जल प्रत्येक जीव-जन्तु के जीवनयापन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक अवयव है। बिना जल के जीवन की कल्पना करना असम्भव है। जल, जीवों के कोशिकीय संगठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। औसतन जीव कोशिकाओं में जल का प्रतिशत सत्तर से नब्बे तक पाया जाता है। पौधों के अन्दर होने वाली प्रक्रियाओं के लिये आवश्यक होता है जल! यह प्रकाश संशलेषण प्रक्रिया जो कि समस्त ब्रह्मांड की इकलौती उत्पादक प्रक्रिया है, के लिये कच्चे पदार्थ का कार्य करने के साथ ही पोषक तत्वों एवं खाद्य पदार्थों के समुचित वितरण हेतु माध्यम का कार्य भी करता है। इसके अतिरिक्त जल औद्योगिक उत्पादन, ऊर्जा स्रोत एवं यातायात में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
साधारणतया किसी फसल अथवा खेत में पानी दिये जाने के ढंग को सिंचाई की संज्ञा दी जाती है। सिंचाई की उत्कृष्ट अथवा वैज्ञानिक विधि का अभिप्राय ऐसी सिंचाई व्यवस्था से होता है जिसमें सिंचाई जल के साथ उत्पादन के अन्य आवश्यक उपादानों का प्रभावकारी उपयोग एवं फसलों के उत्पादन में वृद्धि सुनिश्चित हो सके। सिंचाई की सबसे उपयुक्त विधि वह होती है जिसमें जल का समान वितरण होने के साथ ही उसकी कम हानि हो और कम-से-कम जल से अधिक क्षेत्र की सिंचाई की जा सके।
ड्रिप सिंचाई क्या है?
भूमि, जल, मौसम और फसल का अध्ययन कर कम दबाव और नियंत्रण के साथ फसलों की जड़ों तक उनकी आवश्यकतानुसार एक समान पानी देना ड्रिप सिंचाई है।
इस पद्धति में भूमि में जल रिसने की गति से कम गति पर फसल की सतह या भूमि के नीचे पानी दिया जाता है। मुख्यतया पानी बूँद-बूँद या अत्यन्त पतली धान से दिया जाता है। इस पद्धति को अपनाते समय भूमि की जल ग्रहण क्षमता, क्षेत्र क्षमता, पानी रिसने की और जमीन के अन्दर से बहने की गति आदि का अध्ययन नितान्त आवश्यक है ताकि इस पद्धति का पूर्ण रूप से लाभ उठाया जा सके।
सिमका व्लास नाम के एक इजराइल के अभियन्ता ने 1940 में देखा कि पानी की टोंटी से रिसाव होने वाले स्थान के पौधों की वृद्धि उसके आसपास के पौधों की वृद्धि से अधिक थी इसके आधार पर उन्होंने 1964 में ड्रिप सिंचाई पद्धति विकसित कर उसका एकत्व रूप अर्थात पेटेंट करवाया। साठ के दशक के अन्त में ड्रिप सिंचाई पद्धति का प्रचार-प्रसार आस्ट्रेलिया संयुक्त राज्य अमेरिका एवं विश्व के अन्य विकसित देशों में हुआ। भारत में सत्तर के दशक में ड्रिप सिंचाई पद्धति से यद्यपि कृषक परिचित हो चुके थे परन्तु इसका व्यापक प्रचार-प्रसार आठवें दशक में हुआ।
ड्रिप सिंचाई पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ
पानी, भूमि को नहीं बल्कि फसल को दिया जाता है। भूमि में पानी की मात्रा, क्षेत्र क्षमता, स्थिर बनी रहने से फसल की वृद्धि तीव्र एवं समान रूप से होती है। जड़ क्षेत्र में जल मिट्टी एवं वायु के प्रभाव को हमेशा सन्तुलित रखा जाता है। फसल को प्रायः एक दिन छोड़कर पानी दिया जाता है। पानी अत्यन्त धीमी गति से दिया जाता है।
ड्रिप सिंचाई के प्रकार
1. ऑन लाइन पद्धति- इस पद्धति में डिपर लैटरली के ऊपर आवश्यक दूरी पर लगाया जाता है। इसमें डिपर नली के ऊपर छेद करके लगाया जाता है। यह पद्धति बहुवर्षीय, वृक्ष जो निरन्तर फलों का उत्पादन करने वाले या दूर और लम्बे अन्तराल पर लगाए जाने वाले फल वृक्षों के लिये उपयुक्त है। जैसे आम, चीकू, सन्तरा, नारियल, मौसमी, नींबू, अंगूर, अनार, बेर, पपीता, सागवान, बाँस इत्यादि। इस पद्धति में खोल कर साफ न किये जाने वाले बन्द डिपर जैसे मिनीइन लाइन व खोलकर साफ किये जाने वाले टर्बो की जे लाक टर्बो स्टेक व्हेरीफ्लो इत्यादि डिपर्स शामिल हैं।
2. इन लाइन पद्धति- इसमें जे टर्बो, जे टर्बो क्यूयरा जे टबोस्लीम इत्यादि शामिल होते हैं। इसमें लैटअरल के अन्दर के निश्चित दूरी पर निर्माण के दौरान ही डिपर्स लगा दिये जाते है। गन्ने जैसी फसल के लिये यह अत्यन्त उपयुक्त मानी गई है। गन्ने के अतिरिक्त यह पद्धति सब्जियों, फलों की खेती और स्ट्राबेरी जैसी फसलोें के लिये उपयुक्त है। साथ ही कपास की खेती में यह पद्धति उपयुक्त पाई जाती है। इस पद्धति में डिपर्स की दूरी फसल व पानी की आवश्यकता के अनुरूप निर्धारित की जाती है। इस पद्धति में दो डिपर्स के मध्य का अन्तर परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।
3. मिनी स्प्रिंकलर्स- मिनी स्प्रिंकलर्स कम दबाव से लेकिन अधिक तीव्र गति से पानी फेंकते हैं। इसमें जमीन पर स्टेक के ऊपर मिनी स्प्रिंकलर्स लगाए जाते हैं। मिनी स्प्रिंकलर्स से पानी फव्वारे के रूप में निकलता है जिससे भूमि का क्षेत्र पानी में भिगोया जाता है। मिनी स्प्रिंकलर्स बगीचों, प्याज, सब्जियों इत्यादि के लिये 10-15 फीट तक जड़ों के फैलाव वाले वृक्षों के लिये उपयोगी है। इस विधि का उपयोग ग्रीनहाउस व पौध वाटिका में भी किया जाता है। फल प्रदायी वृक्षों के बड़े हो जाने पर कई बार कृषक ड्रिप सिंचाई संयंत्र लगाने का प्रयास करते हैं। ऐसी परिस्थितियों में ड्रिप सिंचाई के स्थान पर मिनी स्प्रिंकलर्स लगाना अधिक लाभदायक होता है। पेड़, पौधों के प्रारम्भिक काल से ही ड्रिप सिंचाई करने से जड़ों की बढ़ोत्तरी नियंत्रित रहती है।
4. माइक्रो जेट्स- कभी-कभी फसल की वृद्धि हेतु सिंचाई के साथ वृक्षों के समीप एक निश्चित आर्द्रता भी आवश्यक होती है। ऐसी परिस्थिति में माइक्रो जेट्स का उपयोग किया जाता है। कोमल फूल वाले पौधे जो बड़ी बूँदों को सहन करने की क्षमता नहीं रखते हैं वहाँ माइक्रो जेट्स उपयोगी होते हैं। कम दबाव में चलने वाले माइक्रोजेट्स में डिपर की अपेक्षा, अधिक प्रवाह से पानी आता है। प्रवाह पंखों के आकार में तुषार की भाँति वायु फैलाती है। इनका प्रयोग हल्की व रेतीली भूमि में अधिक मात्रा में पानी देने और अधिक फैलाव वाले पौधों के लिये किया जाता है।
ड्रिप सिंचाई की प्रक्रिया
जलस्रोत से पानी उठाने हेतु पम्प जल प्रवाह का नियमित दबाव रखने हेतु एक ऊँचाई पर स्थित पानी की टंकी जल की मात्रा एवं दबाव को नियंत्रित करने हेतु मुख्य जलापूर्ति लाइन से जुड़ी केन्द्रीय जल वितरण प्रणाली, सिंचाई के साथ उर्वरक के उपयोग हेतु केन्द्रीय वितरण प्रणाली, से जुड़ी हुई टंकी होती है।
जल में घुले ठोस अवांछित पदार्थों को छनने हेतु केन्द्रीय वितरण प्रणाली से जुड़ी एक छन्नी होती है। वांछित मात्रा में जलापूर्ति हेतु उचित लम्बाई एवं व्यास की पाइप होती है। उचित व्यास एवं परिमाप की सहायक एवं पार्श्व पाइप लाइन और मुख्य पाइप लाइन से एक दूसरे से समानान्तर रूप से जुड़ी रहती है। समुचित मात्रा में पानी देने हेतु पौधों की पंक्तियों के समान दूरी पर लगाए जाने के लिये प्लास्टिक के उत्सर्जक जिन्हें पार्श्व पाइप लाइन में वांछित दूरी पर लगाया गया हो, की जरूरत होती है।
आज कल विभिन्न प्रकार की ड्रिप सिंचाई पद्धति के उपकरण उपलब्ध हैं जिनका उपयोग स्थानीय आवश्यकता एवं सुविधानुसार किया जा सकता है। विभिन्न प्रकार की ड्रिप सिंचाई पद्धति में सतही ड्रिप प्रणाली का अधिक प्रचलन है। इस पद्धति में पार्श्व पाइप लाइन एवं जल उत्सर्जक भूतल पर लाए जाते हैं। इस प्रणाली को स्थापित करने देखभाल करने उत्सर्जक की सफाई करने अथवा उसे बदलने में सुविधा होती है। अब भूमि ड्रिप सिंचाई में पार्श्व पाइप लाइन एवं उत्सर्जक दोनों भूमि के अन्दर गड़े रहते हैं।
सूक्ष्म फुहार सिंचाई पद्धति में सहायक पार्श्व पाइप लाइन एवं उत्सर्जक भूतल पर स्थित होते हैं। परन्तु इनसे सिंचाई जल बारीक फुहार अथवा कुहरा के रूप में जमीन पर पड़ता है। सिंचाई की इस पद्धति का उपयोग कम दूरी पर बोई गई फसलों में किया जाता है। स्पंद सिंचाई पद्धति में पानी में निरन्तर स्पंदन किया जाता है अर्थात सिंचाई के लिये यंत्र में इस प्रकार की व्यवस्था होती है कि यंत्र का समंजन करके 5-10 या 15 मिनट के अन्तराल पर पानी दिया जाता है।
ड्रिप सिंचाई के उद्देश्य
ड्रिप सिंचाई पद्धति का प्रमुख उद्देश्य जल उपयोग क्षमता में वृद्धि, एक समान जल प्रदान करना और उपज में वृद्धि हेतु फसल के जड़ क्षेत्र में जल धारण क्षमता के समीप नमी बनाए रखना होता है।
ड्रिप सिंचाई पद्धति में जल की मात्रा का निर्धारण
अच्छी ड्रिप सिंचाई पद्धति के लिये निम्न बातें आवश्यक होती हैं-
स्थलाकृति की जानकारी करने हेतु स्थान का समोच्च सर्वेक्षण सिंचाई हेतु उपलब्ध जल की मात्रा, जल शीर्ष एवं उपलब्ध जल दबाव का आकलन, उगाई जाने वाली फसल की किस्म अवस्था एवं दूरी।
वाष्प, वाष्पोत्सर्जन की गणना हेतु जलवायु सम्बन्धी आँकड़े, मृदा की किस्म एवं उसकी पारगम्यता का अन्तःसरण की दर, सिंचाई जल के गुण, पौधे के उपभौमिक उपयोग हेतु दैनिक जल की आवश्यक मात्रा की आवश्यकता होती है। अध्ययनों के आधार पर सिद्ध हो चुका है कि किसी प्रकार से जल की वातावरण में होने वाली क्षति को बचाते हुए अनेक फसलों की उचित वृद्धि हेतु आवश्यक जलापूर्ति द्वारा अच्छा उत्पादन प्राप्त करने हेतु ड्रिप सिंचाई उचित पद्धति है। इस पद्धति को अपनाकर उच्च गुणवत्ता वाली अधिक उपज के साथ सिंचाई जल एवं सिंचाई हेतु आवश्यक ऊर्जा की, बचत की जा सकती है।
ड्रिप सिंचाई के लाभ
भूमि
उबड़-खाबड़, क्षारयुक्त, बंजर जमीन और समुद्र तटीय भूमि भी खेती हेतु उपयोग में लाई जा सकती है। धूप से भूमि को होने वाली क्षति को रोका जा सकता है। परम्परागत पद्धति में नालियों का निर्माण करके सिंचाई करने से जमीन जिस तरह खराब होती है उस प्रकार से ड्रिप सिंचाई में नहीं होती।
शुष्क खेती वाली मुरम वाली भूमि पानी के कम रिसाव वाली भूमि और अल्प वर्षा वाली भूमि, क्षार युक्त भूमि भी इस पद्धति से खेती हेतु उपयोग में लाई जा सकती है।
पानी
ड्रिप सिंचाई से 30-80 प्रतिशत तक पानी की बचत होती है। इस प्रकार बचे हुए जल से अधिक क्षेत्र की सिंचाई की जा सकती है।
क्षारयुक्त अथवा अनुपयोगी जल को भी इस पद्धति द्वारा उपयोगी बनाया जा सकता है और फसल का लाभ लिया जा सकता है। जमीन में समान रूप से गीलापन रखने के कारण क्षारयुक्त भूमि में फसल उगाने हेतु ड्रिप सिंचाई ही एक मात्र साधन है।
रासायनिक खाद
ड्रिप इन लाइन पद्धति से रासायनिक खाद की जरूरत में 30-45 प्रतिशत तक कमी होती है और फसल की उत्पादन लागत में कमी होती है। फसल को समान रूप से खाद पहुँचाई जाती है और खाद का अधिक प्रभाव उपयोग होता है।
खरपतवार
ड्रिप इन लाइन सिंचाई में पानी सीधे फसल की जड़ों में दिया जाता है। आस-पास की भूमि सूखी रहने से अनावश्यक खरपतवार विकसित नहीं हो पाते हैं। जिसके परिणामस्वरूप भूमि में उपलब्ध सभी पौष्टिक तत्व केवल पौधों को ही प्राप्त होते हैं।
फसल में कीट एवं रोगों का कम प्रकोप
ड्रिप इन लाइन पद्धति में वृक्ष, पौधों के स्वास्थ्य में विकास होता है। इसके फलस्वरूप कीटनाशकों, फफूंदी नाशकों की कम मात्रा में आवश्यकता होती है जिससे कीटनाशकों, फफूंद नाशकों पर होने वाले खर्चे में कमी होती है।
उत्पादकता एवं गुणवत्ता
परम्परागत सिंचाई पद्धति के परिणाम
फसल के अधिक विकास हेतु भूमि के अन्दर पानी एवं आवश्यक तत्वों को पत्तियों, फूल एवं फलों के उर्ध्वदाब प्रक्रिया द्वारा पहुँचाए जाते हैं। पत्तियाँ, फसल, फल-वृक्षों की अतिमहत्त्वपूर्ण अंग होती हैं। ये सूर्य प्रकाश की सहायता से फसल, वृक्ष हेतु भोजन तैयार करती हैं। भोजन निर्माण में पत्तियों की ऊपरी सतह पर स्थित सूक्ष्म छिद्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इन छिद्रों के खुलने पर ही भोजन निर्माण प्रक्रिया शुरू होती है। इन छिद्रों के बन्द हो जाने पर भोजन निर्माण क्रिया भी बन्द हो जाती है। परिणामस्वरूप वृक्ष के अन्य भागों जैसे फल, फूल आदि तक भोजन नहीं पहुँच पाता है और उनके विकास और उत्पादन की गति में कमी हो जाती है। जबकि ड्रिप सिंचाई करने से उनके विकास और उत्पादन में वृद्धि हो जाती है।
ड्रिप सिंचाई में पेड़ पौधों को प्रतिदिन जरूरी मात्रा में पानी दिया जाता है। इससे उन पर तनाव नहीं पड़ता। फलस्वरूप फसलों की बढ़त व उत्पादन दोनों में वृद्धि होती है।
ड्रिप सिंचाई में सब्जी, फल और अन्य फसलों के उत्पादन में बीस से दो सौ प्रतिशत तक वृद्धि हो जाती है। ड्रिप सिंचाई से अत्यन्त सन्तोषजनक परिणाम प्राप्त होते हैं।
ड्रिप सिंचाई के लाभ
भूमि के अन्दर जल एवं वायु का समन्वय होता है जिससे पानी की कमी या अधिकता का कोई विशष प्रभाव नहीं पड़ता है। चूँकि सिंचाई की इस पद्धति से पानी की गहराई तक रिसाव अपवाह या वाष्पीकरण नहीं होता और पौधों के जड़ क्षेत्र के एक भाग में ही पानी दिया जाता है। इस प्रकार इस पद्धति द्वारा परम्परागत सिंचाई विधि अथवा बौछारी की तुलना में बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है। इस विधि में कम पानी लगने और पानी देने के लिये कम जल दबाव आवश्यक होता है। अतः अन्य सिंचाई पद्धतियों की तुलना में कम ऊर्जा की खपत होती है।
भूमि की ऊपरी सतह शुष्क रहने के कारण फसल पर खरपतवारों का कम प्रकोप होता है और आर्द्रता वातावरण में बढ़ने वाले फफूंद जीवाणु और अन्य रोगाणु विषाणुओं की वृद्धि होती है। ड्रिप सिंचाई निश्चित जल की कमी वाले क्षेत्रों में वरदान है।
ड्रिप सिंचाई द्वारा जल की बचत होती है साथ ही उर्वरकों पर व्यय कम होता है और उर्वरकों का उपयोग अच्छा एवं पूरा होता है। इसके द्वारा पानी के साथ घुलनशील उर्वरकों का प्रयोग जड़ क्षेत्र में सिंचाई जल के साथ बहुत सुगमता से किया जा सकता है। कतारें बनाने क्यारियाँ बनाने, तोड़ाई जैसे परम्परात कृषि कार्यों की आवश्यकता नहीं होती। इससे खेती करना सुगम हो जाता है। यांत्रिक काम सुगमता से किये जा सकते हैं।
ड्रिप सिंचाई में मौसम, रात या तीव्र वायु से भी कार्य बाधित नहीं होते हैं। ड्रिप सिंचाई से फल, सब्जी और अन्य फसलों के उत्पादन में बीस से दो सौ प्रतिशत तक वृद्धि सम्भव है। ड्रिप सिंचाई से उच्च गुणवत्ता वाले कृषि उत्पाद प्राप्त होते हैं। ड्रिप सिंचाई में पानी खेत के पूरे क्षेत्र में एक समान रूप और दबाव से पहुँचता है। परिणामस्वरूप बढ़ोत्तरी एक जैसी और तीव गति से होती है।
फसल जल्दी पकने से कम समय में फसल प्राप्त होती है इस प्रकार एक ही खेत से वर्ष में दो, तीन फसलें सुगमता से ली जा सकती हैं।
सावधानियाँ
ड्रिप सिंचाई पद्धति में लगने वाली सामग्री जैसे पाइप, नोजल आदि थोड़े महंगे जरूर होते हैं परन्तु एक बार खरीदने के बाद लम्बी अवधि तक उचित देखभाल और सावधानी के साथ उपयोग किया जा सकता है।
ड्रिप सिंचाई प्रणाली में सिंचाई जल साफ एवं स्वच्छ होना चाहिए अन्यथा कचरा या मिट्टी के कण इसके नोजल में फँस सकते हैं। जिससे प्रणाली सुचारु रूप से कार्य करने में सक्षम न होगी। इसलिये पानी छानने हेतु पाइप में जाली लगाई जाती है जिसे समय-समय पर साफ करते रहना चाहिए।
इस प्रकार ड्रिप सिंचाई करके पानी की बचत करते हुए अपनी फसल, वृक्षों का उत्पादन अधिक किया जा सकता है। जिससे जल की बचत होगी साथ ही ऊर्जा समय पर पैसा भी बचेगा और फसल का विकास, वृद्धि और उत्पादन अधिक मिलेगा। साथ ही सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि हानिकारक लवण भूमि की सतह पर एकत्रित नहीं होंगे और अधिक उत्पादन प्राप्त होने से देश की कृषक समृद्धशाली बनेंगे और हम सब जल संरक्षण को भी बढ़ावा देने में सफल होंगे। राष्ट्रीय बागवानी मिशन द्वारा ड्रिप सिंचाई हेतु सब्सिडी भी दी जाती है। इसके लिये कृषक जिला बागवानी अधिकारी से मिलकर लाभ उठा सकते हैं।
कृषि बागवानी सलाहकार, 5-ई, बंगला प्लाट, फरीदाबाद-121001
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