सारांश
भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसकी 75 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या गांवों में रहती है। इन लोगों की जरी जावश्यकताओं को पूरा करने के लिये जल संसाधनों का सही तरीके से पूरा विकास किया जाना चाहिये जन संसाधनों के सही तरीके से पूरा विकास किया जाना चाहिए। जल संसाधनों के विकास में उस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति, मौसम तंत्र, मृदा, वनस्पति व अन्यः जरूरतों को ध्यान में रखा गया था। यह विकास इस तरह से किया गया था, जिससे कि ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले लोगों की न केवल जरूरी जरूरी आवश्यकताएं पूर्ण हो बल्कि पड़ोसी क्षेत्र के रहने वाले लोगों के साथ किसी भी तरह का संघर्ष भी न हो। साथ ही जल संसाधन का दुरुपयोग भी न हो इस तरह का जल प्रबंधन 80 के दशक तक अच्छी तरह से चला।
पिछले कुछ वर्षों में भारत व राज्य सरकारों द्वारा चलित जलग्रहण परियोजनाओं के कुछ कार्यक्रमों से इस जल संरक्षण व प्रबंधन पर बुरा असर पड़ा है। जलागम कार्यक्रम में जल संरक्षण पर अत्यधिक ज़ोर दिया गया है जिसमें जलग्रहण क्षेत्रों के नालों में जल संरक्षण के लिये छोटे-छोटे (एनीकट व चैक डैम) बनाये गये। इन छोटे-2 बांधो को बनाने में दो बातों को ध्यान में नहीं रखा गया एक तो जलग्रहण क्षेत्र में जल संरक्षण के लिए जल की उपलब्धता व बनाये गये बांधों की जगह का उद्देश्य के अनुसार चुनाव।
इन्हीं दो कारणों से पारम्परिक तालाबों पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। और गाँव की जीविका कहे जाने वाले ये तालाब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य तालाबों को इस प्रकार से पुनर्जीवितः करना है कि तालाब व् भूजल उपयोग करने वाले किसानों को जीविका की हानि न हो एवं पर्यवारण में सुधार भी हो सके।
Impact of watershed development programme on traditional tank system in semi-arid region of South India: A Case Study
AK Singh, M 5 Rama Mohan Rao & RN Adhikari Centual Soil and Water Conservation Research and Training Instant Research Centre Chillosar Agra 282006 (LL.P.) "Central Soil and Water Conservation Research and Training Institute. Research Centre, Bellary Cantt. Bellary 583 104 (Karnataka)
Abstract/ Agriculture is the main occupation in India and 75% population of India lives in villages. In recent years, watershed development programme promoting in-situ rain water harvesting and ground water based irrigation have been extremely successful with increase in production in many arid and semi arid areas. However, this success has not come without a cost. Findings show that drainage line treatment through water harvesting structures and increased ground water extraction have drastically reduced average inflows in to the traditional tanks. The present case study shows that drastic reduction in inflow into Anubur tank of Bellary district in North-East of Karnataka. As the tank is now dry for longer periods, the utility of the tank has declined for activities such as washing. bathing, watering livestock etc. On the positive side, this changed pattern has resulted in providing better access to irrigation to the farmers in the tank catchment and command. Interestingly, this has not been at the expense of irrigation in the tank command area as the total area irrigated in the command has not changed even through the source of water is now ground water and not tank release. The feasibility of re-establishing tank inflows to original levels and increase ground water without impacting severely on the livelihoods of the new irrigators in the tank catchment and command have also been discussed in this paper.
सामग्री एवं विधि
अध्ययन क्षेत्र :
कर्नाटक के अर्द्ध शुष्क क्षेत्र में कुछ समय पहले की गई एक खोज से ज्ञात हुआ कि अगर समय रहते उचित उपाय नहीं किये गये तो तालाब एक इतिहास का हिस्सा बनकर रह जायेंगे। ॥ जलग्रहण विकास के कार्यक्रम के प्रभाव को जानने के लिये कर्नाटक के अलग-अलग हिस्सों में तीन तालाबों को चुना गया, जो कि गुडलूर तालाब जिला चित्रदुर्ग, अनुबूर तालाब - जिला बेल्लारी में स्थित हैं। कर्नाटक के अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र में बेल्लारी जिले का अनुबूर तालाब-जिला बेल्लारी को विशेष रूप से प्रस्तुत करता है जो कि 2150 हेक्टेयर क्षेत्रफल में 76° 22' से 76°33'उ. देशान्तर एवं 14° 33' से 14° 42' पूर्व अक्षांश में विस्तरित है (चित्र 1) इसमें पांच गाँव अनुबूर, बी. जी. हल्ली, जोगी हल्ली, डी.बी हल्ली, उपरहल्ता, विकास खण्ड उपरहल्ला में स्थित है जिसमें जलग्रहण की मृदा लाल-दोमट जो कि ग्रेनाइट व गनीसिस की परतों से युक्त है। समुद्र तल से ऊंचाई 600-711 मीटर तक है। इस क्षेत्र की मुख्य क्षेत्रीय फसलें जैसे ज्वार, धान , मक्का, रागी, मूंगफली, सूरजमुखी, कपास, चना तथा सब्जियाँ हैं। इनक्षेत्रों में जल संरक्षण के लिये जल की उपलब्धता 11 से 18% तक मापी गई है।
अपवाह जल की गणना:
11वर्ष (2000-2010) की वर्षा जल अपवाह (Runoff) की गणना करने के लिये बेल्लारी से ली गई क्षेत्र की सामान्य वर्षा 531 मिमी. (401 से 577 मिमी.) पाई गई। एक दिन की 12.5 मिमी.से अधिक वर्षा को कटावी वर्षा मानकर अपवाह जल के लिये कर्व नम्बर विधि से गणना की गयी जिसमें कटावी वर्षा 271 मिमी. (सामान्य वर्षा की 51%) और अपवाह जल करीब 69 मिमी. (सामान्य वर्षा का 11%) पायी गयी।
(सारणी 1) - अनुबूर तालाब का वार्षिक अपवाह
तालाबों का नाम
गुडलूर (जिला चित्रदुर्ग)
अपवाह जल में आई कमी के कारण नालों में से जमा रेत (silt) का निकालना व खनन के कारण जलग्रहण क्षेत्र में जलभराव की क्षमता का बढ़ जाना
अनुबूर (जिला बेल्लारी)
जलाशय निर्माण के समय तालाब में दो सहायक नालियों द्वारा अपवाहित जल की आमद होती थी परन्तु एक नाली पर जल संरक्षण संरचनाओं के बनने व दूसरी नाली के जलग्रहण क्षेत्र का संरक्षण बहुत अच्छा न होने के कारण अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पा रही हैं।
इनचिगरी (जिला बीजापुर)
इनचिगरी (बीजापुर) जलाशय के अधिग्रहण क्षेत्र में नालियों पर किसानों द्वारा बड़े- बड़े बांध बनाने से अपवाह जल की आमद अवरुद्ध हुई है, व इसके अलावा गन्ना व धान जैसी फसलों के लिये अत्यधिक भूजल दोहन होना, क्षेत्र में पेयजल समस्या का मुख्य कारण है ;
परिणाम एवं विवेचना
अनुबूर तालाब का पुराना स्वरूप
अनुबूर तालाब के जल ग्रहण (2150 है.) में लगभग 531 मिमी. वर्षा होती है। इस तालाब की क्षमता 144 है. मी. है। पहले इस तालाब से करीब 65 हेक्टयर क्षेत्र सिंचित होता था। अनुबूर तालाब का जलग्रहण क्षेत्र तालाब को पूर्ण क्षमता तक न भरने के कारण दो अतिरिक्त नालियाँ जिनका जलग्रहण क्षेत्र कुल 325 है. (228 + 98 है. था इनके बहाव की दिशा में परिवर्तन कर अपवाह जल को तालाब तक लाया गया जिससे कि तालाब में जल स्तर अपनी क्षमता तक सके। वर्ष 2004 में अधिकतम अपवाह जल (270 है. मी.) जलग्रहण क्षेत्र से प्राप्त हुआ था वर्ष 2007 जो कि सूखा वर्ष था उसमें अपवाह जल की मात्रा केवल 50 है. मी. मापी गई। उपरोक्त आंकड़ों से दर्शित है कि यह तालाब पहले वर्षा के समय एक बार अवश्य भरते थे उसके बाद कुछ मात्रा में अपवाही जल निष्कासित (spill over होकर नीचेके तालाबों को चला जाता था ( सारणी 2)
वर्षा के अध्ययन वर्षों के आंकड़ों से यह ज्ञात हुआ कि 70% अपवाह जल माह जुलाई, अगस्त व सितम्बर माह में व 27 प्रतिशत वर्ष के अन्य महीनों में पाया गया। यह अपवाह जल वर्षा के केवल 7-10 दिनों के अन्दर होता है जब ये तालाब अपनी क्षमता तक भरते थे तब न 65 है. में विभिन्न फसलों की सिंचाई होती थी वरन समाज के विभिन्न वर्गों की जीविका इन्हीं तालाबों पर निर्भर थी। जिसके कारण ग्रामीण वर्ग गांव छोड़कर जीविका के लिये शहर की जोर कम पलायन करते थे।
सारणी 2 - अनुबूर जल ग्रहण क्षेत्र में महीने वार अपवाह जल, मिमी. (2000-200)
अनुबूर तालाब का वर्तमान स्वरुप
वर्तमान अध्ययन व तालाब के अपवाह जल की मात्रा को देखने के बाद पाया गया कि यह तालाब पिछले 11 वर्षो में अपनी पूर्ण क्षमता तक नहीं भर सका शोध द्वारा यह पता चला कि तालाब के जल आवक में आयी कमी के अनेक कारण हैं, उनमें से मुख्य कारण निम्न है:
- जलग्रहण क्षेत्र में अत्यधिक जलसंरक्षण के लिये संरचनाओं structures) का निर्माण होना।
- भूजल का अत्यधिक दोहन।
- बंजर जमीन को कृषि योग्य बनाकर खेती करना, तथा
- सरकारी नीतियाँ
सारणी 3: अनुबूर तालाब जलग्रहण क्षेत्र में जल संरक्षण संरचनाओं का विस्तृत विवरण
सारणी- 4: तालाब में जन आवक पर संरचनाओं का प्रभाव
जलग्रहण क्षेत्र में अत्यधिक जल संरक्षण के लिये संरचनाओं का निर्माण होना
अनुबूर तालाब के जलपाहण क्षेत्र में जलागम परियोजना वर्ष 1995 में प्रारम्भ हुई जिसमें विभिन्न प्रकार की जल एवं मृदा संरक्षण की 26 संरचनाओं का निर्माण हुआ ( सारणी 3) जिसके कारण अधिकतर अपवाह जल इन संरचनाओं के पीछे रुक जाता है जिससे तालाब तक बहुत कम अपवाह जल ही जा पाता है। इस अध्ययन से एक विशेष जानकारी यह भी मिली कि इन जल संरक्षण संरचनाओं के पीछे एकत्रित जल का वाष्पीकरण स्तर तालाब के जल के वाष्पीकरण स्तर से कहीं अधिक होता है उससे कहीं अधिक मात्रा में जल का वाष्पीकरण द्वारा क्षरण भी होता है (सारणी 4)
भूजल का अत्यधिक दोहन
किसी भी क्षेत्र में अगर सिंचित फसलों की पैदावार और बारानी क्षेत्र की फसलों की तुलना की जाये तो यह पाया गया है कि सिंचित क्षेत्र की फसलों द्वारा 3 से 5 गुना अधिक लाभ होता है। इसी कारण किसानों ने जलग्रहण क्षेत्र में सिंचाई के लिये गहरे कुएँ खोदने शुरू कर दिए। 1990 से पहले किसान केवल कम गहरे 76 कुएँ, जिनकी गहराई 10 मीटर तक थी, पर ही आश्रित थे पर आज जलग्रहण क्षेत्र के अन्दर इस स्तर के कुएँ सूख गये हैं। अब इनके स्थान पर नई तकनीकी वाले बोरवेल व ट्यूबवेल बनने लगे हैं, जिनकी गहराई 300 मीटर से भी अधिक है। इस प्रकार के बोरवेल के कारण क्षेत्र के अन्दर भूजल का अत्यधिक दोहन हुआ व भू-जल स्तर बहुत तेजी से नीचे गिरता गया जिसके कारण असंतृप्त क्षेत्र में वृद्धि हुई इसके कारण तालाबों व नालियों के अन्दर बहुत कम समय के लिये जल नजर आता है। (सारणी 5)
सारणी 5 : समय के अनुसार कुओं की संख्या
सारणी 6 : जलागम कार्यक्रम से पहले व बाद में सिंचाई क्षेत्र व भूजल उपयोग की तुलना (सारणी-5)
बंजर जमीन को कृषि योग्य बनाकर कृषि करना
जलागम परियोजना के अन्तर्गत इस बात पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है कि किस तरह से बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाया जाये। इसके लिये बंजर भूमि पर बड़े-बड़े मिट्टी के बांध बंधे बनाये गये व वर्षा जल को रोका गया। उन खेतों में संकर प्रजाति की फसलों को उगाया जाता है यह सब प्राकृतिक संसाधनों की स्थिति को ध्यान में रखकर नहीं किया जाता है, जिसके कारण जल उपयोग संकर जाति की फसलों को उगाने में अत्यधिक होता है। शोध से यह भी ज्ञात हुआ कि जहाँ पहले 214 हेक्टेयर की सिंचाई होती थी वह बढ़कर 336 हेक्टेयर (57प्रतिशत अधिक) तक पहुँच गई। वहीं पर भूजल उपयोग 207 है.मी. से बढ़कर 340 है. मी. (65 % अधिक) पहुँच गया (सारणी 6)
सरकारी नीतियाँ
जलाशयों की वर्तमान स्थिति के लिये सरकारी नीतियां भी दोषपूर्ण हैं इनमें संशोधन अति अनिवार्य लगते हैं, वे इस प्रकार से है:-
- जलागम विकास परियोजना के तहत निर्मित संरचनाओं के कारण तालाबों के अन्तर्गत अपवाह जल भूगर्भ जल पुनर्भरण (ground water recharge) में कमी आयी 7.5 अश्वशक्ति (HP) तक के पम्पों पर निःशुल्क बिजली देना व पम्प के लिये 75% तक अनुदान या बहुत ही सस्ती दरों पर कर्ज मिलना।
- भूगर्भ जल निकालने के लिये कुएँ खोदने या बोरिंग करने के संबंध में सरकारी ठोस नीति का न होना। इसके साथ जल का उपयोग करने वाले लोगों का सक्षम संगठन न होना।
- भारत में 70-80 के दशक में हरित क्रांति पर बहुत जोर दिया गया जबकि हरित क्रांति के साथ-साथ शुष्क खेती (dry land agriculture) के विकास पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये था। जिससे कि जल संसाधन पर कम दबाव पड़ता। दक्षिण भारत के तालाबों को पहले सामाजिक देख रेख में मरम्मत व रख-रखाव होता था परन्तु बाद में सरकारी नियंत्रण में हो जाने से इनके रख-रखाव में बहुत कमी आयी।
तालाबो के सुधार हेतु विशेष सुझाव
यह पाया गया है कि आज भी नये जल संसाधनों का विकास करने में जितना खर्चा आता है, उससे बहुत कम खर्च में इन तालाबों का जीर्णोद्धार किया जा सकता है। यदि इन पुराने तालाबों का जीर्णोद्धार किया जाता है तो समाज के विभिन्न वर्गों के लिये जीवन यापन करने का सहारा मिल जायेगा साथ ही गांवों से लोगों का पलायन भी रोका जा सकेगा। इसके लिये निम्न तथ्यों पर ध्यान दिया जाना बहुत जरूरी है
- जो समाज आज इन तालाबों से अलग हो चुका है उसको दुबारा से इनके सुधार व रखरखाव में सहभागी बनाया जाए और ग्राम सभा जैसी चुनी हुई संस्थाओं से भी जोड़ा जाए।
- जलागम परियोजना के तहत जल संरक्षण के लिये जो संरचनाएं बनायी जाता हैं उनके लिये अपवाह जल की मात्रा का विशेष रूप से ध्यान रखा जाए।
- अपवाह जल की मात्रा तालाब की क्षमता से अधिक होने पर ही जलागम क्षेत्र में जल संरचनाएं बनाई जाएं अन्यथा इन्हें न बनाया जाए
- जल संरक्षण की संरचनाओं की अभिकल्पनाएं (design) इस प्रकार से हो कि इन संरचनाओं में जल अपनी क्षमता का एक गुना ही रुके शेष जल निचले स्तर के तालाबों व नालियों में पहुँच सके। यह तभी सम्भव है जब जल संरक्षण के लिये संरचनाओं में जलद्वारों का निर्माण किया जाए जिससे कि जब वर्षा समाप्त होने को हो और नालियों में स्वच्छ जल बह रहा हो तो उस समय जलद्वारों को बन्द कर दिया जाए। इस प्रकार जल संरक्षण संरचनाओं में मिट्टी का जमाव रोका जा सकेगा। और इनकी क्षमता लम्बे समय तक बनी रहेगी।
- जैसा कि सर्वविदित है कि तालाब प्राचीन काल से ही अर्द्ध शुष्क क्षेत्र में बहुत उपयोगी होते हैं। यदि जलग्रहण क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियों अनुकूल हों तो वहाँ पर भू-सतह के नीचे जल संरक्षण संरचनाओं (sub surface water harvesting structures) का निर्माण किया जाए जिससे जल संरक्षण संरचनाओं के एकत्रित जन के वाष्पीकरण को कम किया जा सके
- नालियाँ जो कि तालाब में जल जाती हैं उनकी लगातार सफाई होनी चाहिए जिससे कि अपवाह जल की गति में अवरोध न हो सके साथ में एक सुनिश्चित समय अन्तरात पर तालाबों की मिट्टी को बाहर निकलवाते (desiltution) रहना आवश्यक है।
- जलग्रहण क्षेत्र के अन्तर्गत बेकार पड़े कुएं व बोरिंगों को जल पुनर्भरण के उपयोग में लाया जाये ।
- गहरे जल स्रोतों से जल निकालने की प्राथमिकता केवल पीने के पानी के लिए ही होनी चाहिए यह सुनिश्चित करना बहुत जरूरी है।
- तालाबों में उचित मात्रा में जल होने पर लिफ्ट सिंचाई योजना के तहत किसानों को जलग्रहण क्षेत्र में जल दिया जाए वहीं कमाण्ड क्षेत्र में भू-गर्म जल निकालने की अनुमति होनी चाहिए जिससे कि लाभार्थी किसानों को समान रूप से लाभ मिल सके।
- तालाबों के पानी से सिंचाई होने की दशा में जलग्रहण क्षेत्र में इस तरह की फसलों का चयन हो जिनमें जल माँग कम व लाभ भी औसत स्तरीय हो, इससे तालाबों में अधिक समय तक जल बना रह सकेगा।
- पारम्परिक जल संरक्षण की अन्य विधियों जैसे छत के पानी की इकट्ठा कर उपयोग में लाये जाने की विधि को प्रोत्साहित करने की ओर भी ध्यान दिया जाए।
- कुछ तालाबों में दूसरे जलग्रहण क्षेत्र से जल लाने के लिये नालियों का निर्माण किया जाए या दोबारा से चालू किया जाए।
तालाबों को सुधारने के लिये कानूनी व प्रशासनिक सुझाव ।
- योजना का प्रारूप बड़े स्तर पर तैयार हो परन्तु कार्यक्रम ग्राम स्तर से ही शुरु हो ।
- प्राकृतिक संसाधनों के रख-रखाव की योजना लम्बे समय के लिये होनी चाहिये ।
- तालाबों के जल पर पीने के पानी का अधिकार पहले होना चाहिये। उसके बाद भूजल भरण व सिंचाई के लिये प्राथमिकताएं होनी चाहिए।
- प्रोत्साहन व प्रताड़ना का कानूनी अधिकार जल उपयोग समिति के पास रहना चाहिए, जिससे भ्रष्टाचार कम हो। इन सबके साथ-साथ भूजल दोहन व प्रबन्धन के लिये भी प्रभावी कानून बनने चाहिए और ईमानदारी के साथ लागू भी होने चाहिए।
- तालाब सुधार योजनाओं को राष्ट्रीय रोजगार गारन्टी योजना जैसी परियोजनाओं के साथ जोड़ा जाना चाहिए।
निर्णायक परिणाम
तालाबों की वर्तमान स्थिति के लिये सारांश में जलग्रहण विकास से ज्यादा छोटे बाँधों का बनना, भूगर्भ जल का अत्यधिक दोहन व खेती के क्षेत्र में बढ़ोत्तरी, तालाबों के उचित रख-रखाव में कमी व सरकारी कानून को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। आज इन पारम्परिक बहुउद्देशीय तालाबों को दुबारा से जीवित करना बहुत जरूरी हो गया है जिससे कि इनके द्वारा पर्यावरण व समाज के सब वर्गों को दोबारा से लाभ मिल सके, उसके लिये ऊपर बताये गये कारणों को समझकर उनका समय रहते समाधान निकालना होगा तभी तालाबों की बहुउद्देशीय पहचान बन सकेगी और गांव के प्राकृतिक वातावरण को जीविका के साधन बढ़ाने के लिये और अच्छा बनाया जा सकता है।
लेखक:- एके सिंह, एम एस राम मोहन राव एवं आर एन अधिकारी केन्द्रीय एवं जल संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, अनुसंधान केन्द्र, छलेसर, आगरा 282006 (उ.प्र.) "केन्द्रीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, अनुसंधान केन्द्र, बेल्लारी कैंट, बेल्लारी 5831004 (कर्नाटक)
सोर्स:- भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान पत्रिका, वर्ष 22 अंक 2 दिसम्बर 2014
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