आवागमन और बोझ ढोने के अलावा ऊंट का दूध, ऊन, मांस का भी इस्तेमाल होता है। इसकी लीद को ईंधन के काम में लाया जाता है। दुखद बात है कि भारत में इन्हें संभालने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किए जा रहे हैं और जैसा कि अधिकांश प्राणियों के साथ हो रहा है, तमाम राशि खर्च करने के बावजूद ऊंटों के लिए आधारभूत सुविधाओं, संरक्षण, प्रयोगशालाओं, अनुसंधान और वैज्ञानिक तकनीकी परीक्षण में पैसा खर्च नहीं किया गया। ज्यादातर राशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई। संसार में ऊंटों की संख्या के लिहाज से भारत का तीसरा स्थान था पहले, लेकिन अब यह दसवें स्थान पर पहुंच गया है। राजा महाराजाओं की शाही सवारी, रेगिस्तान का जहाज, देश का टाइटैनिक यानी ऊंट का जीवन अब पूरी तरह से खतरे में हैं। ऊंटों की संख्या धीरे-धीरे खात्मे की ओर तेजी से बढ़ रही है। यह खुलासा हाल ही मे राज्य के स्थापना दिवस के मौके पर नेशनल रिसर्च सेंटर की ओर से जारी एक रिपोर्ट में किया गया। एनआरसी की ओर से हर चार सालों के भीतर ऊंटों की जनगणना की जाती है, दशक भर पहले तक राज्य में ऊंटों की संख्या 10 लाख के करीब बताई गई थी, जो अब महज पांच लाख तक ही रह गई है। एनआरसी की रिपोर्ट कहती है कि पिछले एक-दो सालों से ऊंटों की आबादी सबसे ज्यादा कम हुई है। और यह सिलसिला लगातार जारी है।
ऊंट रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण घटक है। भारत में रेगिस्तान का जहाज के नाम से प्रसिद्ध इस पशु ने परिवहन के क्षेत्र में अलग ही पहचान बनाई है। कई दूसरे कारणों से भी यह उपयोगी है। ऊंटों ने रक्षा और युद्ध के क्षेत्र में वफादार पशु के तौर पर अहम भूमिका निभाई है। ऊंटों ने प्रथम और दूसरे विश्व युद्धों में भी भाग लिया था।
बदलते समय में ऊंटों की जरूरत में कमी आई है, इसलिए लोगों का इस दुर्लभ जानवर के प्रति मोह भंग हो रहा है। भारत के सीमावर्ती रेतीले इलाकों में बहुत सारे गांव आज भी ऐसे हैं जहां रेत की अधिकता होने से पक्की सड़क नहीं बन सकी है। इन दुरूह और दुर्गम क्षेत्रों में रहने वालों के लिए प्राचीनकाल से लेकर आज तक ऊंट ही आवागमन, बोझ ढोने और खेती का सबसे सुलभ और सर्वोत्तम साधन रहे हैं। भारत में ऊंटों की सर्वाधिक संख्या राजस्थान में है। यहां कई प्रजातियों जैसे बीकानेरी, जैसलमेरी, सीकरी आदि तमाम तरह के ऊंट पाए जाते हैं।
ऊंट की घटती आबादी को बचाने के लिए राज्यों और केंद्र सरकार की ओर से जितने भी उपाय किए गए या किए जा रहे हैं, वे नाकाफी साबित हुए हैं। एक दशक पहले भारतीय ऊंटों का, सूडान और सोमालिया के बात तीसरा स्थान था। अब भारत का नंबर दसवें स्थान पर है।
ऊंटों की लगातार कम होती आबादी के कई और कारण हैं। ऊंटों के रहने के उपयुक्त जगहों का न होना बड़ी वजह है। पहले राजस्थान के हजारों किलोमीटर के रेतीले समंदर में यातायात के लिए और खेतों की जुताई वगैरह के काम में सबसे उपयोगी साधन ऊंट ही था। यातायात के मुख्य साधन भी ऊंट ही थे। खेतीबाड़ी में मशीनों के बढ़ते उपयोग की वजह से इनकी जरूरत लगातार घटती जा रही है। और दूसरी ओर विकास की तेज लहर में चरागाह भी पूरी तरह से नदारद होते जा रहे हैं।
जोधपुर के स्कूल ऑफ डेजर्ट साइंसेज रेगिस्तान के एक शोध के अनुसार राजस्थान में बीते दो दशकों में ऊंटों की संख्या में पचास फीसद की कमी आई है। एक दशक में यह कमी और विकराल रूप ले चुकी है जिसका एक कारण चारे की कमी है। ऊंटों के मुख्य भोजन के स्रोत हैं- रेगिस्तानी जमीन में उगने वाली झाड़ियां, कांटेदार पौधे और रेगिस्तान की सीमा पर उगे पेड़ों की पत्तियां। जहां लगातार लोग इन पेड़ों और पौधों को काटकर खेती कर रहे हैं।
एक अनुमान के तौर पर सिर्फ राजस्थान में ही देश के अस्सी फीसद से अधिक ऊंट पाए जाते हैं। इसके अलावा गुजरात में भी ऊंटों की कुछ किस्में मिलती हैं। ऊंटों से राजस्थान में पर्यटन उद्योग को भी बड़ा फायदा होता है। जैसलमेर और मरु पर्यटन स्थलों पर चलने वाली डेजर्ट सफारी से सरकार हर साल लाखों डॉलर की कमाई करती है, पर इस राशि का एक फीसद भीइस सहनशील प्राणी के भले के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता।
ऊंट की उपयोगिता सिर्फ भारत में ही नहीं दुनिया के सभी रेगिस्तानी इलाकों में मानी जाती है। यहां तक कि अरब देशों में ऊंट को अताउल्लाह (अल्लाह का दिया तोहफ) कहा जाता है, वहां ऊंट की सबसे ज्यादा जरूरत समझी जाती है। लंबी गरदन और वसा से संग्रहीत कूबड़ इस प्राणी की पहचान है। इसका जीवनकाल करीब 40-50 साल का होता है। इसके झुंड में एक नर और कई मादाएं होती हैं। एशिया से लेकर अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया का दो कूबड़ वाला ऊंट विश्व के सभी रेगिस्तानों में इंसान का सबसे विश्वसनीय साथी है।
आवागमन और बोझ ढोने के अलावा ऊंट का दूध, ऊन, मांस का भी इस्तेमाल होता है। इसकी लीद को ईंधन के काम में लाया जाता है। दुखद बात है कि भारत में इन्हें संभालने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किए जा रहे हैं और जैसा कि अधिकांश प्राणियों के साथ हो रहा है, यही कारण है कि देश में ऊंटों की संख्या लगातार कम हो रही है। तमाम राशि खर्च करने के बावजूद ऊंटों के लिए आधारभूत सुविधाओं, संरक्षण, प्रयोगशालाओं, अनुसंधान और वैज्ञानिक तकनीकी परीक्षण में पैसा खर्च नहीं किया गया। ज्यादातर राशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई।
ऊंट रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण घटक है। भारत में रेगिस्तान का जहाज के नाम से प्रसिद्ध इस पशु ने परिवहन के क्षेत्र में अलग ही पहचान बनाई है। कई दूसरे कारणों से भी यह उपयोगी है। ऊंटों ने रक्षा और युद्ध के क्षेत्र में वफादार पशु के तौर पर अहम भूमिका निभाई है। ऊंटों ने प्रथम और दूसरे विश्व युद्धों में भी भाग लिया था।
बदलते समय में ऊंटों की जरूरत में कमी आई है, इसलिए लोगों का इस दुर्लभ जानवर के प्रति मोह भंग हो रहा है। भारत के सीमावर्ती रेतीले इलाकों में बहुत सारे गांव आज भी ऐसे हैं जहां रेत की अधिकता होने से पक्की सड़क नहीं बन सकी है। इन दुरूह और दुर्गम क्षेत्रों में रहने वालों के लिए प्राचीनकाल से लेकर आज तक ऊंट ही आवागमन, बोझ ढोने और खेती का सबसे सुलभ और सर्वोत्तम साधन रहे हैं। भारत में ऊंटों की सर्वाधिक संख्या राजस्थान में है। यहां कई प्रजातियों जैसे बीकानेरी, जैसलमेरी, सीकरी आदि तमाम तरह के ऊंट पाए जाते हैं।
ऊंट की घटती आबादी को बचाने के लिए राज्यों और केंद्र सरकार की ओर से जितने भी उपाय किए गए या किए जा रहे हैं, वे नाकाफी साबित हुए हैं। एक दशक पहले भारतीय ऊंटों का, सूडान और सोमालिया के बात तीसरा स्थान था। अब भारत का नंबर दसवें स्थान पर है।
ऊंटों की लगातार कम होती आबादी के कई और कारण हैं। ऊंटों के रहने के उपयुक्त जगहों का न होना बड़ी वजह है। पहले राजस्थान के हजारों किलोमीटर के रेतीले समंदर में यातायात के लिए और खेतों की जुताई वगैरह के काम में सबसे उपयोगी साधन ऊंट ही था। यातायात के मुख्य साधन भी ऊंट ही थे। खेतीबाड़ी में मशीनों के बढ़ते उपयोग की वजह से इनकी जरूरत लगातार घटती जा रही है। और दूसरी ओर विकास की तेज लहर में चरागाह भी पूरी तरह से नदारद होते जा रहे हैं।
जोधपुर के स्कूल ऑफ डेजर्ट साइंसेज रेगिस्तान के एक शोध के अनुसार राजस्थान में बीते दो दशकों में ऊंटों की संख्या में पचास फीसद की कमी आई है। एक दशक में यह कमी और विकराल रूप ले चुकी है जिसका एक कारण चारे की कमी है। ऊंटों के मुख्य भोजन के स्रोत हैं- रेगिस्तानी जमीन में उगने वाली झाड़ियां, कांटेदार पौधे और रेगिस्तान की सीमा पर उगे पेड़ों की पत्तियां। जहां लगातार लोग इन पेड़ों और पौधों को काटकर खेती कर रहे हैं।
एक अनुमान के तौर पर सिर्फ राजस्थान में ही देश के अस्सी फीसद से अधिक ऊंट पाए जाते हैं। इसके अलावा गुजरात में भी ऊंटों की कुछ किस्में मिलती हैं। ऊंटों से राजस्थान में पर्यटन उद्योग को भी बड़ा फायदा होता है। जैसलमेर और मरु पर्यटन स्थलों पर चलने वाली डेजर्ट सफारी से सरकार हर साल लाखों डॉलर की कमाई करती है, पर इस राशि का एक फीसद भीइस सहनशील प्राणी के भले के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता।
ऊंट की उपयोगिता सिर्फ भारत में ही नहीं दुनिया के सभी रेगिस्तानी इलाकों में मानी जाती है। यहां तक कि अरब देशों में ऊंट को अताउल्लाह (अल्लाह का दिया तोहफ) कहा जाता है, वहां ऊंट की सबसे ज्यादा जरूरत समझी जाती है। लंबी गरदन और वसा से संग्रहीत कूबड़ इस प्राणी की पहचान है। इसका जीवनकाल करीब 40-50 साल का होता है। इसके झुंड में एक नर और कई मादाएं होती हैं। एशिया से लेकर अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया का दो कूबड़ वाला ऊंट विश्व के सभी रेगिस्तानों में इंसान का सबसे विश्वसनीय साथी है।
आवागमन और बोझ ढोने के अलावा ऊंट का दूध, ऊन, मांस का भी इस्तेमाल होता है। इसकी लीद को ईंधन के काम में लाया जाता है। दुखद बात है कि भारत में इन्हें संभालने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किए जा रहे हैं और जैसा कि अधिकांश प्राणियों के साथ हो रहा है, यही कारण है कि देश में ऊंटों की संख्या लगातार कम हो रही है। तमाम राशि खर्च करने के बावजूद ऊंटों के लिए आधारभूत सुविधाओं, संरक्षण, प्रयोगशालाओं, अनुसंधान और वैज्ञानिक तकनीकी परीक्षण में पैसा खर्च नहीं किया गया। ज्यादातर राशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई।
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