दक्षिणी बिहार में ‘आहर’ और ‘पईन’ का जीर्णोद्धार

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में पटना के दक्षिण में 40 किलोमीटर की दूरी पर खासपुर गाँव में सरकार के सहयोग से आहर और पईन प्रणाली को पुनरुज्जीवित किया गया है। पुराने आहर और पईन की गाद साफ कर दी गई तो आहर में यथेष्ट पानी जमा होने लगा। सूखे कुओं में भी पानी आ गया।गंगा के दक्षिण का इलाका दक्षिणी बिहार कहलाता है। वह कभी सूखे तो कभी बाढ़ की मार से त्रस्त रहता है। कई हिस्सों के छोटे किसान और मजदूर रोजी-रोटी की तलाश में परदेश जाने को मजबूर हो जाते हैं। यह इतिहास का क्रूर विडंबना ही है कि जो इलाका अढ़ाई हजार वर्ष पहले गौरवशाली अतीत के केंद्र में था वह आज पिछड़े इलाकों में शुमार किया जाता है। बिंबसार द्वारा स्थापित मगध राज्य, जो चंद्रगुप्त के शासनकाल में और उसके बाद भी स्वर्णयुग का आधार बना रहा था, अपने किसानों के सामान्य खुशहाल जीवन का माध्यम भी नहीं रह गया है। अपने वैभव काल में यह क्षेत्र न केवल खेती के लिए—जो कभी भी बहुत आसान नहीं रही, वरन धातुओं के लिए भी प्रसिद्ध था।

दक्षिण बिहार छोटा नागपुर के (ऊँचे) पठार और गंगा के बीच स्थित है। गंगा के किनारे-किनारे पतली मैदानी पट्टी को छोड़कर सारा इलाका ढलवाँ है। सोन को छोड़कर पुनपुन, मोरहर, मोहाने और गायनी नदियाँ दक्षिण के पठार से निकल कर उत्तर में गंगा में अपना पानी उड़ेलती हैं। यह ढलान एक किलोमीटर में एक मीटर के बराबर है, इसलिए वर्षा का पानी (1000 से 1200 मिलीमीटर) तेजी से बह रहा है। कहीं जमीन पथरीली है तो कहीं मिट्टी बलुही है। इसलिए मैदानी इलाकों की तरह तालाब खोदकर पानी जमा नहीं किया जा सकता। भूगर्भीय जल का स्तर भी बहुत नीचा है। इसलिए अधिकांश स्थानों पर कुएँ नहीं खोदे जा सकते। बहुत से पेड़ कट जाने से मिट्टी के कटाव की समस्या और गंभीर हो गई है।

इस क्षेत्र को जल संकट से उबारने के लिए हमारे पूर्वजों ने ईसा पूर्व की सदियों में ही अद्भुत जल प्रबंधन प्रणाली विकसित की थी जो बीसवीं सदी के आरंभ तक किसी न किसी रूप में प्रचलन में रही। अंग्रेजों के जमाने में ही पुरानी व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई थी। 1947 के बाद भी इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया। हाल के वर्षों में गैर-सरकारी संगठनों की प्रेरणा से इस प्रणाली को जीर्णोद्धार के इक्का-दुक्का प्रयास हुए हैं। एक प्रयास इसी वर्ष आरंभ हुआ है।

दक्षिण बिहार में गया से कोई 34 किलोमीटर दूर फतेहपुर प्रखंड है जो मगध प्रमंडल में आता है। इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च एंड एक्शन (इरा) की पहल पर फतेहपुर प्रखंड के चालीस गाँवों के हजारों मजदूरों और किसानों ने अपनी किस्मत स्वयं प्रबंधन व्यवस्था को पुनर्जीवित करने में जुट गए। इरा ने सरकार के सहयोग से 12 इंजीनियरों द्वारा प्रखंड की ध्वस्त प्रबंधन व्यवस्था की पड़ताल करवा ली है। चार पंचायतों के किसान ‘आहर’ और ‘पईन’ के पुनर्निर्माण और साफ-सफाई में जुट गए हैं।

आहर और पईन क्या हैं? ढलवाँ जमीन पर पानी रोकने के लिए एवं वर्षा और बरसाती नदी-नालों का पानी रोकने के लिए—बाँध या पुश्ते बनाए जाते हैं। समुचित स्थान पर पानी का बहाव रोकने के लिए एक या दो मीटर ऊँची मोटी दीवाल खड़ी की जाती है। फिर बगल से पानी निकल न जाए — फैले नहीं — इसलिए दीवाल के दाएँ और बाएँ, जिधर से पानी आता है, पुश्ते बनाए जाते हैं। पुश्ते की ऊँचाई धीरे-धीरे घटती जाती है और अंतिम छोर पर जमीन की सतह से मिल जाती है। पानी घेरने के लिए ढलान के तीनों ओर बनाई गई संरचना को ‘आहर’ कहते हैं। यह आवश्यकतानुसार एक-दो या अधिक किलोमीटर लंबी हो सकती है। ‘पईन’ नहरों के मानिंद है जो आहर में पानी लाती है और खेतों में पानी नहरों द्वारा पहुँचाया जाता है।

इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च एंड एक्शन को किसानों की रजामंदी हासिल करने में कुछ कठिनाइयाँ भी आईं। नक्सल-प्रभावित इलाके में उनके लिए काम करना आसान नहीं था। दूसरे, ‘आहर’ बनाने के लिए कई किसानों के लिए खेत लिए जा रहे थे। जब आहर प्रणाली बेकाम हो गई तो बहुत से लोग उन जगहों पर पुनः खेती करने लगे। लेकिन जब उनकी समझ में आ गया कि जल प्रबंधन की व्यवस्था हो जाने पर वे कुल मिलाकर फायदे में रहेंगे तो वे आहर और पईन के लिए जगह देने के वास्ते तैयार हो गए।

बड़े आकार के आहरों और उनसे जुड़ी पईनों से कई गाँवों में सिंचाई हो सकती है। इसलिए इनका निर्माण और रख-रखाव सामुदायिक संस्थाओं द्वारा ही संभव है। इसलिए फतेहपुर के गाँवों में ‘इरा’ की पहल पर ग्राम सिंचाई समिति का गठन किया गया है।

आहर और पईन की प्राचीन परंपरा को ग्रहण कैसे लगा? यह विदेशी शासन के दौरान जमींदारी प्रथा के बिखराव और जमींदारों की शोषण वृत्ति के कारण हुआ। 1922 में जब बिहार एंड उड़ीसा इरीगेशन वर्क्स बिल पेश किया गया तब दक्षिण बिहार में जल प्रबंधन व्यवस्था की दुर्दशा का मुख्य कारण यह बताया गया था कि “पिछले 40-50 वर्षों में जमींदारियाँ छोटी-छोटी जमींदारियों में बँट गई थी। पहले बड़ा जमींदार सिंचाई संसाधनों की देखभाल करता था, लेकिन छोटे जमींदारों के सहयोग के अभाव में उनकी मरम्मत और सारसंभाल में कठिनाई होने लगी।” दूसरा कारण यह था कि जमींदार लगान के रूप में फसल का ज्यादा बड़ा हिस्सा माँगने लगे थे। इसलिए जिंस के बदले नकद लगान देने की कानूनी व्यवस्था हो जाने पर किसानों ने नया विकल्प चुन लिया। नकद लगान मिलने का रिवाज हो जाने पर सिंचाई व्यवस्था में उनकी दिलचस्पी नहीं रही — उनको हर हालत में पूरा लगान मिलने लगा था। 1922 के अधिनियम के अधीन जिला कलेक्टर को सिंचाई संबंधी विवाद निपटाने का अधिकार दिया गया, पर जिला प्रशासन कभी हरकत में नहीं आया।

गया जिले की बाढ़ सहायता समिति ने 1949 में कहा था कि “गया जिले में प्रायः बाढ़ आने का कारण है सिंचाई व्यवस्था की अवनति”। जमीन ढलवाँ है जो पानी नहीं सोख पाती।

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में पटना के दक्षिण में 40 किलोमीटर की दूरी पर खासपुर गाँव में सरकार के सहयोग से आहर और पईन प्रणाली को पुनरुज्जीवित किया गया है। पुराने आहर और पईन की गाद साफ कर दी गई तो आहर में यथेष्ट पानी जमा होने लगा। सूखे कुओं में भी पानी आ गया। लोग दो और कोई तीन फसलें भी उगाने लगे हैं। कोई 200 एकड़ जमीन में सिंचाई की व्यवस्था हो गई है। इस गाँव को जवाहर रोजगार योजना और सोनपुर कमांड डेवलपमेंट अथॉरिटी से वित्तीय सहायता मिलने से उसकी कई मुश्किलें आसान हो गईं हैं।

इस तरह का दूसरा शालीन प्रयोग चकई प्रखंड के घोरमा गाँव में हुआ जहाँ आचार्य विनोबा भावे की ग्रामदान योजना के अधीन गाँव वालों को बंजर जमीन दान में मिली थी। यह पहला ग्रामदान गाँव था। जमुई जिले के सिमुलतला गाँव के ग्राम भारती सर्वोदय आश्रम ने विनोबा भावे का सपना साकार करने के लिए इस सूखाग्रस्त इलाके में आहर-पईन व्यवस्था का जीर्णोद्धार कराया। सारा काम श्रमदान से पूरा हुआ। आहर में 100 एकड़ क्षेत्र का पानी जमा होता है जो 45 परिवारों के खेतों के लिए काफी है। पहले भोजन के लाले पड़े रहते थे, अब गेहूँ की रोटी मिलने लगी है। आहर से पानी लेने वाला किसान एक निश्चित रकम ग्राम कोष में जमा करता है — आहर की सार-संभाल के लिए। गेहूँ, धान और आलू की खेती होती है। एक ने अमरूद के 60 पेड़ लगाए हैं जिनसे साल में 7-8 हजार रुपये की आमदनी हो जाती है। आहर मछली फार्म बन गया है आय का एक और जरिया।

समुचित प्रेरणा और निर्देशन तथा कुछ सहायता मिल जाए तो गाँव वाले मिलजुल कर बहुत कुछ कर सकते हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

Path Alias

/articles/dakasainai-baihaara-maen-ahara-aura-paina-kaa-jairanaodadhaara

×