महाभारत के समय दुर्योधन का दरबार राजधानी में ही था। सीमित था एक जगह। लेकिन आज यह दरबार भारत में गाँव-गाँव पहुँच गया है। महा विशेषण भारत से हट कर मानो दरबार के साथ लग गया है- महादरबार। क्या होता था उस दरबार में? वहाँ बड़े लोग जूआ खेलते थे और वहाँ होता था द्रोपदी का चीरहरण। श्रेष्ठीजन वहाँ बैठकर यह सब तमाशा देखते थे। आज के नए-नए लोकतंत्रों में, शासन में भी दुष्शासन उपस्थित है हर जगह और इसलिये गाँव-गाँव में दुर्योधन का दरबार सजा बैठा है। उसे सुशासन में बदलना हो तो क्या करना पड़ेगा- इसे बता रहे हैं -आचार्य राममूर्ति
पुराने जमाने में एक ही रहस्य था- भगवान। उसकी तलाश ऋषि मुनि करते थे। और बहुत कुछ तलाश कर ली थी लोगों ने। इतने बड़े-बड़े ग्रंथ रच दिए। लेकिन आज दो रहस्य और हैं। कितना बड़ा रहस्य है यह बाजार। आज एक रुपया लेकर जाइए तो एक किलो चावल मिलेगा। कल जाइए तो एक सौ ग्राम कम मिलेगा। पूछिए, उस व्यापारी से, क्या हुआ?
मैं गाँव में क्या देखता हूँ कि देश की समस्या भी गाँव में है और उन समस्याओं के समाधान की कुँजी भी गाँव में है। कोई विशेष परिस्थिति नहीं है हमारे देश की। एशिया के सभी देशों की यह परिस्थिति है। जो नए देश हैं, आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं उनकी भी यही हालत है। अफ्रीका के देशों की भी यही परिस्थिति है। इतने वर्षों से गाँवों को देखने के बाद मैंने वहाँ चार बातें पाई हैंः एक बात, बहुत बड़ी और बुनियादी बात यह कि हमारा समाज परिवारों से बना हुआ है। दस-ग्यारह करोड़ परिवार गाँव में रहते हैं। हम यह देखते हैं कि गाँव का एक-एक परिवार एक मामले में बिलकुल एक-सा है। अलग-अलग क्षेत्रों की परिस्थिति भले ही थोड़ी अलग-अलग दिखें। क्या है वह एक बात? वह है जीवन संग्राम।कहीं 100 से 80 परिवार और कहीं 100 में से 95 परिवार जीवन के संग्राम में हार गए हैं। अगर हम यह मान लें कि जिंदगी एक लड़ाई है, जीवन एक संघर्ष है- पेट का, जीविका का या और अनेक तरह की कठिनाइयाँ हैं जीवन में, उनसे मुकाबला करना है। सब मिलाकर अगर जीवन एक संग्राम माना जाए तो अधिकांश परिवार जिंदगी की इस लड़ाई में हार गए हैं। यह अर्थशास्त्र का भी एक चमत्कार हो सकता है, समाजशास्त्र का भी हो सकता है, और सारे शास्त्रों को मिलाकर भी हो सकता है।
पहली बात यह है कि आज अधिकांश परिवार जिंदगी की लड़ाई हार गए हैं, हार रहे हैं। प्रश्न होगा कि क्यों हार रहे हैं? सरकार ने इतनी सारी नहरें बना दीं, सड़कें बना दीं, अस्पताल खोल दिए, बैंक खोल दिए, गाँव-गाँव में अपना प्रशासन पहुँचा दिया, स्कूल खुल गए, इतने सारे सामान जिंदगी से लड़ने के लिये तैयार हो गए हैं, फिर ये परिवार जिंदगी की लड़ाई भला क्यों हार रहे हैं? इस क्यों का जवाब अलग-अलग शास्त्र जानने वाले अपनी अलग-अलग भाषा में देंगे। लेकिन हम सामान्य आदमी तो यह जवाब देंगे कि साहब! हमारे पास पूँजी नहीं है, किसी धंधे को शुरू करने के लिये, हमारे पास बुद्धि नहीं है और किसी धंधे को चलाने के लिये हमारे पास मेहनत की शक्ति भी नहीं बची है। श्रम भी नहीं है, बुद्धि भी नहीं है, कुछ नहीं है। आपने जो कुछ विकास का ढाँचा बनाया है, उसका लाभ लेने की क्षमता हमारे अंदर नहीं है। आप हमें निकम्मा कह सकते हैं, लेकिन जो स्थिति है, वह तो यही है।
गाँव की पूँजी गाँव से भाग रही है। जिसके पास गाँव में पैसा हो जाता है, वह उसे शहर के किसी न किसी कारोबार में लगाने शहर चला जाता है। अब चोर और डाकुओं के डर से गाँव के बड़े लोग अपनी पूँजी को बैंकों में जमा कर देते हैं। और बैंकों से कहाँ-कहाँ घूमती हुई पूँजी शहरों में आ जाती है। दूसरी चीज गाँव में किसी भी लड़के ने मेट्रिक्यूलेशन पास या उससे ज्यादा की पढ़ाई कर ली, वह कहीं-न-कहीं शहर में किसी न किसी काम में लगने की कोशिश करता है। और तीसरी चीज है गाँव की श्रमशक्ति। आज कोई भी जवान मजदूर अगर उसका बस चले तो गाँव में नहीं रहना चाहता। वह शहर में आकर रिक्शा चलाने को राजी है, लेकिन गाँव में नहीं रहना चाहता। पूछिए, उससे क्यों? क्योंकि गाँवों में ईमान की रोटी भी नहीं है और इज्जत की जिंदगी भी नहीं है। फिर किस लालच से वह वहाँ रहे? किस भरोसे वह वहाँ रहे?
अगर गाँव की पूँजी गाँव से निकल गई तो दूसरी भाषा में गाँव की लक्ष्मी गाँव से निकल गई। अगर गाँव का पढ़ा-लिखा युवक गाँव से निकल गया तो गाँव की सरस्वती गाँव से निकल गई। और जवान मेहनत करने वाला मजदूर निकल गया तो गाँव की शक्ति गाँव से निकल गई। पूँजी यानी लक्ष्मी, सरस्वती और शक्ति से वंचित गाँव जिंदगी की लड़ाई कैसे जीतेगा? कैसे लड़ेगा? किन हथियारों से लड़ेगा? आज विकास के जितने भी अवसर उसके सामने आते जाएँगे, कोई न कोई चोर ऐसा है, जो उन अवसरों को सामने रखकर भी किसी दूसरे रास्ते से उन अवसरों को छीन लेता है।
एक और बात, जो गाँव में हम देखते हैं, वह यह है कि एक-एक गाँव आज दुर्योधन का दरबार बना हुआ है। क्या होता था उस दरबार में? द्रोपदी का चीरहरण और बड़े-बड़े श्रेष्ठीजन बैठकर तमाशा देखते थे। यह ख्याति है दुर्योधन के दरबार की। आज गाँव में पुलिस तो है, लेकिन सुरक्षा नहीं है। पड़ोस में न्यायालय है, लेकिन न्याय नहीं है। विद्यालय है, लेकिन विद्या नहीं है। बड़ी-से बड़ी अनीति हो जाए, बड़े से बड़ा अन्याय हो जाए, उसको सुनने वाला कोई नहीं है।
अब आप कल्पना कर सकते हैं कि जहाँ अधिकांश लोगों की इतनी असहाय अवस्था हो, वहाँ उनका मानस कैसा होगा? उसमें कहाँ से आएगी आशा और आस्था? कहाँ से पैदा होगा विश्वास समाज में, भगवान में, अपने भविष्य में और किस प्रेरणा से प्रेरित होकर मनुष्य पुरुषार्थ के लिये आगे बढ़ेगा? एक चीज, हम सुनते हैं, पढ़ते हैं कि पुराने ढंग के साम्राज्य समाप्त हो गए। लेकिन अब जो बड़े-बड़े देश हैं, उनमें द्वेष है, वे एक नये ढंग का नया साम्राज्यवाद दुनिया में कायम कर रहे हैं, एक नया उपनिवेशवाद।
अपने देश में हम क्या देखते हैं, गाँव कच्चा माल पैदा करता है और तैयार माल खरीदता है। कच्चा माल शहर को देता है और शहर से तैयार माल खरीदता है। औपनिवेशिक व्यवस्था किसको कहते हैं? हम लोगों को जो परिभाषा पढ़ाई गई वह तो यही थी कि जब हमारे देश का इंग्लैंड से सम्बंध था- शासक और शासित का, तब यह कहा जाता था कि हम कच्चा माल बेचने पर विवश हैं, और उनका तैयार माल खरीदने पर विवश हैं। हमारे माल वे अपने भाव से खरीदेंगे और अपना माल वे हमें अपने भाव से बेचेंगे। मजाक चलता है कि अगर घर आएँगे तो आप क्या खिलाएँगे और हमारे घर आइएगा तो क्या-क्या लाइएगा- यानी दोनों हाथ हमारे भरने चाहिए। यह सम्बंध औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का हमको बताया गया था। गाँव और शहर में यही प्रबंध आज भी कायम है। एक अजीब बात है, हम जब पढ़ते थे तो अर्थशास्त्र के किसी ग्रंथ में गरीबी पर कोई अध्याय नहीं पढ़ा। हम जब पढ़ते थे तब भी यह देश गरीब ही था। अमीर देशों में इसकी गणना तब नहीं थी और आज तो इसने गरीबी में कुछ तरक्की की ही है।
हमने कोई अध्याय कभी भी अर्थशास्त्र के ग्रंथ में गरीबी पर नहीं पढ़ा, शोषण पर कोई अध्याय नहीं पढ़ा। वाराणसी के हमारे एक मित्र अर्थशास्त्र विभाग के एक बड़े प्राध्यापक हैं। मुलाकात हुई बहुत वर्षों के बाद। पूछा कि क्यों भाई! हम-तुम पढ़ते थे उस वक्त और उसके बाद जो ग्रंथ लिखे गए हैं, उनमें कोई अध्याय जोड़े गए हैं? बोले कि अभी तक तो नहीं। आंकड़े नए हैं, विचार पुराने हैं, इसीलिये आंकड़ों से ज्यादा भरोसा आँखों पर करना चाहिए। क्योंकि आँखें तो बिलकुल नई हैं। वे तो रोज नई चीजें देखने के लिये तैयार हैं। आज तक हमारे ग्रंथों में गरीबी और शोषण पर कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन जब हम गाँव में जाते हैं तो सबसे पहले ये ही काँटे गाँव में चुभते हैं। सारे जीवन का ताना-बाना गरीबी और शोषण, दमन और उत्पीड़न इसी का दिखाई देता है। मैं कोई काव्य रचना नहीं कर रहा हूँ। कविता मैंने कभी की भी नहीं है और कविता मुझे समझ में आती भी नहीं है।
जो गाँव में देखा और आज तक देखता चला आ रहा हूँ, उसका उल्लेख आपके सामने यह मानकर कर रहा हूँ कि शायद यह जो रहस्य है, उसका उद्घाटन हो जाए। ये चार बातें गाँव में देखता हूँ। गाँव के क्या माने हैं? जहाँ 71 से 80 प्रतिशत लोग रहते हैं। इस भूमिका में, इस संदर्भ में प्रयत्न तो हुए जीवन की भूमिका बदलने के। अरबों अरब रुपए खर्च करके सामुदायिक विकास योजना कार्यक्रम चला। और आज भी इन ब्लॉकों के दफ्तर किसी वक्त जोर-जोर से चलने वाले कार्यक्रमों के अवशेष के रूप विद्यमान हैं। पुराने इतिहास के बहुत सारे अवशेष अपने देश में हैं। ये ब्लॉक ऑफिस, प्रखंड कार्यालय भी वास्तविकता है किसी आंदोलन की। क्या हुआ उस कम्युनिटी डवलपमेंट का? और कहाँ है वह तुम्हारा डवलपमेंट जिसे तुम्हारी कम्युनिटी खुद नहीं पहचान पाई? दो में से एक का भी तो पता चलता। और तब बरसों के बाद एक रोज हैदराबाद में कांफ्रेंस हुई कम्युनिटी डवलपमेंट की तो तत्कालीन योजना मंत्री श्री डे साहब ने यह कह दिया कि अरे वह कम्युनिटी तो थी ही नहीं, जिसका हम डवलपमेंट कर रहे थे।
कितनी देर में खोज होती है, कितना समय लगता है हमारे नेताओं को, प्रशासकों को, विशेषज्ञों को, किसी चीज को ढूंढने में। और इसलिये लगता है कि परिस्थिति से हटकर सत्य की तलाश पुस्तकों में होती है। जिस गाँव का हम विकास करना चाहते थे, वह कम्युनिटी थी ही नहीं। वहाँ समुदाय ही नहीं था। वहाँ तो गरीबी की एक दुनिया अलग, अमीर की दुनिया अलग, सवर्ण की दुनिया अलग, अवर्ण की दुनिया अलग, हिन्दू की दुनिया अलग, मुसलमान की दुनिया अलग, नेता की दुनिया अलग, वोटर की दुनिया अलग। वहाँ तो अलग-अलग दुनिया है, समुदाय कहाँ हैं? अगर गाँव एक समुदाय होता तो उसकी सामूहिक चेष्टा, उसका एक सामूहिक हित होता और उसके सामूहिक पुरुषार्थ की एक दिशा होती। हुआ विकास, लेकिन कितने लोगों का, कितना हुआ? आज भी हम गाँव में देख सकते हैं- पंचायती राज हुआ है या नहीं, न हुआ हो, लेकिन पाँच लोगों का राज तो हुआ। नेता का राज हुआ, अफसर का राज हुआ, गाँव के मुखिया का राज हुआ, महाजन का राज हुआ और उन सबसे ऊपर गुंडे का राज हो रहा है।
यह कौन कह सकता है कि हमारे देश में विकास के काम नहीं हुए। विकास के काम बहुत हुए। देखने लायक चीजें बनीं, नए-नए तीर्थस्थल कायम हुए, भाखड़ नंगल वगैरा। लेकिन विकास नहीं हुआ। नए-नए प्रकल्प बने, लेकिन विकास नहीं हुआ। विकास के कार्यों में और विकास में अंतर है। विकास के कार्य अंग्रेजी जमाने में भी हुए थे। मुझे अच्छी तरह से याद है- 1930 का वह जमाना। अंग्रेजों ने रेलें चलाईं, सड़कें, नहरें निकालीं, बड़े-बड़े विश्वविद्यालय कायम किए, न्यायालय कायम किए। 26 जनवरी 1930 को जब कांग्रेस अधिवेशन में स्वतंत्रता का घोषणा-पत्र पढ़ा गया और उसमें कहा गया कि अंग्रेजी राज्य से हमारा ह्रास हुआ है- आर्थिक, नैतिक, सांस्कृतिक गिरावट आई है। यह कहा गया, क्योंकि वह गाँधीजी का बनाया ड्राफ्ट था। तो हमारे देश के उस वक्त के अंग्रेज मालिकों के एक दैनिक पत्र ने एक संपादकीय लिखा और यह बताया कि यह घोषणा-पत्र स्वतंत्रता का नहीं है, अकृतज्ञता का घोषणा-पत्र है।
जिस अंग्रेजी राज्य ने इतना कुछ किया, उसके प्रति घोर अकृतज्ञता! कोई कह सकता है कि तुम भला इतनी अकृतज्ञता क्यों प्रकट कर रहे हो- इतने विकास के बाद। प्रति व्यक्ति आमदनी के आंकड़े क्यों नहीं देखते? कुल राष्ट्रीय उत्पादन के आंकड़े क्यों नहीं देखते? मैं आंकड़े क्यों देखूँ? विटन ह्यूमर (अमेरिका) में एक कारखाना था। शाम को घंटी होने पर दो मजदूर कारखाने से निकलने लगे। शाम का अखबार बिक रहा था। अखबार खरीद लिया। उस रोज मोटे अक्षरों में मुखपृष्ठ पर यह खबर थी- ‘अमेरिका की तिजोरी में अरबों-खरबों का सोना।’ वह बड़ा खुश हुआ यह देखकर। गर्व तो होता ही है, अपने देश की समृद्धि पर। वह जो दूसरा दोस्त था, उसने पहले दोस्त की जेब में हाथ डाला। अखबार पढ़ने वाले दोस्त ने पूछा यह क्या कर रहे हो? वह बोला कि मैं देख रहा हूँ कि तुम्हारी जेब में उसमें से कितना है? यानी सामान्य की जेब में उसमें से कितना है।
पुराने जमाने में एक ही रहस्य था- भगवान। उसकी तलाश ऋषि मुनि करते थे। और बहुत कुछ तलाश कर ली थी लोगों ने। इतने बड़े-बड़े ग्रंथ रच दिए। लेकिन आज दो रहस्य और हैं। कितना बड़ा रहस्य है यह बाजार। आज एक रुपया लेकर जाइए तो एक किलो चावल मिलेगा। कल जाइए तो एक सौ ग्राम कम मिलेगा। पूछिए, उस व्यापारी से, क्या हुआ?
तो वह कहेगा कि हमें खुद ही नहीं मालूम कि क्या हुआ? लेकिन भाव यही है। कल शाम तक चीनी बाजार में थी, आज जाइए तो नहीं है। भाई! कहाँ गई रातों-रात? मालूम नहीं। यह एक रहस्य है। कुछ पता नहीं चलता। मुद्रास्फीति की चर्चा संसद में होती है सरकार कहती है, कोशिश तो बहुत है, लेकिन मामले की पकड़ नहीं हो रही है। वह हाथ से निकलता जा रहा है। मुद्रास्फीति की रहस्यपूर्ण शक्तियाँ ऐसी हैं जो आज हमारे देश में सरकार को भी चला रही हैं। हमारे देश में आदमी घूमने लगे तो उसको पता नहीं चलता कि कौन-सी फाइल कितने दिन में कहाँ पहुँचती है, उस पर कौन-कौन से नोट्स लगते हैं। कहाँ फैसला होता है, कुछ पता नहीं चलता और उसी तरह बाजार का हाल है सामान्य आदमी के लिये। तो ये दोनों रहस्य हैं- सरकार भी और बाजार भी। वह उसमें तलाश करके थक जाता है कि हम कहाँ हैं और अपने को नहीं पाता। क्यों, हर एक यह मानता है कि हम जहाँ पहुँचना चाहते थे, वहाँ पहुँच नहीं सके।
क्यों हमारे तत्कालीन योजनामंत्री को यह कहना पड़ा कि योजना विफल हुई? क्यों कहना पड़ा? क्या जो योजना विफल हुई वह विशेषज्ञों की बनाई हुई नहीं थी। क्या इस देश के निरक्षरों ने वह योजना बनाई थी? नहीं, विद्वानों ने बनाई थी और शायद देश-विदेश के विद्वानों ने मिलकर बनाई थी। बनाने में बहुत वर्ष लगे थे, बहुत धन लगा था, समय लगा था। पर फिर क्या हुआ? अगर कोई एक कारण हो तो क्या वह यह कारण हो सकता है कि जो तरीके अपनाए गए, हमारी विकास योजनाओं में, वे तरीके इस देश के नहीं थे।
स्वदेशी शब्द पुराना हो गया हो तो छोड़ा जा सकता है। बूढ़े बाप को भी छोड़ा जा सकता है तो पुराने शब्दों को क्यों न छोड़ा जाए। तो स्वदेशी शब्द छोड़ा जा सकता है। लेकिन मुश्किल यह है कि समस्याएँ हमेशा स्वदेशी होंगी। समाधान अगर विदेशी होंगे तो वे समस्याएँ हल नहीं होंगी। स्वदेशी समस्याएँ विदेशी उपायों से कैसे हल होंगी? बिलकुल सामान्यजन का तर्क है। हिन्दू को स्वर्ग कुरान पढ़ने में कैसे मिलेगा? मुसलमान को स्वर्ग गीता पढ़ने से कैसे मिलेगा? वह एक ईसाई बुढ़िया थी न? उसने गाँधीजी पर बहुत अफसोस जाहिर किया था कि तू है तो क्राइस्ट की तरह ही, लेकिन अफसोस यह है कि तू स्वर्ग नहीं जाएगा, क्योंकि तू ईसाई नहीं है। उसका दिल रोता था- गाँधी के लिये कि वह मरेगा तो स्वर्ग नहीं जाएगा। इस बेचारे देशी महात्मा को दूसरे धर्म के आश्रय से वह स्वर्ग पहुँचाना चाहती थी।
और वही हाल हुआ हमारा। हमने लोकतंत्र चलाया। संसदीय लोकतंत्र में लोक कल्याण की विकास नीति चलाई- राज्य के माध्यम से। लोक कहाँ है? कहाँ है तंत्र और कहाँ है ‘कल्याण’? तरीके हमने निकाले कि अमेरिका में ऐसा कम्युनिटी डवलपमेंट होता है। जरूर होना चाहिए हमारे देश में। क्या हम तुमसे कम हैं? कम तो नहीं हैं भाई, लेकिन ये तरीके हमारे नहीं थे। हमारे देश की प्रतिभा से इनका मेल नहीं था। ये अच्छे थे, लेकिन विदेशी, एक अंग्रेज मेरे पिता से ज्यादा योग्य हो सकता है, लेकिन मेरा पिता नहीं बन सकता। मैं क्या करूँ यह मेरी बदनसीबी है। बहुत सारी चीजें विदेशी हैं, बहुत अच्छी हैं लेकिन हमारे काम की नहीं हैं। आज तो बड़े-बड़े विद्वान विदेशों के, अपने देश को तो नहीं, हमको यह चेतावनी दे रहे हैं कि अपनी अलग राज्य पद्धति निकालो, अपनी अलग विकास-पद्धति निकालो, अपनी अलग तकनीक निकालो। हमारी नकल करोगे तो मर जाओगे। कहाँ हमारी प्रति व्यक्ति आमदनी 771 के आस-पास है और इसमें टाटा-बिड़ला की आमदनी भी शामिल है। और जब से यह पता चला कि हमारे देश में 50 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं तो हर राज्य का मुख्यमंत्री यह कहता है कि हमारे राज्य में 50 प्रतिशत से ज्यादा गरीबी रेखा के नीचे हैं। अपने राज्य की दरिद्रता बढ़ाकर बताने का शौक इसलिये है कि केन्द्र से अधिक अनुदान, आर्थिक सहायता मिल सके।
योजना आयोग ने कहा है कि देश के 10 प्रतिशत लोग जो कंगाल हैं, उनके लिये योजनाएँ नहीं बन सकतीं। इस प्रकार साढ़े सात करोड़ लोग तो योजना से बाहर ही हो गए। इन्हें योजना का कोई भी लाभ नहीं मिल सकेगा।
इसलिये स्वदेशी समस्याओं के हल भी स्वदेशी ही होंगे। स्वदेशी बुद्धि से होंगे। गाँव से लक्ष्मी, सरस्वती और शक्ति का पलायन रोकने की योजनाएँ बनेंगी तो गाँव बनेगा। देश बनेगा। और तब कुछ उस रहस्य से भी परदा हटेगा जिसे हमने ऊपर बताया था। बाजार और सरकार, कुछ पास आ सकेंगे, कुछ समझ में आ सकेंगे।
और तब दुर्योधन का दरबार भी उजड़ेगा।
सर्वोदय जगत के अनन्य विचारक आचार्य राममूर्ति ने जमीन में, समाज में भी उत्तम विचार बोने का काम आजीवन किया। अंतिम दिनों तक वे बिहार में खादीग्राम (मुंगेर) को केन्द्र बनाकर महिला शांति सेना के गठन और मार्गदर्शन में सक्रिय बने रहे।
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