क्योतो समझौते का प्रमुख आधार यह था कि जो देश ऐतिहासिक तौर पर ग्रीनहाउस गैसों का ज्यादा उत्सर्जन करते रहे हैं उन्हें वैश्विक प्रदूषण घटाने में अधिक भूमिका निभानी चाहिए। इसी तर्क पर यह तय हुआ था कि सैंतीस औद्योगिक देश 2012 तक कॉर्बन उत्सर्जन को 1990 के स्तर से सवा पांच प्रतिशत नीचे ले आएंगे।
दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर में संयुक्त राष्ट्र के सत्रहवें जलवायु सम्मेलन को कामयाब बताया जा रहा है। इसलिए कि एक समझौते की रूपरेखा मंजूर कर ली गई, जिसके तहत कॉर्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए सभी देश पहली बार कानूनी तौर पर बाध्य होंगे। इस तरह डरबन सम्मेलन का हश्र वैसा नहीं हुआ जैसा कानकुन का हुआ था। शायद यह कानकुन की विफलता का दबाव रहा होगा कि किसी न किसी समझौते तक पहुंचने के चक्कर में अनेक मान्य सिद्धांतों को या तो तिलांजलि दे दी गई या उन्हें ढीला कर दिया गया, जो कि क्योतो करार के समय से चले आ रहे थे। यही नहीं, डरबन समझौते में कई मसले अस्पष्ट छोड़ दिए गए हैं। कॉर्बन उत्सर्जन में कटौती की जिम्मेदारी को लेकर सम्मेलन में आखिर तक विकसित और विकासशील देशों के बीच खींचतान चलती रही। कोई नतीजा निकलता न देख सम्मेलन का समय छत्तीस घंटे बढ़ाना पड़ा। भारत इस बात से खुश हो सकता है कि उसके हां कहने पर ही सहमति की रूपरेखा तय हुई। लेकिन इसमें तसल्ली की कोई बात नहीं है, क्योंकि समझौते की राह तभी निकल सकी, जब क्योतो करार के एक ऐसे पहलू को छोड़ दिया गया जो विकासशील देशों के पक्ष में रहा है।क्योतो समझौते का प्रमुख आधार यह था कि जो देश ऐतिहासिक तौर पर ग्रीनहाउस गैसों का ज्यादा उत्सर्जन करते रहे हैं उन्हें वैश्विक प्रदूषण घटाने में अधिक भूमिका निभानी चाहिए। इसी तर्क पर यह तय हुआ था कि सैंतीस औद्योगिक देश 2012 तक कॉर्बन उत्सर्जन को 1990 के स्तर से सवा पांच प्रतिशत नीचे ले आएंगे। इसे बराबरी का सिद्धांत भी कहा गया। मगर डरबन में जो तय हुआ, उसमें समानता का यह तत्व कहां है!
यों डरबन सम्मेलन ने क्योतो करार के अगले चरण की प्रतिबद्धता का इजहार किया है, लेकिन ऐतिहासिक यानी विकसित देशों के अधिक जिम्मेदारी निभाने के तकाजे का क्या होगा, यह सवाल फिलहाल अनुत्तरित है। कानूनी बाध्यता वाले प्रस्तावित समझौते की रूपरेखा 2015 तक तय होगी और उसे 2020 में लागू किया जाएगा। जाहिर है, अगले दो-ढाई साल का समय तीखी बहसों और विवादों का हो सकता है। बेसिक समूह के देश यानी भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जोर देकर यह कहते रहे कि कॉर्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण पाने के मामले में समान रूप से कोई बाध्यकारी समझौता उन्हें मंजूर नहीं होगा। लेकिन इस समूह सहित विकासशील देशों की एकजुटता आखिर तक दृढ़ नहीं रह पाई। जो तय हुआ वह अमेरिका और यूरोपीय संघ को ही रास आएगा। इसके बावजूद इस बात की फिलहाल कोई गारंटी नहीं है कि अमेरिका अगले चरण में क्योतो करार में शामिल हो ही जाएगा। इसलिए डरबन सम्मेलन को लेकर यह सवाल उठेगा ही कि वास्तव में किसे क्या हासिल हुआ।
एक हरित जलवायु कोष बनाने का निर्णय पहले ही हो चुका था। डरबन में इससे आगे के मुद्दे तय होने थे, यानी विकासशील देशों को उपयुक्त तकनीक हासिल या विकसित करने के लिए कोष के बंटवारे के नियम और शर्तें तय होनी थीं। लेकिन इस मामले में कोई प्रगति नहीं हो सकी। दरअसल, मंदी का हवाला देकर विकसित देशों ने हाथ खड़े कर दिए हैं। इस बार के सम्मेलन में औद्योगिक घरानों के प्रतिनिधियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, जो जलवायु-वार्ताओं को अपने हितों के मुताबिक प्रभावित करने की उनकी दिलचस्पी को दर्शाता है। जबकि राष्ट्रों की शासकीय नुमाइंदगी बहुत कम रही। यह रुझान दुनिया के सिर पर मंडराते पर्यावरण संकट के मद्देनजर कोई शुभ संकेत नहीं है।
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