दुनिया का खेला

अनुपम मिश्र
अनुपम मिश्र


मैं उनसे कभी मिल नहीं पाया था। सभा गोष्ठियों में दूर से ही देखता था उन्हें। अपरिचय की एक दीवार थी। यह कोई ऊँची तो नहीं थी पर शायद मेरा अपना संकोच रोके रहा आगे बढ़कर मिलने से।

आज उनकी स्मृति में हम सब यहाँ एकत्र हुए हैं। उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ।

नाटक उनका संसार था। मैं प्रायः नाटक जा नहीं पाता था। औरंगजेबपन नहीं। शायद जेब में ठीक पैसा न होना एक कारण था। मैं उनके नाटक संसार से तो जुड़ नहीं पाया। पर फिर कुछ पुण्य रहे होंगे कि उनके परिवार से जुड़ता गया। आज इस परिवार की तीन पीढ़ियों का प्यार मुझे बिन माँगे मिला है। रिभु तक का।

अशोकजी ने कभी अंग्रेजी में एक सुंदर पंक्ति लिखी थीः एकदम नाटक वालीः वन्स अपॉन ए टाईम वाली शैली में। वे कहीं परिचय दे रहे थे मध्यप्रदेश का। पहला ही वाक्य थाः वन्स अपॉन ए टाईम, देयर वाज़ नो मध्यप्रदेश! उससे भी पीछे के काल में लौटें तो कहा जा सकता है कि कभी दिल्ली भी नहीं थी।

पर नाटक तो थे। ऐसा भी कह सकते हैं, नाटक तो था। यहाँ आप बहुवचन से हट कर एकवचन पर आ जाएँ तो नाटक शब्द को मानो पंख लग जाते हैं। ज्यादा विस्तार, व्यापकता और गहराई इस एकवचन में आ जाती है। तो दुनिया में नाटक था। दुनिया का खेला था। और इस खेला के बीच नाटक भी खेले जाते थे। कोई हजार बरस पुराने ये किस्से हैं पर लगेगा कि ये तो आज की ही बात है।

नाटक खेले जाते थे। कुछ उन्हें पसंद करते थे। और कुछ नापसंद भी। शुरू में किसी बात को नापसंद करने वाले थोड़े किनारे बैठते रहे होंगे - तटस्थ। फिर वे बीच में बहने लगे होंगे। नाटकों में विघ्न डालने का, तरह-तरह की रुकावटें डालने का नाटक भी शुरू हो गया था तब।

आज तो बहुत से ऐसे दल हैं, समूह हैं, जिनकी भावनाओं को चाहे जब, चाहे जहाँ, चाहे जिस बात से आघात पहुँच जाता है। तब वे अपनी आहत हो चुकी भावनाओं को शांत करने का एक ही तरीका जानते हैं, अपनाते हैं- अशांति फैलाना। नाटक हो, किताब हो, संगीत हो, कला प्रदर्शनी हो - सब पर एक ही तरीका लागू होता है।

तब की, कुछ हजार बरस पहले की परिस्थितियाँ क्या थीं, क्या पता हमको। पर नाटक शुरू होने से पहले मंगलाचरण, विघ्न हरण की अनेक गतिविधियाँ सामने आने लगी थीं।

नाटक कैसे करें- यानी नाट्यशास्त्र की बारीकियाँ तो मोटे-मोटे ग्रंथों में लिखी ही गई थीं। पर विघ्न न आए, उपद्रव न हो जाए- इसका भी पूरा शास्त्र रचा जाने लगा था, उस समय।

और जैसा कि उस समय का चलन था यह सारा काम काला चश्मा पहने, (कल टी.वी.पर सबने खूब देखा है) हाथ में बंदूक ताने कठोर चेहरे वाले, कहीं शून्य में ताकती संदेह भरी आँखों के बदले, ब्लैक कमांडो के बदले सरल सौम्य, रम्य सूत्राधार के हाथों में सौंपा जाता था।

सूत्राधार नेपथ्य से रंगभूिम में, रंगमंच पर प्रवेश करता। उसकी इसी क्रिया का नाम था- रंगावतरण। उसके साथ एक तरफ पूर्ण कलश यानी जल से भरा कलश लिये एक सहायक होता तो दूसरी तरफ एक सहायक ध्वजा लिये आता। अब सूत्राधार कितने पग आगे बढ़ेगा, कितने पग दाएँ, कितने बाएँ- इस सबका पूरा हिसाब, पक्का गणित आ सकने वाले विघ्नों के प्रकारों को मानो किसी अदृश्य तराजू पर तोल कर लगा लिया जाता था।

यह सब काम गुस्से से, कठोर मुद्रा बनाकर नहीं, बहुत ही ठुमक-ठुमक कर, अभिनय, संगीत, प्रकाश की मदद से खूब आनंद के साथ किया जाता था।

कहने को अभी नाटक शुरू ही नहीं हुआ है पर विघ्न विनाशक नाटक तो जारी ही है। कलश के जल से सूत्राधार पूरी रंगशाला और मंच को शुद्ध करते हैं, आचमन करते हैं। फिर बारी आती है ध्वज की।

आज बहुत कम लोगों को यह याद रह पाया हो कि इस ध्वज का एक विशेष नाम होता था। काम तो विशेष था ही। इसे जर्जर ध्वज कहते थे। आज की हिंदी में इसका मतलब कुछ ऐसा लगेगा- फटा हुआ झंडा। पर भला फटा हुआ, जर्जर ध्वज फहराकर कोई क्यों नाटक करेगा। यह तो एकदम भव्य झंडा होता था। ठाठ से लहराता हुआ। इसे उठा कर पूरे रंगमंच पर इस कोने से उस कोने तक घूमा कर सूत्राधार आ सकने वाले सभी विघ्नों को जर्जर कर देता था।

तो आज की इस बैठक के लिये भी हम एक जर्जर ध्वज फहरा ही दें न! अध्यक्ष महोदय की अनुमति से।

इतना सब हो जाने के बाद भी नाटक शुरू नहीं हो पाता था। यह भी कहा जा सकता है कि उन दिनों सभी दर्शकों में अपार धीरज एक गुण की तरह व्याप्त रहता था। आप सबमें भी यह गुण है ही।

अब बारी आती एक विशेष नृत्य द्वारा भगवान शिव और विष्णु की पूजा अर्चना की। सूत्राधार बहुत ही ऊँचे दर्जे के अभिनय के साथ यह सारा काम करता। बाएँ पैर से विष्णुजी और दाएँ से शिव भगवान को स्मरण किया जाता। बड़ा ही कठिन काम होता यह। पहला पद वाम स्त्री का माना गया है और दूसरा पद दक्षिण पुरुष का। आज की भाषा में कहें तो जेंडर सेंसेटिव वाला कर्तव्य भी पूरा हो गया। उस काम में बात यहीं आकर समाप्त नहीं हो जाती थी। कहीं-कहीं क्षेत्र विशेष में एक तीसरा पद नपुंसक का भी रखा जाता था। लेकिन पैर तो दो ही हैं न। तीसरा कहाँ से लाएँगे? सूत्राधार तब दाहिने पैर को अपनी नाभि तक बहुत ही शानदार अभिनय के साथ उठाता। पार्श्व में बजता विशेष संगीत पूरा साथ देता। यह बहुत कठिन क्रिया होती थी। कभी अकेले में करके तो देखें!

नाटक अभी भी शुरू नहीं हुआ है।

फिर सूत्राधार जर्जर ध्वज की पूजा चार तरह के विशेष फूलों से करता। तब बारी आती नाटक में इस्तेमाल होने जा रहे तरह-तरह के वाद्य यंत्रों की पूजा की। ऐसा न हो कि वे प्रस्तुति के दौरान बेसुरे हो जाएँ। उनके तार टूट जाएँ या कि मृदंग उतर जाएँ।

अब आई बारी नांदी पाठ की। उस समय भी ये राजा लोग हमारे आज के नेताओं की तरह मुख्यमंत्रियों की तरह खूब लड़ा करते होंगे। तभी तो हर नाटक के प्रारंभ में नांदी पाठ में बचे सब देवताओं को प्रणाम कर लेने के बाद सूत्राधार को अपने राजा की विजय की कामना भी करनी पड़ती थी। पता नहीं सभामंडप में राजा की ओर से कोई सेंसर अधिकारी बैठा रहता था यह सब देखने और कोई चूक हो जाने पर ऊपर तक चुगली करने।

आप सबके धीरज के लिये धन्यवाद। क्षमा भी माँग लें कि अभी आज का भाषण शुरू ही नहीं हो पाया है, पर नाटक तो चालू हो जाए पहले।

पर सब अब तक थक गए हों तो थोड़ा सुस्ता लें। ब्रम्हा भी थक कर सुस्ताने लगे थे। इतनी बड़ी सृष्टि का निर्माण करने के बाद, दुनिया का खेला रचने के बाद वे भी थक गए थे। उन्होंने भी सांस ली थी, थोड़ा आराम किया था।

सब धर्मों में दुनिया का खेला शुरु करने के बाद इसी तरह के किस्से मिलते हैं। ईश्वर ने सृष्टि की रचना छह दिनों में पूरी कर डाली थी। तो फिर जो सातवाँ दिन आया, उस दिन छुट्टी रखी, जी भर कर आराम किया था। इसी में से बाद में रविवार की छुट्टी निकली। तुमने आराम किया प्रभु तो हम मुंशी लोग, हम अफसर लोग भी तो छह दिन काम करके थक गए हैं तो अब सातवें दिन पूरा आराम करना है।

कुछ समाजों में, धर्मों में रविवार के बदले शनिवार है छुट्टी तो कहीं शुक्रवार भी। पर है जरूर।

मुझे न तो संस्कृत नाटकों की इतनी बारीक परम्परा का कोई अंदाज था और न दुनिया के इस खेला का। शायद तब मैं आठवीं में पढ़ता था। सन 1959-60 की बात होगी। दिल्ली में कोई अन्तरराष्ट्रीय फिल्म समारोह हो रहा था। उसमें एक हिस्सा बड़ी फिल्मों का था तो एक हिस्सा बहुत ही छोटी फिल्मों का। इतनी छोटी की हम सोच भी न पाएँ। केवल तीन मिनट की फिल्मों का प्रदर्शन। ऐसी अनेक फिल्मों में से जिसे पहला पुरस्कार मिला था, उसे देखने का संयोग मेरे हाथ लग गया था। न जाने कैसे।

वहाँ रंगशाला में मैंने झांक लिया है, नाटक अभी भी शुरू नहीं हो पाया है। इसलिये इस तीन मिनट की फिल्म को भी झटपट देख लें हम सब। यह फिल्म कैनिडा के किसी महानिदेशक ने बनाई थी। तब बच्चा ही तो था। अंग्रेजी के नाम याद नहीं रख पाया था।

फिल्म शुरू होती है कैनेडा की एक झील के दृश्य से। सुंदर नीला पानी। तब वैसे भी हमारे जलस्रोत इतनी बुरी तरह से प्रदूषित नहीं थे। झील में एक नाव तैर रही है। नाव में एक पिता-पुत्र बैठे हैं। पिता चप्पू खे रहे हैं, 6-8 बरस का बेटा उन्हें निहार रहा है। इस उमर में प्रायः सभी बेटों को अपने पिता बड़े अच्छे लगते हैं।

कैमरा ऊपर उठता है। अब पूरी झील दिखने लगती है। कैमरा और ऊपर जाता है। झील के किनारे बने सुंदर घर आते हैं परदे पर। फिर और ऊपर। पूरा मोहल्ला, फिर और ऊपर उठता जाता है कैमरा। पूरा राज्य, पड़ोसी देश अमेरिका, फिर दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका, यूरोप, एशिया, लो पूरी गोल सुंदर हमारी धरती। कैमरा अभी भी उठता जा रहा है। फिल्म शुरू हुए अभी एक मिनिट भी नहीं हो पाया है। बगल से चाँद झाँक गया, अब अन्य ग्रह, शनिचर आदि, जिनसे आजकल लोग बहुत डरने लगे हैं और कुछ टी.वी. चैनल शनि महाराज की शांति करवाने में विशेष योग्यता भी रखते हैं।

खैर हमारा सौर मंडल, हमारे सौर परिवार के सभी सदस्य अगल-बगल से निकलते जाते हैं। अब हमारी आँखों के सामने हमारी आकाश गंगा आने लगी है- अनगिनत तारे, सूरज से छोटे और सूरज से बड़े भी। फिर और आकाश गंगाएं। डेढ़ मिनट भी अभी नहीं हो पाता है कि पूरा परदा असंख्य झिलिमल सितारों, तारों, बिंदुओं से ठसाठस भर जाता है। कहीं कोई जरा-सी भी जगह नहीं बचती।

विराट दर्शन!

अब कैमरा बड़ी ही तेजी से वापस आने लगता है नीचे। उसी रास्ते। सब दृश्यों को वापसी के क्रम में दिखाते हुए वापस झील पर। झील में अब नाव पर। नाव में चप्पू खेते पिता के हाथ पर। हाथ पर बैठा है एक मच्छर। अब मच्छर के डंक से कैमरा खून में जाता है। खून की नस में दौड़ रहे हैं लाल कण, सफेद कण। अब वह विराट दर्शन की तरह सूक्ष्म दर्शन कराता जाता है। जितना वह ऊपर गया था, उतना ही वह शरीर में भीतर उतरते जाता है।

आज सन 2013 में इस विषय के जानकार बताते हैं कि हममें से हरेक के शरीर में कोई 90 लाख करोड़ जीवाणु, सूक्ष्म जीव रहते हैं। यही अपने आप में कितना बड़ा खेला है। हम एक विचार पर बनी एक ही संस्था में 20-25 लोग, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, कवि, लेखक एक साथ नहीं रह पाते। एक दूसरे से लड़ते-झगड़ते रहते हैं पूरा जीवन। और ये हैं 90 लाख करोड़ हमारे साथी जो पूरा तालमेल बिठा कर हमारे इस शरीर को टिकाये रहते हैं। तो दुनिया का एक बहुत बड़ा खेला तो हमारे अपने इसी चोले में खेला जा रहा है। जो लोग हजारों बरसों से आत्मा की खोज कर रहे हैं क्या पता यही आत्मा हो?

तो न यह सूक्ष्म जगत हमें पकड़ में आता है न वह विराट जगत। इन दोनों का गणित हमारे किसी भी गणित से परे है। दूरियाँ प्रकाश वर्ष में नापी जाती हैं और फिर भी हम उन्हें माप नहीं पाते। दस-पाँच बरस में एकाध बार अपनी धरती से सिर्फ 80-90 किलोमीटर ऊपर जाकर हम अपने विज्ञान-ज्ञान की शान बघारें- यह करीब-करीब मूरखपना ही है।

इसी मूरखपने में से निकली यह समझदारी इस तीन मिनट की फिल्म देख कर। इसे देख दूरियाँ क्या हैं यह भी हम भूल जाएँगे और नजदीकियाँ क्या हैं, विराट क्या है, सूक्ष्म क्या है, इस सबकी परिभाषा भी बदल जाती है। किसी मौके पर घोंघे की गति हवाई जहाज से भी तेज लग सकती है।

एक जीवाणु है जो हमारी आँख की पुतली में रहता है। उसका काम पुतली की सफाई करते रहना है। दिन भर हम अपनी आँख में कितना कचरा, धुआँ, धूल झोंकते हैं, कई बार दूसरों की आँखों में भी- यह सारी सफाई यह जीवाणु करता है। इस पुतली की छोटी-सी दुनिया का खेला बहुत जोरदार है। जब हम जागते हैं तो यह जीवाणु सोता रहता है। गहरी नींद। इसे तेज रोशनी, शोर-शराबा कुछ तंग नहीं करता। आराम से सोता है-पूरी रात जो नौकरी करनी है इसे। हमारी पुतली है ही कितनी बड़ी। एक सेंटीमीटर से भी कम। हमारे सोते ही यह जाग जाता है, अपना काम करने।

कई हिंदी अखबारों में, जनसत्ता में नहीं, ग्रामीण खबरों में एक शब्द आता है: फलां थानांतरगत गाँव। ये पुतली का थानेदार अपने अंतर्गत आने वाले एक सेंटीमीटर के गाँव का पूरा चक्कर बड़ी मुस्तैदी से लगाता है-7/8 घंटे में एक सेंटीमीटर की भागदौड़ पूरी कर लेता है। उसे भगवान की तरह, हमारी तरह रविवार भी नहीं मिलता। जन्म से मृत्यु तक वह काम ही करता रहता है। वह भी रविवार की छुट्टी माँगने लगे तो हम सबकी आँखें, पूरी दुनिया की आँखें गईं समझो।

आपकी अनुमति हो तो हम एक बार फिर रंगशाला में झाँक लें। लीजिए विस्तृत नंदी पाठ सम्पन्न हो गया है और अब हमारे सूत्राधार कुछ ऐसी बातों की सूचना विदूषक के साथ दर्शकों को दे रहे हैं जो उस जमाने की चलती बातें, ब्रेकिंग न्यूज होंगी। ठीक सुनाई तो नहीं दे रहा पर वे बालू की भीत और पवन के खंबे की बात कर रहे हैं शायद। सूत्राधार का ध्यान एकदम ताजी घटनाओं पर चला गया है। रेत की दीवार में से बीच की विभक्ति ‘की’ हटा दें। बचा क्या रेत-दीवार, रेत और दीवार। पवन का खंबा में से क्या जोड़ें, क्या हटाएँ- उसे अभी यहीं छोड़ दें। बस पवन से ही काम चला लें अभी।

ऐसे प्रसंगों से सूत्राधार नाटक की कहानी का बीज बो देते हैं आने वाले कथानक की तरफ दर्शकों को एक संकेत देकर। फिर धीरे-धीरे इसी बीज के सहारे कथानक का पूरा वृक्ष खड़ा होने वाला है।

अब तक अनेक देवताओं की स्तुति, वंदना हो चुकी है। अब तो बारी है उस विशेष देवी या देवता की जिसको केंद्र में रख कर आज का नाटक खेला जाना है। तो क्या पता थोड़ी ही देर में हमारे ये सूत्राधार दुर्गा की वंदना करने जा रहे हों। बाद में जानकारी लगेगी कि रेत और दीवार का उनसे कुछ न कुछ संबंध भी निकल ही आया है।

आजकल सबके पास एक रिमोट कंट्रोल रहता ही है। आप भी चाहें तो उसका बटन दबाकर यह भाषण यहीं रोक सकते हैं, वह भाषण जो अभी शुरू ही नहीं हो पाया है। बटन संकोच में नहीं दबाते आप तो अब जरा जल्दी-जल्दी आगे बढ़ें।

सूत्राधार ने बीज बो ही दिया है तो आगे बढ़ें, इतनी बड़ी दुनिया का खेला बनाते समय ब्रह्मा को भी खूब सारी रेत की जरुरत पड़ी होगी। वे रेत कहाँ से लाए होंगे। यह तो आज तक पता नहीं चल पाया है। पर जब खेला बन कर तैयार हो गया तो कुछ रेत बच गई। अब उसे कहाँ रख दिया जाए? ऐसा लगता है ब्रह्मा उसे थार के रेगिस्तान में छोड़ आए होंगे। कितनी मात्रा होगी उस रेत की? मत पूछिए। श्री ओम थानवीजी वहीं से हैं। ठेठ रेगिस्तान, थार के बीच बसे फलौदी शहर से। कोई 30 बरस पहले उन्होंने हमें कभी उंगली पकड़ कर और कभी अपनी मोटर साइकल पर पीछे बिठा कर उस सुनहरी भव्य रेत के दर्शन कराए थे।

उस बची रेत से नोएडा, ग्रेटर नोएडा तो छोड़िए, फिर से एक बार नई सृष्टि का निर्माण हो सकता है। पर इतनी दूरी से उसे लाएँ कैसे, किस भाव पड़ेगी? खर्चा कौन भुगतेगा? इतना खर्चा कर कौन- सा माफिया अरबपति बन पाएगा? तब आपके पैर के नीचे से ही रेत क्यों न निकाल ली जाए। सूत्राधार इस आशंका से घबरा जाता है। वह इसे रोकने की कोशिश करता है। नए-नए विघ्न आते हैं उसके इस सत्कार्य में। वह एक बार फिर जर्जर ध्वज की स्तुति प्रारम्भ कर देता है।

मुझे ठीक से याद नहीं कि नाट्य शास्त्र नामक यह ग्रंथ कब लिखा गया होगा। पर विद्वान बताते हैं कि तीसरी शताब्दी में, यानी आज से कोई सत्रह सौ बरस पहले इस ग्रंथ को नए सिरे से सजाया संवारा गया था।

संपादित किया गया था।

कुछ अनावश्यक प्रसंग हटाए गए थे, कुछ उस जमाने के हिसाब से जरूरी प्रसंग जोड़े भी गए थे। इसी ग्रंथ का एक पूरा अध्याय नाटक के प्रारम्भ की तैयारियों का विशद विवरण करता है। हमारे सूत्राधार ने जो कुछ भी अभी तक किया है वह इसी ग्रंथ के बारहवें अध्याय पर आधारित है।

यहाँ साहित्य, प्रकाशन जगत से जुड़े कई लोग बैठे हैं। उन्हें जान कर अच्छा लगेगा कि इसी विषय पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने श्री पृथ्वीनाथ द्विवेदीजी के साथ ‘नाट्य शास्त्र की भारतीय परंपरा और दश रूपक’ नाम की एक सुंदर पुस्तक लिखी थी। इसे आज से ठीक पचास बरस पहले सन 1963 में राजकमल ने छापा था। दाम था दस रुपया।

वापस दुनिया के खेला पर। पचास बरस भूल जाएँ। ये इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार आदि जो गिनती हम सब जानते हैं उनसे परे है। अरब-खरब ही नहीं, गिनती बताने वाले पद्म, शंख जैसे नए शब्द इसमें गली-गली घूमते हैं। इन शब्दों को तो हमने किसी और संदर्भ में सुना भी है पर ऐसे भी शब्द हैं जिन्हें प्रायः हम सुन नहीं पाते-अन्त्य- यह एक संख्या है और इसमें 1 के आगे 14 जीरो लगते हैं। 100,00,00,00,000,000 - इकाई, दहाई वाली शैली में शायद 100 खरब। इस गणित को आसानी से समझने के लिये बाद में दो और शब्द आए- अनादि और अनंत। न शुरू का कुछ पता न अंत का कोई ठीक हिसाब।

नाट्य शास्त्र हमारे हाथ आया कोई 17 सौ बरस पहले और दुनिया का खेला किस तराजू पर तुलेगा, उसके बाँट कितने वजन के होंगे वह सब कल्पना से परे हैं।

खगोल शास्त्र के मामले में जो विस्तार है, जो फैलाव है वह तो स्टीफन हॉकिंग ही जाने पर जिसे हम कूप-मंडूक कह कर उसका मजाक उड़ाते हैं, हमारे कुएँ के उस मेंढक को आकाश जितना दिखता है, हमें भी उससे ज्यादा इसका कुछ पता नहीं। हम उन्हीं दो शब्दों को अनादि-अनंत को दोहरा कर अपनी विद्वत्ता झाड़ देते हैं।

अनगिनत अभिनेता, नायक, एक से बढ़ कर एक किस्से कहानियाँ, वो भी हर रोज जुड़ने वाली और पूरी धरती पर फैला शानदार रंगमंच। इस खेला में दर्शक, अभिनेता का अंतर भी मिट जाता है। कभी हम अभिनय करते हैं तो कभी हम अभिनय देखते रह जाते हैं। फिर एक ही आदमी के कई रूप हो जाते हैं यहाँ- बहुरुपिया।

निदेशक कौन है? विज्ञान और धर्म में अभी तक ठनी है। पिछले दिनों ईश्वर का कण भी यूरोप की आधुनिकतम प्रयोगशाला में खोजने का दावा किया गया है। नए पुराने कवि जरूर इसका उत्तर दे देते हैं- कभी निदेशक राम हैं तो कभी गोपाल हैं तो कभी रामगोपाल जी! ये निदेशक इतने भारी भरकम कि दुनिया के खेला का पूरा ठेका बस इन्हीं की कंपनी के पास। सबको बस ये ही नचाते हैंः सब ही नचावत रामगोपाल।

इस विशाल खेला में हम सब सज-धज कर एक से एक बहुरुपिये बन कर उतरते हैं, अपनी भूमिका खोजते हैं। कभी अच्छी, कभी खराब। कुछ का खेला ठीक से पूरा हो जाता है। कुछ का अधूरा छूट जाता है। कुछ का जीवन की कहानी के किसी खास मोड़ पर आ कर अटक जाता है, भटक जाता है।

तो जीवन के इस खेले को अच्छे से खेलते जाने के लिये ठीक आँख चाहिए। ठीक पांख, पंख चाहिए। इस आँख-पांख का संतुलन साध कर रखना पड़ता है। नहीं तो ऊँची से ऊँची, बड़ी से बड़ी जगह पर पहुँच कर भी हम ऐसे गिर पड़ते हैं कि फिर उठाए नहीं उठ पाते। भौतिक रूप से गिरते ही हैं, हम अपनों की नजरों में भी गिर जाते हैं। यह गिरावट हमारे खेला में कैसी फांक लाती है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। हमारे अभिनय में जरा-सी भी कमी, कसर रह जाए तो हमारे परिवारों को, हमारी संस्थाओं को, देशों को कितना भोगना पड़ता है यह सब जानते हैं, बूझते हैं। फिर भी जानते-बूझते इस अभिनय की खोट से कई बार विरत नहीं हो पाते हम।

अपने इन दोनों निदेशकों को ही देख लें जरा। इन दोनों ने हमें तो नचाया ही। पर जब वे खुद इस खेला में अवतार लेकर आए, उनका रंगावतरण हुआ तो वे भी नच गए थे। इन दोनों के जीवन में भी कैसी-कैसी फांक पड़ी थी- खास कर अंत में।

रामजी के साथ मर्यादा और पुरुषों में उत्तम जैसे विशेषण, गुण जुड़े ही हुए थे। जब तक आँख और पांख सही रहे तो रावण रथी, बिरथ रघुबीरा भी चल गया। ऐसा बेमेल युद्ध भी राम जीत गए। पर, आँख-पाँख का संतुलन बिगड़ा नहीं कि उन्हीं के लाडले बेटों ने उनका घोड़ा, अश्वमेध का घोड़ा रोक लिया था। पूरा जीवन लोगों से, एक से एक समर्पित भक्तों से घिरे रहने वाले राम का अंत अकेलेपन में हुआ। सन्नाटे में हुआ। सरयू नदी में जल समाधि से हुआ। शायद ऐसी ही अनंत घटनाओं को देख दुनिया का खेला की तुक ‘मैं हूँ अकेला’ से जोड़ते रहे हैं कवि लोग।

श्री कृष्ण की लीला तो लीला ही है। लीला अपरंपार। पर देखें कि वे अपनी छोटी-सी उंगली से इंद्र का क्रोध निपटा देते हैं, गोवर्धन उठा कर किसी और के बसाए गए गाँव को बाढ़ से बचा लेते हैं। पर उनकी खुद बसायी भव्य नगरी द्वारिका समुद्र में डूब जाती है। उसे वे बचा ही नहीं पाते।

अपिचः। संस्कृत नाटकों में उदाहरणों के बाद और उदाहरण देते समय अपिचः कहा जाता है। तो वह भी सुन लें: जिसने महाभारत के युद्ध में दोनों तरफ से तरह-तरह के शक्ति-मंत्र-पुष्ट तीरों की वर्षा सह ली हो, वह जरा नाम के- नाम पर ध्यान दें- जरा नामक बहेलिये के मामूली से तीर से अपने प्राण गवाँ देता है। दुनिया का खेला, कृष्णजी भी अकेला।

तो इस शानदार खेला में किसी भी चीज की कमी नहीं- इसमें से चाहे जितने किस्से निकाल लो, चाहे जितने किस्से इसमें जोड़ दो- यह उपनिषद के शब्दों में हमेशा पूर्ण ही बना रहता है।

नाटक में नौ रस हैं, दुनिया के खेला में भी नौ रस तो हैं ही भाई पर इनमें नाटकों के अतिरक्ति एक रस और जुड़ गया है। आप सब भी हैरान होंगे कि नौ के दस कैसे हो गए। इस रस का नाम है - गन्ना रस! गन्ने का रस भी मिल जाता है। कैसे? आपने गन्ने का रस ठेले पर सामने खड़े होकर पिया ही होगा। पहले साबुत गन्ना डालते हैं। फिर एक बार रस निकल आया तो उसी गन्ने को दो बार मोड़ कर फिर रस निकाला जाता है। फिर तीसरी बार दो के बदले तीन-चार बार मोड़ कर अदरक, नींबू लगा कर फिर निचोड़ा जाता है। जब तक इन सारे छिलकों का रस न निकल जाए- दुकान वाला रुकता ही नहीं। इस खेले की दुकान वाला भी हम सब का रस कभी-कभी इसी शैली में निकालता है। इतना समय तो आपका बर्बाद नहीं करना है। पर दो-चार रसों में गन्ना रस देख ही लें हम।

दुख से शुरु करें। करुण रस है नाटक में। और इस खेला में पेश है एक नमूना।

कोई साठ बरस पहले की बात है। एक बाँसुरी वादक थे। श्रेष्ठ पहले दर्जे के कलाकार। शायद उन दिनों के रेडियो पर भी बाँसुरी बजाते थे। प्लेग फैली। परिवार में इनको मिला कर सात सदस्य थे। पत्नी मरी रोग से। बहुत ही प्रेम करते थे। अर्थी उठा श्मशान। लौटते हुए सारे रास्ते रोते रहे। संभाला मुश्किल से। घर आए तो पिता मरे मिले। सूरज ढल गया था। रात भर शरीर घर में रहा। ये सामने बैठे रोते रहे। सुबह उनका संस्कार किया। लौटे तो माँ जा चुकी थीं। एक-दो-तीन। अब आँसू रुक गए थे। वे स्तब्ध मौन हो गए। अगले तीन दिनों में तीन बचे सदस्य और गए। अंतिम सदस्य को अग्नि देने के बाद इनका न सिर्फ मौन टूटा, ये तो जोर-जोर से हँसने लगे थे: ”अरे, बंसी वाले तू मेरी परीक्षा लेना चाहता है। ले ले। मैं भी सब कुछ छोड़ वृंदावन आता हूँ। तेरी परीक्षा लेने। पूरी जिंदगी फिर वे वृंदावन की गलियों में घूमते हर छोटे-बड़े मंदिर के सामने बाँसुरी बजाते जाते।

हास्य रस में भी गन्ने का रस मिलेगा। लीजिए एकदम ताजी चीज। नेलसन मंडेला का किस्सा है अभी कुछ दिन पुराना। आजादी की अद्भुत लड़ाई लड़ी। हममें से कुछ की आधी उमर बराबर वर्ष जेल में काटे। देश को आजादी दिलाई। फिर राष्ट्रपति भी बने। पूरी दुनिया में 95 के पूरे होने पर उनका जन्मदिन मनाया गया था और इसी सबके बीच उनके शहर की नगरपालिका ने उनके ऊपर बकाया बिजली-पानी का बिल भेज दिया है- दंड समेत कुछ लाख रुपए का।

कुछ हजार बरस पीछे लौटें। ‘सौ साल जिओ’ जीवेम शरदः शतम का आशीर्वाद सबने सुना है। मृच्छकटिकम नाटक में नायक-नायिका का नाम, उनके किस्से कई लोग जानते ही हैं। नाटक में एक चोर है शर्विलक।

नायक के घर में चोरी के लिये सेंध मार कर घुसा है। विदूषक को सोता देख आशीर्वाद देता हैः मैत्रोय, स्वपिहि वर्षशतम। भैया इसी तरह सौ बरस सोते रहना।

वीभत्स रस के भयानक उदाहरण तो इस खेले में भरे पड़े हैं। कभी का भी, कहीं का भी अखबार उठा ले हँसते खेलते, खाते-पीते विज्ञापनों के बीच पूरा अखबार इसी से भरा मिलता है।

पर वीभत्स रस का किस्सा सुनना ही हो तो जनरल नैकेड बट का सुन लें। अफ्रीका का पश्चिमी-दक्षिणी छोर- लायबेरिया नाम का देश। वर्षों तक गृह युद्ध चला है यहाँ। इसमें एक पक्ष का सेनापति था जोशुआ। इसने अपने विरोधियों को मार कर उनके जिगर को काट कर नाश्ता भी किया है। पाँच-सात बरस के बच्चों तक की सेना बना डाली। इन बच्चों को युद्ध में घसीटने के लिये वह सबसे पहले बच्चों से उनके माता-पिता की ही हत्या करवा लेता था। यह विचित्र सेनापति दूसरे पक्ष पर हमला करते समय बस पैर में सैनिक वाले भारी-भरकम जूते पहनता, हाथ में आग उगलती बंदूक, अंग पर कोई कपड़ा नहीं। इसीलिये संयुक्त राष्ट्र संघ आदि की दुनिया में इसका दूसरा नाम पड़ गया था जनरल नैकेट बट, नंगधड़ंग सेनापति। जोशुआ ने अपने ही 20,000 लोगों को मारा था, वहीं के लोग, शायद कबीला, जाति अलग थी और शायद बोली भी। सभी देशों में नवनिर्माण की यही परिभाषा है आजकल! अब इस वीभत्स रस में एकदम से अद्भुत रस जुड़ता है।

खून से सने शिखर पर खड़े जोशुआ को बंदूकों की कानफोड़ू आवाजों के बीच न जाने कहाँ से अंतरात्मा की आवाज सुनाई पड़ जाती है। वह बंदूक फेंक देता है। चल पड़ता है तीर्थ यात्रा पर। तीर्थ कौन सा? वे सब मुहल्ले, घर जिनमें घुस-घुस कर उसने लोगों को मारा था। उनका जिगर परिवार के लोगों के सामने ही काट कर खाया था। सलाहकारों ने समझाया, ऐसा मत कर भूल कर भी। लोग छलनी बना देंगे तुम्हारी। इन रसों में अब वीर रस जुड़ता है एक नए रूप में। जोशुआ किसी की नहीं सुनता बस अंतरआत्मा की सुनता है। गजब की हिम्मत। अब वह एकदम निहत्थे, सचमुच अपनी आत्मा के बल पर, उनके बीच जाकर हाथ जोड़ कर अपने पाप का प्रायश्चित करता है। उस पर कहीं भी हमला नहीं होता। वह लोगों के पैर छूता, खुद रोता, दूसरे रोते।

हमारे ही देश के एक युवा फोटोग्राफर भी कोई कम हिम्मत नहीं दिखाते। उनका नाम है - रॉयन लोबो। वे भी इसके पीछे-पीछे कैमरा लेकर फिल्म बनाते हैं। ये है दुनिया का विचित्र खेला।

क्रोध में किसी पर चप्पल जूते फेंकना अब कोई नई बात नहीं बची है। जूता फेंकने वाला भी क्रोधी, जिस पर फेंका वह भी आग बबूला। पर एक खेला 1914 में दक्षिण अफ्रीका में खेला गया। जनरल स्मट्स उस समय पूरी दुनिया में फैले ब्रितानी साम्राज्य के सबसे बहादुर, सबसे कुशल, सबसे योग्य सबसे सख्त और सबसे क्रूर प्रशासक माने जाते थे। खुद गाँधीजी जैसे विनम्र व्यक्ति के शब्दों में वे सबसे ‘धूर्त’ लोगों में गिने जाते थे। दक्षिण अफ्रीका में प्रारम्भ हुए सत्याग्रह में इन दोनों के कड़वे प्रसंग कई हैं। जनरल स्मट्स ने इनको जेल में डाला था। शायद ये गाँधीजी को मार डालना भी चाहते थे। न जाने कब गाँधीजी की तेज आँखों ने उनके पैर का नाप लिया और उन्हें एक सैण्डल की जोड़ी अपने हाथ से बना कर भेंट की। जनरल स्मट्स ने बाद में कभी लिखा था कि उनके पैर इस योग्य नहीं कि वे इतनी पवित्र सैण्डल पहन सकें। क्रोध रस शांत रस में बदला और फिर ग्लानि तक में।

इस खेला में अक्सर हम सब को लगता है कि हम जो काम करना चाहते थे, वो तो हमें करने ही नहीं दिया गया। तो ये अच्छा खासा जमाना जालिम जमाने में बदल जाता है हमारे लिये।

तालियाँ कब पिटती हैं जब आपके सामने नाम, गुमनाम नहीं, नाम और नम्बर लिखी बनियान पहने ग्यारह लोग रोकने को खड़े हों। तब आप गोल कर दिखाएँ। तालियाँ तभी बजती हैं। विघ्न इस खेला में रोज आएँगे।

गुमनाम भी, नंबर और नाम वाली बनियानें पहने भी। ऊपर कहीं दुनिया के खेला की तुकबंदी अकेला से की गई है। पर निवेदन है कि यह काम बस कवि पर ही छोड़ें। हम और आप इस खेला को ठीक से खेलना चाहते हैं तो अकेला को अकेला ही छोड़ दें। दुकेला बनें। दूसरों का साथ लें, दूसरों का साथ दें। तिकेला, चौकेला से भी बढ़कर सौकेला जैसे नए शब्द ही नहीं, नए संबंध भी बनाएँ। इस खेला को, भले ही वह आपको सौतेला बनाना चाहे, आप सौतेला न बनाएँ। आगे बढ़ें, इस खेला को अपने गले मिला लें।

रंगशाला चलें एक बार फिर। नाटक शुरु हो गया है। भोलामन सूत्राधार ने बीज रोपित कर दर्शकों को नाटक का नाम भी लगभग बता दिया है। बालू-भीत-पवन। रेत-दीवार-पवन। और लो विघ्न शमन के इतने प्रयासों के बाद भी रंगशाला के सामने विघ्न आने लगे हैं। अच्छा हो हम सब भी वहीं चलें और सूत्राधार की कुछ मदद करें।

 

 

 

 

 

पुस्तकः महासागर से मिलने की शिक्षा
(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

सुनहरे अतीत से सुनहरे भविष्य तक

2

जड़ें

3

राज, समाज और पानी : एक

राज, समाज और पानी : दो

राज, समाज और पानी : तीन

राज, समाज और पानी : चार

राज, समाज और पानी : पाँच

राज, समाज और पानी : छः

4

नर्मदा घाटीः सचमुच कुछ घटिया विचार

5

तैरने वाला समाज डूब रहा है

6

ठंडो पाणी मेरा पहाड़ मा, न जा स्वामी परदेसा

7

अकेले नहीं आते बाढ़ और अकाल

8

रावण सुनाए रामायण

9

साध्य, साधन और साधना

10

दुनिया का खेला

11

शिक्षा: कितना सर्जन, कितना विसर्जन

 

अनुपम मिश्र
नेमिचंद जैन स्मृति व्याख्यान नटरंग प्रतिष्ठान, सोलह अगस्त दो हजार तेरह

 

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