डॉ. जेसी कुमारप्पा : ग्रामीण भारत की आवाज


सन 1934 में गाँधी जी की अध्यक्षता में अखिल भारत ग्रामोद्योग संघ की स्थापना की गई। इसका मंत्री कुमारप्पा जी को बनाया गया। ग्रामोद्योग उनका प्रिय, रुचिकर विषय था। उनके अनुसार ग्रामोद्योग का अर्थ है गाँव का कच्चा माल गाँव में ही प्रयोग हो, कच्चा माल गाँव से बाहर नहीं जाये। गाँव-गाँव में उद्योग धन्धे चलें, काश्तकार पहले की तरह गाँव में ही काम करें। इसी से गाँव का विकास होगा, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, गाँव में ही रोजगार उपलब्ध होगा और गाँव की गरीबी मिटेगी। गाँधी जी के आन्दोलन में देश भर से बड़ी संख्या में लोगों की भागीदारी रही। इनमें अनेक विशिष्ट लोग भी थे। इन्हीं में से एक थे डॉ जेसी कुमारप्पा। वह ग्रामोद्योग, ग्राम उत्थान, ग्राम अर्थव्यवस्था, अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ, तत्वज्ञ, स्थायी अर्थव्यवस्था का विचार, योजना प्रस्तुत करने वाले, गाँव की मजबूती में देश की मजबूती देखने वाले, आर्थिक मुद्दों पर खुलकर सार्थक चर्चा करने वाले, गाँधी विचार के ज्ञाता व प्रयोगधर्मी थे।

डॉ जे. सी. कुमारप्पा का जन्म 4 जनवरी 1892 को तंजावुर, तमिलनाडु में एक समृद्ध परिवार में हुआ। कॉलेज तक की पढ़ाई मद्रास, आज के चेन्नई में हुई। उच्च शिक्षा के लिये वे लंदन गए और वहाँ से लेखा परीक्षक की उपाधि प्राप्त की। लंदन में ही एक अंग्रेज कम्पनी में काम करना शुरू किया। मगर परिवार के आग्रह पर उन्हें अपने देश वापस लौटना पड़ा। उनका पूरा नाम जोसफ चेल्लदुरै करनीलियस था। करनीलियस नाम ईसाई बनने पर परिवार को मिला था, जिसे उन्होंने अपने दादा के नाम पर बाद में कुमारप्पा कर लिया।

भारत लौटने पर डॉ. जेसी कुमारप्पा ने बम्बई की एक बड़ी फर्म में काम करना शुरू किया। कुछ समय बाद डावर भाइयों के साथ मिलकर अपनी खुद की करनीलियस एंड डावर नाम की कम्पनी बनाई। ज्ञान, जानकारी, मिलनसार स्वभाव, व्यवहार के कारण उनका काम खूब आगे बढ़ा। बड़े भाई के निमंत्रण पर डॉ. कुमारप्पा अमेरिका गए और विश्वविद्यालय से व्यापार प्रबन्धन में बीएससी की पढ़ाई की।

अपने अध्ययन के दौरान उन्होंने एक विशेष लेख लिखा इसी लेख के कारण ही गाँधी जी से उनका सम्पर्क व संवाद बना। इस लेख में मुख्य स्थापित किया गया था कि भारत की जनता की गरीबी का मुख्य कारण ब्रिटिश सरकार की शोषक नीति ही है। लेख में पूरे प्रमाणों के साथ यह सिद्ध किया गया था। गाँधी जी इस लेख से बहुत प्रभावित हुए व इसे सारगर्भित माना और यंग इण्डिया में प्रकाशित कर, अपने साथ काम करने के लिये डॉ. कुमारप्पा को न्यौता दिया।

डॉ. कुमारप्पा साबरमती आश्रम पहुँचे और गाँधी जी के साथ काम शुरू कर दिया। उन्होंने गुजरात विद्यापीठ में अर्थशास्त्र, ग्रामीण अर्थशास्त्र पढ़ाना शुरू किया। उन्हें गुजराती भाषा का ज्ञान नहीं था और छात्रों को अंग्रेजी का इसलिये कठिनाई होती थी। उनका मानना था कि मात्र किताबी ज्ञान से शिक्षा पूरी नहीं होती, इसके लिये प्रत्यक्ष काम व असली हालातों को जानना जरूरी है। प्रत्यक्ष काम के लिये मातर तालुका के गाँवों का सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण कर तालुका के विकास की विस्तृत योजना बनाई। इस सर्वेक्षण का सन्दर्भ आज भी स्थान-स्थान पर लिया जाता है। इसे एक मौलिक, प्रामाणिक सर्वेक्षण माना जाता है।

सत्याग्रह के समय गाँधी जी को कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता था इसलिये गाँधी जी ने सोचा यंग इण्डिया का काम चलता रहे, वह प्रकाशित होता रहे इसके लिये कुमारप्पा जी का नाम भी जिम्मेवारी उठाने वालों में शामिल था। कुमारप्पा जी ने ब्रिटिश सरकार,अधिकारी व कर्मचारियों के अन्याय, अत्याचार एवं जुल्म की कड़ी आलोचना की। इससे सरकार का गुस्सा बढ़ा और उसने छापाखाना को ताला लगा दिया। इसके बावजूद भी उन्होंने टाइप कराकर पत्रिका का अंक समय पर निकाल दिया। सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अदालत में उन्होंने तीखा जोरदार बयान दिया, जिसे जेल से बाहर आकर गाँधी जी ने पढ़ा और सराहा और कहा इस बयान के बाद तो उनको सजा मिलनी ही थी।

सन 1934 में गाँधी जी की अध्यक्षता में अखिल भारत ग्रामोद्योग संघ की स्थापना की गई। इसका मंत्री कुमारप्पा जी को बनाया गया। ग्रामोद्योग उनका प्रिय, रुचिकर विषय था। उनके अनुसार ग्रामोद्योग का अर्थ है गाँव का कच्चा माल गाँव में ही प्रयोग हो, कच्चा माल गाँव से बाहर नहीं जाये। गाँव-गाँव में उद्योग धन्धे चलें, काश्तकार पहले की तरह गाँव में ही काम करें। इसी से गाँव का विकास होगा, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, गाँव में ही रोजगार उपलब्ध होगा और गाँव की गरीबी मिटेगी। गाँव सशक्त व मजबूत बनेगा। गाँव-गाँव में उत्पादन बढ़ेगा। गाँव समृद्ध बनेंगे। गाँव की ग्राम स्वराज की ओर बढ़ने की सम्भावना होगी। गाँव खुशहाल बनेगा, केन्द्रीयकरण के कष्ट से बचाव होगा।

इसके लिये आवश्यक था नए औजार बनाना, उद्योगों के साधनों का विकास करना, कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण करना। गाँव-गाँव तक यह संवाद, सम्पर्क, सन्देश, संकल्प पहुँचाना। वर्धा में मगनवाड़ी में केन्द्र स्थापित किया गया। ग्रामोद्योग संघ का केन्द्रीय कार्यालय भी यहाँ बनाया गया। कार्यकर्ता प्रशिक्षण, अनुसन्धान, प्रयोग, उत्पादन की योजना बनाई गई। वर्धा ग्राम आन्दोलन का यह एक प्रमुख स्थल बना। ग्रामोद्योग का एक संग्रहालय बनाया गया जिसमें औजार, ग्रामोद्योग के नमूने, जानकारी, विवरण आदि का संग्रह रखा गया। मगन संग्रहालय आज भी वर्धा में आप देख सकते हैं। ग्राम उद्योग पत्रिका भी प्रारम्भ की जो लम्बे समय तक प्रकाशित हुई।

दुनिया के सामने ज्यादातर औद्योगिक विकास का पाश्चात्य नमूना ही पेश किया गया है जिसमें लाभ, लोभ, लूट व शोषण की व्यापक सम्भावना है। जबकि गाँधी अर्थशास्त्र जनउपयोगिता को प्रमुख मानता है। इसी पर जोर देता है, लाभ या लोभ पर नहीं। समाज की आवश्यकता की पूर्ति अर्थशास्त्र का मुख्य मुद्दा बनना चाहिए। उदाहरण के लिये चोरी, डकैती, लूट या जेबकतरे के काम को कितने भी कुशल ढंग से, सफाई से किया जाये, उसे आर्थिक प्रक्रिया का हिस्सा, अंग नहीं माना जा सकता है।

आर्थिक प्रक्रिया में सेवा, समाजकल्याण, जनहित का होना परम आवश्यक है, इसके बिना आर्थिक प्रक्रिया नुकसान, सत्यानाश, बर्बाद करेगी। इनकी पुस्तकें स्थायी अर्थशास्त्र एवं ग्राम आन्दोलन क्यों? की सहायता से इन बातों को विस्तार से समझा जा सकता है। ईशा मसीह के उपदेश व अनुकरण पुस्तक भी जेल में ही लिखी गई थी। इनकी पुस्तकें पढ़कर गाँधी जी ने इनको ग्रामोद्योग तत्व शास्त्रज्ञ एवं देव तत्व शास्त्री की पदवी से नवाजा। गाँधी जी गुजरात विद्यापीठ के कुलाधिपति भी थे।

वर्ष 1937 में अनेक प्रान्तों में कांग्रेस की सरकार बनी तो कुमारप्पा जी की अध्यक्षता में ग्राम विकास की योजनाएँ बनाई गईं। यह काम उन्होंने बहुत ही कम समय में सुन्दर ढंग से पूरा करके सरकार को सौंप दिया। आजादी के बाद भी उन्होंने राष्ट्रीय योजना आयोग, भूमि सुधार समिति, भूकम्प निवारण समिति आदि के माध्यम से महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अहिंसक समाज की कल्पना का चित्र उनके समक्ष पूरी तरह से साफ था। शोषण रहित अर्थशास्त्र का चिन्तन, मनन व अध्ययन कुमारप्पा जी की विशेषता थी। वे मानते थे कि सारा विश्व शोषणमय समाज रचना करके विनाश की ओर बढ़ रहा है। भारत को इसका जवाब देना चाहिए।

केन्द्रीयकरण की कमियों के बारे में तथा विकेन्द्रीयकरण के पक्ष में उन्होंने विस्तार से चर्चा की। वे मानते थे लोकशक्ति, ग्रामराज ही सशक्त एवं उपयोगी रास्ता है। वे सत्ता के बजाय लोकपक्ष को ज्यादा तवज्जो देते थे। उनका मानना था कि लोगों की शक्ति व गाँव की ताकत बढ़ेगी तो ही सच्चा, सही विकास होगा, हम ठीक रास्ते पर जाएँगे। उन पर सत्ता में शामिल होने का खूब दबाव पड़ा मगर वे टस-से-मस नहीं हुए और अपनी राह पर चलते रहे। उन्होंने गाँधी की राह को चुना, सत्ता को नहीं।

युद्ध विरोध एवं विश्व शान्ति उनकी रुचि के विषय थे। इसके लिये अनेक विदेश यात्राएँ की एवं सम्मेलनों में भाग लिया। आजादी के बाद उन्होंने अपना अधिकांश समय गाँव के उत्थान हेतु ग्रामीण क्षेत्रों में ही लगाया। तमिलनाडु के मदुरै जिले के कल्लुपट्टी गाँव में गाँधी निकेतन आश्रम में एक कुटी बनाकर रहे। अन्तिम वर्षों में उनकी तबियत ने बहुत साथ नहीं दिया। आज की समस्याओं को समझने व सुलझाने के लिये कुमारप्पा जी के योगदान, काम, विचार को अपनाने की जरूरत महसूस होती है।

श्री रमेश चंद्र शर्मा गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान केन्द्रो के समन्वयक हैं।

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