख दिलजान परिदृश्य में आए। हालांकि, घोड़ामारा के क्लाइमेट चेंज के टूरिज्म हॉट-स्पॉट बनने से पहले भी लोग आते थे, लेकिन इक्का-दुक्का। शेख दिलजान एक वाक्य का जिक्र कर बताते हैं कि कैसे ये सब शुरू हुआ था। वह कहते हैं, ‘यही कोई 10 साल पहले की बात होगी। 4 लोग विदेश से आए थे। उन्हें कुछ लोगों से मिलना था और जिस तरफ कटाव हो रहा था, वो जगह देखनी थी। मैंने उन्हें ठेले पर ही बिठा कर दिनभर घूमाया। काम खत्म होने पर उन्होंने मुझे एकमुश्त 3000 रुपए दिये थे। उस वक्त इलाके में मिर्च की खेती हुआ करती थी। 100 के नोटों में रुपए दिए गए थे। मैंने एक साथ इतने नोट नहीं देखे थे। मेरा कलेजा जोर से धड़कने लगा। मैं मिर्च के खेत में गया और वहीं पर नोटों की गिनती की। यह सिलसिला तभी से शुरू हो गया।’
शेख दिलजान की शुरुआती कहानी वही है, जो यहां के सैकड़ों युवाओं की है- पलायन। कोई 11 साल पहले वह भी अपने क्षेत्र के युवकों के साथ केरल चले गए थे, लेकिन वहां बमुश्किल तीन महीने ही काम कर पाए। उन्होंने कहा, ‘वहां ईंट-बालू ढोने का काम करता था। सीढ़ी से सामान पीठ पर लाद कर ले जाना पड़ता था। 250 रुपए दिहाड़ी थी। सामान ले जाने में बड़ी तकलीफ होती थी, इसलिए तीन महीने ही काम कर पाया और लौट गया।’ घोड़ामारा द्वीप के लिए दिनभर में 5 से 6 लांच ही चलते हैं। यह कोलकाता से दूर भी है और आने-जाने की सुविधाएं बहुत अच्छी नहीं है, इसलिए वहां पहुंचकर उसी दिन लौट जाना अक्सर मुमकिन नहीं होता। इसे महूसस करते हुए शेख दिलजान ने अपने चाचा के मकान के एक कमरे को टूरिस्टों, एनजीओ, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के लिए छोड़ा है। अगर कोई ठहरता है, तो रात का खाना दिलजान घर में ही बनवाकर खिलाते हैं। शेख दिलजान कहते हैं, पहले उतने लोग नहीं आते थे। पिछले साल यानी 2018 से लोगों का आना बढ़ा है। अभी तो हर महीने तीन से चार लोग तो आ ही जाते हैं, जिससे 5-6 हजार रुपए तक की कमाई हो जाती है। जादवपुर विश्वविद्यालय के समुद्र विज्ञान विभाग के तुहीन घोष अपने शोध के सिलसिले में जब भी घोड़ामारा जाते हैं, तो शेख दिलजान को ही ढूंढते हैं। उन्होंने कहा, ‘शुरुआती दौर में जब हमलोग जाते थे, तभी शेख दिलजान से काम लेना शुरू किया था। उस वक्त वह भी नया था। अब तो खैर वो मास्टर हो गया है।’
स्थानीय जनप्रतिनिधियों के लिए भी शेख दिलजान गाइड की तरह ही हैं। अगर कोई बाहरी व्यक्ति द्वीप के बारे में जानकारी लेने पहुंचता है और जनप्रतिनिधि से मिलना चाहता है, तो वे शेख दिलजान से ही संपर्क करवाते हैं, ताकि वह उन्हें सुरक्षित उन तक पहुंचा दे। यहीं सरकार का कोई प्रतिनिधि आता है, तो वह भी शेख दिलजान के ठेले पर बैठकर ही गंतव्य तक पहुंचता है।
जलवायु परिवर्तन इस द्वीप के साथ क्या कर रहा है, इससे शेख दिलजान भी अंजान नहीं हैं। वह उदास होकर कहते हैं, ‘जलवायु परिवर्तन इस द्वीप को निगल रहा है। अगर इसी तरह कटाव जारी रहा, तो 10 साल बाद शायद ही ये बचेगा। सरकार ने कुछ लोगों को दूसरे द्वीप पर भेजा है।’ तुहीन घोष मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन के अलावा इस क्षेत्र से होकर बड़े जहाजों की आवाजाही भी इस द्वीप को बहुत नुकसान पहुंचा रही है। शेख दिलजान से लंबी बातचीत खत्म हुई, तो मैं लौटने की इजाजत मांगने लगा। वह मुझे ठेले पर लेकर घाट तक छोड़ आए और साथ ही एक गुजारिश की - सर, जोदी केउ एखाने आशते चाय, उनाके आमार नंबर दिए देबेन। (सरकार अगर कोई यहां आना चाहे, तो मेरा नंबर उन्हें दे दीजिएगा)। मैं ‘हां’ में जवाब देकर नाव पर सवार हो गया। नाव खुल गई। नाव से टकराती लहरों के बीच मैं देर यही सोचता रहा कि एकदिन जब ये टापू खत्म हो जाएगा, तो शेख दिलजान कहां जाएंगे, क्या करेंगे!
(लेखक नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया के फेलो हैं और ये स्टोरी नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया की फेलोशिप के तहत लिखी गई है)
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