दलहन का तो मौसम और तकनीक ने मिलकर किया नुकसान

मौसम में परिवर्तन और बरसात के समय में फेरबदल का असर न केवल खरीफ और रबी फसलों पर पड़ रहा है बल्कि इसका असर दलहन जैसी फसलों पर भी देखने को मिल रहा है।

दलहन की फसलों के लिए इस साल का यह मौसम कुछ ठीक रहा है। अरहर की फसलों पर कम बारिश के कारण नकारात्मक प्रभाव कम पड़ा। फिर भी उसके फूलने के समय यानि, जनवरी महीने में सामान्य से अधिक ठंड के कारण फूल लगने में व्यवधान पैदा हुआ है। वैसे ऊपर के चित्र में अरहर की खेती लहलहा रही है। हालांकि यह फोटो नवंबर की है, जो पूसा के केंद्रीय कृषि अनुसंधान केंद्र परिसर में ली गई है। अगर इतनी अच्छी फसल के अंत में आकर फूल ही न लगें तो फसल की कामयाबी का अंदाजा आप लगा सकते हैं।

दलहन के लिए शुरुआत के दिनों में वर्षा कम या बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। बीच में कुछ पानी की जरूरत होती है। गत खरीफ के मौसम में बारिश कम होने से दलहन के लिए यह अनुकूल माहौल रहा। हालांकि इसने उत्तर बिहार के सबसे प्रमुख फसल धान को काफी नुकसान पहुंचाया। लेकिन जनवरी में आकर इसपर भी मौसम की मार पड़ गई। यहां बताना जरूरी है कि दलहन में अरहर ऐसी फसल है जो लगभग दस महीनों में तैयार होती है। कम अवधि के अरहर बिहार में बहुत ही कम होते हैं।

राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय के अंतर्गत तिरहुत कृषि महाविद्यालय ढोली में दलहन विभाग के मुख्य वैज्ञानिक डॉ. देवेन्द्र सिंह का कहना है कि अत्यधिक ठंड का प्रभाव चना पर सबसे अधिक पड़ा है। चना के सोन कमांड एरिया, जिसमें कैमूर, सासाराम, रोहतास और बक्सर जिले हैं, में कंबांइंड हार्वेस्टिंग से यह फसल सर्वाधिक प्रभावित हुई है। इसमें पहले धान के खेत में चने बोए जाते थे। लेकिन अब इस नई खेती में पुआल को खेत में फूंक दिया जाता है। इससे चना नहीं हो पाता। इसी तरह ताल क्षेत्र यानि, मोकामा से बरहिया तक में 30,000 हेक्टेयर का चना क्षेत्र फली छेदक कीड़ों से नष्ट हो रहा है। असल में मौसम परिवर्तन होने और खेती में कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से वे पक्षी खत्म हो गए हैं जो चने के कीड़ों को खाते थे। ये पक्षी छोटी प्रजातियों के थे और समय पर चने के अलावा दलहन की अन्य फसलों से भी उनमें लगनेवाले कीड़ों से अपना पेट भरते रहे हैं।

लेकिन पिछले पचास-साठ सालों के दौरान आधुनिक तरीके से शुरू हुई खेती और उनमें अत्याधुनिक कीटनाशकों के प्रयोग ने एक ओर तो फसलों को कीड़ों से बचाया लेकिन दूसरी ओर इन कीटनाशकों से युक्त फलियां खाने से यह परंपरागत पक्षी अपना अस्तित्व ही खो बैठे। लेकिन दूसरी समस्या शुरू हो गई। धीरे-धीरे फसलों के कीड़े भी इन कीटनाशकों के अभ्यस्त हो गए और फिर से फसलों को चट करना शुरू कर दिया। पर इन कीड़ों को खाने वाले पक्षी नहीं रहे। इससे कीड़े चना को खा रहे हैं। इसका असर मसूर समेत तमाम दलहनों पर भी पड़ रहा है।

पूसा स्थित राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय के मुख्य वैज्ञानिक (धान) और अध्यक्ष (पौधा जनन) डॉ. नितेन्द्र कुमार सिंह ने कहा कि उत्तर बिहार के संदर्भ में औसत बारिश का मानक 1250 मिलीमीटर है जो इस साल मात्र 880 मिलीमीटर ही हुई। इसका असर भी चने की फसल पर पड़ा है। जमीन में आर्द्रता की कमी हो गई है। इससे चने में एक तो फसल नहीं लग रहींं वहीं दूसरी ओर जो फलियां आई भी हैं वे सूखी हुई रह गई हैं। उनका कहना है कि मौसम पर तो जोर नहीं चल सकता लेकिन तकनीक और कीटनाशकों के प्रयोग में बदलाव लाया जा सकता है। इससे दलहन की फसलों को काफी हद पर दोबारा प्राप्त किया जा सकता है। अगर किसानों की यह प्रवृत्ति नहीं बदली गई और सरकार की ओर से इस दिशा में कारगर कदम नहीं उठाए गए तो बिहार से दलहन को खत्म होने में ज्यादा वर्ष नहीं लगेंगे।

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