दो मद्रासी बहनें

इन दो बहनों के प्रति मेरी असीम सहानुभूति है। मद्रास शहर के जैसा इनका महत्त्व बढ़ाया है, वैसी ही इनकी उपेक्षा भी की है।

यों तो मद्रास शहर का महत्त्व भी कृत्रिम है। न उसके पास कोई सुन्दर पर्वत है न कोई महानदी की खाड़ी है। तिजारत की दृष्टि से या फौजी दृष्टि से मद्रास का कोई असली महत्त्व नहीं है। लेकिन इतिहासक-क्रम के कारण अंग्रेजों को यही स्थान पसन्द करना पड़ा। यहां के स्थानिक लोगों का प्रेम इस शहर के प्रति कम था ऐसा तो कोई नहीं कह सकता। जिन भारतीयों ने या धीवर आदिवासियों ने इस शहर का नामकरण ‘चन्नपट्टनम्’ यानी सुवर्ण नगरी किया होगा, क्या उन्होंने इस शहर के भाग्य के बारे में पहले से सोचा होगा?

कुछ भी हो; जब से अंग्रेजों ने यहां अपनी कोठी डाली तब से इस शहर का भाग्य और वैभव बढ़ता ही गया है और ऐसे शहर की सेवा करने वाली इन दो बहनों का भाग्य भी बदलता गया है। एक का नाम ‘कूवम्’ और दूसरी का नाम है ‘अड्यार’। ये दोनों नदियां पूर्वगामी होकर बंगाल के उपसागर से यानी पूर्व-समुद्र से मिलती हैं।

मद्रास और उस के इर्द-गिर्द की भूमि बिलकुल समतल है। यहां छोटे-बड़े अनेक तालाब व सरोवर हैं। लेकिन अब उनकी कोई शोभा नहीं रही।

तर्क बुद्धि कहती है कि जमीन अगर समतल हो और पथरीली न हो, तो नदी को अपना पात्र सीधा खोदने में या चलाने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिये। लेकिन नदियों का ऐसा नहीं है। कुछ हद तक नदी एक ओर झुकेगी, वहां से थककर मोड़ लेगी और दूसरी ओर पहुंच जायेगी। फिर आगे बढ़ते हुए दिशा बदल देगी। और इस तरह नागमोड़ी वक्रगति से आगे बढ़ती जायेगी।

पहाड़ी नदियों की तो लाचारी होती है। पर्वत और टेकरियों के बीच जहां से मार्ग मिले, उसी मार्ग से जाने के लिए बाध्य होती हैं। तीस्ता कहेगी, “मैं स्वभाव से नागिनी नहीं हूं। वक्रगति मेरा स्वभाव नहीं, किंतु वह मेरा भाग्य है।” काश्मीर में बहने वाली वितस्ता या झेलम अपना ऐसा बचाव नहीं कर सकेगी। करीब-करीब चक्राकार घुमते जाना और आगे बढ़ने का तनिक भी उत्साह नहीं रखना, यह है काश्मीर-तल-वाहिनी वितस्ता का स्वभाव। बिहार में बहने वाली असंख्य नदियों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। किसी समय मुझे बिहार प्रांत में अनेक जगह हवाई जहाज से यात्रा करनी पड़ी थी। पता नहीं कितनी बार बिहार के आकाश को मैंने अनेक दिशाओं से बींध दिया होगा। हवाई जहाज की दूर-दूर की लम्बी यात्रा में काफी ऊंचाई से मैंने बंगाल और बिहार की नदियां देखी हैं और उनका वक्र-मार्ग नैपुण्य देखकर उनका आदर किया है।

भारत-भूमिका एक बड़ा मानचित्र बनाकर उस पर अगर केवल नदियों के मार्ग की रेखाएं खींची जायें तो वह वक्र रेखाओं का महोत्सव बड़ा ही चित्ताकर्षक होगा। नदी को दाहिनी ओर और बायीं ओर मुड़े बिना संतोष ही नहीं होता। एक ओर के ऊंचे किनारे को घिसते जाना और दूसरी ओर के निम्न किनारे को हर साल डुबोकर कुछ समय के लिए वहां जल-प्रलय का दृश्य खड़ा करना यह नदियों की वार्षिक क्रिड़ा ही है।

लेकिन जब नदियां बड़े-बड़े शहरों की बस्ती में फंस जाती हैं, अथवा दयालु होकर अपने दोनों ओर मनुष्य को बसने देती हैं, तब उनका यह स्वच्छंद विहार सदा के लिए बंद हो जाता है और तब से उनका जीवन तांगा, खींचने वाले घोड़े के जैसा हो जाता है। ऐसी हालत में नदियां अगर अपना मोड़ कायम रखें तो भी उनकी शोभा तो नष्ट हो ही जाती है।

लंदन में टेम्स नदी, पेरिस में सीन नदी और लिस्बन में टेगस नदी इन तीनों की बंधन-दुर्दशा देखकर मेरा हृदय कई बार रोया है। और जब मानिनी और स्वच्छंद विहारिणी नील-नदी लाचार होकर अल्काहेरा (कायरों) की शहर के बीच से जाती है, तब तो दुःख के साथ क्रोध भी जागृत होता है। और नदी का अपमान करने वाली मानव-जाति का शासन कैसे किया जाय ऐसे विचार भी मन में उठते हैं।

अड्यार और कूवम् इन दो में से कूवम् को बंधन का दुःख ज्यादा सहन करना पड़ा है, क्योंकि वह शहर के बीच से घूमती है। अड्यार शहर के दक्षिण किनारे पर होने से उसे कुछ अवकाश मिला है।

लेकिन-यहां पर भी लेकिन आ गया है- जहां मनुष्य ने अपमान नहीं किया, वहां सरिता का इस सरित्पति ने अपमान किया है। बेचारी उत्साह के साथ समुद्र को मिलने जाती है और बेकदर समुद्र ऊंची-ऊंची लहरों के साथ रेत ला-लाकर उसके सामने एक बहुत बड़ा बांध या सेतु खड़ा कर देता है।

देवी वासंती का ब्रह्मविद्या-आश्रम जब सबसे पहले मैं देखने गया था, तब सागर-सरिता-संगम की भव्यता देखने हेतु नदी के मुख तक पहुंच गया था और क्या देखता हूं- खंडिता अड्यार अपना पानी ला-लाकर मार्ग प्रतीक्षा कर रही है और समुद्र अपने खड़े किए हुए बांध के उस ओर लहरों का विकट हास्य हंस रहा है। समुद्र के प्रति मन में क्रोध तो आया ही। क्या इसमें तनिक भी दाक्षिण्य नहीं है? थोड़ा-सा तो मार्ग देता। लेकिन सरिता और सरित्पति के बीच फैले हुए सेतु पर से चलते-चलते मन में यही विचार आया कि अड्यार के अपमान में मैं भी शरीक हूं। सेतु पर से उस पार जाने के बाद वापस तो आना ही पड़ा। उसके बाद आज तक कई बार मद्रास गया हूं, भगवती अड्यार का दर्शन भी किया है, लेकिन उस बांध पर से जाने का जी ही नहीं हुआ।

कूवम् पानी से अड्यार का पानी ज्यादा स्वच्छ मालूम होता है। वहां की हवा स्वच्छ होने से पानी चमकीला भी दीख पड़ता है। इस नदी के बीच उत्तर की ओर एक लक्ष्मी पुत्र का सफेद प्रासाद है। वह नदी की शोभा की भ्रष्ट नहीं करता। नदी के कारण वह ज्यादा उठावदार हो गया है।

मैं जब-जब अड्यार गया हूं, उसके किनारे के नारियल का मीठा पानी मैंने पिया है और उसी को उस लोकमाता का प्रसाद माना है। अड्यार के सात कूवम् का दर्शन भी होता ही है। लेकिन उसके लिए तो आज तक मन में दया ही दया पैदा हुई है, हालांकि मद्रास के सेंट जॉर्ज फोर्ट के कारण उसकी शोभा साधारण कोटि की नहीं है।

अंग्रेजों ने अड्यार से लेकर कूवम् तक एक छोटी नहर दौड़ाई है; जिसे उन्होंने ‘बकिंगहेम केनाल’ का नाम दिया है। इस केनाल से क्या लाभ हुआ है सो तो मैं नहीं जानता। लेकिन उसका नाम जितनी दफा मैंने सुना उतनी दफा वह मुझे अखरा ही है।

ये नदियां मद्रास शहर के बीच न होती तो शायद इन्हें मैं श्रद्धांजलि भी नहीं दे पाता। लेकिन इनका महात्म्य और सौन्दर्य बढ़ाने का काम मद्रास के हाथों नहीं हो सका। मद्रास ने इनसे सेवा ली, लेकिन इनकी सेवा नहीं की, यह विषाद तो मद्रास के बारे में मन में रह ही जाता है।

2 जून, 1957

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