Fluorosis in southern Rajasthan
क्षेत्र में एनपीपीसीएफ का क्रियान्वयन और जटिलताएँ
क्षेत्र में फ्लोरोसिस के सम्बन्ध में किये गए शोध
पूरी दुनिया में फ्लोरोसिस पेयजल से जुड़ी एक प्रमुख व्याधि मानी जाती है। एशिया में भारत और चीन सबसे ज्यादा इस समस्या से जूझ रहे हैं। वैसे तो फ्लोरोसिस की बीमारी कई कारणों से हो सकती है जैसे भोजन अथवा औद्योगिक उत्सर्जन या किसी अन्य माध्यम से शरीर में फ्लोराइड की ग्राह्यता, लेकिन फ्लोराइडयुक्त पेयजल से होने वाला फ्लोरोसिस सबसे आम और गम्भीर होता है।
ब्यूरो ऑफ इण्डियन स्टैंडर्ड और इण्डियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के अनुसार जल में फ्लोराइड की अधिकतम स्वीकार्य मात्रा 1.0 मिलीग्राम प्रति लीटर या 1.0 पीपीएम से अधिक नहीं होनी चाहिए। इससे अधिक मात्रा होने पर उस जल को ग्रहण करने वाले पर फ्लोरोसिस होने का जोखिम मँडराता है।
राष्ट्रीय फ्लोरोसिस रोकथाम और नियंत्रण प्रोग्राम
भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने फ्लोरोसिस की रोकथाम के लिये राष्ट्रीय फ्लोरोसिस रोकथाम और नियंत्रण प्रोग्राम भी बनाया है लेकिन पूरा असर होता दिखाई नहीं पड़ रहा। इस प्रोग्राम की रीवाइज्ड गाइडलाइन के अनुसार भारत में 14,133 आवासीय क्षेत्र (गाँव, कस्बे, शहर आदि) में भूजल में फ्लोराइड की अधिकता पाई गई है और इन चिन्हित क्षेत्रों में लगभग 1 करोड़ 17 लाख की आबादी निवास करती है। इस आबादी में से 7670 आवासीय क्षेत्र केवल राजस्थान में हैं।
पिछले कई वर्षों से फ्लोरोसिस के कारण विकलांगता होने जैसी घटनाएँ सामने नहीं आ रही है। शहरी क्षेत्रों में लोग शुद्ध जल पीने लगे हैं जिस कारण वहाँ पर फ्लोरोसिस का प्रभाव कम होने लगा है। लेकिन गाँवों में अधिकांश आबादी फ्लोराइडयुक्त भूजल का ही सेवन करती है और सतही जल से पेयजल आपूर्ति की सुविधा उपलब्ध नहीं है। जो कि फ्लोराइड की समस्या का एक प्रमुख कारण है। देश की फ्लोराइड प्रभावित जनसंख्या में से लगभग 40 लाख से अधिक की आबादी राजस्थान में निवास करती है। इन आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि जनसंख्या और क्षेत्रफल की दृष्टि से फ्लोराइड से सर्वाधिक प्रभावित राज्य राजस्थान है।
देश के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री श्री जेपी नड्डा संसद में प्रश्नकालीन सत्र के दौरान कह चुके हैं कि देश में एक करोड़ लोग फ्लोरोसिस के कगार पर खड़े हैं और सरकार इस समस्या से निपटने के प्रयास कर रही है। गैर संक्रमणीय रोग फ्लोरोसिस के बारे में बताते हुए उन्होंने संसद में कहा था कि पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय फ्लोरोसिस से ग्रस्त क्षेत्रों में स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करवाने का प्रयास कर रहा है। जो कि फ्लोरोसिस को रोकने के लिये अधिक आवश्यक है।
राष्ट्रीय फ्लोरोसिस रोकथाम और नियंत्रण योजना के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा था कि वर्तमान में अधिकांश आवासीय क्षेत्र इस प्रोग्राम में अभी कवर कर लिये गए हैं और बाकी बचे हिस्सों को 2017 तक कवर कर लिया जाएगा। एनपीपीसीएफ को राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अन्तर्गत चलाया गया था जिसका बाद में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के रूप में नामकरण किया गया। नड्डा ये भी बताया था कि राजस्थान में फ्लोरोसिस के सर्वाधिक मामले पाये गए हैं और उसके तेलंगाना और आन्ध्र प्रदेश में समस्या सर्वाधिक विकराल रूप मौजूद है।
दक्षिणी राजस्थान में फ्लोरोसिस की स्थिति
वैसे तो राजस्थान के अधिकांश जिलों में पेयजल/भूमिगत स्रोतों में फ्लोराइड की मानक मात्रा से अधिकता पाई गई है, लेकिन दक्षिणी राजस्थान जहाँ आदिवासी समुदाय की बहुलता है वहाँ पर जल में 0.3 से 10.8 पीपीएम की फ्लोराइड सान्द्रता पाई गई है। दक्षिणी राजस्थान के चार जिलों (डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, उदयपुर और नागौर) में फ्लोराइड की मात्रा अन्य जिलों की अपेक्षा अधिक पाई गई है, जो स्थानीय नागरिकों के लिये फ्लोरोसिस समेत कई परेशानियों का सबब बन रही है।
राजस्थान में राष्ट्रीय फ्लोरोसिस रोकथाम और नियंत्रण प्रोग्राम (एनपीपीसीएफ) में अलग-अलग वर्षों विभिन्न जिलों का चयन किया गया। वर्ष 2008-09 में नागौर जिले का, 2010-11 में अजमेर, राजसमंद, भीलवाड़ा, टोंक और जोधपुर जिले का, 2011-12 में बीकानेर, चुरु, दौसा, डूंगरपुर, जयपुर, जैसलमेर, जालौर, पाली, सीकर और उदयपुर जिले का, 2013-14 में बाँसवाड़ा और सवाई माधोपुर जिले का, 2014-15 में करौली, चित्तौड़गढ़, गंगानगर, झालावाड़ और झुंझनू जिले का एनपीपीसीएफ प्रोग्राम के अन्तर्गत चयन किया गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि अलग-अलग वर्षों के दौरान दक्षिणी राजस्थान के चारों फ्लोरोसिस पीड़ित जिलों का चयन कर लिया गया और नागौर जिला उत्तर भारतीय क्षेत्र में आने वाला एकमात्र जिला था जिसमें प्रोग्राम सबसे प्रारम्भिक वर्ष में प्रारम्भ किया गया।
एनपीपीसीएफ प्रोग्राम के अन्तर्गत प्रोजेक्ट प्रारम्भ करने के लिये पेयजल आपूर्ति विभाग के फ्लोरोसिस से सम्बन्धित बेसलाइन सर्वेक्षण डेटा को एकत्रित, विश्लेषित और उपयोग करने का लक्ष्य रखा गया था। साथ ही चयनित क्षेत्र में समग्र प्रबन्धन का और फ्लोरोसिस के मामलों की रोकथाम, निदान और प्रबन्धन के लिये क्षमता विस्तार का लक्ष्य रखा गया था।
इस प्रोग्राम के अन्तर्गत प्रशिक्षण, मैनपावर सपोर्ट के माध्यम से फ्लोरोसिस के मामलों की जल्दी पहचान, प्रबन्धन और पुनर्वास के लिये स्वास्थ्य देखभाल वितरण तंत्र के अलग-अलग स्तरों पर क्षमता विस्तार करने की रणनीति बनाई गई थी। जिला स्तर पर संविदा के माध्यम से नियुक्त स्टाफ द्वारा स्कूली बच्चों सहित समुदाय में फ्लोरोसिस निरीक्षण करना और जिला चिकित्सालयों या मेडिकल कॉलेज पर फ्लोरोसिस के मामलों की जल्दी पहचान और पुष्टिकरण के लिये प्रयोगशाला नैदानिक सुविधाओं की स्थापना करना भी प्रोग्राम की रणनीति का हिस्सा था।
इस रणनीति में भौतिक परीक्षण, मूत्र एवं पेयजल के स्रोतों की प्रयोगशाला में जाँच तथा एक्स-रे के माध्यम से फ्लोरोसिस की जल्दी पहचान करना, फ्लोरोसिस रोग, स्वच्छ पेयजल और पौष्टिक भोजन की सलाह के द्वारा जागरुकता बढ़ाना और दवाई अथवा शल्यक्रिया के माध्यम से फ्लोराइड का उपचार करना भी शामिल किया गया था।
एनपीपीसीएफ का अपेक्षित आउटकम
प्रोग्राम के अपेक्षित आउटकम के अनुसार यह माना गया था कि जिन जिलों में प्रोग्राम चलाया जा रहा है वहाँ इसके क्रियान्वयन के बाद कई सारे फ्लोरोसिस के मामलों का प्रबन्धन पुनर्वास कर दिया जाएगा। मूत्र और जल में फ्लोराइड के प्रयोगशाला में परीक्षण की क्षमता का विकास हो जाएगा। यह भी माना गया था कि इसके मापन के लिये सरकारी सेटअप में प्रशिक्षित मानव संसाधन हमारे पास उपलब्ध होगा। साथ ही जिलों में फ्लोराइड व फ्लोरोसिस से सबन्धित सामुदायिक जीवन के सभी क्षेत्रों में जागरुकता में सुधार होना भी अपेक्षित था।
दक्षिणी राजस्थान में फ्लोरोसिस के हालात
उदयपुर सम्भाग में फ्लोराइड की स्थिति गम्भीर है। डूंगरपुर जिले के छोटा दीवड़ा ग्राम पंचायत में स्थित आयुर्वेदिक औषधालय के चिकित्सक डॉ. सुभाष भट्ट बताते हैं कि क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में अधिकांश लोगों के दाँतों में पीलापन, मटमैलापन या कालापन आम है जो डेंटल फ्लोरोसिस का एक लक्षण है। बहुत अधिक समय तक फ्लोराइडयुक्त जल का सेवन करने से स्केलेटल फ्लोरोसिस भी होता है। हड्डियों में पीलापन आने लगता है जो वैसे तो नजर नहीं आता लेकिन क्षेत्र के अधिकांश पोस्टमार्टम में यह बात सामने आती है। विजिबल लक्षणों में हड्डियों में टेढ़ापन और भंगुरता प्रमुख हैं। जागरुकता और पोषण की स्थिति सुधरने से हालात थोड़े सुधरे हैं। मसलन पिछले कई वर्षों से फ्लोरोसिस के कारण विकलांगता होने जैसी घटनाएँ सामने नहीं आ रही है।
शहरी क्षेत्रों में लोग शुद्ध जल पीने लगे हैं जिस कारण वहाँ पर फ्लोरोसिस का प्रभाव कम होने लगा है। लेकिन गाँवों में अधिकांश आबादी फ्लोराइडयुक्त भूजल का ही सेवन करती है और सतही जल से पेयजल आपूर्ति की सुविधा उपलब्ध नहीं है। जो कि फ्लोराइड की समस्या का एक प्रमुख कारण है। डॉ. भट्ट बताते है कि पूरे सम्भाग में केवल उदयपुर में ही सीरम फ्लोराइड जाँच की सुविधा है और अन्य जिला स्तरों पर जाँच की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है। क्षेत्र के चिकित्सकगण अभी भी फ्लोरोसिस के गम्भीर मामलों को गुजरात की सीमा से लगे होने के कारण हिम्मतनगर या अहमदाबाद रेफर करते हैं।
एनपीपीसीएफ प्रोग्राम के अन्तर्गत दक्षिणी राजस्थान के जिलों में आयुर्वेद विभाग के कर्मचारियों का इस सम्बन्ध में कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं हुआ है जिस कारण से वे भी लोगों को समस्याओं को दूर करने में पूरी तरह सक्षम नहीं हैं।
एनपीपीसीएफ क्रियान्वयन : प्रायोगिक और सैद्धान्तिक बाधाएँ
एनपीपीसीएफ का क्रियान्वयन करने के लिये डूंगरपुर जिले में नियुक्त एनपीपीसीएफ कंसल्टेंट और जिला फ्लोरोसिस कंट्रोल ऑफिसर किशोरीलाल वर्मा बताते हैं कि डूंगरपुर और आस-पास के जिलों में एनपीपीसीएफ के क्रियान्वयन में कई प्रायोगिक परेशानियाँ और सैद्धान्तिक समस्याएँ सामने आ रही हैं। प्रोग्राम के इंप्लीमेंटेशन के लिये मानव संसाधन की कमी बहुत बड़ा रोड़ा है। सरकार ने क्रियान्वयन के शुरुआती छ: महीनों के लिये फील्ड इंवेस्टीगेटर लगाए थे। जिनका अनुबन्ध समाप्त हो सकता है इस कारण से उनके द्वारा किया जाने वाला ठप्प पड़ चुका है। आईईसी सामग्री को वितरीत करने का कार्य हो या सर्वे से जुड़ा कोई कार्य हो, फील्ड इंवेस्टीगेटर की मदद के बिना इसे अंजाम नहीं दिया जा सकता है। मोबिलिटी सपोर्ट न होने से भी खासी दिक्कत आती है।
अब तक जिले में कई विद्यालयों और पंचायतों के स्तर पर जागरुकता लाने के लिये आईईसी (इंफोर्मेशन, एजुकेशन एंड कम्युनिकेशन) गतिविधियाँ सम्पादित की गई है। जिला कंसल्टेंट के अनुसार विद्यालयों में फ्लोराइड की जाँच कर उसकी रिपोर्ट राज्य सरकार, केन्द्र सरकार और जिला कलेक्टर को सबमिट की गई है।
कुछ हिस्सों में उचित पोषण के माध्यम से फ्लोरोसिस के प्रभाव को कम करने के लिये वयस्कों और बच्चों को कैल्शियम, विटामीन-सी, फोलिक एसिड और जिंक युक्त दवाइयाँ दी जा रही हैं।
किये जा रहे प्रयासों में संगतता नहीं आ पा रही है और सैद्धान्तिक रूप से मेडिकल ट्रीटमेंट और शल्यक्रिया को लेकर कोई निश्चित गाइडलाइन न होने के कारण निर्णय लेने की प्रक्रिया में असमंजस बना रहता है। केन्द्रीय स्तर पर पॉलिसी निर्माण की गतिविधि बहुत धीमी है।
वर्तमान में एनपीपीसीएफ के राष्ट्रीय कंसल्टेंट का पद रिक्त पड़ा है जिस पर पूर्व कंसल्टेंट कुमकुम मारवाह के चले जाने के बाद से कोई नियुक्ति नहीं हुई है। जिला स्तर पर एनपीपीसीएफ के सफल क्रियान्वयन के लिये स्वास्थ्य विभाग, एनपीपीसीएफ क्रियान्वयन समूह और जलदाय विभाग के बीच समन्वय होना सबसे अधिक आवश्यक है। डूंगरपुर समेत आस-पास के जिलों में इसका पूर्णतया अभाव नजर आता है।
जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी (जलदाय) विभाग से समन्वय का है अभाव
मानव जाति पहले से ही प्राकृतिक कारणों से हो रहे फ्लोराइड की समस्या से जूझ रही है ऐसे समस्या से उबरने के स्थान पर उसे और गहरा करने वाले कारण उत्पन्न हो रहे हैं। औद्योगिक फ्लोरोसिस इसका एक नया पहलू है। विभिन्न प्रकार के कोयले को जलाने से निकलने वाला धुआँ और औद्योगिक गतिविधियों जैसे विद्युत उत्पादन, इस्पात, लोहा, जिंक, अल्युमिनियम, फॉस्फोरस, रासायनिक उर्वरक, ईंट, काँच, प्लास्टिक, सीमेंट और हाइड्रोफल्युरिक अम्ल आदि के निर्माण और उत्पादन से सामान्यतया फ्लोराइडयुक्त गैसों का उत्सर्जन होता है जो औद्योगिक फ्लोरोसिस का एक प्रमुख कारण है।
राज्य सरकार के जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग जो कि सार्वजनिक जलापूर्ति के लिये उत्तरदायी है उसके अधिकारियों का कहना है कि एनपीपीसीएफ के अन्तर्गत उन्हें कोई निर्देश प्राप्त नहीं हुए हैं। डूंगरपुर के अधिशासी अभियंता विनोद बिहारी शर्मा बताते हैं कि विभाग अपने स्तर पर पानी को फ्लोराइड मुक्त करने में लगा हुआ है लेकिन एनपीपीसीएफ के अन्तर्गत उन्हें कोई दिशा-निर्देश नहीं प्राप्त हुए हैं। आइनोमीटर की सुविधा विभाग की प्रयोगशाला में नहीं है। हालांकि हमने इकाई हैण्डपम्पों पर वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए थे जिनमें से कुछ अभी चल रहे हैं और कुछ बन्द हो चुके हैं।क्षेत्र के लोग बताते हैं, ‘कुछ वर्षों पहले जलदाय विभाग के सहयोग से कई हैण्डपम्पों पर खानापूर्ति के लिये फ्लोराइड ट्रीटमेंट प्लांट लगाए गए थे। जिनमें से अधिकांश ठीक से रखरखाव न हो पाने के चलते अब बन्द हो चुके हैं। लगाए गए ट्रीटमेंट प्लांट की गुणवत्ता कम होने के कारण उनसे निकलने वाले संशोधित जल का स्वाद फ्लोराइडयुक्त जल के स्वाद से भी अच्छा नहीं था इस कारण से लोगों ने भी जागरुकता के अभाव में उनका उपयोग करना खुद से बन्द कर दिया।’ जन सुविधाओं का ठीक से रखरखाव न हो पाने और जागरुकता प्रसार न हो पाने के कारण लोगों को ट्रीटमेंट प्लांट का कोई लाभ नहीं मिल पाया।
प्रतापगढ़ जिले के पीपलखूँट पंचायत मुख्यालय पर में अपना निजी क्लीनिक चलाने वाले राहुल समादिया कहते हैं कि प्रतापगढ़ जिला बनने से पहले पीपलखूँट, बांसवाड़ा जिले में आता था और जिले से अलग होने के बाद भी क्षेत्र में फ्लोरोसिस की स्थिति बांसवाड़ा जिले के अन्य भागों से अलग नहीं है। हमारे पास आने वाले अधिकांश मरीजों में दाँतों का पीलापन आम है। 40 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में स्केलेटल फ्लोरोसिस के कई मामले देखने को मिलते हैं, जो कैल्शियम युक्त अच्छा आहार लेने में असमर्थ होते हैं। जलदाय विभाग घंटाली और पीपलखूँट कस्बे में सतही जल की आपूर्ति करने का प्रयास कर रहा है जिससे इन कस्बों में फ्लोरोसिस का प्रभाव कम हो पाएगा।
दक्षिणी राजस्थान के तीन जिलों में फ्लोरोसिस की स्थिति पर शोध
दक्षिणी राजस्थान में फ्लोरोसिस की स्थिति को लेकर सेवानिवृत्त जीव विज्ञानी शांतिलाल चौबीसा ने 2001 में एक ‘दक्षिणी राजस्थान में एंडेमिक फ्लोरोसिस’ नामक शोध रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसके अनुसार राजस्थान के डूंगरपुर, बांसवाड़ा और उदयपुर जिले में स्थित ग्रामीणों (अधिकांश आदिवासी मीणा समुदाय) की स्वास्थ्य स्थिति और अर्थव्यवस्था को गहरा आघात पहुँच रहा है।
फ्लोराइड की अधिकता न केवल मानवों में दुर्बलता और बीमारियाँ उत्पन्न कर रही है, अपितु पालतु पशुओं जिन पर ग्रामीण आदिवासी अर्थव्यवस्था निर्भर करती है, उनमें भी रोगों, दुर्बलता और कम उत्पादकता का कारण बन रही है। यह शोध डूंगरपुर जिले के फतेहपुरा, मेवाड़ी, झरियाना, इंदौरा, देवतालाब, डाड और बोकेडसल गाँवों में, बांसवाड़ा जिले के देवलिया, इसारवाड़ा, गाँगरतलाई, वासियोड़ा, मांगला, बोरदा और छोटी पडैल गाँव में तथा उदयपुर जिले के मत्सुला, अमलु, डागर, थड़ा, भभराणा, धमोदर और झालारा गाँव से एकत्रित कुल 21 गाँवों के सैम्पल के आधार पर किया गया था। इन्हीं गाँवों में बच्चों और वयस्कों में डेंटल फ्लोरोसिस के लिये और वयस्कों में स्केलेटल फ्लोरोसिस के लिये अध्ययन किया गया।
इन गाँवों में फ्लोराइड की सान्द्रता 1.5 से 4.0 पीपीएम की रेंज में पाई गई। बांसवाड़ा, डूंगरपुर, और उदयपुर जिलों के अलग-अलग गाँवों में क्रमश: 21.3, 25.6 और 38.9 प्रतिशत बच्चों में और 33.3, 36.9 और 44.8 प्रतिशत बच्चों में डेंटल फ्लोरोसिस पाया गया। 17-22 वर्ष आयु समूह के लोगों में 77.1 प्रतिशत की सर्वाधिक डेंटल फ्लोरोसिस प्रबलता पाई गई। डेंटल फ्लोरोसिस लैंगिक रूप से कोई महत्त्वपूर्ण बदलाव देखने को नहीं मिला। 1.5 पीपीएम की फ्लोराइड सान्द्रता पर शोध में सम्मिलित बांसवाड़ा, उदयपुर और डूंगरपुर जिले के गाँवों में क्रमश: 6.1, 6.8 और 9.5 प्रतिशत वयस्कों में स्केलेटल या कंकालीय फ्लोरोसिस के प्रमाण मिले। बांसवाड़ा, उदयपुर और डूंगरपुर जिले में 3.7 पीपीएम, 4.0 पीपीएम और 3.2 पीपीएम की अधिकतम फ्लोराइड सान्द्रता पर वयस्कों में क्रमश: 32.8, 36.6 और 39.2 प्रतिशत स्केलेटल फ्लोरोसिस की प्रबलता पाई गई थी। शोध के दौरान बच्चों में स्केलेटल फ्लोरोसिस के लक्षण नहीं पाये गए थे। फ्लोरोसिस के चलते पुरुषों में स्केलेटल विकृतियाँ अधिक पाई गई। जो कि फ्लोराइड की बढ़ती सान्द्रता वाले क्षेत्रों में अधिक प्रभावशाली होती हुई पाई गई थी। फ्लोरोसिस की वजह से तत्कालीन शोध में वयस्कों में अशक्तता, कूबड़ या अस्थि में विकलांगता या टेढ़ापन (गेनु वेरम) जैसी विकृतियाँ भी पाई गई। शोध में सम्मिलित किसी भी व्यक्ति में घेघा या गेनु वलगम जैसे रोग नहीं पाये गए, लेकिन अन्य विकृतियों के रेडियोलॉजिकल परिणाम भी प्राप्त हुए थे।
2001 में किये गए वैज्ञानिक शोध के निष्कर्ष और सारांश में क्षेत्र में फ्लोरोसिस की समस्या पर चिन्ता जताते हुए पेयजल को डिफ्लोरिडेट करने और स्वास्थ्य चेतना जागृत करने के लिये तत्काल प्रभावी कदम उठाने की अनुशंसा की गई थी। लेकिन ऐसा कुछ जमीनी स्तर पर होता नहीं दिख रहा है।
विगत कुछ वर्षों में लोगों ने पेयजल के लिये कुओं के स्थान पर हैण्डपम्प के पानी का उपयोग करना अधिक प्रारम्भ कर दिया है। जो कि कुओं की अपेक्षा अधिक गहरे होते हैं और इस वजह से उनमें फ्लोराइड की सान्द्रता अधिक पाये जाने की सम्भावना होती है। जो कि क्षेत्र में फ्लोरोसिस की समस्या को जटील बनाने का कारण बन सकता है।
औद्योगिक फ्लोरोसिस : मानव जनित फ्लोरोसिस
मानव जाति पहले से ही प्राकृतिक कारणों से हो रहे फ्लोराइड की समस्या से जूझ रही है ऐसे समस्या से उबरने के स्थान पर उसे और गहरा करने वाले कारण उत्पन्न हो रहे हैं। औद्योगिक फ्लोरोसिस इसका एक नया पहलू है। विभिन्न प्रकार के कोयले को जलाने से निकलने वाला धुआँ और औद्योगिक गतिविधियों जैसे विद्युत उत्पादन, इस्पात, लोहा, जिंक, अल्युमिनियम, फॉस्फोरस, रासायनिक उर्वरक, ईंट, काँच, प्लास्टिक, सीमेंट और हाइड्रोफल्युरिक अम्ल आदि के निर्माण और उत्पादन से सामान्यतया फ्लोराइडयुक्त गैसों का उत्सर्जन होता है जो औद्योगिक फ्लोरोसिस का एक प्रमुख कारण है। जिसके परिणाम मनुष्यों और पालतु पशुओं को भुगतने पड़ते हैं।
हाइड्रोफ्लोरोसिस से ग्रस्त दक्षिणी राजस्थान औद्योगिक फ्लोरोसिस से भी अछुता नहीं है। जून 2015 में औद्योगिक फ्लोरोसिस को लेकर शांतिलाल चौबीसा का एक और शोध पत्र प्रकाशित हुआ। जिसमें उदयपुर शहर के दक्षिण में 8-12 किमी दूर स्थित उमरदा गाँव में औद्योगिक फ्लोरोसिस और उसके प्रभावों का विश्लेषण किया गया। उमरदा के आस-पास सुपरफास्फेट उवर्रक के संयंत्र चल रहे हैं। शोध के दौरान निकलने वाली फ्लोराइडयुक्त गैसों के कारण घरेलू बकरियों (वैज्ञनिक नाम : कैप्रा हिरकस) में डेंटल और स्केलेटल फ्लोरोसिस का अध्ययन किया गया।
शोध अध्ययन में तीन वर्ष या अधिक आयु की 108 बकरियों का अध्ययन किया गया। अध्ययन में शमिल सभी बकरियों का चयन करते समय यह सावधानी बरती गई कि उनका जन्म उमरदा गाँव या उसके आस-पास के एक किमी के दायरे में हुआ हो ताकि बकरियों पर जन्मकाल से हो रहे फ्लोराइड के प्रभावों का विश्लेषण किया जा सका।
उमरदा क्षेत्र के भूजल में फ्लोराइड की सान्द्रता मानक से सान्द्रता कम पाई गई थी। जिससे यह बात सत्यापित हुई कि फ्लोरोसिस के सभी प्रभाव क्षेत्र में औद्योगिक गतिविधियों और फ्लोराइड युक्त गैसों के कारण हो रहे हैं। औद्योगिक फ्लोरोसिस में शरीर में फ्लोराइड खाद्य पदार्थों के माध्यम से जाता है, मसलन फ्लोराइड के गैसों के उत्सर्जन के बाद उनके सुक्ष्म कण आस-पास के वातावरण में आस-पास के पेड़-पौधों, घास-फूस आदि पर जम जाते हैं।
शोध में शामिल बकरियों के शरीर में फ्लोराइड के प्रवेश करने का प्रमुख कारण उस फ्लोराइड के कण युक्त घास का सेवन करना माना गया।
शोध में शामिल 108 में से कुल 9 बकरियों में इनसाइजर दाँतों में गहरे भूरे रंग धब्बे और उनके अधिक घर्षण के कारण उनमें ऑस्टियो-डेंटल फ्लोरोसिस के लक्षण पाये गए। पशुओं में लंगड़ापन पाया गया। पशुओं के शरीर के जोड़ों में विकृतियाँ और सूजन पाई गई। मांसपेशियों में खिंचाव और उनके जबड़े, पसलियों, पंजों और धड़ के हिस्से की हड्डियों में घाव पाये गए।
कई पशुओं में औद्योगिक फ्लोरोसिस के कारण पेट दर्द, हैजा, अनियमित प्रजनन चक्र, और निरन्तर गर्भपात जैसे गैर-स्केलेटल फ्लोरोसिस के लक्षण भी पाये गए।
फ्लोरोसिस के लक्षण पशुओं में शुष्क ऋतुओं में वर्षा ऋतु की तुलना में अधिक पाये गए क्योंकि वर्षाजल वनस्पतियों से फ्लोराइड के सूक्ष्म कणों को धो देता था जिस कारण उन दिनों पशुओं द्वारा फ्लोराइड की मात्रा कम ग्रहण की जाती है, जबकि शुष्क ऋतु के दौरान फ्लोराइड के कणों का घास-फूस आदि से चिपके रहने के कारण उन दिनों पशुओं द्वारा अधिक फ्लोराइड ग्रहण किया जाता है।
शोध में गाय-भैंस या अन्य पशुओं में फ्लोरोसिस के लक्षण बकरियों से अधिक पाये गए क्योंकि बकरियों के भोजन में कैल्शियम और विटामीन सी की मात्रा पर्याप्त होने कारण रोग-प्रतिरोधक क्षमता भी अधिक होती है।
शोध के निष्कर्ष में बताया गया कि औद्योगिक फ्लोराइड उत्सर्जन से लम्बे समय तक सम्पर्क में रहने पर पशुओं के अलावा मनुष्यों पर भी विपरीत प्रभाव हो सकते हैं। औद्योगिक फ्लोरोसिस के लिये मनुष्य प्रकृति को दोष नहीं दे सकता क्योंकि इसका जिम्मेदार वो खुद है। दक्षिण राजस्थान के उन हिस्सों में जहाँ रासायनिक और औद्योगिक गतिविधियाँ अपने चरम पर है वहाँ लोगों और पशुओं को औद्योगिक फ्लोरोसिस का शिकार बनते देखा जा सकता है।
भारत के अधिकांश क्षेत्र में शोध एवं रोकथाम कार्य हाइड्रोफ्लोरोसिस पर किया जा रहा है, लेकिन मानव जनित औद्योगिक फ्लोरोसिस को इतना गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा है, जितना गम्भीरता से लिये जाने की आवश्यकता है।
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