दुख की नदियाँ

उत्तराखण्ड की नदियों में जैसे-जैसे पानी कम हो रहा है, उनकी विनाशकारी क्षमता बढ़ती जा रही है। यह एक विरोधाभासी और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। नदी-घाटियों से सटकर सड़कें बनाए जाने और दूसरे निर्माणों से होने वाले कटान की मिट्टी आमतौर पर दोनों तरफ से नदियों में गिरती है, उन्हें उथला और सँकरा बनाती है। इसके नतीजे में जरा सी बरसात होते ही नदियाँ उफनने लगती हैं, दोनों तरफ के मलबे को काटने और आस-पास तबाही फैलाने लगती हैं। बरसात खत्म होते ही वे फिर इस कदर सिकुड़ जाती हैं कि उन पर बनाए गये बाँधों के लिए भी पानी कम पड़ जाता है। पहाड़ में नदियों और विकास के नाम पर होने वाले कामों का यह रिश्ता एक स्थाई दुष्चक्र बन चुका है। जब कभी अति-वृष्टि होती है (जो कि पर्यावरण के लगातार गर्म होने का ही एक लक्षण है) तो नदियों का पानी भीषण हथियार में बदल जाता है।

चौदह से सोलह जून 2013 तक उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, चमोली और पिथौरागढ़ जिलों में भारी वर्षा और बादल फटने से आयी प्रलयंकारी बाढ़ ऐसी ही घटना थी, जिसने उत्तराखण्ड को तहस-नहस करके रख दिया। वह त्रासदी अभूतपूर्व थी, लेकिन उसकी पृष्ठभूमि एक रात की बात नहीं थी, बल्कि लम्बे समय से, पहाड़ में विकास का बुलडोजर-मॉडल अपनाये जाने के समय से ही बन रही थी। पर्यावरणविद चंडीप्रसाद भट्ट ने तब कहा था कि ‘नदियाँ बदला लेती हैं। अगर हम उनके साथ दुर्व्यवहार करेंगे तो वे भी पलटकर वार करेंगी।’ उत्तराखण्ड अभी तक उस विनाश से उबर नहीं पाया है, लेकिन यह जरूर हुआ कि जून 2013 की त्रासदी के बाद शायद पहली बार पर्यावारणविदों के साथ-साथ जन साधारण से लेकर न्यायपालिका तक का ध्यान गम्भीर रूप से इस तरफ गया कि पहाड़ के आदिम-प्राचीन वनों-नदियों, उसकी पारिस्थितिकी और जैव-विविधता को किस कदर नष्ट किया जाता रहा है। अगस्त 2013 में उच्चतम न्यायालय ने वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के आधार पर उत्तराखण्ड की दो प्रमुख नदियों, भागीरथी और अलकनंदा पर निर्माणाधीन और प्रस्तावित 24 जल-विद्युत परियोजनाओं और भविष्य में निर्धारित किये जाने वाले उपक्रमों पर पूरी तरह रोक लगा दी और सरकार से बाँधों और उनसे हुए नुकसान की समग्र समीक्षा करने के लिए कहा।

एक आँकलन के मुताबिक, भागीरथी, यमुना, अलकनंदा, रामगंगा, शारदा, पिण्डर जैसी नदियों पर 1000 मेगावाट से 1 मेगावाट तक क्षमता वाली, अब तक निर्मित, निर्माणाधीन और प्रस्तावित जल-विद्युत परियोजनाओं की संख्या 450 है, जिनमें से 51 परियोजनाएँ गंगा या भागीरथी पर और 47 परियोजनाएँ यमुना नदी पर हैं और यह कि ये सभी बाँध अगर बन जाएँ तो उत्तराखण्ड में हर 20-25 किलोमीटर पर एक बाँध नजर आएगा। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि हमारी केन्द्र और राज्य सरकारों को नदियों से बिजली कमाने का लालच कितना अधिक है। उच्चतम न्यायालय के आदेश पर केन्द्र सरकार के वन और पर्यावरण मन्त्रालय ने विशेषज्ञों की एक समिति गठित की थी जिसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि, ‘‘समस्या यह है कि बाँध उच्च या अति-उच्च जैव विविधता-मूल्य वाले क्षेत्रों में स्थित हैं और उनमें से कई तो 2200-2500 मीटर तक की ऊँचाई पर हैं। ये ऊँचाइयाँ अर्ध- ग्लेशियर या ग्लेशियर क्षेत्र में पड़ती हैं। इन क्षेत्रों में नदियाँ भारी बारिश की स्थिति में पीछे की ओर खिसकते ग्लेशियरों द्वारा छोड़े गए हिम-मलबे से बड़ी मात्रा में अपने साथ गाद बहाकर लाती हैं।

ऐसी स्थिति में वे बाँधों के आस-पास कहर बरपा देती हैं जैसा कि जून 2013 के विनाश के दौरान विष्णुप्रयाग बैराज और उसके नीचे देखने को मिला।’’
लेकिन चमोली जिले में जोशीमठ के पास अलकनंदा पर जेपी एसोसिएट्स कम्पनी (टिहरी बाँध का अधिकांश निर्माण इसी कम्पनी ने किया है) द्वारा निर्मित 400 मेगावाट की विष्णुप्रयाग परियोजना बाढ़ के मलबे और गाद में दबने वाली अकेली परियोजना नहीं थी। कम से कम 10 परियोजनाएँ बुरी तरह इसकी चपेट में आयीं, जिनमें मनेरी भाली, तपोवन- विष्णुगाड सुरंग, सिंगोली-भटवारी, फाटा-त्यून और पिथौरागढ़ में धौलीगंगा परियोजनाएँ शामिल हैं। वैसे भी हिमालयी नदियों में गाद की समस्या बहुत गम्भीर है क्योंकि वह सीधे उनके धीरे-धीरे सिकुड़ते मूल स्रोतों से ही शुरू हो जाती है और वे अपेक्षाकृत कच्चे पत्थरों की घाटियों से भारी मात्रा में गाद लेते हुए बहती हैं। टिहरी में भागीरथी पर बना 1400 मेगावाट बिजली की क्षमता का, देश का सबसे बड़ा बाँध भी गाद की समस्या से जूझ रहा है, क्योंकि इतने विशाल जलाशय से गाद निकालना सम्भव नहीं है।

पहाड़ के लोक जीवन में यह मान्यता है कि एक नदी के तीन रास्ते होते हैं और वह कभी भी इनमें से कोई भी रास्ता अपना सकती है। यही वजह है की पहाड़ों में घर हमेशा नदी या गाद- गधेरों (छोटी, स्थानीय नदी) से कुछ दूर और ऊपर बसाये जाते थे ताकि वे पानी की चपेट में न आयें। लेकिन विकास के आधुनिक, सर्वग्रासी मॉडल, पर्यटन की सुख-सुविधाओं के दबाव के तहत और आदमी के लोभ के कारण नदियों के किनारे बस्तियाँ बसा दी गई। होटल,रेस्तरां, अतिथिगृह आदि खुल गए। ऐसा करते हुए नदी के पुराने जल-मार्ग का भी ध्यान नहीं रखा गया।

जून की प्रलय में केदारनाथ की तबाही का बड़ा कारण यह था कि मंद और मंथर मानी जाने वाली मन्दाकिनी ने भारी बारिश में अपना मूल रास्ता लाँघ कर पुराने जल-मार्ग को अपना लिया, लेकिन अब वहाँ रास्ता नहीं रह गया था, बल्कि लोगों ने होटल, रेस्तराँ वगैरह खोल लिए थे, लिहाजा गुस्से में उफनती नदी उन सबको ध्वस्त करती चली गई। केदारनाथ के बाद पानी के दूसरे बड़े शिकार उत्तरकाशी की भी यही कहानी थी। करीब तीन दशक पहले तक उत्तरकाशी के पड़ोस में जोशियाड़ा एक गाँव या छोटा सा कस्बा था, लेकिन इस दौरान वहाँ भागीरथी से बिलकुल सटी हुई बड़ी बस्ती बन गई जिसे साल-दर- साल पानी काटता रहा और जून में उसने कस्बे का एक बड़ा हिस्सा लील लिया। बाढ़ के समय ऐसी भी कई तस्वीरें छपी थी जिनमें दिखता था कि उत्तराखण्ड में कई जगह होटलों-रेस्तराओं को नदी के ऊपर इस तरह निर्मित किया गया है कि उनके खम्भे किनारे के उथले पानी में स्थित हैं। जाहिर है, ऐसा पर्यटकों के आगमन की सुविधा और उन्हें प्राकृतिक सौंदर्य के निकट रखने के लिए किया गया होगा, लेकिन गुस्सैल पानी ने इसका प्रतिशोध ले लिया।

उत्तराखण्ड में पानी के किनारे शहरों-कस्बों के फैलाव ने नदियों को सबसे अधिक प्रदूषित किया है। अकेले भागीरथी-गंगा के तटों पर बसे शहरों को लें तो भटवाड़ी उत्तरकाशी, जोशियाड़ा, चिन्याली सौड, डुंडा, पीपलकोटी, श्रीनगर आदि की घर-बाजार और उद्योगों की गन्दगी, कचरा और मल-मूत्र सब सीधे नदी में जाते हैं क्योंकि इन शहरों में गन्दे पानी को साफ करके नदी में भेजने की प्रणाली नहीं है। अलकनंदा के किनारे बसे कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग और देवप्रयाग का भी यही हाल है। इनमें से ज्यादातर जगहों का धार्मिक महत्त्व है और पंचप्रयाग के नाम से प्रसिद्ध तीर्थस्थल धौली, नंदाकिनी, पिण्डर, मंदाकिनी, अलकनंदा और भागीरथी के संगम पर स्थित हैं, इसलिए पर्वों-त्योहारों पर होने वाले सामूहिक स्नान, मुंडन, दाह-संस्कार में अधजले शव, दूध-दही-घी, फूलों और प्रतिमाओं का विसर्जन और प्लास्टिक की थैलियाँ आदि भी प्रदूषण के बड़े कारक बने हैं।

पहाड़ी नदियों के तेज बहाव के कारण यह प्रदूषण भले ही सतह पर ज्यादा नहीं दिखता हो, इंडिया वाटर पोर्टल द्वारा 19 हिमालयी नदियों के अध्ययन की एक रिपोर्ट बताती है कि प्रदूषण के कारण नदी जल क्षेत्रों में पानी की भौतिक-रासायनिक गुणवत्ता और जलीय जीवों पर बुरा असर हुआ है, जिससे पर्यावरण सन्तुलन बिगड़ा है। नदी-तटों से ज्यादातर अवैध तरीके से बड़े पैमाने पर पत्थर निकाले जाने के कारण नदियाँ थोड़ा बारिश का पानी भी रोक नहीं पाती और उफान पर आ जाती हैं। रामगंगा में हर साल गाँवों को डुबोने वाली बाढ़ आने का यही कारण है।

अकेले गंगोत्री ग्लेशियर पिछले 25 साल में 850 मीटर पीछे जा चुका है और आशंका है कि अगले 20-25 वर्षों में वह पूरी तरह लुप्त हो सकता है और तब भागीरथी अपने स्रोत पर एक बरसाती नदी से ज्यादा नहीं रह जाएगी।

उत्तराखण्ड की सभी प्रमुख नदियाँ धार्मिक स्थलों से होकर गुजरती हैं और प्राय: सभी जल-विद्युत परियोजनाओं की चपेट में हैं। चमोली जिले में पिण्डर शायद आखिरी नदी थी, जो काफी समय मनुष्य के हस्तक्षेप से बची रही, लेकिन उसपर भी 90 मीटर ऊँचा, 300 मेगावाट का बाँध प्रस्तावित किया गया हालाँकि स्थानीय जनता के भारी विरोध के बाद उसकी ऊँचाई को 55 मीटर करना पड़ा। अपने उद्गम गंगोत्री से करीब 100 किलोमीटर तक गंगा में भी विकास के विनाशकारी हाथ नहीं पहुँचे थे, लेकिन भारत सरकार ने वहाँ लोहारीनाग पाला में 600 मेगावाट का बाँध प्रस्तावित किया जिसके विरोध में गंगा बचाओ आन्दोलन के नेता और वैज्ञानिक जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञानस्वरूप सानन्द को 38 दिनों तक उपवास करना पड़ा। इस परियोजना को रद्द करवाना गंगा बचाओ आन्दोलन के लोगों और दूसरे पर्यावरणविदों की एक उल्लेखनीय सफलता रही। लेकिन पहाड़ की नदियों का संकट इतना गहरा और बहुमुखी है कि सिर्फ विकास परियोजनाओं का स्थगन संकट के किसी एक पहलू का ही समाधान कर सकता है।

गंगा बचाओ आन्दोलन इसलिए भी बहुत सफल नहीं रहा कि उसमें गंगा की प्राचीनता, पवित्रता और उसके धार्मिक महत्त्व पर, गंगा की जल-धारा के ‘अविरल और निर्मल’ बहने देने का अतिरेकी आग्रह था। गंगा की धारा को ‘अविरल’ बनाने के लिए बाँधों का विरोध किया गया, लेकिन उसे ‘निर्मल’ रखने का कोई खाका नहीं बना और इस तथ्य को अनदेखा कर दिया गया कि धार्मिक कर्मकाण्ड के मौजूदा रूप नदियों और उनसे जुड़ी नाजुक और संवेदनशील पारिस्थितिकी के लिए खतरे की घण्टी है। इस अभियान पर साधु-सन्तों का भी वर्चस्व रहा, जो अपने को गंगा के पहले और बुनियादी दावेदार मानते हैं। वे नदी-जल के प्रति वैज्ञानिक नजरिए के विरोधी हैं दरअसल ऐसे प्रयासों की दिक्कत यह है कि वे चीजों की मौजूदा दुर्दशाओं का हल उनकी ‘प्राचीनता’ में खोजते हैं और यह भूल जाते हैं कि भविष्य के सवालों का उत्तर अतीत में नहीं मिल सकते।

पहाड़ की प्रमुख नदियाँ विकास के मॉडल की गुलाम बना दी गई हैं, उनका अपना स्वछन्द जीवन नष्ट हो चुका है। इसके साथ ही वे छोटी नदियाँ भी अस्तित्व का संकट झेल रही हैं, जो ग्लेशियरों से नहीं, बल्कि स्थानीय वनों और तालाबों से निकलती हैं। स्थानीय जीवन को पालने-पोसने वाली ये नदियाँ, जिन्हें गाड या गधेरे कहा जाता है, लगभग मर चुकी हैं, उनका पानी पाताल जा चुका है और सिर्फ बरसात के दिनों में वे थोड़ी देर के लिए जीवित हो जाती हैं। दूसरी ओर, बड़ी नदियों को जन्म देने वाले ग्लेशियर आश्चर्यजनक तेजी से सिकुड़ रहे हैं।

अकेले गंगोत्री ग्लेशियर पिछले 25 साल में 850 मीटर पीछे जा चुका है और आशंका है कि अगले 20-25 वर्षों में वह पूरी तरह लुप्त हो सकता है और तब भागीरथी अपने स्रोत पर एक बरसाती नदी से ज्यादा नहीं रह जाएगी। तीन दशक पहले, सन 1986 में तब के प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी द्वारा शुरू किये गए ‘गंगा एक्शन प्लान’ से लेकर गंगा बचाओ आन्दोलन तक कई मुहिम छेड़ी गई हैं, कई विशेषज्ञ समितियाँ बनी हैं, अदालतों ने हस्तक्षेप किया है, लेकिन गंगा का संकट और भी गहराता गया है। कवि चन्द्रकुँवर बर्त्वाल ने कभी अपने इलाके की नदी को ‘दुख की रेखा’ की तरह देखा था, लेकिन आज उत्तराखण्ड की सभी नदियाँ दुख की नदियाँ बन चुकी हैं।

(लेखक जाने-माने साहित्यकार व पत्रकार हैं।)

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