दक्षिण गंगा कावेरी

सह्याद्रि की पश्चिमी पर्वत शृंखला में एक ‘ब्रह्मगिरि या ब्रह्मकपाल’ नामक ऊँची पहाड़ी है। ब्रह्मगिरि की परिसर में एक निर्झर ‘पवित्र पुष्करिणी’ कुण्ड के नाम से विख्यात है, जिसके किनारे देवी-मन्दिर में पूजा-अर्चना चलती है और एक छोटा सरोवर है, जिसमें पवित्र पुष्करिणी का पानी झरता रहता है। यात्री इसमें स्नान करते हैं। सरोवर के जल से मेरा जन्म होता है। शिशु रूप में मैं सर्वप्रथम एक लघु प्रणाली बनकर दर्शन देती हूँ।

सह्याद्रि की पश्चिमी पर्वत शृंखला में एक ‘ब्रह्मगिरि या ब्रह्मकपाल’ नामक ऊँची पहाड़ी है। ब्रह्मगिरि की परिसर में एक निर्झर ‘पवित्र पुष्करिणी’ कुण्ड के नाम से विख्यात है, जिसके किनारे देवी-मन्दिर में पूजा-अर्चना चलती है और एक छोटा सरोवर है, जिसमें पवित्र पुष्करिणी का पानी झरता रहता है। यात्री इसमें स्नान करते हैं। सरोवर के जल से मेरा जन्म होता है। शिशु रूप में मैं सर्वप्रथम एक लघु प्रणाली बनकर दर्शन देती हूँ। कुर्ग जनपद के निवासी मुझे बेटी का ममत्व देते हैं, प्रतिवर्ष कार्तिक मास की प्रतिपदा से तृतीया तिथि तक का त्रिदिवसीय ‘कावेरी-विदा पर्व’ धूमधाम भरे मेला के साथ जन-भावनाओं को उजागर करता है। महिलाएँ मेरी विदा की रस्म वैसे ही निभाती हैं, जैसे विवाह के बाद बेटी को ससुराल भेजा जाता है। मेरी महिमा के लोकगीत और लोक-कथाएँ गायी-सुनाई जाती हैं। मानव भी प्रकृति का ही अंग है; भले वह उसको अपने से भिन्न माने। प्रकृति तथा मानव का पारस्परिक तादात्म्यबोध भारतीय संस्कारों में रचा-बसा है-यही सब ब्रह्मगिरि के इस मेले में हर्षोल्लासपूर्वक ध्वनित होता है। पवित्र पुष्करिणी के समीपस्थ मैं ही देवी रूप में प्रतिमा बनी, मन्दिर में प्रतिष्ठित हूँ जहाँ मेरी आराधना की जाती है।

जब मैं अपने पिता सह्याद्रि से विदा लेकर सिन्धु के वरण के लिए चल देती हूँ, तो मेरे जनक यह सोचकर कि मेरी लजीली बेटी कावेरी को ससुराल के लोग दीन-हीन न समझें, ‘कनका’ नामक एक अन्य युवती और अधिक उपहार देकर मेरे पास भेजते हैं। ‘कनका’ ‘भाग-मण्डलम्’ स्थान पर मुझसे मिलती है। यहीं मुझे उपहार का शेष भाग मिलता है, अत: इस मण्डल (भू-क्षेत्र) को ‘भाग-मण्डलम्’ कहा जाता है। ‘कनका’ को भेजने के बाद भी मेरे पिता को कन्या-विदाई पर प्रदत्त उपहार पर्याप्त नहीं लगे, इसलिए उन्होंने मेरी बहन हेमावती को मेरे पीछे लगा दिया। कनका से मिलकर मेरा पीहर छूटने का दुख हलका पड़ गया, परन्तु भागमण्डलम् के चित्रपुरम तक ऊँची-नीची चट्टानों में हँसी-ठिठोली करती हुई हम दोनों जब पहुँची, तब देखा कि आगे मैसुर है, जो मेरी नैहर की सीमा है। ‘कनका’ ‘गजोटी’ से मेरे संगम का क्षेत्र प्रयागराज की भाँति तैर्थिक माहात्म्य से सम्पन्न है, जहाँ केरल मन्दिरों की स्थापत्य शैली में शिव का प्राचीन भागण्डेश्वर मन्दिर है। चारो ओर पहाड़ियों और प्रकृति की मनोरम छटाओं से परिपूर्ण कसबा भागमण्डलम् गुड़ियों के घर की छवि से सुशोभित है।

चित्रपुरम् से कण्णेकाल तक मैं कुर्ग-मैसूर की सीमारेखा बनी हूँ। यहाँ से आगे मैं आगे तो बढ़ती जाती हूँ, पर नैहर छूटने के दु:खवश हासन जनपद तक सिसकती सुबकती समुन्नत शिला-समूह में अपना अश्रु मलिन मुँह छिपाती हुई चलती हुई चलती हूँ। तिप्पूर में उत्तरवाहिनी मेरी धारा से पिता के द्वारा प्रेषित हेमावती मिलती है। मेरे प्रवाह की विविध भंगिमाओं से प्रेरित तिप्पूर के जन- मानस ने अनेक रोचक कहानियाँ गढ़ी हैं। यात्रा-पथ में, पुराना मडिकेरी का दुर्ग देखते ही मेरे मन में उन दिनों की यादें ताजा हो जाती हैं, जब प्राकृतिक सौन्दर्य से भरा- पूरा मडिकेरी नगर कुर्ग- नरेश की राजधानी था।

भारत की इन्द्रपुरी, अधुनातन का विकसित उद्योग-केन्द्र, उत्कृष्ट वास्तुकला के प्रदर्शक भवन एवं रमणीय उपवनों से श्रीमण्डित मैसूर में पहुँचते ही मेरे भँवरों के कान महाराज कृष्णराज की यश: प्रशस्ति सुन-सुनकर आनन्द-विभोर हो उठते हैं। मैसूरी राजाओं की कुलदेवी चामुण्डी की तलहटी में बसा यह क्षेत्र दशहरा मेला, वृन्दावन उपवन और कृष्णराज सागर बाँध के लिए विश्व-विदित है। मुझसे पोषित वृन्दावन उपवन यहाँ का सुन्दरतम स्थान है, जिसको देखकर इन्द्र के नन्दनवन की कल्पना साकार हो जाती है।

कृष्णराज सागर बाँध मेरा सबसे पहला बाँध है, जो मेरी सहायिकाओं और मेरे जल का वैज्ञानिक अवदान है। योजनों विस्तार- क्षेत्र में फैला हुआ यह जलबन्ध देखने पर समुद्र - दर्शन का आनन्द देता है। अपने चौंसठ जल-द्वारों से कर्नाटक की नहरों में जलापूर्ति का दायित्व-निर्वाह करता हुआ यह आजकल जिस स्थान पर अवस्थित है, पहले उसका नाम कण्णमबाड़ी था। अपने अभियन्ता बेटों के भगीरथ-प्रयास से मुझे दक्षिणगंगा की बहुसंख्य भुजाओं- जैसी प्रतीयमान नहरों से कृषि- समृद्धि हुई। मैं भगवती अन्नपूर्णा बन गयी। वैभव-लक्ष्मी के समान मेरी इस परियोजना के स्वप्नद्रष्टा थे महान अभियन्ता स्व. विश्वेश्वरैया; जिनके लिए मेरे हृदय में वही आदर और ममत्व है, जो महर्षि अगस्त्य के लिए मैं अपने जन्म से आज तक अपने उर-अन्तर में सहेजे हूँ।

वृन्दावन उपवन में पहुँचने के लिए बाँध की दीवार से सोपान मार्ग है। दीवार के साथ ही मुझे देवी रूप में मूर्तिस्थ किया गया है। मेरी प्रतिमा चतुर्भुजी है। ऊपर के दोनों हाथों में माला, कमल तथा नीचे के दोनों हाथों में जल ढरकाते हुए दो कलशों से सुशोभित मैं शुभेच्छा व्यंजित करती हूँ कि दक्षिण भारत मेरे अमृत जल से सदा संतृप्त रहे। सुख समृद्धि पाये।

मन्दिर की घण्टियों के समान मधुर कलरव करती हुई मैं मैसूर से नीचे उतरकर अपनी कुछ यात्रा तय करने के बाद दो द्वीप रचती हूँ। प्रथम द्वीप है- श्रीरंगपट्टणम या आदिरंगम, जो वर्तमान से सुदूर युगों में मैसूर की राजधानी रह चुका है। इस द्वीप के मन्दिर में अनन्तशायी विष्णु को अपनी श्रद्धा-भक्ति का नैवेद्य अर्पित कर मैं गद्गद हो उठती हूँ। नैसर्गिक सुषमा से सजे- सँवरे इस द्वीप से गुजरते हुए मेरे प्रवाह गंग, होयसल राजवंशों के उत्थान-पतन, हैदरअली का शासनकाल तथा दुर्ग -द्वार पर अंग्रेजों से युद्ध करते हुए वीरगति पाने वाले टीपू सुल्तान का इतिहास याद करने लगते हैं। आदिरंगम के समीपस्थ रंगणाथिट्टु में पक्षियों का अभ्यारण्य है।

खगकुल की ‘कुल-कुल’ से अपने ‘कल- कल’ निनादों की माधुर्य- प्रतिस्पर्धा-सी करती मैं पहाड़ियों को काट-काटकर अपना मार्ग गढ़ती हुई आगे बढ़ती हूँ। मेरी धाराएँ फिर एक अन्तर्वेद बनाती हैं। सघन वनों की हरीतिमा एवं जंगली जानवरों सें समाच्छादित यह स्थान शिवसमुद्रम या मध्यरंगम नाम से विश्रुत है। महादेव शिव तथा भगवान विष्णु के मन्दिरों को, लहरों के हाथ जोड़कर प्रणामांजलियाँ समर्पित कर मैं अपनी दो धाराओं-गगनचुक्की एवं बड़चुक्की-को प्रपात में परिणत करके पुन: संयुक्त कर लेती हूँ। विगलित रजतराशि के समान मेरे फेनिल प्रपात पर सूर्य के कर इन्द्रधनुषी रूप - लावण्य बुनते हैं। मेरा सौन्दर्याकर्षण सौ गुना हो जाता है। मेरे प्रपात से बनी झील ने इस क्षेत्र को एक विशाल विद्युन्निर्माण- गृह देकर नैशान्धकार में प्रकाश और कल- यन्त्रों को ऊर्जा प्रदान की है। मेरा जीवन लोक- हित में सार्थक हो गया।

शिवसमुद्म के बाद मैं तमिलनाडु में प्रविष्ट होती हूँ। ‘शिम्पा’ ‘अर्कावती’ सहित अपनी छोटी-छोटी नदी- बहनों को भी अपने गले लगाती मेरी धारा सेलम एवं कोयम्बत्तूर जनपदों को पुलक -प्रफुल्लित कर देती है। मेरा सुप्रसिद्ध जल-प्रपात ‘होगेनेकल’ क्षिप्रवेग से चट्टानों पर गिरता है। जलबिन्दु धुँआ-धुँआ हो जाते हैं। तमिल भाषा में ‘होगे’ धुँआ और ‘नेकल’ प्रपात अर्थ में प्रचलित है- यही इस ‘धूमप्रपात’ के नाम का रहस्य है। प्रपात से बनी हुई नीचे की झील को ‘यागकुुण्डम’ कहते हैं। इस यज्ञकुण्ड के विषय में मैं एक कहानी सुनती आ रही हूँ- चोलदेश का एक राजा शिकार के लिए यहाँ आया था। धूम प्रपात को देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने विचार किया कि यह पानी चट्टानों में समाने के बजाय यदि मेरे राज्य की ओर बहे, तो वहाँ की भूमि अत्यन्त उर्वर हो सकती है। आकाशवाणी हुई- ‘झील के नीचे विष्णुचक्र किसी नीतिनिष्ठ राजा के आत्मोसर्ग से संतुष्ट होकर ही ऐसा मनोरथ पूर्ण कर सकता है।’ राजा ने उसी जलाशय में जल-समाधि ली। मैं तमिलभाषियों का हित साधने के लिए प्रपात-कुण्ड से बाहर आकर तमिलनाडु में बहने लगी।

सीमामलै-पालमलै दो पर्वतों की मध्यस्थता करने वाला मेरा प्रवाह अब समतल पर आकर आर्जव ग्रहण कर लेता है। पहाड़ों के बीच ‘मेट्टूर बाँध’ है, जो कृष्णराजसागरम से भी बड़ा एवं बहु-उद्देश्यीय हैं मुझे उन लोगों की इस भ्रान्ति पर हँसी आती है, जो बाँध बनाने के शिल्प को अंग्रेजों की देन मानते हैं। उन्हें यह याद रखना है कि दो हजार वर्ष पूर्व चोल-नरेश करिकालन ने श्रीरंग से पुहार तक बीस योजन लम्बे बाँध की योजना को साकार कर मेरी बाढ़ को अपने राज्य में आने से रोक दिया था। इस उपलब्धि से प्रेरित तमिल -कवियों ने करिकालन को विष्णु-अवतार मानते हुए उनकी विरुदावलि गायी है, जो तमिल-जनता की ही भाँति मेरी लहरों में भी गूँज रही है।

श्रीरंगम में मेरी दो धाराएँ हैं- एक मैं कावेरी और दूसरी कोल्लिडम। दूसरी धारा के पानी का अपेक्षित उपयोग करने के आशय से एक चोल-राजा ने उस पर ‘कल्लणै’ नामक वास्तुकला का अद्भुत निदर्शन रूप बाँध बनवाया। मेरी दोनों धाराएँ ‘उल्लारू’ नहर को जीवन-दान देने लगीं। आगे मैं दक्षिणवाहिनी बनकर नीलगिरि से निकली अपनी प्रतीक्षारत सखियों ‘भवानी’ ‘नोययाल’ और ‘अमरावती’ से मिलती हूँ। श्रीरंगम के पास मैं तीसरी बार द्वीप बनाती हूँ।

सर्वाधिक पवित्र एवं विशाल श्रीरंगम मेरा वह अन्तरंग द्वीप है, जिस पर शेषशायी श्रीरंगनाथ सर्वदा सभी पर मंगल-वृष्टि करते रहते हैं। इस पवित्र तीर्थ और विष्णुमन्दिर के अनवरत सान्निध्य के फलस्वरूप मेरा भी जीवन पापमुक्त तथा पापनाशी बना है। चोल, पल्लव, पाण्ड्य, होयसल तथा विजयनगर- नरेशों के समय-समय पर किये गये निर्माण प्रवासों का मूर्त रूप श्री रंगनाथ-मन्दिर इतना अधिक विशाल है कि उसके प्राचीर में पूरा नगर बसा हुआ है। इसके निकट ही जुम्बकेश्वर शिवलिंग का अभिषेक मैं अन्त: सलिला बनकर करती हूँ। शिव पर जम्बूफल एवं जम्बूपत्र चढ़ाकर उनकी पूजा करती हूँ।

व्यापार एवं विद्या दोनों का प्रगति- केन्द्र तिरुच्चिरापल्ली श्रीरंगम नगर का ही दूसरा भाग है, जो एक पहाड़ी के ऊपर समतल में स्थित है। भारतवर्ष में अंग्रेजी शासन यहीं हुए स्वातन्त्र्य- युद्धों में भारतीयों की पराजय के बाद प्रारम्भ हुआ। प्रथम ब्रिटिश गवर्नर राबर्ट क्लाईव का उत्कर्ष इन्हीं लड़ाइयों को जीत लेने का परिणाम था। इस पहाड़ी शहर के गौरवास्पद स्थल हैं- पत्थर दुर्ग, मातृभूतेश्वर शिव-मन्दिर,पल्लवकालीन गुफा मन्दिर, पहाड़ी की चोटी पर तीन सौ पचास सीढ़ियाँ चढ़ने पर द्रष्टव्य गणेश-मन्दिर, और उच्च शिखरस्थ नगर से दिखती, स्वच्छ दर्पण-सी झलमलाती मेरी निर्मल धारा, जहाँ मेरे दूसरे तट पर कूल-कुँजों की हरिताभ छटा आनन्दप्रद तथा मनोरम है।

तंजाऊर के अनन्तर ठौर-ठौर पर मेरे दुकूल तीर्थों की शाकल्यगन्धिनी छवियों से आखचित हैं। कुम्भकोणम, स्वामीनलै, दारासुरम, चिदम्बरम, तिरुवैयरु, मायावरम, तिरुभूवनम, पापनाशम इत्यादि प्राचीन देवस्थल विविधता में तात्त्विक एकता के अन्त:सूत्र के दर्शन कराते हैं।

कुम्भकोणम यहाँ का प्रमुख तीर्थ-क्षेत्र है, जिसमें प्रत्येक पर्व-त्यौहार पर मेला लगता है, किन्तु प्रत्येक बारहवें वर्ष महामखम नाम से होने वाले कुम्भ-मेला में मैं उत्तर, पश्चिम-पूर्व के भारतवासी पुत्रों को दक्षिणदेश में बुलाकर, उन्हें अपने तरंगी हाथों से नहलाकर तन का ही नहीं मन का भी मैल धो देती हूँ। विराट मेला के बहाने सामाजिक सौमनस्य, राष्ट्रीय भावैक्य तथा उद्योग-विपणन को प्रबल सम्बल प्रदान करती हूँ। महामखम नामक सरोवर के समीपस्थ कुम्भेश्वर शिव-मन्दिर मुख्य है, जिसमें कुम्भाकार शिवलिंग संस्थापित है। शारंगपापि विष्णु, नागेश्वर और रामस्वामी यहाँ अन्य प्रसिद्ध मन्दिर हैं।

कुम्भकोणम से नौ-दस कोस आगे बढ़ने पर मेरे प्रवाह-पथ पर मायूरस या मायावरम स्थान पड़ता है। यहाँ मैं दबे पाँव सरकती हूँ। शस्य-श्यामल खेतों की जाजम बिछाकर रत्नगर्भा मुझसे कुछ सुस्ता लेने का भाव व्यक्त करती है। हरीतिमा से श्री-सम्पन्न उपवनों के पुष्प, सौरभ-दूत भेजकर मुझसे अनुरोध करते हैं- ‘माँ कावेरी! लम्बी यात्रा की भागमभाग में बहुत थक गयी होंगी, थोड़ा विश्राम कर आगे बढऩा।’ केकारव करते और पंख खोलकर नाचते झुण्ड के झुण्ड मयूर भी मुझे मोहित करके बिलमने का उपक्रम करते हैं, किन्तु मुझको रुकना पसन्द नहीं। हजारों वर्षों से मेरी यात्रा चल रही है, जो सागर के मनचाहे अंक में आकर भी समाप्त नहीं होती। मैं जानती हूँ ‘रमता जोगी बहता पानी’ थमते ही मलिन होने लगता है। गति ही मेरा जीवन है। निरन्तर गतिमान रहना ही मेरा लक्ष्य है। मैं विश्व-मानव को चरैवेति-चरैवेति का संदेश देती हूँ।

मयूर-बाहुल्य के कारण मायूरम नामी क्षेत्र प्राचीन मयूरेश्वर शिवलिंग से अभयदान पाता है। मेरी यात्रा का अन्तिम प्रसिद्ध नगर तिरुवैयरु है, जिसे सन्त, संगीतज्ञ एवं कवि त्यागराज की जन्मस्थली होने का गौरव प्राप्त है। यहाँ के त्यागराज-मन्दिर की भव्यता विश्व-विदित है। यहीं मेरी विच्छिन्न चार धाराएँ फिर परस्पर मिल जाती हैं।

मैंने खेतों को अभीष्ट सिंचन देकर जन-जीवन को धन-धान्य से तो समृद्ध किया ही है; धर्म, संस्कृति तथा राष्ट्रीयता-जैसे जीवन मूल्यों को भी निरन्तर पोषण दिया है। जितना मैं स्थूल शरीर से धरती और समुद्र के अन्तस्तल में बहती हूँ, उससे कहीं अधिक सूक्ष्म शरीर से जन-गण-मन में विद्यमान हूँ। मेरा सूक्ष्म जीवन-प्रवाह आस्था-विश्वास बनकर समग्र भारत में विद्यमान है।

मेरे तरंग-वलय क्वणित हो उठे हैं। बुद्बुदों के नूपुर रुनझुनाने लगे हैं। तैरते हुए पक्षियों की किंकिणी रणित हो चली है। मेरे अंग-अंग में कुसुमायुध के विश्वविजयी रथ की घण्टिकाएँ बज उठी हैं। मेरा रोम-रोम फूलों के प्राणमादन बाणों से बँधा है। मेरी धाराओं की धमनियों में रक्त कुसुम एक अनाम गन्ध विच्छुरित कर रहे हैं। मछलियों-सी मेरी आँखों में प्रिय-मिलन के स्वप्न-मेघ उमड़-घुमड़कर छा गये हैं। मेरी धड़कनों में ज्वार-भाटे आ रहे हैं। मेरे प्राणों में ज्वालामुखी फूट पड़ा है। महामिलन के इस पर्व पर मेरे मन की वीणा पर प्रणय के दीपक राग आरोहण-अवरोहण एवं सम स्वरों में ध्वनित हो रहे हैं। मैं नि:शेष हो रही हूँ, प्रेम-समुद्र में गहरे पैठकर खो गयी हूँ। आह मेरे प्यार पारावार! लो मैं अहम से इदम हो गयी। बाडवानल से ज्वलित, प्रेम के यज्ञकुण्ड में मेरा सर्वस्व स्वाहा।

निकट, जंगलात कोठी, लखीमपुर रोड, गोला कोकर्णनाथ-खीरी (उ.प्र.) 262802

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