दमन, आंदोलन और भ्रष्टाचार

जहां कहीं इस व्यापक भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चले, वहां दमन भी चला। मंत्री महोदय इस भ्रष्टाचार को रोक पाने में असफल रहे, पर उन्हें अपने हाथी के दांत दिखाने तो थे ही, सो उन्होंने तुरत-फुरत मुख्यमंत्रियों को पत्र लिख डाले।

मनरेगा फंड का भारी दुरुपयोग हुआ है। जहां सैकड़ों करोड़, रुपये सहायक अभियंताओं को अतिरिक्त बांटे गए, वोट बटोरने के लिए पंचायती राज समारोहों में पैसे खर्च हुए, वहीं जिला प्रमुखों, प्रधानों, सरपंचों, मुखिया लोगों को अतिरिक्त पैसे दिए गए, जिसके लिए कोई प्रावधान नहीं है। प्रशासनिक अतिरिक्त खर्च की भी बात रिपोर्ट में की गई है। केंद्र ने राज्यों को समय से अनुदान नहीं भेजे और राज्यों ने अपने हिस्से का अनुदान नहीं दिया तो केंद्रीय अनुदान भी बिना उपयोग वापस लौट गया।23 अप्रैल को मनरेगा पर सीएजी की कार्य-निष्पादन लेखा परीक्षण रिपोर्ट संसद पेश की गई। पहली बार हम देख रहे हैं कि देश की एक शीर्ष स्वायत्त संस्था ने यूपीए की फ्लैगशिप योजना की जांच अपने हाथ में ली है। देश के ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने अपने दायरे से कुछ आगे बढ़कर सीएजी से इस लेखा परीक्षण के लिए आग्रह किया, तो ऐसा लगता है कि इसके पीछे संघीय राजनीति का स्वार्थ ज़रूर रहा है। सभी इस बात पर सहमत हैं कि 2009 में इस योजना ने कांग्रेस के लिए वोट खींचने की बड़ी भूमिका अदा की क्योंकि यह ग्रामीण क्षेत्र में रोज़गार दिलाने वाली सबसे वृहद योजना थी और इसने ग्रामीण जनता के जीवन को सकारात्मक ढंग से प्रभावित किया था। लोगों के आय का स्तर बढ़ा, उनके विस्थापन पर काफी हद तक रोक लगी और बाकी कृषि कार्य का वेतन स्तर भी उन्नत हुआ, पर यह भी सच है कि यदि किसी योजना को शासक अपने लिए वोट खींचने का जरिया बनाने के मामले में पूरी तरह निर्भर हो जाएं तो इसका नतीजा घातक भी हो सकता है। लोकप्रियता पर ग्रहण लगना मुश्किल नहीं है।

मनरेगा का फंड भी भारी था – 35 हजार से 40 हजार करोड़ के दायरे में। पर संशोधित बजटों के माध्यम से पता चला कि अधिकतर राज्यों में फंड का उपयोग ही नहीं हो सका। इसके बावजूद आंकड़े बताते हैं कि सभी ग्रामीण विकास व गरीबी-उन्मूलन योजनाओं के फंड को मिलाने पर भी मनरेगा फंड की मात्रा के करीब नहीं पहुँचता। अब ऐसी बड़ी योजना में यदि बड़े पैमाने का भ्रष्टाचार है तो क्या यह आश्चर्य की बात है?

योजना को लागू करने के मामले में गड़बड़ियाँ इतनी थीं कि अखबार पट गए- कार्ड न मिलना और फ़र्ज़ी कार्ड का मामला, फ़र्ज़ी मस्टर रोल, वेतन भुगतान में देरी या फिर वेतन का न दिया जाना, महिलाओं को एक तिहाई रोज़गार की सुविधा से वंचित रखना, ठेकेदारों से काम लेना आदि।

जहां कहीं इस व्यापक भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चले, वहां दमन भी चला। मंत्री महोदय इस भ्रष्टाचार को रोक पाने में असफल रहे, पर उन्हें अपने हाथी के दांत दिखाने तो थे ही, सो उन्होंने तुरत-फुरत मुख्यमंत्रियों को पत्र लिख डाले। झारखंड और ओडिशा के कई जिलों को अनुदान रोका और विशेष जांच की बात कही गई। बाद में सैकड़ों पेज की रिपोर्ट तो ज़रूर बन गई पर सुधार के नाम पर हुआ कुछ नहीं।

संघीय ढांचे के तहत नायाब तरीके से गरीब मज़दूरों के पैसों की लूट जारी रही और अब जयराम जी राज्यों को सीएजी की छड़ी से हांकने चले हैं। लेकिन उनकी सक्रियता उलटी पड़ गई है। सीएजी रिपोर्ट ने योजना की रूपरेखा पर गाज गिरा दी है। इसमें संरचनागत और नीतिगत कमजोरियों को भी उजागर किया गया है। रिपोर्ट ने योजना में अंतर्निहित संरक्षण के तंत्र के अभाव को भी चिह्नित किया गया है। जयराम अब रिपोर्ट को भले ही खारिज करना चाहें पर यह उनके गले की फांस बन चुका है। मनरेगा-2 के जरिए सुधार के प्रयासों को भी सीएजी रिपोर्ट किसी काम का नहीं मानती। केवल केंद्र नहीं बल्कि कई राज्य सरकारें भी कठघरे में खड़ी हैं।

सीएजी की रिपोर्ट को देखें तो इसमें कुछ बातों को आलोचना के दायरे में लाया गया है। मसलन कई राज्यों में बड़े पैमाने पर फ़र्ज़ी कार्ड, झूठे काम, फ़र्ज़ी वेतन भुगतान आदि और इन्हें रोकने के लिए कोई कारगर तरीका नहीं। वेतन और सामग्री में 60:40 के अनुपात को अधिकतर राज्यों में लागू नहीं किया गया। जांच से पता चला कि 23 राज्यों में वेतन भुगतान में इतनी देरी हुई कि भारी मात्रा में फंड पोस्ट ऑफिसों में जमा हो गया, क्योंकि मज़दूर अन्यत्र चले गए और आशा छोड़ दी कि वेतन मिलेगा भी।

सीएजी की रिपोर्ट ने यह भी उजागर किया कि प्रति ग्रामीण परिवार रोज़गार 2009-10 में 54 दिनों से घटकर 2011-12 में 43 दिन ही रह गया। आखिर ऐसा क्यों हुआ? देखा गया कि कई काम जो 2011-12 में लिए गए थे वे पूरे नहीं किए गए और इस वजह से वेतन भी रुका रहा। कई काम तो बीच में ही छोड़ दिए गए जिसकी वजह से मनरेगा का ग्रामीण अधिसंरचनात्मक ढांचे को मजबूत करने का सामाजिक मकसद भी पूरा न हुआ।

मनरेगा फंड का भारी दुरुपयोग भी हुआ है। जहां सैकड़ों करोड़, रुपये सहायक अभियंताओं को अतिरिक्त बांटे गए, वोट बटोरने के लिए पंचायती राज समारोहों में पैसे खर्च हुए, वहीं जिला प्रमुखों, प्रधानों, सरपंचों, मुखिया लोगों को अतिरिक्त पैसे दिए गए, जिसके लिए कोई प्रावधान नहीं है। प्रशासनिक अतिरिक्त खर्च की भी बात रिपोर्ट में की गई है। केंद्र ने राज्यों को समय से अनुदान नहीं भेजे और राज्यों ने अपने हिस्से का अनुदान नहीं दिया तो केंद्रीय अनुदान भी बिना उपयोग वापस लौट गया। ऐसे कार्य लिए गए जिनके बारे में प्रावधान ही नहीं था और ये काम पंचायतों के द्वारा तय न करके जिला अधिकारियों के माध्यम से कुछ निहित स्वार्थी तत्वों को तुष्ट करने हेतु अनुशंसा के दायरे में लाए गए।

जहां तक राज्यों की बात है तो बिहार काफी गहरे पानी में है। दिसंबर 2012 तक 1.25 करोड़ मनरेगा कार्ड बंटे थे पर एक एनजीओ की शिकायत पर कार्ड घोटाले की जांच के बाद पता चला कि इनमें केवल 43 लाख सही थे। यानी 60 फीसद कार्ड बोगस थे। बिहार के 24 जिलों के जो 290 मुखिया दोषी पाए गए उन्हें कोई सजा नहीं दी गई। ये बातें 25 अप्रैल को देश के महत्वपूर्ण अखबार में छपी है।

सबसे बड़ी समस्या रही है कि कांग्रेस की महिला अध्यक्ष की ओर से और जयराम रमेश और सीएजी की ओर से मनरेगा के महिलाओं को लेकर घोर चुप्पी रही। क्यों एक शब्द भी महिलाओं के मामले में व्यापक अनियमितताओं को लेकर नहीं कहा गया है? मसलन महिलाएं 1/3 हिस्सा रोज़गार की हक़दार होते हुए भी वंचित हैं। महिलाओं को काम न देकर इस नाम पर वापस भेज दिया जाता है कि परिवार का कोई पुरुष साथ नहीं है, बच्चों के लिए क्रेच की व्यवस्था नहीं है। महिलाओं को वेतन का भुगतान नहीं किया जाता है। उन्हें भारी काम दिया जाता है। अब सवाल यह उठता है कि यदि महिला बराबर की हक़दार है तो महिला परिप्रेक्ष्य में भी ऑडिट क्यों नहीं हो सकता?

(लेखिका एपवा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं)

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