दक्षिण एशिया में नदी संकट संगोष्ठी, 21-22 जून 1998, की कार्यवाही की रिपोर्ट (Seminar on river crisis in South Asia, Patna 21st-22nd June, 1998)


ए. एन. सिन्हा सामाजिक अध्ययन संस्थान पटना, 21-22 जून, 1998
आधार पत्र


नदी और प्रवाह-इन दो शब्दों को अलग करना कितना मुश्किल है। नदी का नाम लेते ही एक कभी न रुक पाने वाली चीज की तस्वीर सामने उभरती है। उसके साथ कुछ भी स्थिर नहीं है। नावें, डोंगे, पूजा के फूल, बच्चों द्वारा छोड़ी गई कागज की नौकाएँ, प्रियजनों की स्मृति में दोने में रखकर बहाये गये दीपक आदि कुछ भी स्थिर नहीं रहते। नदी के सम्पर्क में आकर सभी गतिमान हो जाते हैं। नदियों का प्रवाह समाज के उपकार का निमित्त है। नदी अगर ठहर जाय तो समाज भी कहाँ गतिमान रह पायेगा। शायद यही कारण था कि हमारे पूर्वज किसी भी शुभ कार्य के प्रारम्भ में गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु और कावेरी नदियों का आवाहन करना नहीं भूलते थे और उनके जल से अभिषेक किये बिना किसी काम की शुरुआत नहीं करते थे। वेदव्यास ने नदियों को ‘विश्वस्य मातरः’ सम्पूर्ण विश्व की माताओं के रूप में चित्रित किया तो वाल्मीकि ने रामायण में भगवान राम को सरयू के सामने बीस बार नमन करवाया। त्रिपथगा-यानी, आकाश-पृथ्वी और पाताल तीनों से प्रभावित होने वाली गंगा को जो नाम सुन लेता था, उसकी इच्छा करता था, उसे देखता था, उसके जल का स्पर्श करता था, उसका पानी पीता था, उसमें स्नान करता था या प्रतिदिन उसके नाम का स्मरण करता था उसे वह पाप रहित कर देती थी। गंगा ने अपने पुत्र-वत्सल गुणों के कारण माता का स्थान प्राप्त किया है। कौशिकी (कोसी) विश्वामित्र की बड़ी बहन बनी। विश्वामित्र कहते हैं कि ‘‘रघुनन्दन! मेरा अपनी बड़ी बहन कौशिकी के प्रति बहुत स्नेह है अतः मैं हिमालय के निकट उसी के तट पर नियम पूर्वक बड़े सुख से निवास करता हूँ। पुण्यवती सत्यवती धर्म में प्रतिष्ठित है। वह परम सौभाग्यशालिनी प्रतिव्रता देवी यहाँ सरिताओं में श्रेष्ठ कौशिकी के रूप में विद्यमान है।’’ उधर मार्कण्डी तो काका कालेलकर जैसे नदी भक्त की बचपन की सहेली थी जोकि उनके साथ खेलती थी। छोटे आकार के कारण मार्कण्डी सहेली है तो अपने विराट रूप के कारण ब्रह्मपुत्र बाबा हैं। जैसा रुचता हो वैसा रिश्ता बना लीजिए नदी के साथ।

नदियाँ सृजन की शक्ति रही हैं विनाशकी नहीं। असम में कभी बाढ़ आ जाये और ब्रह्मपुत्र तथा दिबांग का पानी एक दूसरे से मिलने लगे तो लोग बाढ़ से बचाव के लिये शरण खोजने से पहले बढ़ते पानी में सुपारी, अक्षत, वस्त्र और यहाँ तक कि आभूषण भी डालना नहीं भूलते क्योंकि वह इसे ब्रह्मपुत्र और दिबांग का विवाह मानते हैं और विवाह के अवसर पर कोई वर-वधू के सामने खाली हाथ नहीं जाता है। कोसी को बहुत लोग कुमारी नदी मानते हैं और यही कारण है कि वह विवाहिता स्त्री की तरह पारिवारिक बोझ से दबी हुई या धीर-गंभीर नहीं है। वह चंचला है, उसका पानी जब बढ़ता है - यानी कुमारी की ऊच्छृंखलता बढ़ती है तो महिलायें कोसी की धारा में सिन्दूर डालकर कोसी को यह संदेश देती है कि अब और अधिक उपद्रव करोगी तो तुम्हारा विवाह कर देंगे। विवाह के डर से कोसी भाग जाया करती है। आखिर अपनी स्वतंत्रता कोई क्यों खोये? नदियों से हमारे सम्बन्ध मूर्त और जीवंत रहे हैं। चाणक्य तो ऐसे स्थान पर रहने को ही निषेध करते थे जहाँ महाजन, श्रोत्रिय, राजा और वैद्य के साथ-साथ कोई पुण्य सलिला नदी न हो। ‘न तत्र दिवसम् वसेत’-वहाँ एक दिन भी नहीं रहना चाहिये- ऐसा कहकर उन्होंने अपनी बात पूरी की।

अब नदियों पर अंग्रेजों की कुदृष्टि का एक नमूना देखिये। कोसी की बदलती धाराओं की चर्चा करते हुए कहते हैं कि ‘‘कोसी उस बदचलन औरत की तरह है जो हर रात विस्तर बदतली है।” उनकी इस बदतमीजी का जवाब दिया दामोदर ने जब 1854 में अंग्रेजों ने नदी को बाँधकर उसका चाल चलन सुधारने की कोशिश की। 1869 आते-आते अंग्रेजों को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने नदी के सारे बन्धन खोल दिये और कसम खाई कि अब हिन्दुस्तान की किसी नदी को बाँधने की गलती नहीं करेंगे और यह गलती उन्होंने 1947 तक नहीं की। अंग्रेज खुद तो चले गये पर जाते-जाते दामोदर और कोसी को नियंत्रित करने का शोशा छोड़ गये और उनके बाद कमान संभाली आधुनिक भगीरथों ने। दामोदर समूह को तो इस बार बाँधा गया मैथन, पाँचेत, तिलेया या कोनार जैसे बाँधों से पर कोसी के हाथ आये तटबन्ध जोकि पिछली शताब्दी में दामोदर पर नाकारे साबित हो चुके थे। इसके बाद बड़े पैमाने पर नदियों का शिकार शुरू हुआ।

भारत की आजादी के बाद पचास के दशक में बाढ़ नियंत्रण के लिये नदियों के किनारे तटबन्ध बनना शुरू हुये जिनकी 1987 में लम्बाई प्रायः 14511 कि.मी. थी जिनमें से असम में 4448 कि.मी., पश्चिम बंगाल में 974 कि.मी., बिहार में 2756 कि.मी., उत्तर प्रदेश में 1711 कि.मी. तथा उड़ीसा में 1007 कि.मी. मुख्य हैं। बिहार में तटबन्धों की लम्बाई 1997 में 3465 किलोमीटर हो गई है। शुरू के कुछ वर्षों में इन तटबन्धों की मदद से बाढ़ नियंत्रण का कुछ कारोबार चलता रहा पर सत्तर के दशक के शुरू होते-होते इस तकनीक की खामियाँ सामने आने लगीं। नदियों के तल ऊपर उठने लगे, जल निकासी बाधित होने लगी। स्लुइस गेट जाम हो गये और तटबन्धों का टूटना रोजमर्रा की घटना बनने लगी। लोगों को बाढ़ की विभीषिका झेलने की आदत तो जरूर थी पर यह जो तटबन्धों के टूटने के कारण पानी के थपेड़े पड़ने लगे थे उसकी आदत नहीं थी। दूसरी ओर रेल लाइन, सड़कों और नहरों आदि के विस्तार ने जल जमाव को बढ़ावा दिया। जल जमाव के कारण कृषि पर बुरा प्रभाव पड़ा और बेरोजगारी बढ़ी। तब लगा कि नदी को बाँध कर बहुत अच्छा नहीं हुआ और अधिकांश मामलों में नदी का आजाद रहना ही ठीक था। तब लेकिन बहुत देर हो चुकी थी। नदियाँ अब इलाके का पानी निकालने के बजाय क्षेत्र में पानी फैलाने का काम करने लग गईं और नदियों के आस-पास रहने वाले लोग दो खेमों में बँट गये। एक ओर वह लोग जो तटबन्धों के बीच फँस गये थे और दूसरी ओर वह जो तटबन्धों के बाहर बसे थे। बरसात में जब नदी का पानी बढ़ेगा तो अन्दर रहने वाले लोगों के सर से गुजरेगा और इससे बचाव का एक ही रास्ता है कि वह तटबनध काट दें जिससे नदी का पानी बाहर बहे और अगर ऐसा हो जाता है तो बाहर रहने वाले बेमौत मारे जायेंगे। नतीजा यह कि तटबन्ध की सुरक्षा के नाम पर पहले दोनों ओर से लाठियाँ तनती थीं, आजकल गोलियाँ चलती हैं फिर वह उत्तर प्रदेश में देवरिया/गोरखपुर हो, बिहार में समस्तीपुर/कटिहार हो या असम में जोरहाट/नौगाँव हो। असम में तो बाढ़ के बाद जो बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के नक्शे बनते हैं उनमें बाकायदा पी.सी. (P. C.) यानी पब्लिक कटिंग के बिन्दु भी दिखाये जाते हैं। जनता तटबन्ध काटेगी इसकी मौन स्वीकृति प्रशासन की रहती है। बिहार में कई जगहें ऐसी हैं जहाँ प्रशासन के लोग खुद खड़े होकर तटबन्ध कटवाते हैं और यह एक अलग बात है कि यह सारा गुनाह असामाजिक तत्वों के खाते में डाल दिया जाता है।

बाढ़ नियंत्रण की जब तटबन्धों वाली विधा नहीं चल पाई तो अगला तकनीकी पड़ाव बड़े बाँधों का है जिनकी मदद से बाढ़ों को रोकने का प्रस्ताव अब किया जा रहा है। वैसे यह बात अन्दर-अन्दर काफी पहले से कही जा रही है कि तटबन्ध तो एक अस्थायी समाधान है, असली समाधान तो बड़े बाँधों में ही है। अब यह एकदम अलग बात है कि जहाँ तक उत्तर, बिहार और उनकी नदियों पर प्रस्तावित बड़े बाँधों का प्रश्न है उसके लिये एक भी माकूल स्थल बिहार में नहीं है। असम के मामले में ऐसे प्रस्तावित बाँधों के स्थल अपने ही देश में हैं पर उत्तर प्रदेश की कहानी प्रायः बिहार जैसी है।

नेपाल के एक जल वैज्ञानिक श्री अजय दीक्षित का मानना है कि अभी तक नेपाल में कुल 30 बाँध और 60 नदी जल के प्रवाह से विद्युत उत्पादन के प्रस्ताव तैयार किये गये हैं। इन तीस बाँधों में से सात की ऊँचाई 50 से 100 मीटर के बीच होगी, बारह बाँधों की ऊँचाई 100 से 200 मीटर के बीच तथा ग्यारह बड़े बाँध ऐसे होंगे जिनकी ऊँचाई 200 मीटर से अधिक होगी। इन सारी परियोजनाओं से जो बिजली पैदा हो सकेगी (1,45,000 गीगावाट आवर) उससे दक्षिण एशिया के जीवन स्तर वाले 70 करोड़ परिवारों की बिजली की जरूरतें पूरी हो सकेंगी। इस काम को पूरा करने में 50 लाख टन लोहा, 10 करोड़ घन मीटर कंक्रीट तथा 100 करोड़ घनमीटर पत्थर लगेगा। इन बाँधों में प्रतिवर्ष 70 करोड़ टन गाद रुक जायेगी जिससे कि सारे जलाशय 30 से 75 वर्ष के अन्दर भर जायेंगे। इसके अलावा इन बाँधों से नेपाल की 2200 वर्ग किलोमीटर भूमि पानी में चली जायेगी जोकि नेपाल के कुल क्षेत्र का 1.5 प्रतिशत है और इसमें नेपाल की 20 प्रतिशत सिंचित जमीन/जंगल/बाड़ी/गृहवास का क्षेत्र शामिल है। यह बाँध अगर बन जाते हैं तो नेपाल की 6,00,000 आबादी को विस्थापित होना पड़ेगा जोकि पूरे देश की आबादी का 3 प्रतिशत है। इसके साथ ही नेपाल में 83,000 मेगावाट की जलविद्युत उत्पादन की क्षमता भी है जिसका अभी तक प्रायः कोई उपयोग नहीं हुआ है और सभी संबंद्ध पक्ष जब बातचीत करते हैं तो बिजली की यही धारा उन्हें जोड़ती है। मुख्यतः बिजली उत्पादन को ध्यान में रखकर प्रस्तावित किये गये इन प्रकल्पों में तेरह अकेले कोसी या उसकी सहायक धाराओं पर निर्मित होंगे। ऐसे कुछ बाँधों का प्राथमिक विवरण तालिका-1 में दिया गया है।

ऐसे ही बाँधों से एक अरुण नं. 3 बाँध सबसे पहले निर्माण के लिये नेपाल द्वारा चुना गया। इस परियोजना में 68 मीटर ऊँचे और 115 मीटर लम्बे बाँध की मदद से पहले फेज में 201 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य था जिसपर 1082 मिलियन अमरीकी डॉलर खर्च करने का प्रस्ताव था जिसके लिये विश्व बैंक, एशियन डवलपमेंट बैंक तथा जर्मनी, जापान, फ्रांस और स्वीडेन आदि देशों से आर्थिक मदद मिलती थी। एक ओर जहाँ अरुण नं. 3 पर काम 1992 में शुरू हुआ वहीं नेपाल की बुद्धजीवियों/सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच योजना के औचित्य पर बहस चली। इनलोगों को लगा कि इस योजना का उद्देश्य किसी भी तरह नेपाल के हितों की रक्षा करना नहीं था वरन दाता देश अपने-अपने देशों के व्यापारिक प्रतिष्ठानों के हितों की रक्षा में तथा नेपाल को कर्ज के गर्त में ढ़केलने में लगे हुये हैं। इनको यह भी लगा कि नेपाल के लोगों का इसमें मजदूरी तक में हिस्सा नहीं मिल पायेगा और जो बिजली पैदा होगी, वह उनकी क्रय क्षमता से बाहर होगी। एक अनुमान के मुताबिक यह लागत एक अमरीकी उपभोक्ता द्वारा दी गई दर की दोगुनी और एक भारतीय उपभोक्ता द्वारा दी गई दर की तीन गुनी होगी। इन दरों पर तो भारत यह बिजली खरीदेगा भी नहीं और इसी उम्मीद में यह बाँध बन रहा था कि भारत के माध्यम से नेपाल की आमदनी बढ़ाई जायेगी।

इसके अलावा यह बाँध भूकम्प प्रवण क्षेत्रों में अवस्थित था और 1993 की बाढ़ ने नेपालवासियों को एक नया सबक पढ़ा दिया था। काठमाण्डू के पास जापान की मदद से एक कुलेखानी बाँध बनाया गया था जिससे 92 मेगावाट विद्युत उत्पादन की आशा थी और जिसकी आयु 100 वर्ष अनुमान की गई थी। उस वर्ष की बाढ़ ने बाँध को मिट्टी/बालू से पाट दिया और अब इस बाँध की आयु घटकर केवल 15 वर्ष रह गई। ऐसी घटना अगर अरुण नं. 3 में हो गई हो तो बाँध बेमौत मारा जायेगा। साथ ही किसी भी दाता संस्था ने बाँध के टूटने की स्थिति में किसी प्रकार की कोई भी जिम्मेवारी लेने से साफ मना कर दिया। स्थानीय पर्यावरण, सामाजिक व्यवस्था तथा संस्कृति पर भी इस बाँध के साये अच्छे नहीं पड़ रहे थे। योजना के फलस्वरूप विस्थापित होने वाली जनता के साथ भी किसी अच्छे व्यवहार की उम्मीद नहीं लग रही थी। दिसम्बर 1993 तक नेपाल के अधिकांश बुद्धिजीवी तथा सामाजिक कार्यकर्ता एकजुट होकर इन प्रपंचों के विरुद्ध खड़े हो गये और अन्ततः अरुण नं. 3 बाँध 1995 में उसी गति को प्राप्त हो गया जिसको नर्मदा, टिहरी और सुवर्णरेखा के बाँध हुये थे।

नेपाल के ही एक अन्य इंजीनियर श्री विकास पाण्डे मानते हैं कि कोई योजना क्या हम इसलिये बना लें कि विदेशी विशेषज्ञ यह कहते हैं कि यह योजना हमारे लिये बहुत अच्छी है या कि हमें बड़ी परियोजनायें बनानी चाहिये अथवा यह कि यदि किसी योजना के लिये बाहर से पैसा मिलता है तो वह योजना बना ही लेनी चाहिये। वह अपनी प्राथमिकतायें स्वयं तय करने पर बल देते हैं।

भारत में अभी हमलोग ‘‘बराह क्षेत्र योजना का कोई विकल्प नहीं है’’ के दौर से गुजर रहे हैं और जब तक हम यह कहते रहेंगे कि फलां योजना को कोई विकल्प नहीं है तब तक किसी विकल्प तलाशने की दिशा में कोई काम भी नहीं होगा। बराह क्षेत्र बाँध बन जाने पर भी सहरसा, मधुबनी के निचले इलाकों में बाढ़/जल जमाव की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। यह बात बिहार का कोई भी इंजीनियर अकेले में तो स्वीकार कर लेता है पर सार्वजनिक रूप से वह बराह क्षेत्र बाँध की बड़ाई ही करता है। नेपाल में बराह क्षेत्र के पास साइट नं. 13 पर जहाँ कोसी बाँध का स्थल प्रस्तावित है वहाँ कोसी का जलग्रहण क्षेत्र 59,550 वर्ग किलोमीटर है। साइट नं. 13 से भीमनगर बराज के बीच में नदी का जलग्रहण क्षेत्र 2266 वर्ग किलोमीटर बढ़ जाता है और उसके नीचे भारतीय क्षेत्र में कोसी का अतिरिक्त जलग्रहण क्षेत्र 11,410 वर्ग कि.मी. का पड़ता है। इस प्रकार कोसी का 13,876 वर्ग किलोमीटर जलग्रहण क्षेत्र बराह क्षेत्र बाँध के नीचे पड़ता है। यह बागमती के जलग्रहण क्षेत्र से थोड़ा ही कम है और कमला के जलग्रहण क्षेत्र का लगभग दोगुना है। बराह क्षेत्र बाँध बने या न बने इतना पानी तो कोसी तटबन्धों के बाहर अटकेगा ही जहाँ जल जमाव की स्थिति यथावत बनी रहेगी। तटबन्धों के बीच बाँध से पानी छोड़ा ही जायेगा और वहाँ भी बाढ़ की स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यह बात आज की तारीख में किसी को समझ पाना कितना मुश्किल है।

बराह क्षेत्र बाँध की बात सन 1946 से चल रही है और तब से अब तक का समय केवल तसल्लियों पर बीता है। बावन साल का अर्सा केवल उम्मीदें दिलाकर बिता देना आसान काम नहीं है। यहाँ हमारा यह उद्देश्य कतई नहीं है कि बराह क्षेत्र बाँध बनना चाहिये पर हमारा यह प्रश्न अवश्य है कि यदि बराह क्षेत्र बाँध इतना ही जरूरी है और इतना ही सभी सम्बद्ध पक्षों के लिये हितकारी है तो फिर देर किस बात की है। इस दौरान हमारे देश में ग्यारह प्रधानमंत्री हुए और कोई भी ऐसा नहीं है जोकि बिहार और कोसी की बाढ़ से आहत न हुआ हो या फिर बराह क्षेत्र बाँध के बारे में और नेपाल से बातचीत के बारे में बयान न दिया हो। मगर ढाक है कि तीन पात से आगे बढ़ता ही नहीं है। सच शायद यह है कि इस बाँध के निर्माण में बहुत सी व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं जिससे इसका निर्माण संदिग्ध है। नेपाल में चल रही बहस, वहाँ की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं/बुद्धिजीवियों के बीच चल रहे संवादों को पढ़ने से स्पष्ट लगता है कि वहाँ की जनता बराह क्षेत्र बाँध या ऐसे किसी भी प्रकल्प के प्रति उतनी उत्साहित नहीं है जितना सहरसा या मधुबनी में बैठकर हम अनुमान करते हैं। यह बहस भी नेपाल में शायद इसलिये चल पा रही है क्योंकि नेपाल के आकार को देखते हुये बराह क्षेत्र बाँध एक अच्छी खासी परियोजना है परन्तु भारत के आकार, आबादी तथा जरूरतों के लिहाज से इसका उतना महत्त्व नहीं है। इसलिये भारत में इस बहस को दबा देना आसान है और जब बहस दबेगी तो उम्मीदों का बाजार खुद-ब-खुद गर्म रहेगा और लोगों को भरमाना आसान होगा। आकार का मुद्दा उत्तर बिहार पर भी लागू होता है। यहाँ की बाढ़ समस्या, सिंचाई समस्या और बिजली की जरूरतों को देखते हुये बराह क्षेत्र बाँध बहुत महत्त्वपूर्ण हो सकता है पर पूरे देश के सन्दर्भ में उत्तर बिहार की हैसियत क्या है। बहस का रुख मोड़ देना और तसल्लियाँ देते रहना राजनीति का आधार है।

इधर पानी और बिजली के मसलों पर पिछले कुछ वर्षों से अन्तरराष्ट्रीय सहयोग की बात बड़े जोर-शोर से उठाई जा रही है। रियो अर्थ सम्मिट (3-14 जून, 1992) के बाद इस मुद्दे में और भी अधिक तेजी आई है। एजेण्डा-21 ने नब्बे के दशक और उसके बाद के समय के लिये सभी क्षेत्रीय कार्यक्रमों को एकीकृत करने पर जोर दिया है क्योंकि उसकी मान्यता है कि पानी के समेकित प्रबन्ध में क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम आड़े आ रहे हैं। एजेण्डा 21 का यह भी मानना है कि विश्व स्तर पर अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं तथा कार्यक्रमों का समन्वय एक महत्त्वपूर्ण काम है जिसे पूरा किया जाना चाहिए।

भारतीय सन्दर्भ में यह अन्तरराष्ट्रीय सहयोग उन नदियों के लिये संभव है जोकि कई देशों से होकर गुजरती हैं जिनमें गंगा तथा ब्रह्मपुत्र घाटियाँ प्रमुख हैं और जिनके दायरे में मुख्य रूप से नेपाल, भारत तथा बांग्लादेश के क्षेत्र पड़ते हैं। इसमें कोई दोराय नहीं है कि किसी भी नदी घाटी के विकास के लिये उस घाटी के सारे स्रोतों की यदि समग्रता में समीक्षा की जाय तथा योजनायें बनाई जाय तो जल संसाधन का विकास सुगमतापूर्वक किया जा सकता है। प्रकृति ने यह संसाधन हमें जरूर दिये हैं पर देशों की सीमायें तो हमलोगों ने बनाई हैं और जब तक यह सीमायें ढह नहीं जायेंगी तब तक जलस्रोतों का विकास उस तरीके से सम्भव नहीं है जहाँ एक ही संस्था पूरी नदी की योजना तैयार कर सके। यह भी सच है कि विभिन्न देशों की सीमायें बनी रहेंगी और तब यह जरूरी हो जाता है कि भौगोलिक मर्यादाओं को स्वीकार करते हुये विभिन्न देशों के पारस्परिक सहयोग से प्राकृतिक साधनों का सदुपयोग किया जा सके और यही एक आदर्श स्थिति होगी जिसमें सबका हित निहित है।

 

तालिका - 1

नेपाल तथा उत्तर-पूर्व में प्रस्तावित कुछ बाँधों का विवरण

क्र.संख्या

बाँध

प्रस्तावित स्थल

बाँध का स्वरूप

बाँध की ऊँचाई(मीटर)

विद्युत उत्पादन स्थापित क्षमता मेगावाट

बाँध की कुल संचय क्षमता 106 घन मीटर

जलग्रहण क्षेत्र वर्ग किलो मीटर2

डूब क्षेत्र वर्ग किलो मीटर

कुल लागत

अमरीकी डॉलर

अभ्युक्ति

1.

दिहंग बाँध

अरुणाचल प्रदेश

राक-फिल

296

20,000

47,000

47,000

490

4,100 मिलियन 1988  प्राक्कलन

बाँध स्थल बड़े भूकम्प प्रवण क्षेत्र में अवस्थित है। बिजली का उपयोग जिन क्षेत्रों में होना है वह बाँध से काफी दूर है।

2.

सुबनसिरी बाँध

अरुणाचल प्रदेश

’’

240

4,800

13,400

अनुपलब्ध

193

1,400 मिलियन 1988 प्राक्कलन

बाँध स्थल बड़े भूकम्प प्रवण क्षेत्र में अवस्थित है। बिजली का उपयोग जिन क्षेत्रों में होना है वह बाँध से काफी दूर है।

3.

तिपाइमुख बाँध

मणिपुर

’’

161

1,500

15,900

अनुपलब्ध

303

440 मिलियन 1988 प्राक्कलन

भारत योजना के प्रति उत्साहित है पर बांग्लादेश की स्वीकृति नहीं है।

4.

पंचेश्वर बाँध

उत्तर प्रदेश/नेपाल सीमा, पिथोरागढ़ (उ.प्र.) बैताड़ी (नेपाल)

’’

288 (315) *

2000 (6480) *

12,260

12,100

अनुपलब्ध

53.7 बिलियन

अन्तरराष्ट्रीय सीमा पर अवस्थित होने के कारण कुछ परेशानियाँ हैं। नेपाल यह चाहता था कि पहले काम करनाली पर शुरू हो।

5.

करनाली (शीसापानी बाँध)

नेपाल

’’

270

10,800

28,200

43,700

अनुपलब्ध

4890 मिलियन 1989 प्राक्कलन

यह बाँध बड़े भूकम्प प्रवण क्षेत्र में अवस्थित है। बाँध के कारण कम से कम 60,000 लोगों का पुनर्वास करना पड़ेगा। वन्य जीवन पर बाँध का असर पड़ेगा।

6. कोसी हाई डैम

बराह क्षेत्र सप्तरी (नेपाल)

कंकीट का बना हुआ

269 (239)*

3,300 (3,469) *

13,450 (8500) *

 

59,600

(61,000) *

अनुपलब्ध

75 बिलियन

बाँध बड़े भूकम्प क्षेत्र में अवस्थित है। नींव के स्थान की शिलायें रन्ध्र युक्त हैं। नेपाल को ऐसा लगता है कि इस योजना से उसके मुकाबले भारत को बहुत ज्यादा लाभ होने वाला है।

* नेपाल द्वारा प्रस्तावित

 

 
एजेण्डा 21 के अध्याय 18 में, जोकि ताजे पानी के विकास और उपयोग से सम्बन्धित है, प्रावधान किया गया है कि सीमापार के “जल संसाधनों के संदर्भ में इस बात की आवश्यकता है कि सहघाटी राष्ट्र मिलकर जल संसाधनों की अपनी रणनीति तैयार करें, जल संसाधनों के उपयोग का एक कार्यक्रम तैयार करें और जहाँ उचित हो वहाँ इन रणनीतियों और कार्यक्रमों में तारतम्य स्थापित करें। सभी राष्ट्र अपनी क्षमता और उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप और संयुक्त राष्ट्र संघ सहित द्विपक्षीय, बहुपक्षीय या अन्य उपयुक्त स्रोतों से संसाधन जुटाकर अपने लिये यह लक्ष्य रख सकते हैं कि वर्ष 2000 ई. के पहले सभी डिजाइन, प्राक्कलन तैयार कर लें तथा अपने राष्ट्रीय कार्यक्रम के लक्ष्य निर्धारित कर लें और साथ ही साथ संस्थागत संरचनायें तैयार कर लें और कानूनी कार्यवाही पूरी कर लें। इसके साथ ही साधनों के उपयोग की एक टिकाऊ पद्धति विकसित कर लें और पानी के सक्षम उपयोग की व्यवस्था तैयार रखें। सन 2025 के पहले ताजे पानी के कार्यक्रम के सारे उपखण्डों सहित लक्ष्यों को प्राप्त कर लें।’’ इन कामों को पूरा करने के लिये जो आर्थिक संसाधन चाहिए उनकी व्यवस्था का प्रस्ताव भी इस अध्याय में किया गया है।

एजेण्डा-21 के लिखे जाने के बाद के घटनाक्रम पर अब एक नजर डाली जाय। भारत और नेपाल के बीच में कोसी या गंडक आदि बाँधों का मामला लगभग 1947 से ही लटका हुआ था। श्री. बी.जी. वर्गीज के अनुसार जब भारत की ओर से इस दिशा में पहल होती थी तब नेपाल भारत के पश्चिमी तट पर उसे एक व्यापारिक मार्ग दिये जाने की शर्त रख देता था और यह मांग भारत यह कहकर अस्वीकार कर दिया करता था कि किसी भी मार्ग अवरुद्ध देश को सीमापार के किसी देश ने दो रास्ते नहीं दिये हैं। नेपाल को एक रास्ता कलकत्ता होकर मिला हुआ है। अतः दूसरे मार्ग की मांग रखने का कोई औचित्य नहीं है। यहीं आकर बातचीत का सिलसिला रुक जाता था पर 1992 नवम्बर में भारत के प्रधानमंत्री जब काठमाण्डू गये तो दोनों देशों के रुख में कुछ परिवर्तन आया। बाद में जब श्री मनमोहन अधिकारी नेपाल के प्रधानमंत्री बने तो उनकी भारत यात्रा के दौरान भारत और नेपाल के बीच भारत के पश्चिमी तट पर नेपाल को व्यापारिक मार्ग दिये जाने की बात मान ली गई। बदले में भारत द्वारा कोसी पर बनने वाले प्रस्तावित बराह क्षेत्र बाँध का अन्वेषण और प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करने की अनुमति भारत को नेपाल से मिल गई। महाकाली परियोजना आदि पर भी समझौता हुआ। यह सब सरकारी स्तर पर हुआ। यद्यपि सीमा पार से जैसी सूचनाएँ आती हैं उससे लगता है कि नेपाली जनमानस, महाकाली परियोजना के प्रति आश्वस्त नहीं है। भारतवासियों के दिमाग में तो यह कूट-कूट कर भर दिया गया है कि यहाँ की बाढ़ समस्या का समाधान नेपाल में है अतः यहाँ तो इन कदमों का स्वागत होना ही है। यह दावा कितना सही है यह एक बहस का मुद्दा है। बराह क्षेत्र बाँध का अन्वेषण चल रहा है और आशा है साल भर में इसकी प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार हो जाएगी। तब इसके लिये धन की व्यवस्था करनी पड़ेगी और काम शुरू होगा ऐसा अनुमान है। सन 2000 तक यदि यह काम पूरा हो जाय तो एजेण्डा 21 का आधा उद्देश्य पूरा हो जाएगा।

योजनाओं के लिये संसाधन बड़े विचित्र दौर से गुजर रहे हैं। पिछले दस वर्षों में विश्व बैंक द्वारा इस तरह के निर्माण में दी जाने वाली सहायता में भारी कमी आई है क्योंकि लगभग पूरे विश्व स्तर पर इन संरचनाओं का जबर्दस्त विरोध हो रहा है। जैसे आसार हैं उसमें इस क्षेत्र में भी निजीकरण की प्रक्रिया चलेगी। करनाली बाँध के लिये अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कम्पनी एनरॉन ने पैसा लगाने की पेशकश की थी पर बाँध निर्माण में 15 से 20 वर्ष का समय लगने तथा तब तक पूँजी फँसे रहने और मुनाफा न मिल पाने के भय से उसने अप्रैल 1998 में हाथ खींच लिया। खबर यह है कि इस तरह की कम्पनियाँ विश्व बैंक या इस जैसी संस्थाओं से अपने निवेश के प्रति गारन्टी चाहती हैं। शायद यह उन्हें मिल भी जाय। पैसा चाहे विश्व बैंक का सीधे लगे या उसकी गारन्टी पर लगे महाजनी के चक्कर में तो सम्बद्ध देश फँसेंगे- यह आशंका हमेशा बनी रहेगी।

इन संस्थाओं की भूमिका समझने के लिये हम अपने क्षेत्र में लौट चलते हैं। बरसात के बाद रोजगार की तलाश में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, गुजरात या महाराष्ट्र जाने का एक दौर चलता है और इस यात्रा के लिये पैसा चाहिये। कुछ लोगों का तो बंधा हुआ है कि वह अमुक महाजन से पैसा लेंगे और कमाने चले जायेंगे। बहुत से मामलों में महाजन लोगों का पीछा करता है कि पिछली साल तो कमाने गये थे, इस बार क्यों नहीं जा रहे हो- कोई कमी हो तो बताओ... रुपया पैसा चाहिए तो संकोच मत करना, आदि-आदि। महाजन जब भी यह भाषा बोलता है तो उसके दिमाग में व्यक्ति/परिवार या समाज का कल्याण सामने नहीं होता। उसे तो अपना दस प्रतिशत का माहवारी ब्याज दिखाई पड़ता है जो कि कर्ज लेने वाला उसे कमा कर देगा। महाजन को तो अपने मूल धन की वापसी में कोई रुचि नहीं होती उसे तो सिर्फ ब्याज चाहिये और कर्ज देकर वह कर्जदार और उसके परिवार पर किस तरह से नियंत्रण करता है, यह किसी से छिपा नहीं है। महाजन यह सारा काम खुद नहीं कर पाता है तो दलालों के माध्यम से कर लेता है। अब चलें नेपाल जहाँ कि महाजनों के एक ऐसे दलाल ने अपना पासा फेंका है।

जापान की एक ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर फण्ड रिसर्च फाउन्डेशन (ग्लोइफ) नाम की संस्था है जोकि भारत/नेपाल के बीच अपने तानेबाने बुन रही है। उसे इस बात की चिन्ता है कि पिछले पचास वर्षों में संयुक्त राष्ट्र तथा विश्व बैंक की सहायता के बावजूद हिमालय से प्रवाहित होने वाली नदियों पर भारत और नेपाल के बीच कोई सहमति नहीं बन पाई है क्योंकि पारस्परिक सन्देह की स्थिति बरकरार है जिसके पीछे अर्थाभाव या सुयोग्य जन-संसाधन का अभाव आदि कारण भी विद्यमान हैं। भारत/नेपाल/बांग्लादेश की सम्मिलित 98 करोड़ की आबादी विस्फोटक रूप से 2.1 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है जिसके लिये कृषि तथा सिंचाई का विकास करना आवश्यक है। सन 1988 में बांग्लादेश का 57 प्रतिशत क्षेत्र बाढ़ में डूब गया था, उसका भी उद्धार होना चाहिये तथा इसी क्षेत्र में बरसात के अतिरिक्त अन्य मौसमों में सूखे की स्थिति बन जाती है अतः उसका भी निवारण होना चाहिये क्योंकि लोगों के जीवन स्तर को उठाना है। इन सब उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये ग्लोइफ बराह क्षेत्र बाँध सहित हिमालय से निकलने वाली नदियों द्वारा बिजली उत्पादन, सिंचाई तथा बाढ़ नियंत्रण के लिये कटिबद्ध है और भारतीय उपमहाद्वीप में टिकाऊ विकास के लिये प्रयास करता रहेगा। वह भारत/नेपाल/बांग्लादेश के बीच इन मुद्दों पर बहस के लिये उत्प्रेरक की भूमिका अदा करता रहेगा। ग्लोइफ हिमालय से निकलने वाली नदियों से बिजली उत्पादन तथा बाढ़ नियंत्रण योजनाओं की सूचना जापान में स्थित आर्थिक सहायता देने वाले संस्थानों को देता रहेगा और आर्थिक संसाधन जुटाने की व्यवस्था करेगा। ग्लोइफ की नजर फिलहाल बराह क्षेत्र बाँध पर है यद्यपि उसने पंचेश्वर, करनाली, दिहंग, सुबनसिरी तथा तिपाईमुख बाँधों में भी रुचि दिखाई है। इस पूरे प्रकरण में ग्लोइफ अकेला नहीं है और अन्य बहुत सी संस्थायें इसी आशय से काठमांडू के चक्कर काट रही हैं।

एक ओर हमारे नेता तथा इंजीनियर मिलकर लोगों को सपने बेच रहे हैं तो दूसरी तरफ उन्हीं योजनाओं को लेकर सौदागर भी सपने देख रहे हैं। इस दौड़ में जिस किसी को भी मैदान साफ मिल जायेगा वह रेस जीत लेगा। ऐसी ही एक दौड़ दिसंबर 1996 में हुई थी जबकि फरक्का पर पानी के प्रवाह को लेकर बांग्लादेश से समझौता किया गया था। आपाधापी में किये गये इस समझौते में संकोश नदी से तीस्ता बराज के माध्यम से 370 घनमेक पानी फरक्का पहुँचने की योजना बनी जिससे फरक्का के नीचे हुगली के प्रवाह को चुस्त-दुरुस्त रखा जा सके। अब जब कि योजना पर काम चलना शुरू हुआ तब लग रहा है कि 143 किलोमीटर लम्बी यह सम्पर्क नहर 1,145 वर्ग किलोमीटर जंगल तथा 934 वर्ग किलोमीटर चाय बगानों को उजाड़ देगी और 21,000 लोगों के आशियाने बिखेर देगी। इलाके के वन्य प्राणी तबाह होंगे और दुर्लभ वनस्पतियाँ समाप्त हो जायेंगी। अब जबकि विरोध के स्वर मुखर हो रहे हैं तो उन नेताओं को खोज पाना मुश्किल हो रहा है जो कहते थे कि तीस्ता-फरक्का लिंक नहर बनेगी तो कोई नुकसान नहीं होगा। यही बात कभी कोसी तटबन्धों के बारे में भी कही गई थी। टेनेसी वैली अथॉरिटी की तर्ज पर बनी दामोदर घाटी परियोजना के ढिंढोरची कभी दामोदर के निचले इलाके में जाकर हुगली या हावड़ा में जल-जमाव का जायजा क्यों नहीं लेते और महानन्दा पर बने तटबन्धों के कारण श्रीमती नदी का पानी अगर बाहर फैलता है तो इसका इलाज लोगों के बीच कपड़े और दवा बाँटकर किया जायेगा?

उत्तर प्रदेश में गोरखपुर/देवरिया जिलों में राप्ती नदी, रोहिन, आमी, कुआनो या गोर्रा को बाँधकर जो खिलवाड़ किया गया उसकी कहानी उड़ीसा में पुरी जिले की कुशीभद्र और भार्गवी नदी से कितनी मिलती जुलती है। दोनों ही प्रांतों में बरसात में नदी का पानी आगे बढ़ने की बजाय अब पीछे की ओर लौटता है क्योंकि नदियों के संगम पर साल दर साल मिट्टी जमा होकर पानी की निकासी में बाधा पहुँचा रही है। तब इंजीनियर साहब कहते हैं कि नदी का तटबन्ध ऊँचा करने से सब ठीक-ठाक हो जाएगा। फिर असम में कोपिली, कलड्ग, किलिड्ग, पगलादिया या जियाढाल का अफसाना उत्तर प्रदेश या उड़ीसा से कुछ भिन्न है जहाँ पानी बाद में बरसता है और बाढ़ पहले आती है।

आज हमारी अधिकांश नदियाँ किसी न किसी तकनीकी या राजनैतिक सनक का शिकार हैं पर यह सब हमारे प्रान्तों की भौगोलिक सीमा तक सीमित हुआ करता था। वैश्वीकरण निजीकरण और मुक्त बाजार ने इन नदियों को भी एक अदद बिकाऊ माल के रूप में ला खड़ा किया है और भौगोलिक सीमाओं की वर्जनाएं टूट रही हैं। हमने पहले से ही बहुत सी नदियों पर आधी-अधूरी योजनाएँ बनाकर मुर्हूत कर रखा है। कहीं केवल सिंचाई कॉलोनी बनी है तो कहीं केवल शिलान्यास का पत्थर लगा है, कहीं केवल बोर्ड है तो कहीं काई लगी हुई ईंटे और जंग लगी हुई तार की जाली पड़ी है। हमें आशंका है कि अब नदियों पर एक नये सिरे से हमला शुरू होगा और आज जो नदियाँ जमानत पर छूटी लगती हैं कल निश्चित रूप से गिरफ्तार होंगी और इसकी चपेट में पूरी गंगा और ब्रह्मपुत्र घाटी आयेगी। अब ज्यादा दिनों तक यह मसला किसी एक प्रान्त या देश का नहीं रह पायेगा। इस पूरे विषय के विभिन्न आयामों को समझने और भविष्य में बहस चलाने के उद्देश्य से हम 21/22 जून 1998 को पटना के ए.एन. सिन्हा इन्स्टीच्यूट ऑफ सोशल स्टडीज में मिल रहे हैं ताकि आगे की रणनीति तय कर सकें।

बाढ़ मुक्ति अभियान


दक्षिण एशिया नदी संकट संगोष्ठी
21-22 जून, 1998
अनुग्रह नारायण सिंह सामाजिक अध्ययन संस्थान, पटना


दक्षिण एशिया नदी संकट संगोष्ठी का प्रारंभ बाढ़ मुक्ति अभियान के वरिष्ठ सहयोगी श्री सूर्य नारायण ठाकुर के स्वागत भाषण से हुआ; श्री ठाकुर ने नेपाल, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, दिल्ली, आंध्र प्रदेश, असम तथा बिहार के विभिन्न हिस्सों से आये मित्रों का अभिनंदन किया और उनके प्रति आभार व्यक्त किया। बहुत से मित्र पश्चिम भारत में भयंकर तूफान और वर्षा के कारण नहीं आ सके तथा कुछ लोगों ने 20 जून को पश्चिम बंगाल बन्द रहने के कारण अपनी यात्राएं स्थगित कर दीं- ऐसे सभी साथियों के प्रति भी उन्होंने आभार प्रकट किया।

बाढ़ मुक्ति अभियान का परिचय अभियान के सह-संयोजक श्री विजय कुमार ने दिया। उन्होंने कहा कि आज से पन्द्रह वर्ष पहले तक आमतौर पर उत्तर बिहार में बाढ़ नियंत्रण पर किये गये कामों के प्रति जनता का समर्थन था। 1984 में सहरसा जिले में नौहट्टा के पास जो कोसी पर बना पूर्वी तटबन्ध टूट गया तब लोगों का ध्यान बाढ़ सुरक्षा के लिये बनाये गये तटबन्धों की उपयोगिता पर गया क्योंकि अब तटबन्ध की सुरक्षा महत्त्वपूर्ण हो गई थी और तटबन्ध के टूटने से इतनी हृदय विदारक घटना हो सकती है इसका अनुमान किसी के जहन में नहीं था। कोसी तटबन्ध को तोड़ कर लगभग 200 गाँवों के बीच से गुजर रही थी। ग्यारह गाँवों का तो पता ही नहीं लगा। साढ़े चार लाख लोगों का घर उजड़ गया और वह उसी तटबन्ध के बचे हिस्से पर शरण लेने को मजबूर हुये जिसके कारण उनकी बर्बादी हुई थी। तब लोगों को याद दिलाया गया कि तटबन्ध तो बाढ़ समस्या का अस्थाई समाधान है और यह कि कोसी तटबन्धों का जीवनकाल ही पच्चीस वर्ष का था और इनकी आयु 27 वर्ष हो गई है और यह तो दो साल ज्यादा चल गये, इत्यादि। इस दुर्घटना के बाद हमलोगों ने बाढ़ समस्या का अध्ययन शुरू किया जिसमें यहाँ का इतिहास, भूगोल, तकनीक और राजनीति सभी कुछ देखने समझने का मौका मिला। बाढ़ नियंत्रण के विभिन्न तरीकों का हमलोगों ने अध्ययन करके पाया कि केवल तटबन्धों के साथ ही नहीं, बाढ़ नियंत्रण के बाकी तरीकों के साथ भी बहुत सी परेशानियाँ जुड़ी हुई हैं जोकि तकनीक के साथ-साथ व्यावहारिक, आर्थिक और राजनैतिक भी हैं। यह सब जानकारियाँ प्राप्त कर लेने के बाद हमलोग 1990 के आस-पास लोक शिक्षण के क्षेत्र में उतरे और तभी बाढ़ मुक्ति अभियान के नाम से एक संगठन भी तैयार किया।

समय के साथ हमलोगों ने अन्य बाढ़ प्रवण प्रान्तों में भी सम्पर्क स्थापित किया जिसका फल है कि आज हमारे बीच कई क्षेत्रों से मित्र आये हैं। नेपाल और बांग्लादेश में भी हमलोगों के सम्पर्क हैं। नेपाल के कुछ मित्र आये भी हैं। इस संगोष्ठी में हम बाढ़ या पानी को लेकर विश्व पटल पर क्या-क्या हो रहा है उसकी अपने स्थानीय अनुभवों के सन्दर्भ में समीक्षा करना चाहेंगे। तथा हमारी बहस के केन्द्र में गंगा तथा ब्रह्मपुत्र घाटियाँ रहेंगी। इसके अलावा अब पानी को संसाधन से सम्पदा में परिवर्तित करने का अभियान शुरू हो गया है। यदि कोई वस्तु सम्पदा बनेगी तो उसका दोहन भी होगा और उसके स्वामित्व के प्रश्न भी उठेंगे। यहाँ हमलोग इस विषय पर भी चर्चा करना चाहेंगे। बाढ़ मुक्ति अभियान आप सभी का स्वागत करता है और आशा करता है कि आने वाले दो दिनों में हम एक सार्थक बहस करेंगे।

अभियान के संयोजक श्री दिनेश कुमार मिश्र ने इस संगोष्ठी के विषय से सहभागियों का परिचय करवाया। उन्होंने कहा कि रियो अर्थ सम्मिट (1992) के बाद जल संसाधनों के उपयोग पर विश्व समाज की एक नई दृष्टि पड़ी है। कार्यक्रम यह होने वाला है कि सभी सहघाटी क्षेत्र अपने आपसी मतभेद और क्षेत्रिय हितों को भुलाकर मानवता के व्यापक हित के लिये जल संसाधनों का विकास करें। यह बहुत अच्छी बात है और कोई भी आदमी इस बात का समर्थन करेगा। यह किसी भी महापुरुष का सपना हो सकता है। दिक्कत यही है कि इस सदुद्देश्य के पीछे कुछ सौदागर भी सपने देख रहे हैं और पानी तथा बिजली का उपयोग अपने हित में कर लेना चाहते हैं। अपने क्षेत्रीय सन्दर्भ में यदि हम देखें तो नेपाल में 83,000 मेगावाट विद्युत उत्पादन कर लेने की सम्भावना और हमारे यहाँ छोटानागपुर, संथाल परगना, मध्य प्रदेश, उड़ीसा तथा पश्चिम बंगाल में खनिजों की उपलब्धता एक ऐसा सम्मिश्रण है जिसको देखकर किसी भी व्यापारी का मन भी ललचायेगा। तब एक ओर नेपाल से कहा जाय कि बिजली उत्पादन की आपके यहाँ तो इतनी क्षमता है इसका उपयोग क्यों नहीं करते। आस-पास के क्षेत्रों में बिजली की इतनी कमी है कि वह इसे हाथों हाथ खरीद लेंगे ओर भारत को भी बताया जाय कि अगर वह बिजली उपलब्ध हो तो आपका विकास जो अवरुद्ध हो रहा है वह फिर राह पर आ जायेगा। और अब अगर पानी के विकास के रोड़े हटा लिये जायें तो फिर पानी का प्रबन्धन करने के लिये बिजली पैदा करने के लिये, बाँध बनाने के लिये, नहरें बनाने के लिये, कृषि को कॉरपोरेट सेक्टर में घसीट लाने के लिये, खनन के क्षेत्र में, कारखानों के क्षेत्र में दखल जमाने के लिये सौदागरों की नजर पड़ गई है और समय रहते अगर हमलोग नहीं चेतेंगे तो उन्हें मनमानी करने का मौका मिलेगा। नदियाँ हमारी हैं, खेत-खलिहान हमारे हैं, जंगल-पहाड़ हमारे हैं, खनिज हमारे हैं पर फायदा उनका होगा।

हमारे संसाधनों को लेकर दुनियाँ के बड़े आर्थिक संस्थानों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ किस-किस तरह से अपने मोहरे आगे कर रही हैं उस पर चर्चा करने के लिये हम आज यहाँ इकट्ठे हुये हैं और आशा है कि जब हम कल यहाँ से जायेंगे तो हमारी जानकारी में जरूर कुछ न कुछ इजाफा हुआ रहेगा।

नेपाल वाटर कन्जरवेशन फाउण्डेशन काठमांडू से सम्बद्ध तथा वाटर-नेपाल के सम्पादक श्री अजय दीक्षित ने संगोष्ठी को विधिवत उद्घाटित करते हुये कहा कि आज हम यहाँ नदी संकट पर चर्चा करने के लिये बैठे हैं। यह नदी संकट है क्या? हमलोग तो नेपाल में रहते हैं और हमारे तथा आपकी नदियों के संकट में अन्तर हो सकता है क्योंकि हमारे क्षेत्रों की बनावट अलग-अलग है। वहाँ विविधता हो सकती है पर कुछ संकट सामान्य हैं। जो हमारे यहाँ है करीब-करीब वैसा ही आपके यहाँ भी होगा। मैं यहाँ सामूहिक संकट की बात करूँगा।

मेरे विचार से पहला संकट आंकड़ों का संकट है। हमारे पास कितना पानी है और उसका कहाँ-कहाँ और किस-किस तरह का उपयोग होता है इसकी ही और आधिकारिक जानकारी हमलोगों को उपलब्ध नहीं है। जब हम भविष्य की बात करते हैं तो वहाँ तो सब का सब अनुमान ही लगाना पड़ता है। जब वर्तमान उपयोग के आंकड़े ही संदेहास्पद हैं तो फिर भविष्य के अनुमान कैसे सही होंगे, वह भी सन्देह के घेरे में आ जाता है। आंकड़ों को सही तरीके से इकट्ठा करना और उसका विश्लेषण करना तथा समझने का प्रयास नहीं हुआ है। यह हमारा पहला संकट है।

दूसरा संकट पानी की निकासी का है। यदि पानी जिस तरह से आता है उसी तरह से चला जाय तब कोई बात ही नहीं है पर वह जिस रास्ते से जाता है वहाँ कुछ तबाही मचाता हुआ जाता है। इससे बचने के लिये कुछ करना चाहिये जिसके लिये तकनीकी समाधान है कि बाँध बना दो या नहरें बना दो। इसके अलावा उन्हें कोई दूसरा समाधान नहीं आता। लोग जिन्दा हैं न हजारों वर्षों से बिना बाँधों और नहरों के, तब यह कैसे कह दिया जाय कि बाँध और नहरों का कोई विकल्प नहीं है। थोड़ी देर के लिये मान लें कि हमने बाँध बनाकर पानी को रोक लिया। इसके बाद पानी का व्यापार करेंगे? उत्तर है कि जब पानी कम हो जायेगा तब इसे छोड़ेंगे और उपयोग में लायेंगे। छोड़े गये पानी का उपयोग कभी भी न्यायोचित नहीं होता, इसका बँटवारा कभी बराबरी का नहीं होता। यह भी एक संकट है।

तीसरी बात है कि जहाँ बाँध बनते हैं वहाँ केवल जमीन नहीं होती, वहाँ जीव रहता है। वहाँ समाज रहता है-पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, पशु-पक्षी सब वहाँ रहते हैं। वहाँ थोड़ी सी भी छेड़-छाड़ सबको प्रभावित करती है जिनके बारे में हम ध्यान नहीं देते। इधर कुछ वर्षों से ऐसे लोगों ने अपने हक की लड़ाई लड़ी है पर पहले तो सरकारें काम चला ही दे रही थीं।

योजनाओं से जो फायदा होता है, उसे उठाने के लिये तो एक जमात खड़ी हो जाती है पर जो नुकसान होता है उसका क्या होगा। मान लीजिये आपके क्षेत्र में खूब पम्प लगा कर सिंचाई करने की योजना बनती है जिसके कारण भूगर्भ जल की सतह नीचे चली जाती है तो जो सक्षम है वह शायद और नीचे जाकर पानी ले लेगा पर जो आम आदमी है उसकी तो क्षमता ही समाप्त हो गई। इस तरह से आम आदमी योजनाओं के दुष्परिणाम उठाने में अक्षम होता है और उसकी सुधि लेने वाला कोई नहीं होता। आप कोई भी कार्यक्रम लें और मनुष्य को केन्द्र में रखें तो बहुत से कार्यों के प्रति आपकी दृष्टि बदल जायेगी। पेयजल का एक मुद्दा है- इतना अधिक व्यय करने के बाद भी लोगों को पानी नहीं मिल पाता है। यह उनको सीधे-सीधे प्रभावित करता है। कुछ वर्ष पहले पीने के पानी की तो दिक्कत नहीं थी। हम जैसे लेग जो इस समस्या से जूझते हुये आम जन के सम्पर्क में हैं, ऐसा समझते हैं कि लोगों के पास अपना ज्ञान और अनुभव है जिसका लाभ समाज को मिलना चाहिये। आपके यहाँ कुएँ बड़े सक्षम रूप से काम करते थे, उनको हैण्डपम्प ने विस्थापित कर दिया। यहाँ तक तो ठीक हुआ पर हैण्डपम्प के रख-रखाव की कोई सक्षम व्यवस्था कारगर नहीं हो पाई। नतीजा यह हुआ कि कुआँ खत्म हो गया और पम्प ने काम नहीं किया। योजनाओं के विकल्प के बारे में बहुत सी सरकारें सोचना भी नहीं चाहतीं।

महाकाली पर योजना बनने की बात है। आपके यहाँ भी लोग आशंकित हैं, हमारे यहाँ भी बहुत खुशी नहीं है पर विकल्प पर सोचने को कोई तैयार नहीं है। अब परिस्थितियाँ पहले के मुकाबले कहीं अधिक जटिल हो गई हैं। अब बाजार की महत्ता बढ़ रही है, अब निजी क्षेत्र आगे आ रहा है और सरकारें पीछे हट रही हैं, अब हर चीज का मूल्य चाहिये।

हमलोग हमेशा से कहते रहे हैं कि हमारी परिस्थतियाँ भिन्न हैं, हमारा परिवेश भिन्न हैं, हमारी आवश्यकतायें भिन्न हैं, हमारी जीवन पद्धति भिन्न हैं अतः हमारी तकनीक भी भिन्न होनी चाहिये। पश्चिमी तकनीक का अन्धानुकरण हमें अपने लक्ष्यों तक नहीं पहुँचा सकता और अब समय आ गया है कि हमलोग केवल विकल्प खोजने की बातें ही न करें वरन अब गम्भीरता पूर्वक विकल्प पर काम भी करें। अरुण 3 बाँध का हमलोगों ने विरोध किया था और जिस रूप में उस बाँध पर काम हो रहा था उसे बन्द कर देना पड़ा। वहाँ हमने विकल्प भी सुझाया था। सरकार अगर विकल्प से संतुष्ट न होती तो बाँध पर शायद काम भी बन्द नहीं होता। पर यह दबाव बनाये रखने की आवश्यकता है।

मैं आशा करता हूँ अगले दो दिनों में हमलोग इन विषयों पर विस्तार में चर्चा करेंगे।

श्री समर बागची (कलकत्ता) - बाढ़ मुक्ति अभियान को इस आयोजन के लिये धन्यवाद देता हूँ। आपके दिनेश जी के साथ एक बार अनायास रास्ते में भेंट हो गई थी। एक-दूसरे को जानने का मौका मिला और उसी का परिणाम है कि आज मुझे आपलोगों के बीच बात करने का अवसर मिला है। आप लोगों ने बाढ़ और नदियों के क्षेत्र में बहुत काम किया है, विशेषकर लोक शिक्षण के क्षेत्र में, जोकि अनुकरणीय है।

डॉ. मेघनाद साहा ने 1922 से ही जल-जंगल और जमीन के विषय पर लिखना शुरू कर दिया था। उस समय तक आज जैसी समस्यायें नहीं थीं और पर्यावरण का मसला कोई बहस का विषय नहीं बना था। पर उन जैसे चिन्तक उस समय भी भविष्य को स्पष्ट रूप से देख सकते थे और उन्होंने इन संसाधनों के दुरुपयोग और लोभ युक्त दोहन के प्रति सभी को सचेत किया था। जैसा कि अजय जी ने कहा, और हम सभी लोगों की वैसी ही अनुभूति है, कि पश्चिम का विज्ञान और तकनीक एक खास किस्म के लोगों को लाभ पहुँचाती है और सारी व्यवस्था, सारे क्रिया-कलाप इस तरह के वर्ग विशेष के लाभ को चिरस्थायी करने में संलग्न रहते हैं।

सरकार कहती है कि हमने कृषि के क्षेत्र में बहुत प्रगति की है। यह सच है, देश जब स्वतंत्र हुआ तब हम अन्न का आयात करते थे और अब नब्बे करोड़ लोगों के लिये आवश्यक अन्न का उत्पादन कर लेते हैं। अब हमारे पश्चिम बंगाल की स्थिति देख लीजिये। कृषि उत्पादन बढ़ाने के चक्कर में खूब भूगर्भ जल का दोहन किया गया और करोड़ों आदमी आर्सेनिक की चपेट में आ गये। यह समस्या अब बांग्लादेश में तथा अन्य प्रान्तों में भी दिखाई पड़ने लगी है। यह अधिक अन्न उत्पादन की कीमत है और जब यह कीमत देनी पड़ती है तो आम लोग अकेले चुकाते हैं।

करीब-करीब यही स्थिति तटीय गुजरात की है। वहाँ कभी केवल 900 ट्यूब वेल थे आज साढ़े नौ लाख पम्प हैं। जल स्तर चला गया नीचे और मीठे पानी की जगह लेने को समुद्र का खारा पानी चला आया और साढ़े बारह लाख हेक्टेयर जमीन पूरी तरह बरबाद हो गई। फायदा उठाकर बड़े लोग तो चले गये और परिणाम भोग रहे हैं वहाँ के गरीब लोग। हमारे पुरखों ने तो हमें आर्सेनिक का दुष्प्रभाव या खारी जमीन नहीं दी थी तब फिर हम अपनी अगली पीढ़ी को यह क्या देकर जा रहे हैं।

भारत वर्ष पानी की दृष्टि से बहुत ही सम्पन्न क्षेत्र है पर हमलोग एक ओर बाढ़ झेलते हैं और दूसरी ओर जल की कमी का संकट। इस सारे मसले पर नये सिरे से सोचने की जरूरत है।

श्री सरयू राय, एम.एल.सी. (पटना) - मैं आज ही दिल्ली से आया हूँ और मुझे रास्ते में ही समाचार पत्र के माध्यम से आपके इस सम्मेलन की जानकारी मिल गई थी। फिर आपका संवाद मिला।

जहाँ तक बिहार का प्रश्न है यह तीन विशिष्ट भागों में बँटा हुआ है। एक ओर तो उत्तर बिहार है जो लगभग पूरा का पूरा मैदानी हिस्सा है जिसमें सभी दक्षिण या दक्षिणी पूर्व वाहिनी नदियाँ गंगा में आकर मिलती हैं। गंगा स्वयं पश्चिम से पूरब की ओर बढ़ती हुई हमारे प्रान्त को दो टुकड़ों में बाँटती है। गंगा के दक्षिण में भी मैदानी क्षेत्र है और इसकी नदियाँ उत्तर वाहिनी हैं और गंगा में जाकर मिलती हैं। इसके कुछ हिस्से में कैमूर की पहाड़ियाँ दिखाई पड़ती हैं और तीसरा भाग छोटा नागपुर और संथाल परगना का पठारी क्षेत्र है। मैदानी क्षेत्र होने के कारण उत्तर और मध्य बिहार कृषि प्रधान हैं और छोटा नागपुर तथा संथाल परगना अपनी खनिज सम्पदा और जंगलों तथा दामोदर, सुवर्ण रेखा, बराकर आदि नदियों के लिये प्रसिद्ध है। इन तीनों क्षेत्रों की भौगोलिक परिस्थितियाँ एक दम भिन्न है।

अब सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण की योजनाओं पर एक नजर डालिये। वहाँ सभी समस्याओं को एक ही लाठी से हांक दिया गया है बिना इस बात का ध्यान दिये कि जमीनी परिस्थितियाँ एक दम भिन्न हैं। तब जाहिर है कि अरबों, खरबों रुपये खर्च करने के बाद भी सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण पहले जैसी स्थिति में ही पड़ा हुआ है और बाढ़ नियंत्रण के क्षेत्र में तो पहले से कहीं ज्यादा गिरावट आई है। बड़ी परियोजनाओं पर हमें जो भी ऋण या अनुदान मिले हैं उसके फायदे हमें न होकर दाता संस्थाओं को हुये हैं क्योंकि हमारी योजना काम करे या न करे उनको तो ब्याज का पैसा मिलते रहना है। सरकार के अनुसार प्रान्त की लगभग 40 प्रतिशत कृषि जमीन पर सिंचाई की व्यवस्था हो चुकी है पर जब इसकी वास्तविकता तलाश करने आप जायेंगे तो जमीन पर आपको यह 40 प्रतिशत कहीं भी दिखाई नहीं पड़ेगा।

उत्तर बिहार की बाढ़ को नियंत्रित करने के लिये प्रायः सभी नदियों को तटबन्धों के बीच बाँध दिया गया और अब वह नदियाँ सिल्ट जमा होने के कारण जमीन के ऊपर आ गई हैं और तटबन्ध आये दिन टूटा करते हैं। बाढ़ नियंत्रण का कोई कारगर विकल्प नहीं निकाला गया तो उत्तर बिहार का वह उपजाऊ क्षेत्र अगले पच्चीस वर्षों में जल-जमाव और बालू जमाव की चपेट में पूरी तरह आ जाएगा।

पश्चिम सम्पन्न देश किसी भी योजना का अर्थ केवल विद्युत उत्पादन समझते हैं परन्तु इन योजनाओं से जो जंगल बर्बाद होते हैं, उनसे ऊर्जा का जो स्रोत समाप्त हो जाता है उसको वह अपने हिसाब किताब में नहीं डालते। देश की सबसे पुरानी नहर प्रणालियों में से एक सोन नहर प्रणाली अब जर्जर अवस्था में पहुँच रही है और उस पर केवल योजना बनाने के अलावा कोई काम होता नहीं दिख रहा है। योजना की क्षमता दिनों दिन घटती जा रही है। अन्य क्षेत्रों में मान भी लें कि नई योजनाएँ बनती हैं पर यहाँ तो लोग योजना से किसी हद तक लाभान्वित थे पर अभी तक विकल्प की दिशा में कोई प्रयास नहीं हो रहा है।

श्री रामचन्द्र खान (पटना) - हमारे यहाँ कोसी नदी पर 1955 में नदी पर तटबन्ध बनना शुरू हुआ। यह पण्डित नेहरू की अपनी महत्त्वाकांक्षा का परिणाम था क्योंकि पिछले सौ वर्षों से बिहार में तकनीकी राजनैतिक और सामाजिक, सभी स्तरों पर बहस कोसी नदी पर समय-समय पर प्रस्तावित कोसी तटबन्धों के खिलाफ चल रही थी। आज तक दुनियाँ में किसी भी युद्ध में इतना विनाश शायद नहीं हुआ होगा जितना की इस तथाकथित लोकोपकारी योजना ने किया है। इस परियोजना ने कोसी क्षेत्र की जमीन, जंगल, परिवेश, पर्यावरण एवं पशु पक्षी समेत स्वयं कोसी नदी को भी बर्बाद कर दिया।

आज हमारे लिये यह आवश्यक है कि अपने ऐशो आराम के लिये जिन संसाधनों का हम दोहन कर रहे हैं उसका आकलन हम योजना बनाने के पूर्व कर लें। इस मौज मस्ती की कीमत कौन देगा, कितनी देगा और कब तक देगा, इसका भी निर्णय हो जाना चाहिए।

वायु के बाद पृथ्वी पर सबसे ज्यादा मात्रा पानी की ही उपलब्ध है। इसमें सबसे अधिक जीवनदायी पेयजल एशिया में उपलब्ध है परन्तु हमारी गलत नीतियों और गलत जल प्रबन्धन के कारण अब हमारे यहाँ पेय-जल का संकट उत्पन्न हो गया है और इसके कारण हमारी एक बड़ी आबादी विभिन्न प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त है।

जब से आधुनिकता और उसकी जड़ जमाने वाली तकनीक ने पैर फैलाया है तब से पानी के हमारे पारम्परिक स्रोत समाप्त हो गये। कुओं और तालाबों के प्रति समाज उदासीन हो गया और कालक्रम में नई तकनीक वाले संसाधन भी जड़ हो रहे हैं। तालाबों में अब खुले आम मवेशी नहाते हैं और गाँव की सारी गन्दगी भी उसी में उडेल दी जाती है। ऐसे पानी का पीने में उपयोग की बात तो छोड़ दीजिये, अन्य घेरलू उपयोगों में भी लाना असंभव है। अतः जल प्रबंधन की शुरुआत हमें अपने निसर्ग को ध्यान में रखकर करनी पड़ेगी।

पानी के मुख्यतः दो स्रोत हैं एक सतही पानी, जो कि हमें वर्षा से प्राप्त होता है और दूसरा भूगर्भ जल जो कि सदियों से जमीन के नीचे सुरक्षित है। भूगर्भ जल के बारे में हमारे पूर्वज बड़े सतर्क थे और इसका उपयोग उन्होंने प्राथमिकता के आधार पर पीने के लिये ही किया। सिंचाई के लिये उनहोंने वर्षा के पानी का, तालाबों का और नदियों के पानी का उपयोग किया। नदियाँ तो जल का मार्ग हैं और उसका संग्राहक है।आधुनिक विज्ञान सबको शत्रु की तरह देखता है। उसके लिये नदी शत्रु है, जल शत्रु है, बाढ़ शत्रु है-सभी शत्रु हैं उसके, और वह सभी को परास्त करके उनको अपने नियंत्रण में कर लेना चाहता है। पर क्या हम नदी, पानी या बाढ़ को सचमुच शत्रु कह सकते हैं? हमारे यहाँ ‘शत्रु’ न होते तो क्या हमारा जीवन संभव था?

विकास के नाम पर जिस विज्ञान का उपयोग हो रहा है वह मानव प्रकृति के प्रतिकूल है और समाज के उत्थान के लिये विज्ञान की इस अवधारणा के खिलाफ एकजुट होकर लड़ना होगा।

कुरुक्षेत्र हरियाणा से डॉ. श्रोणिक कुमार लुंकड - वेदों-पुराणों में नदी को रस-युक्त कहा गया है। इसी से नदी के लिये ‘सरस्वती’ शब्द का उद्भव हुआ। नदी जल में जो जीवन का मूल तत्व गर्थित है वह है इसकी जीवनदायिनी शक्ति। पर्वतों से निकल कर समुद्र की ओर अपनी यात्रा के क्रम में नदियाँ चट्टानों तथा मिट्टी में सहज रूप से पाए जाने वाले खनिज तत्वों (कैल्शियम, मैग्नेशियम, सोडियम, पोटेशियम, कार्बोनेट, और उनके बाई-कार्बोनेट इत्यादि) को समुचित मात्रा में थोड़ा-थोड़ा घुलाती चलती हैं और यह पानी मानव के लिये अमृत तुल्य (अमृतो वा आपः) हो जाता है। नदियाँ सरस्वती हैं। इनके किनारे दुनियाँ में मानव संस्कृति और सभ्यताओं का विकास हुआ है। हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रंथ नदियों के किनारे लिखे गए। ऋग्वेद के महत्त्वपूर्ण अंशों की रचना कुरुक्षेत्र के आस-पास सरस्वती नदी (कालांतर में भूगर्भीय कारणों से विलुप्त) के किनारे ऋषियों-मुनियों द्वारा की गई। पुरातत्व की खोजों ने इसकी पुष्टि की है। सभ्यता के विकास के साथ धीरे-धीरे मानव ने पर्यावरण चक्र के पाँच मूल-तत्वों ‘क्षिति-जल-पावक-गगन-समीरा’ को पहचाना। आगे चलकर आधुनिक विज्ञान ने इसी धारणा को पुष्ट किया। पारिस्थतिकीय संतुलन को बनाए रखने में जल की भूमिका मुख्य है।

आज घनी आबादी, शहरीकरण और औद्योगीकरण ने नदियों के जल में जहर-घोल कर उसे प्रदूषण की चरम सीमा पर पहुँचा दिया है। गंगा-जल के प्रदूषण से आप अच्छी तरह परिचित हैं। अब प्रदूषण में यमुना नदी आगे निकल गई है। दिल्ली के निकट इसे गंदे नाले की संज्ञा दे दी जाय तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। दिल्ली में ओखला बैराज से निकली आगरा-कैनाल के पानी में 1 मिली में 24 लाख से अधिक कॉलीफार्म बैक्टीरिया (मल-जन्य खतरनाक कीटाणु) का पाया जाना इसका प्रमाण है। पेयजल जीवाणु रहित होना चाहिए।

दूसरी ओर सिंचाई योजनाओं, बाँधों, नहरों, सड़कों, रेल-लाइनों तथा तटबन्धों के बेतरतीब निर्माण ने देश में हर जगह बाढ़ की विभीषिका को बढ़ाया है। कहने को भारत में 13 बड़ी नदियाँ, 110 से अधिक मध्यम नदियाँ और हजारों छोटे नदी-नाले हैं परन्तु बरसात के बाद ये प्रायः सूख जाते हैं। अब तो अन्य नदियों का क्या, गंगा-जमुना में भी जल प्रवाह नाम मात्र को रहता है। जो पानी शेष रहता है वह इतना प्रदूषित हो जाता है कि उसे जल की संज्ञा देना भी मुश्किल लगता है। नदी-जल के शत-प्रतिशत उपयोग के लालच ने नदियों के अस्तित्व तथा उसकी परिभाषा (उन्मुक्त-प्रवाह) पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। प्रायद्वीपीय भारत में तो लगभग सभी नदियों का यही हाल है-क्या शिप्रा, क्या साबरमती, क्या कृष्णा, क्या गोदावरी?

एक समय था जब शास्त्रों में ‘अद्भ्यो हीदं सर्वम जायते’ (शतपथ ब्राह्मण) जैसी सूक्तियाँ लिखी गईं। क्योंकि तब मनुष्य ने देखा और अनुभव किया था कि फल-फूल, अन्न, वन-औषधियाँ, सभी का अस्तित्व जल से ही है। चाहे वह प्रत्यक्ष हो अथवा परोक्ष। विकास के क्रम में शनैः शनैः मनुष्य और प्रकृति के बीच मानव-समाज का आविर्भाव हुआ फिर बाजार व्यवस्था में अस्तित्व में आई। जैसे-जैसे बाजार-व्यवस्था पुख्ता होती गई मानव-समाज में भ्रष्टाचार के बीच पनपने लगे और सभ्यता में विद्रूपता आने लगी। कहना न होगा कि प्रारम्भ में तिजारत ने मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकताओं-हवा-पानी-भोजन में से प्रथम दो को अनछुआ रखा। फिर ज्यों-ज्यों विश्व-बाजार बनना शुरू हुए, विकसित मानव-समाज में नैतिकता के मापदण्ड गिरने लगे। लाभ और पूँजी के बड़े-बड़े केन्द्र स्थापित हुए। लोभ-लालच की सीमाओं के अतिक्रमण से भ्रष्टाचार का पौधा दरख्त बना और मनुष्य की दूसरी मूल-भूत आवश्यकता पानी, भी बाजार की चपेट में आ गई। अब तीसरी नैसर्गिक आवश्यकता ‘ऑक्सीजन’ भी महानगरों में प्रदूषण के चलते बाजार में आ चुकी है।

विश्व-बाजार व्यवस्था की इस जटिल प्रक्रिया में विकासशील देशों पर कभी न चुकाया जा सकने वाला कर्ज थोपकर वहाँ भ्रष्टाचार को परवान चढ़ाने में ‘विश्व-बैंक’ और ‘अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष’ का बड़ा योगदान रहा है। इन मालिक-ए-बाजार एजेंसियों ने विकाशशील देशों में नेता-नौकरशाह-ठेकेदारों की तिकड़ी को अपनी गिरफ्त में लेकर वहाँ की अर्थव्यवस्था चौपट करने में महारत हासिल की है। इसे बारीकी से समझ लेना जरूरी है।

श्री रजत बनर्जी (नई दिल्ली)- मैं दिल्ली से आया हूँ और वहाँ सेन्टर फॉर साइन्स एण्ड एनवायरन्मेंट में काम करता हूँ। बुनियादी तौर पर मैं एक पत्रकार हूँ और पर्यावरण में मेरी विशेष रुचि है। बिहार की नदियों और बाढ़ के बारे में मैंने बहुत कुछ सुना है। इस संगोष्ठी से मैं बहुत कुछ सीखकर जाऊँगा, ऐसी आशा है।

श्री कामेश्वर लाल ‘इन्दु’ (पश्चिमी चम्पारण)- मेरा कार्यक्षेत्र पश्चिम चम्पारण में है जहाँ से होकर गण्डक नदी भारत में प्रवेश करती है। इस नदी की धारा स्थिर नहीं है और तटबन्धों के बीच की स्थिति बदलती रहती है। हमारे पश्चिम चम्पारण से नेपाल और उत्तर प्रदेश की सीमायें लगती हैं और जब नदी धारा बदलती है तो इन सीमावर्ती क्षेत्रों में परिवर्तन आता है। इधर पिछले कुछ वर्षों से बिहार का क्षेत्र कट-कटकर नेपाल या उत्तर प्रदेश में चला जाता है। यानी नेपाल का क्षेत्र बढ़ता जा रहा है और बिहार का क्षेत्र घटता जा रहा है। इसको यह भी कह सकते हैं कि भारत घटता जा रहा है और नेपाल बढ़ता जा रहा है। इसी तरह यदि नदी थोड़ा भी पूरब की ओर खिसक आई तो फिर बिहार घट गया और उत्तर प्रदेश बढ़ गया। चम्पारण की हालत अब यह हो गई है कि उसका अब एक सर्वमान्य नक्शा ही बाकी नहीं बचा है। वही नदी जब दक्षिण की तरफ बढ़ती है, सीवान, सारण और गोपालगंज की तरफ तो वहाँ जो कटाव होता है उसमें लाखों लोग फँसते हैं और उसका कोई हिसाब किसी को नहीं मालूम है। चम्पारण के पश्चिमी हिस्से को देख लीजिये, ठकराहा और मधुबनी प्रखण्डों की ओर एक नजर दौड़ाइये, वहाँ के बेचिरागी गाँवों की ओर, तो पूरा मैदान साफ है। जो आज जहाँ है वह अगली साल कहाँ मिलेगा पता नहीं। बंजारों की भी एक रहने की शैली होती है- चम्पारण के इस हिस्से में वह भी नहीं है। लेकिन कागज पर उनके लिये सब कुछ है। उनका गाँव है-स्कूल है, प्राथमिक चिकित्सालय है, राशन की दुकान है और यह सब कुछ चालू हालत में है। राशन का आवंटन होता है, स्कूल में अध्यापक हैं, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर सारी जरूरी सुविधायें उपलब्ध हैं- पर सरजमीन पर जाकर देख आइये-इनका निशान तक नहीं मिलेगा। पिछले दस वर्षों में 14 किमी की लम्बी पट्टी में भीषण तबाही हुई है। एक ओर आबादी बढ़ रही है तो दूसरी ओर क्षेत्र घट रहा है। हमको डर है कि अगले सौ वर्ष में चम्पारण नाम की कोई चीज रहेगी ही नहीं। गण्डक के अलावा हमारी दूसरी नदी सिकरहना है जिसे नीचे के क्षेत्रों में बूढ़ी गण्डक कहते हैं। इसमें कुल 37 नदियाँ/नाले चम्पारण में मिलते हैं। जिधर जाइयेगा-कोई न कोई धारा मिलेगी और बरसात में सब एक-दूसरे से गुँथ जाती हैं। इन्हीं में से एक मसान नदी पर एक प्रोजेक्ट पिछले 20-25 साल से बन रहा है। केवल बैठकर तनख्वाह लेते हैं लोग, काम के नाम पर कहीं कुछ नहीं।

इसके साथ हर साल आने वाली बाढ़ है। रास्ते हैं ही नहीं। लगभग हर तरफ से नदियों से घिरे हैं हमलोग। अब ऐसे में खेती कैसे होगी। बीज चाहिये, खाद चाहिये, डीजल चाहिये-कहाँ से आयेगा और कैसे आयेगा। उधर गण्डक तटबन्धों के अन्दर कितने गाँव बसते हैं इसका सरकारी स्तर पर कोई रिकॉर्ड ही उपलब्ध नहीं है। इस तरह से चम्पारण एक गम्भीर संकट से गुजर रहा है। एक ओर तो नदी का संकट है तो दूसरी ओर हमारे अस्तित्व का संकट है। बाँधों पर जब बहस होती है तो हमें तो अपना मसान बाँध याद आता है- बाँध छोटा बने या बड़ा बने, होना तो वही है जो मसान में हो रहा है। बड़ा बाँध बनेगा तो और ज्यादा लोग घर बैठकर तनख्वाह लेंगे। आम जनता का भला तो किसी भी तरह नहीं होने वाला है। मैं समझता हूँ कि ऐसी ही परिस्थितियाँ अन्य जगहों पर भी होंगे। मैं यहाँ इस आशा के साथ आया हूँ कि चम्पारण में आने वाली नदियों के ऊपरी हिस्से में क्या कुछ होने वाला है जानने को मिलेगा और उसका हमलोगों पर क्या प्रभाव होगा यह भी सुनने को मिलेगा।

डॉ. रा. ना. मण्डल (कटिहार)- मैं महानन्दा नदी के किनारे रहता हूँ कटिहार से आया हूँ और बहुत से विशेषज्ञों की बात सुनकर अभिभूत हुआ हूँ। बाढ़ मुक्ति अभियान ने लोक शिक्षण के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण काम किया है। जब से हमारे यहाँ महानन्दा पर तटबन्ध बने तभी से हमलोगों को लग रहा था कि कहीं कुछ गलत हो गया है और अपने मनोभावों को हमने व्यक्त करना शुरू किया और इस प्रयास में हमें बाढ़ मुक्ति अभियान का बहुत सहयोग मिला है। हमलोग मानने लगे हैं कि हमारी नदी मुक्त रहती वही अच्छा था, इसे तटबन्ध में बाँधकर उचित नहीं हुआ। जब से हमारे प्रान्त के नीति निर्धारकों ने अभियन्ताओं के सहयोग से हमारी नदी को बाँधा है तब से हमारी कठिनाइयाँ बढ़ी हैं। महानन्दा का तटबन्ध जब से बना है तब से अस्थिर है और बाढ़ से बचाव करने में कतई सक्षम नहीं है। वह तो कच्ची मिट्टी की एक दीवार है जिससे कोई सुरक्षा मिल ही नहीं सकती। जो करोड़ों रुपये इस योजना पर खर्च हुए वह तो अभियंताओं और ठेकेदारों का भला करने पर खर्च हो गये।

जनता के हाथ एक ओर तो स्थायी जल जमाव और तटबन्धों के टूटने के कारण तबाही आई तो दूसरी ओर तटबन्धों के बीच फँसे लोगों को नारकीय जीवन मिला। सन 1984, 1987 तथा 1991 में इन तटबन्धों के कारण कटिहार में भीषण तबाही मची थी। बाढ़ के बाद हमलोगों ने जब भी इस क्षेत्र का दौरा किया है तब-तब लोगों ने इन तटबन्धों की भर्त्सना की है। सरकार तो तटबन्धों की सुरक्षा में करोड़ों रुपये खर्च करती है पर न तो तटबन्ध ही सुरक्षित रह पाते हैं और न लोग ही सुरक्षित रहते हैं। जनता तो अपनी सुरक्षा की व्यवस्था किसी ऊँचे स्थान पर जाकर या फिर इन्हीं तटबन्धों पर अपना घर बनाकर ही करती है जो कि एक ऊँचे स्थान के अलावा कुछ नहीं है। महानन्दा और उसकी परियोजना के बारे में दिनेश कुमार मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘बन्दिनी महानन्दा’ में बहुत कुछ लिखा है जोकि आप में से अधिकांश ने पढ़ी होगी।

संगोष्ठी में आये प्रतिभागियों का समूहयह तो मुझे विश्वास सा हो चला है कि वर्तमान परिस्थिति से मुक्ति नेताओं या अभियंताओं के माध्यम से संभव नहीं है। चाहे वह महानन्दा की बाढ़ की बात हो, या कोसी, गण्डक, कमला या बागमती की बात हो। इस पूरे मसले पर हमलोग एक जन-जागरण का प्रयास करके आम लोगों को सारी परिस्थति समझाने की कोशिश करें जैसा कि बाढ़ मुक्ति अभियान कर रहा है। इस अभियान को और भी ज्यादा तेज करने की जरूरत है। हमारे यहाँ महानन्दा का तटबन्ध तीन जगह पर खुला पड़ा है और लोगों ने काट कर के रख छोड़ा है और पिछले तीन साल से उसे बाँधने नहीं दिया है क्योंकि लोगों की समझदारी और सरकार के कामों में जमीन आसमान का अंतर है। तटबन्ध को काट देने के बाद हम पर बाढ़ का असर कम हुआ है और खेती में निश्चित रूप से सुधार हुआ है। अब बाढ़ आती है और चली जाती है जैसा कि तटबन्ध बनने के पहले हुआ करता था। अब इस बदली परिस्थिति की चर्चा जब हम इंजीनियरों से करते हैं तो वे बात करने से मुँह चुराते हैं। हम चाहते हैं कि अभियान अपने प्रयास में सफल हो और लोक शिक्षण का कार्यक्रम और भी ज्यादा व्यापक रूप से चले।

श्री शिवानन्द भाई (जमुई) मैं सोच ही रहा था कि पिछले वर्ष के निर्मली सम्मेलन (अप्रैल-1997) के बाद बाढ़ के प्रश्न को लेकर सबका मिल बैठना नहीं हुआ कि बाढ़ मुक्ति अभियान के इस सेमिनार की सूचना मिली। अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते हुये भी यह वैचारिक साम्य हमलोगों में बड़ी आशा का संचार करता है। इस पूरी समस्या को हमें समग्रता में देखने की जरूरत है। जल-जंगल और जमीन, तीनों आयामों पर समान दृष्टि रखने पर ही हम उस आधार को बचाये रख सकते हैं जिस पर सभ्यता टिकी हुई है। हमारे राष्ट्र नेताओं ने भी इसे समग्रता में नहीं देखा और अब जो विकृतियाँ दिखाई पड़ रही हैं वह उसी गलती का परिणाम हैं। आजादी के समय हमारे सामने दो प्रकार की व्यवस्थाएँ उपलब्ध थीं- एक ओर नेहरू मॉडल था और दूसरी तरफ गांधी का मॉडल था। इन दोनों का अन्तर भी साफ है। नेहरू मॉडल को तरजीह मिलने का परिणाम है कि अब तीनों संकट हमारे सामने मुँह बाये खड़े हैं और जब तक इसका पालन होता रहेगा हमारी स्थिति बद से बदतर होती जायेगी।

1984 की बात है जब कोसी का बाँध नौहट्टा के पास सहरसा जिले में टूट गया था। मैं काम तो सिमुलतला रह कर दक्षिण बिहार में करता हूँ पर मेरा घर सुपौल जिले में है। नौहट्टा से बहुत ज्यादा दूर मेरा घर नहीं है। बाँध टूटने की घटना के बाद जब मैं घर गया तो लोगों से बातचीत हुई और सोचा कि कुछ राहत का काम किया जाय- लोग मुसीबत में हैं और जब राहत का सामान लेकर लोगों के बीच पहुँचा तो लोगों ने वह लेने से इन्कार कर दिया। उनका कहना था कि बाँध अगर प्राकृतिक कारणों से टूटता तो वह सहर्ष राहत सामग्री स्वीकार कर लेते पर बाँध तो लूट खसोट करने के लिये तोड़ा गया है इसलिये उन्हें राहत सामग्री नहीं अपने नुकसान की भरपाई यानी क्षति-पूर्ति चाहिये। उन्होंने ही बताया कि 5 सितंबर को बाँध टूटा और उसके चार पाँच दिन पहले ठेकेदारों को लगभग डेढ़ करोड़ रुपयों का भुगतान उस काम के लिये हुआ जो कि किया ही नहीं गया था। तब मिली-भगत से यह तय हुआ होगा कि बाँध रहे और न सबूत बचे। अतः बाँध को टूटने दिया गया। तटबन्ध टूटने से इतनी बड़ी तबाही हो जायेगी बस इसी का अंदाजा इंजीनियरों और ठेेकेदारों को नहीं था। दो सौ गाँवों से होकर पानी बह निकला और लोग विरोध में सड़कों पर आ गये। यह इलाका श्री लहटन चौधरी के चुनाव क्षेत्र में पड़ता था जो कि उस समय कृषि/राहत/पुनर्वास मंत्री थे। उनको एक दिन जनता ने निरीक्षण बंगले में सहरसा में घेर लिया व्यवस्था बनाये रखने के लिये गोली चालन तक की नौबत आ गई। सौभाग्य से कोई दुर्घटना नहीं हुई।

बाद में हम यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक ले गये। वहाँ तय हुआ कि यह दुर्घटना सरकारी लापरवाही के कारण हुई है और लोगों की क्षति-पूर्ति की मांग एकदम वाजिब है। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार को दो महीने के अन्दर एक समिति गठित करके उसके तीन महीने के अन्दर क्षति-पूर्ति का मसला तय कर लेने का निर्णय फरवरी 1989 में सुनाया जिस पर आज तक कोई कार्यवाही नहीं हुई है। बाद में हमलोग न्यायालय की अवमानना कर सन्दर्भ लेकर पुनः एक बार 1992 में सुप्रीम कोर्ट गये पर इसी बीच श्री प्रेम भाई के निधन के बाद सारा प्रयास ढीला पड़ गया और यही अद्यतन स्थिति है।

एक बात तो तय है कि इस पूरे मसले पर संघर्ष किये बिना कुछ होने जाने वाला नहीं है। जब तक एक बड़ा जन आन्दोलन खड़ा नहीं होगा तब तक उत्तर बिहार की यह समस्या जस की तस पड़ी रहेगी। लोग उद्वेलित हैं पर संगठित नहीं हो पा रहे हैं। अब कोसी योजना को लीजिए-प्रचार है कि कोसी तटबन्धों के केवल दक्षिणी हिस्सों में बाहर में जल जमाव है। हमलोगों ने एक बार कोशिश की कि राघोपुर में एक मीटिंग इस मुद्दे पर की जाय और तैयारी यह थी कि जन समर्थन नहीं मिल पायेगा। श्री रामचन्द्र खान गये उस मीटिंग में, थोड़ा देर हो गई थी- लोग प्रतीक्षा करते रहे और मीटिंग के बाद उन्हें मालाओं से लाद दिया। इसलिये अब तैयारी करके काम शुरू करना चाहिए।

श्री नलिनी कांत के एक प्रश्न की बहुत से गांधीवादी संगठन इस समय आयोडीन नमक के विरोध में आन्दोलन की भूमिका तैयार कर रहे हैं और यह आन्दोलन अब एक निश्चित स्वरूप भी ले रहा है-क्या पानी के मसले को भी उसी तरह उठाया जा सकता है या आन्दोलन की सीमा में ले आया जा सकता है- श्री शिवानन्द भाई ने कहा कि मुझे आज से तीन साल पहले एक परचा मिला था जिसमें आयोडीन नमक की बड़ी प्रशंसा लिखी हुई थी और बताया गया था कि आयोडीन युक्त नमक स्वास्थ्य के लिये कितना लाभदायी है। धीरे-धीरे इसका प्रचार सरकारी प्रसार माध्यमों से होने लगा और विगत जनवरी (1998) में सरकार की तरफ से एक फरमान भी आ गया कि इस 28 मई के बाद जो भी आदमी बिना आयोडीन युक्त नमक यदि रखेगा या बेचेगा वह दण्ड का भागी होगा। सच यह है कि प्रति दो हजार लोगों में से भारतवर्ष के तराई वाले क्षेत्रों में एक आदमी को घेंघा रोग होता है जिसका कारण आयोडीन की कमी बताई जाती है। इतनी सी समस्या के लिये पूरे देश को अब आयोडीन युक्त नमक खाना पड़ेगा और इस आयोडीन युक्त नमक की कीमत साधारण नमक, जो कि आठ आने किलो मिल जाया करता था से बारह गुना अधिक यानी 6 रुपये प्रति किलो होगी। अकेले नमक पर भारत की जनता को हर साल 25 अरब रुपये का चूना लगेगा। गांधीजी का कहना था कि हवा और पानी को प्रकृति ने सर्वसाधारण को मुफ्त दे रखा है उसी तरह नमक की भी कोई कीमत नहीं होनी चाहिए। नमक आन्दोलन का यह बहुत बड़ा आधार था। अब आयोडीन का आयात कीजिये। नमक बनाने की तकनीक आयात कीजिये और उनकी मशीनें खरीदिये-इसलिये नमक 6 रूपये किलो मिलेगा। इतना बड़ा भ्रष्टाचार जुड़ा हुआ है। हमारी सरकारें अपने आपको कल्याणकारी सरकारें कहती हैं और इतना बड़ा भ्रष्टाचार उनकी नाक के नीचे पनप रहा है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पकड़ हमारे देश पर इतनी मजबूत होती जा रही है कि अब सरकार चाहे भी तो उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। यह मामला तो आन्दोलन से ही सुलझेगा।

रही बात पानी से जु़ड़े प्रश्नों की तो चौरासी की बाढ़ से हमलोगों ने इस पर सक्रिय रूप से सोचना शुरू किया। मिश्र जी मेरे साथ सहरसा गये थे और उसके बाद उन्होंने बाढ़ के मसले पर काम करना शुरू किया और तब से घोंट-घोंट कर सारी खामियों को हमलोगों को पिला रहे हैं और धीरे-धीरे यह बातें लोगों को समझ में आ रही हैं। मामला अकेले पानी या नमक का नहीं है। मामला समग्रता की दृष्टि का है और इस पर समग्रता में ही चोट करनी पड़ेगी। आन्दोलन का एक दरवाजा नमक ने खोला है तो अगली सीढ़ी पर जल-जंगल-जमीन का प्रश्न उठेगा और हमलोग वहाँ भी साथ मिल कर काम करेंगे।

फादर राबर्ट (तरु-मित्र-पटना) - पिछले पाँच वर्षों से बाढ़ मुक्ति अभियान के मित्र इस मुद्दे पर काम कर रहे हैं, इसलिये मैं उनको उनके प्रयास के लिये शुभकामनाएँ देता हूँ। लेकिन आज सुबह मेरे साथ बहुत से छात्र आये थे जोकि भोजनावकाश के समय चले गये। मैंने उनसे पूछा कि वह मीटिंग छोड़कर क्यों जा रहे हैं तो उन्होंने कहा कि इतने दिनों से वही बाढ़ और तटबन्धों की बात सुनते-सुनते तंग आ गये हैं। यहाँ नया कुछ नहीं हो रहा है इसलिये जा रहे हैं, ऐसा उन्होंने कहा।

हकीकत यह है कि हमारी नदियाँ बंधी हुई हैं जिसके कारण उनका तल ऊपर उठने लगा है-कहीं-कहीं तो यह 12-15 फुट तक ऊपर उठ गया है- यह हकीकत है। ऐसी परिस्थति में क्या किया जाय। चीन में भी इसी तरह की समस्या हुई थी, वहाँ भी तटबन्धों के बाहर जल जमाव हुआ था पर वहाँ ऐसी जमीन पर फसलें, विशेषकर धान उगाने के प्रयोग हुए हैं और इन प्रयोगों में उन्हें सफलता भी मिली है। हमें इस तरह के प्रयोग अपने देश में करने चाहिये ताकि इस दिशा में यहाँ से आगे कुछ किया जा सके।

श्री दिनेश कुमार मिश्र - फादर राॅबर्ट ने बड़ा अच्छा प्रश्न उठाया है कि बाढ़ मुक्ति अभियान पिछले कई वर्षों से काम कर रहा है पर बातें वही पुरानी की पुरानी चल रही हैं, नया कुछ नहीं हो रहा है। हम इतना जरूर कहना चाहेंगे कि आज से दस-बारह साल पहले तक जब बाढ़ आती थी तो लोग इसे प्राकृतिक विपदा कह कर गम कर जाते थे। हमारे काम का इतना असर तो जरूर हुआ है कि लोग इसे अब प्राकृतिक विपदा नहीं मानते और इसका मूल कारण समझते हैं। अब लोग इसे केवल मानव निर्मित नहीं मानते वरन उन लोगों को भी पहचानते हैं जिनके कारण यह दुर्घटनाएँ होती हैं। आज बागमती के तटबन्ध को, जो कि 1993 की बाढ़ में सात जगह टूट गया था, लोगों ने तमाम प्रलोभनों और दबावों के कारण बाँधने नहीं दिया तो यह बढ़ी हुई समझदारी का ही नतीजा है। डॉ. मण्डल जी ने बताया कि महानन्दा का तटबन्ध कदवा में तीन जगह खुला पड़ा है तो वह भी अकारण नहीं है- वहाँ बदली हुई परिस्थितियों ने लोगों को सिखाया है कि उनका भला कहाँ है और झंझारपुर के नीचे कमला के तटबन्धों में लगातार पड़ने वाली दरार और प्रतिक्रिया में लोगों का आगे आकर खुद तटबन्धों को काट देना केवल असामाजिक तत्वों का काम नहीं है; यह सब स्थानीय लोगों ने अपनी परिस्थति देखकर खुद निर्णय लिये हैं और इसका सारा का सारा श्रेय उन्हीं को जाता है पर निश्चित रूप से हमने लोक-शिक्षण के अब तक के जो भी कार्यक्रम चलाये हैं उनके प्रभावों की भी एक अहम भूमिका रही है।

मनिहारी (कटिहार) चले जाइये। वहाँ लोग प्रायः हर साल तटबन्ध काटते हैं और बाढ़ मुक्ति अभियान के जन्म से पहले से काटते हैं। बाढ़ मुक्ति अभियान ने इन सारे अनुभवों और घटनाओं को एकबद्ध करके लोक-शिक्षण का ही काम किया है। नया कुछ नहीं किया है और न ही रोज नई बात पैदा कर सकता है। इसके लिये तो शायद कवि सम्मेलन या मुशायरे का मंच होता है।

रही बात विकल्प पर काम करने की तो इस सुझाव का हम निश्चित रूप से स्वागत करते हैं। हमारे पास बहुत से विचार और कल्पनाएँ हैं जिन पर हम चाहते हैं कि काम हो और हम इसमें मदद करने के लिये प्रस्तुत हैं। यह एक संस्थागत काम है और हमारा कोई संस्थागत स्वरूप नहीं है। बाढ़ मुक्ति अभियान पानी और बाढ़ के मसले पर संवेदनशील व्यक्तियों का एक अनौपचारिक मंच मात्र है। इसलिये इस दिशा में अपेक्षित प्रगति नहीं हो पा रही है।

तीसरा प्रश्न जो हमसे बार-बार पूछा जाता है कि क्या तटबन्ध तोड़ दिये जायें तो उसके बारे में हमें कहना है कि उन्हें लोगों को तोड़ने की जरूरत नहीं है- यह काम नदी स्वयं करेगी और टूटे तटबन्ध को फिर से जोड़ा जाय या नहीं यह फैसला स्थानीय लोग करें। यदि वहाँ तटबन्ध से कोई लाभ हुआ होगा तो लोग बाँधना पसंद करेंगे अन्यथा नहीं। हम प्रशासन में और सरकार में भी ऐसे कई लोगों को जानते हैं जिन्होंने खुद खड़े होकर अनौपचारिक रूप से नदी के तटबन्ध कटवाये हैं और इसकी तकनीक भी विकसित की है। वास्तव में यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर ‘हाँ’ या ‘नहीं’ में दिया जा सकता। लेकिन जब योजना बनाने वालों को हर जगह की और हर तरह की समस्या का समाधान तटबन्ध में ही दिखाई पड़ने लगे तो फिर उसका विरोध करने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचता। इस पूरे मुद्दे पर एक व्यापक बहस की जरूरत है।

श्री तारिक रहमान (सहयोग-गोरखपुर) - मैं उत्तर प्रदेश के सरयू पार के मैदानी क्षेत्र से आया हूँ। कुछ वर्षों पहले तक हो सकता है वहाँ बाढ़ का आना एक खुशी की बात रही हो पर आजकल तो बाढ़ किसी भी सूरत में आनन्दायक अनुभव नहीं है। जब से हमलोगों ने बाढ़ से बढ़ते नुकसान का जायजा लेना शुरू किया और बाढ़ के कारणों के बारे में जानकारी हासिल करना शुरू किया तब से हमने इसके निवारण के लिये प्रयास भी करना शुरू किया। वैसे भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में बाढ़ कोई नई या अनहोनी घटना नहीं है जिसके कई कारण और प्रभाव हो सकते हैं जो कि सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक या तकनीकी, कुछ भी हो सकते हैं। इस समस्या से निबटने के लिये 1992 में हमने सहयोग नाम का एक नेटवर्क बनाया था जोकि 40-50 संस्थाओं का एक संगठन है जिसका मुख्यालय गोरखपुर में है। बाढ़ के मुद्दे पर लोगों को जागरुक करना हमारा मुख्य उद्देश्य रहा है।

यह मसला किसी एक प्रान्त या देश का मसला नहीं है और इसके लिये क्षेत्रीय सहयोग आवश्यक है और कतिपय क्षेत्रों में हमलोगों को साथ मिलकर काम करना ही होगा। हमारी अपनी आवश्यकतायें हैं पर हमारी नदियाँ नेपाल से आती हैं इसलिये हमारी निर्भरता नेपाल पर बढ़ जाती है साथ ही बहुत से ऐसे मसले है जिनके लिये नेपाल को हमारी जरूरत पड़ती है इसलिये क्षेत्रीय सहयोग तो आवश्यक है ही। हमलोगों ने अपने नेटवर्क के माध्यम से इस दिशा मे शुरुआत भी की है। वैसे तो हमारे क्षेत्र में तीन बड़ी नदियाँ, गण्डक, घाघरा और राप्ती पड़ती हैं पर हमने अपना प्रयास शुरू किया एक छोटी सी नदी रोहिन से जो कि महाराजगंज जिले से होकर गुजरती है। इस नदी का उद्गम नेपाल में है। अपने युवा साथियों और आम जनता के सहयोग से हमने इस नदी के बारे में काफी जानकारी इकट्ठी की है और तब यह जाना कि इस नदी के प्रवाह मार्ग और स्वरूप में काफी परिवर्तन आया है। हमने इसके कारणों में जाने का प्रयास किया। नेपाल से आने वाली इस नदी में पिछले 30-35 साल में भारत वाले हिस्से में धारा मार्ग में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। नेपाल से इस नदी में अत्यधिक बाढ़ का पानी आने के कारण इस तरह की घटनायें हुई हैं। अपनी जानकारी को और अधिक समृद्ध करने के लिये हमलोगों ने नेपाल के अपने मित्रों से सहयोग किया और रोहिन नदी के किनारे-किनारे भारत में वसन्तपुर से नेपाल में बुटवल तक की एक पदयात्रा निकाली। इस पूरी पदयात्रा में रास्तें में गोष्ठियों, सभाओं और अध्ययन शिविरों का आयोजन किया गया। भारतीय क्षेत्र में जब हम थे तब लोगों ने बताया कि इस नदी में जो बाढ़ आती है वह नेपाल से आती है और यदि इस नदी के किनारे तटबन्ध बना दिया जाय तो एक हद तक समस्या का समाधान हो जायेगा। नेपाल में जैसे-जैसे हम ऊपर की ओर बढ़ते गये, इस नदी का स्वरूप पतला होता गया। नेपाल में इस नदी में एक चीनी मिल का गंदा पानी भी आकर मिलता है। इस पदयात्रा के बाद हमलोगों को लगा कि दोनों देशों के बीच में काफी भ्रम की स्थिति है जिसका निवारण होना चाहिए और यह काम वैज्ञानिक आधार पर, आंकड़ों के आधार पर होना चाहिये भावनाओं के स्तर पर नहीं। ठोस बातें रखने पर हमारा अपना आधार मजबूत हुआ है और लोगों को समझना भी आसान होता है। हम इस दिशा में भी प्रयास कर रहे हैं।

मंच पर खड़े हुये श्री तारिक रहमान उनके सह-वक्ता श्री राजेश कुमार साथ में अध्यक्ष श्री प्रियदर्शीश्री तारिक रहमान के वक्तव्य के बाद श्रोताओं ने कई प्रश्न किये जैसे कि हम समस्यायें तो धीरे-धीरे पहचानने लगे हैं और हमारा मुकाबला किन से होने वाला है उन्हें भी हम देख रहे हैं तो इस सन्दर्भ में हमारी एक-दूसरे से क्या अपेक्षाएँ हो सकती हैं। दूसरी बात यह है कि अब तक उत्तर प्रदेश बनाम नेपाल सहयोग की बात आपने बताई। भविष्य में शायद कभी बिहार बनाम नेपाल भी सहयोग होगा पर उत्तर प्रदेश/बिहार या बंगाल के बीच भी इस तरह का सहयोग होना चाहिए। इस तरह की कोई पहल आपकी तरफ से हुई हो तो उसके बारे में भी बताएँ। यह भी पूछा गया कि अन्तरराष्ट्रीय सहयोग के पीछे आप अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं या बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की कोई भूमिका तो नहीं देखते हैं।

जवाब में श्री तारिक रहमान ने बताया कि हमलोगों ने नेपाल तथा भारत दोनों ही क्षेत्रों में आंकड़े इकट्ठे करने की दिशा में प्रगति की है ओर कई स्थानों पर अपने वर्षा मापक यंत्र लगाए हैं और वर्षा पर नजर रखने का काम कर रहे हैं। भविष्य में कभी नदी का प्रवाह भी नापने का प्रयास करेंगे। कुछ वर्षों में हमारे पास इतने आंकड़े हो जायेंगे कि हम अपने स्तर से कुछ सुझाव दे सकें। श्री रहमान के इस उत्तर पर एक और प्रश्न हुआ कि जिस तरह के आंकड़े आप इकट्ठा कर रहे हैं। वह अधिकांशतः तकनीकी हैं और तकनीकी लोगों का समस्याओं में अपना निहित स्वार्थ होता है। वह किसी भी चीज को इतना जटिल और रहस्यपूर्ण बना देते हैं कि सारी बहस उन्हीं तक सिमटने लगती है और तब वे विशेषज्ञ बन कर महत्ता स्थापित करने लगते हैं। आप आंकड़े जरूर इकट्ठा करे लेंगे पर एक बार फिर विशेषज्ञों के जाल में जाकर फँसेंगे। इससे बचाव के लिये आपने क्या व्यवस्था की है।

इस प्रश्न का उत्तर दिया लोक विज्ञान संस्थान, देहरादून से आये श्री राजेश कुमार ने। लोक विज्ञान संस्थान और सहयोग-गोरखपुर इस मुद्दे पर मिलकर काम कर रहे हैं। राजेश जी ने कहा कि- हमलोग कुल मिलाकर 9 वर्षा मापक यंत्र लगाने जा रहे हैं जिसमें से सात नेपाल में तथा दो भारतीय क्षेत्र में होंगे। इससे होने वाली वर्षा नाप लेंगे और इतनी वर्षा पर नदी का प्रवाह कितना है वह भी नाप लेंगे। इसके साथ ही हम नदी के पानी में आने वाली सिल्ट की मात्रा तथा उसका प्रकार भी जानने की चेष्ठा करेंगे। हमलोगों ने वसन्तपुर से बुटवल तक की पदयात्रा रोहिन नदी के किनारे-किनारे की। इस पूरी लम्बाई को हम तीन हिस्सों में बाँट सकते हैं। वसन्त पुर में नदी के पानी में महीन सिल्ट ज्यादा आती है जिसकी वजह से इस इलाके में खरीफ की बहुत अच्छी फसल हो जाया करती है। वही महीन सिल्ट थोड़ा ऊपर जाकर महीन बालू बन जाती है। थोड़ा और ऊपर जायें तो पानी में मोटा बालू मिलने लगता है और उसके ऊपर गुलगुट (ग्रेवेल) मिलने लगता है। मैंने कोसी क्षेत्र भी देखा है और दोनों क्षेत्रों की तुलना कर सकता हूँ। मुझे लगता है कि 30-32 वर्षों में जो कोसी क्षेत्र का हाल हुआ है वही स्थिति यहाँ की भी होने वाली है। अभी क्योंकि तुरन्त फायदा दिखाई पड़ रहा है लोगों को तटबन्ध से तो लोग कहते हैं कि तटबन्ध बनना चाहिये। यदि संभव हो तो इस क्षेत्र के कुछ लोगों को ले जाकर कोसी क्षेत्र दिखाया जाय कि कुछ वर्ष पहले यहाँ की स्थिति वही थी जो कि आपके क्षेत्र की आज है और यदि आपकी नदी पर तटबन्ध बना तो आपकी स्थिति भी वही हो जायेगी।

श्री तारिक रहमान ने आगे कहा कि हमलोग जो सहयोग के माध्यम से काम कर रहे हैं, उसके जो नतीजे सामने आये हैं उनसे यह लगता है कि हमें एक दूसरे की समस्याओं को समझने का मौका मिला है और यह स्पष्ट होता है कि बिना संवाद के कोई मामला हल होने वाला नहीं है फिर वह चाहे अन्तरराष्ट्रीय हो या अन्तरराज्यीय। हमलोग नेपाल से सम्पर्क बनाये हुए हैं और यदि अवसर मिला तो अन्य प्रान्तों से भी ऐसा ही सम्पर्क बनाये रखने का प्रयास करेंगे।

श्री अजय दीक्षित ने इसी सन्दर्भ में अपनी बात रखते हुए कहा कि भारत और नेपाल के बीच सरकारी स्तर पर अभी तक केवल करनाली, गण्डक और कोसी नदियाँ चर्चा में हैं। किसी चौथी नदी पर अभी कोई बातचीत नहीं चल रही है। हमलोगों का विचार हुआ कि एक ऐसी नदी की समस्याओं का अध्ययन किया जाय जो संभवतः सरकारी स्तर पर कभी चर्चा का विषय बनेगी ही नहीं। इसलिये हमलोगों ने रोहिन को चुना। जन साधारण के स्तर पर इस काम को करने का विचार हमलोगों ने किया और स्थानीय स्तर पर वहाँ काम कर रहे समूहों का सहयोग लेने की बात उठाई। मुद्दा यह है कि भारत में अधिकांश लोग यह समझते हैं कि नेपाल में पानी बहुत है इसलिये भारत में बाढ़ आती है और उधर नेपाल में आम धारणा यह है कि कोसी और गण्डक परियोजनाओं के फलस्वरूप भारत पूरी तरह खुशहाल हो गया है और यह सब नेपाल की कीमत पर हुआ है। इस भ्रम को हमलोग मिटायें जिसके लिये हमलोग एक वैज्ञानिक अध्ययन चाहते हैं और वह इसलिये भी जरूरी है कि हम अपनी सामूहिक ताकत को पहचान सकें और अपने दुश्मनों को भी पहचान सकें। दूसरी बात यह है कि भारत में यह दुष्प्रचार बड़े जोरों पर है कि नेपाल में जंगल बहुत कट गये हैं जिससे भारत में बाढ़ की समस्या गंभीर हो गई है। मैं यहाँ यह बात निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि पिछले दस-पन्द्रह वर्षों के मुकाबले नेपाल में आज 15 प्रतिशत वृक्ष ज्यादा हैं। हमारे यहाँ व्यापक वृक्षारोपण का कार्यक्रम पिछले वर्षों में हुआ है।

श्री कामेश्वर लाल ‘इन्दु’ ने प्रश्न किया कि सुबह जो बात हमने उठाई थी कि नदी की धारा परिवर्तन के साथ हमारे यहाँ गाँव कट रहे हैं और हमारा क्षेत्र छोटा होता जा रहा है। इसके पीछे शायद गण्डक बराज भी एक कारण है क्योंकि जब तक यह बराज नहीं था तब तक सन्तुलन प्रायः बना हुआ था और तबाही इतनी अधिक नहीं थी। इस विषय पर भी नेपाल के या अन्य कोई साथी रोशनी डालते तो अच्छा था।

श्री नलिनी कान्त ने दूसरा प्रश्न फिर उठाया कि श्री रहमान और श्री राजेश जी ने जो डाटा बेस तैयार करने की बात उठाई है वह फिर अपने आप में जटिल और रहस्यपूर्ण है। डाटा बेस होना चाहिये इसमें कहीं कोई विवाद नहीं है पर इसका उपयोग किस तरह होता है और लोगों के सामने इसे किस तरह से रखा जाता है हमें इस पर आपत्ति जरूर है। आज हमने मिश्र जी के पास कोसी की जल-निकासी की समस्या पर अपने ही मित्रों द्वारा तैयार एक रिपोर्ट देखी और मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि उस रिपोर्ट का एक भी शब्द मेरे पल्ले नहीं पड़ा और वह लेख मैंने उन्हें वैसे का वैसा लौटा दिया। जब मेरी यह हालत है तो आम आदमी के काम वह रिपोर्ट क्या आएगी। मेरी और मैं समझता हूँ कि हम सबकी परेशानी वहाँ होनी चाहिये कि यह डाटा-बेस का सिलसिला हम पर हावी न होने पाये।

अध्यक्षीय हस्तक्षेप से इस मुद्दे पर और आर्थिक बहस नहीं होने पाई और वित्तीय संस्थाओं तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भूमिका का प्रश्न भी अनुत्तरित रह गया परन्तु बाढ़ मुक्ति अभियान के श्री विजय कुमार ने अपनी बात रख ही दी। उन्होंने कहा कि पानी के मसले पर अन्तरराष्ट्रीय सहयोग से पहले अपने देश की स्थिति देख लेना चाहिये। कावेरी-जल विवाद जब पराकाष्ठा पर था तब कर्नाटक के मुख्यमंत्री श्री देवगौड़ा ने, जो बाद में भारत के प्रधानमंत्री भी बने, कहा था कि वह कावेरी का एक बून्द भी अधिक पानी तमिलनाडु को नहीं देंगे और जब उन्हें तमिलनाडु से लाये गये धान के जले पौधे दिखाए गये थे तो उन्होंने कहा था कि हम फसल के नुकसान का मुआवजा दे सकते हैं पर पानी नहीं देंगे। तब हमें लगता है कि पहले अपना घर ठीक कर लेना चाहिये और एक विस्तृत जल-नीति का स्वरूप तैयार करने की दिशा में हमें काम शुरू करना चाहिये ताकि इस तरह के प्रश्न भविष्य में न उठ सकें।

श्री अजय दीक्षित ने एक बार फिर अपनी बात रखी और कहा कि मैं इन्जीनियर हूँ और मसलों को रहस्यपूर्ण बना देने पर कुछ कहना चाहता हूँ। हमारी तो पढ़ाई लिखाई ही इस तरह से हुई है कि हम सारी चीजों को रहस्यपूर्ण बना कर आप सबके ऊपर बैठ जायें। परन्तु हमारी बिरादरी में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो इस बात से सहमत नहीं हैं और इन वर्जनाओं को तोड़ना चाहते हैं। हमने यह अध्ययन रहस्यों को सुलझाने के लिये किया है उन्हें दुरूह बनाने के लिये नहीं। दूसरी बात यह भी है कि नेपाल में कहीं न कहीं यह धारणा जरूर है कि भारत बड़ा देश है और नेपाल छोटा है और भारत अपने बड़े होने का एहसास करवाता रहता है। यह बात सही है या गलत या फिर क्यों हैं- इसका कोई उत्तर शायद किसी के पास न हो पर यह बात आम नेपाली के दिल में है जरूर।

श्री गिरीन चेतिया (जोरहाट-असम) - मैं देश के उत्तर-पूर्व हिस्से से आया हूँ और हमलोगों की हमेशा से यह शिकायत रही है कि देश में कुछ भी होता है तो हमलोग अलग छूट जाते हैं। हमारी भाषा की समस्यायें भी हैं। मेरी हिन्दी समझने में आपलोगों को थोड़ी दिक्कत जरूर होगी। आज का जो विषय है दक्षिण एशिया में नदी संकट का, इसमें हम आमतौर पर हिमालय से निकलने वाली नदियों की बात करते हैं। लेकिन नदियाँ अलग-अलग होने के कारण संकट भी अलग-अलग हैं, यह हमें मानना चाहिए। जैसे जहाँ तटबन्ध या बाँध बनें हैं वहाँ की समस्या तथा जहाँ यह सब संरचनायें नहीं बनी हैं वहाँ की समस्यायें भिन्न हैं। असम के बारे में लोगों की आम धारणा है कि वह बहुत ही मन्द गति का क्षेत्र है। सब कुछ वहाँ धीरे-धीरे चलता है। यह बात क्योंकि लोगों के दिलों में गहरे बैठी हुई है इसलिये हमलोगों को ऐसे लोगों को समझाना मुश्किल हो जाता है। हमारे यहाँ नदियाँ बहुत ज्यादा हैं इसलिये बाढ़ भी ज्यादा है और शायद इसलिये योजना बनाने वालों ने वहाँ पूरी ताकत लगाकर तटबन्ध बनाना शुरू कर दिया। नतीजा यह है कि देश के बाढ़ प्रवण प्रान्तों में सबसे ज्यादा तटबन्धों की लम्बाई हमारे प्रांत में है- 4,470 किलोमीटर। जहाँ इतने ज्यादा लम्बे तटबन्ध होंगे वहाँ बाढ़ की समस्या भी कम नहीं होगी। जब तटबन्ध नहीं बने थे तब हमारे प्रान्त में लगभग तीन हजार गाँवों में बाढ़ का पानी घुसता था और अब औसतन 5,600 गाँव डूबते हैं। सन 1988 में तो लगभग पूरा असम ही डूब गया था। यह तो अब एक इतिहास बन गया है। अभी असम में 23 जिले हैं, उसमें से 21 इस साल बाढ़ की चपेट में आ चुके हैं। इसलिये जब संकट की बात उठती है तो इन समस्याओं को ध्यान में रखना चाहिये। नदी का स्वभाव भी भिन्न हैं। देश की प्रायः सभी नदियों को हम माता कह कर सम्बोधित करते हैं पर ब्रह्मपुत्र तो बाबा हैं- वह नद है।

थोड़ा असम घाटी की संरचना को भी समझना चाहिये। यह लगभग 800 कि.मी. लम्बी है और 90 कि.मी. चौड़ी घाटी है। इसमें से भी 9 किलोमीटर चौड़ाई में ब्रह्मपुत्र बहता है। अतः कुल 80 कि.मी. की चौड़ाई उपलब्ध है मैदान के रूप में। बाकी सब पहाड़ है। इसमें भी उत्तर-दक्षिण की ओर से आकर ब्रह्मपुत्र में मिलने वाली नदियों की संख्या 104 है। इस तरह यह दुनियाँ के सबसे ज्यादा नदी सघन क्षेत्रों में आता है। इतनी नदियाँ होंगी तो बाढ़ स्वाभाविक है और हमारी पारम्परिक जीवन शैली भी इसी परिस्थिति के अनुरूप थी। अब मंच पर आते हैं विशेषज्ञ या एक्सपर्ट। उनको बाढ़ तो दिखाई पड़ती है पर हमारी जीवन शैली को देखने की फुर्सत उन्हें नहीं है। उन्हें पानी दिखाई पड़ता है और पहाड़ भी दिखाई पड़ते हैं और तब वह तुरन्त बिजली की बात सोचने लगते हैं। उनका ध्यान तुरंत मेगावाट के बारे में सोचने में लग जाता है।

आपने ब्रह्मपुत्र बोर्ड का नाम जरूर सुना होगा। यह एक विशेषज्ञ संस्था है। ब्रह्मपुत्र में कितना पानी बहता है उसका वह लोग हिसाब किताब रखते हैं और जैसी उनसे आशा है उसके अनुसार उन्होंने सोलह बड़े बाँधों का प्रस्ताव ब्रह्मपुत्र घाटी में कर रखा है। लगभग 50,000 मेगावाट बिजली पैदा कर लेंगे वह इन बाँधों से। बात बाढ़ से शुरू होती है और बिजली उत्पादन पर जा कर समाप्त होती है। आपने शायद दिहंग बाँध के बारे में सुना हो-20,000 मेगावाट बिजली पैदा करेगा। इसी तरह सुबनसिरी बाँध 4,800 मेगावाट बिजली पैदा करेगा। इस तरह से जितने भी बाँध हैं सब एक हजार मेगावाट से ज्यादा बिजली पैदा करेंगे। असम को चाहिए आज की परिस्थिति में केवल 600 या 500 मेगावाट। उद्योग धंधे कोई खास हैं नहीं वहाँ और गाँव में बिजली जाती ही नहीं है। मगर एक्सपर्ट लोगों का एक सपना हुआ करता है- उन्हें जब भी नदी और पहाड़ दिखाई पड़ेगा वह बिजली की सोचेंगे और पूरे दक्षिण एशिया को जगमगाने की अभिलाषा उनके हृदय में कुलांचे भरने लगेगी। उसके बाद फिर असम डूबे चाहे उतराये- उनकी बला से। बिहार में मुझे बताया गया है कि आपलोग तटबन्धों के खिलाफ एक मुहिम चला रहे हैं और कई स्थानों पर लोगों ने तंग आकर उन्हें काट भी दिया है और काटने या कटवाने वालों में वह लोग भी शामिल हैं जो कभी प्रशासन या सरकार में भी होते हैं। लोग तटबन्ध क्यों काटते हैं-शायद इसलिये कि उनकी तकलीफों को कोई सुनने वाला ही नहीं है और जब उनका धैर्य समाप्त हो जाता है तब लोग यह काम करते हैं। हमारे यहाँ भी लोग तटबन्धों को काटते हैं- ठीक वही परिस्थतियाँ हैं हमारे यहाँ जो कि आप के यहाँ है।

असम की यही सब स्थिति है। लगभग 400 स्थानों पर तटबन्ध टूटे या खुले पड़े हैं जिनकी चिन्ता कोई नहीं करता। एक्सपर्ट लोग जी-जान से बड़े बाँधों के पीछे लगे हैं। अभी जून चल रहा है-दो चक्र बाढ़ असम में आ चुकी है। अभी कई बार और आयेगी। आप सभी लोगों से हमलोगों की यह विनती है कि आप जब भी बाढ़ के बारे में सोचें तो हमलोगों को और असम को न भूलें।

एक प्रश्न के उत्तर में श्री गिरीन चेतिया ने आगे बताया कि जहाँ दिहंग बाँध बनाने का प्रस्ताव है वहाँ प्रबल भूकम्प का क्षेत्र है। पचास के दशक में इस क्षेत्र में जबर्दस्त तबाही हुई थी यह भूकम्प अब तक के विश्व इतिहास में सबसे झटकों में से एक था। पिछले दस वर्षों में इस इलाके में लगभग 2500 भूकम्प के झटके रिकार्ड किये गये हैं जिनमें से सौ के आस-पास रिक्टर पैमाने पर पाँच से अधिक परिमाण के थे। टिहरी बाँध के विरोध में भूकम्प एक बहुत बड़ा मुद्दा था और इस पर अभी भी कोई आम सहमति नहीं बन पाई है पर हमारे यहाँ सूचनाओं और जन-चेतना का यह आलम है कि बाँध बनाने के लिये वहाँ संघर्ष समितियों का गठन हो रहा है। हमलोग अब वहाँ एक जन-जागरण अभियान शुरू करने वाले हैं और इस प्रयास में आप सभी का सहयोग चाहते हैं।

श्री विजय कुमार ने इसी क्रम में कहा कि असम के छात्र आन्दोलन को पिछले दशक में बिहार की छात्र युवा संघर्ष वाहिनी ने न केवल नैतिक बल्कि संगठनात्मक रूप से भी समर्थन दिया था। आज भी जो सरकार असम में है वह उसी आन्दोलन की उपज है। हमने तब पटना से गुवाहाटी तक की पदयात्रा भी उस छात्र आन्दोलन के समर्थन में निकाली थी और हम असम की बाढ़ ग्रस्त जनता को आश्वस्त करना चाहते हैं कि यदि वहाँ पानी के प्रश्न पर कोई आन्दोलन खड़ा होता है तो हमारा समर्थन उनको निश्चित रूप से मिलेगा।

श्री अर्जुन प्रसाद सिंह (लोक संग्राम समिति -पटना) अभी तक जल प्रबन्धन के प्रश्न पर काफी गंभीर चर्चा हुई है। हमें लगता है कि नदियाँ कभी भी संकट का कारण नहीं होती। वह तो मनुष्य या प्राणिमात्र को प्रकृति का वरदान है। वास्तव में जो भी संकट दिखाई पड़ रहा है वह जल प्रबन्धन की गलत नीतियों का परिणाम है। इसके साथ ही जंगलों को समाप्त करने का काम भी बड़ी निर्दयता पूर्वक किया गया है। जल प्रबन्धन की गलत नीतियों और जंगल कटाई के संयोग ने पानी का संकट पैदा किया है। अभी एक बात उठी थी कि 2020 के आस-पास तक पीने के पानी का भीषण संकट हो जायेगा और यह विश्वव्यापी होगा। आज आप बाँध बना लीजिये या तटबन्ध तोड़ लीजिये या डाटा इकट्ठा कर लीजिये-इस समस्या का मुकाबला करना ही पड़ेगा। पानी के बेहतर प्रबन्धन या सफल क्रियान्वयन की कुंजी हमेशा सत्ता के पास रही है और जब तक सत्ता पक्ष या राजनीतिज्ञों को मोबिलाइज नहीं किया जायेगा तब तक हमें कुछ हासिल नहीं होगा। अतः राजनीति को इस मुद्दे पर कैसे प्रभावित किया जाये इस दिशा में हमें गंभीर प्रयास करने चाहिये।

श्री वी. मोहन रेड्डी (हैदराबाद) - (तेलगु भाषी श्री मोहन रेड्डी ने अपना वक्तव्य अंग्रेजी में रखा।) सुबह से बहस को सुन रहा हूँ और मुझे लगता है कि मुख्य मुद्दा तो कृषि का है पर यहाँ बाढ़ या विद्युत उत्पादन के प्रश्न के रूप में उभर रहा है। सरकार जब भी किसी प्रकल्प के बारे में सोचती है तो उसमें मुख्य मुद्दा बिजली के उत्पादन का रहता है उसके बाद जो भी बातें होती हैं वह द्वितीय या तृतीय प्राथमिकता की होती हैं। यह बात अलग है कि प्राथमिक आवश्यकता की चीज जिसे बताया जाता है। बाढ़ नियंत्रण या सिंचाई आदि सब कम प्राथमिकता की चीजें हैं। असम के देवगौड़ा पैकेज को देखिये। वहाँ 6,000 करोड़ रुपये खर्च करने का प्रावधान उनकी सरकार ने किया और जरा ध्यान से उस प्रस्ताव को देखें तो यह लगभग सारा का सारा बिजली उत्पादन के लिये था।

1984 में मैं विद्यार्थी था और दिल्ली में इण्डिया इंटरनेशनल सेन्टर में मैंने एक सेमिनार में भाग लिया जिसका आयोजन एक जापानी संस्था ने किया था। इस सेमिनार का मुख्य उद्देश्य यह सिद्ध करना था कि सन 2005 तक भारतवर्ष एक सुपर पावर की शक्ल में उभर कर सामने आयेगा। यह बात उन्होंने कृषिगत क्षेत्रों को ध्यान में रखकर किया था। जापानियों का यह भी कहना था कि उन्होंने श्रीमती गांधी को अपने प्रस्तावों से राजी भी कर लिया है। उनका कहना यह था कि भारत के गांगेय क्षेत्र में भूमिगत जल की मात्रा बहुत अधिक है और उसका दोहन और उपयोग करना चाहिये जिससे भारत की कृषि और कृषि उद्योगों का विकास हो सके। इतना बताने के बाद उन्होंने फिर बिजली उत्पादन का पिटारा खोला। बिहार में कोयले की प्रचुर मात्रा है जिससे बिजली का उत्पादन किया जा सकता है पर अंग्रेजों और अमेरिकियों का मानना था कि इससे प्रदूषण अधिक फैलता है और वह पनबिजली के हामी थे। रियो अर्थ सम्मिट के बाद पिछले कुछ वर्षों में पनबिजली के उत्पादन की चर्चा जोरों से चल रही है। मुद्दा यह है कि बिजली का जब उत्पादन बढ़ेगा तो बिहार कि किसानों को भूमिगत जल अधिक मिलेगा और यहाँ कृषि उत्पादन बढ़ पायेगा और यहाँ के किसान पंजाब और हरियाणा के किसानों से भी ज्यादा तरक्की कर सकेंगे। उस समय जापानी और अमरीकी कृषि उत्पादन बढ़ाने की बात करते थे पर इधर उनके सोच में परिवर्तन आया है और अब वह औद्योगिक उत्पादन की बात करने लगे हैं- अब उनकी रुचि किसानों में नहीं है। आंध्र प्रदेश का उदाहरण हम सबके सामने है जोकि विदेशों से मदद लेने में इस समय देश का सबसे अग्रणी राज्य है। आज वहाँ हमारी नहीं विश्व बैंक की सरकार चल रही है। आन्ध्र प्रदेश ही एक ऐसा राज्य है देश में जिसके समग्र विकास की योजना विश्व बैंक ने बनाई है।

यह एक बहुत ही सतही तर्क है कि किसानों को जितनी सब्सिडी दी जाती है उससे यहाँ की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ता है। हमारे यहाँ किसानों को बिजली 13 पैसे प्रति यूनिट मिलती है और सब्सिडी समाप्त होने पर उन्हें तीन रुपया प्रति यूनिट देना पड़ेगा। इतना दाम दे पाना किसानों के लिये मुमकिन नहीं है। अतः अब अपेक्षा यह है कि इस क्षेत्र में आकर औद्योगिक घराने खेती करें। अब किसानों और मजदूरों को यह समझना होगा कि न तो वे अब किसान रह पायेंगे और न मजदूर। अब उन्हें यह फैसला खुद करना पड़ेगा कि वह अपने लिये बिजली और पानी की खुद व्यवस्था करें अन्यथा अपने खेत बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सौंप दें।

जो बात आन्ध्र प्रदेश के लिये सच है वह भारत के अन्य हिस्सों और नेपाल पर भी लागू होती है। मैं यह बात जोर देकर कहना चाहता हूँ कि आन्ध्र प्रदेश सरकार 17,000 करोड़ रुपये विश्व बैंक से कर्ज ले चुकी है और 10,000 करोड़ रुपये का कर्ज और लेने जा रही है। हमारे पास जितने रुपये आते हैं उसका 64 प्रतिशत ब्याज की शक्ल में विश्व बैंक को वापस जाता है और बाकी से जो भी फायदा होगा वह आन्ध्र प्रदेश के दो दर्जन औद्योगिक प्रतिष्ठानों को होगा।

आन्ध्र प्रदेश में कुछ समूहों ने वहाँ के मुख्यमंत्री और विश्व बैंक को चुनौती दी है कि यदि उन्हें जंगलों और तालाबों आदि जलस्रोतों और कॉमन प्रॉपर्टी रिसोर्स का अधिकार दे दिया जाय तो वह तीन साल के अन्दर सारा कर्ज चुका देंगे और पाँच वर्ष के अन्दर अपनी आय दोगुनी कर लेंगे। मुझे अभी इतना ही कहना है और इस आशा के साथ मैं अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ कि आप इस साजिश को समझेंगे।

डा. श्रोनिक लुंकड़ ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि साजिश तो हो ही रही है यह बात हम सब को समझनी चाहिये। जो भी सब्ज बाग हमें दिखाये जा रहे हैं उसके पीछे किसी न किसी का स्वार्थ छुपा हुआ है। गांगेय क्षेत्रों में कितना भूगर्भ जल है इसके बारे में सही अनुमान अभी तक नहीं हो पाया है पर यह किसी भी अनुमान से प्रचुर नहीं है, यह सीमित ही है और इसकी एक-एक बूँद खर्च करने के पहले हमें बड़ी सावधानी से सोचना होगा। पंजाब में इतनी ज्यादा नहरों से सिंचाई हो रही थी और उसके चलते भू-जल सतह अधिक ऊँची हो गई और लवणीयता से जमीन खराब होने लगी तब यह प्रस्ताव किया गया है जमीन के नीचे के पानी से सिंचाई शुरू की जाय। आज हालत यह हो गई है कि पंजाब का प्रायः पूरा भू-जल समाप्त हो गया है। हरियाणा में यह प्रतिशत सत्तर के आस-पास है। इस तरह भूमिगत जल के उपयोग को लेकर जो भी बातें चल रही हैं वह मेरी समझ से एक भ्रामक प्रचार है। भूमिगत जल के बारे में कोई भी प्रस्ताव या मांग करते समय हमें बहुत सावधानी बरतनी चाहिये।

श्री भुवनेश्वर सिंह (सीवान) ने श्री लुंकड़ की बात का समर्थन किया कि पिछले साल वह अपने काम-धाम के सिलसिले में आन्ध्र प्रदेश गये थे और उन्होंने समय निकाल कर हैदराबद और महबूब नगर के बीच 30 अंगूर के फार्मों का सर्वेक्षण किया। इन सभी फार्मों के मालिक आम तौर पर गुजराती व्यवसायी हैं जिन्होंने कुछ वर्षों पहले यहाँ आकर अंगूर की खेती शुरू की थी। इस फसल को पानी जमीन के नीचे से मिलता था। कुछ दिन तो व्यवसाय खूब अच्छा चला पर पिछले चार-पाँच वर्षों से भूमिगत जल की सतह नीचे चली गई। इस गिरती हुई जल सतह के कारण अब सिंचाई बहुत महँगी पड़ने लगी है और उत्पादन प्रायः ठप है। वह मजदूर जो कि इन फार्मों। पर काम करते थे अब या तो बेकार बैठे हैं या काम की तलाश में और कहीं चले गये। फार्मों के आस-पास के किसान जो कि कभी अपने साधनों से भूमिगत जल का दोहन कर लिया करते थे अब खेती नहीं कर पाते जिससे कि बेरोजगारी और भी ज्यादा बढ़ी है।

श्री मोहन रेड्डी ने बहस को समेटते हुए कहा कि पिछले वर्ष आन्ध्र प्रदेश में लगभग 200 किसानों ने आत्म हत्या की। आम तौर पर कारण यह था कि उनमें से लगभग 50 प्रतिशत किसानों ने पम्प खरीदने के लिये बैंक से कर्ज लिया। बोरिंग करने के बाद भी इन लोगों को पानी नहीं मिला और फसल मारी गई। कर्जा ऊपर चढ़ गया और उत्पादन कुछ हुआ ही नहीं। परिणाम में आत्म हत्यायें हुईं। दूसरा कारण यह भी था कि बिजली की आपूर्ति बहुत ही त्रुटिपूर्ण थी-समय से कभी बिजली किसानों को मिलती ही नहीं थी। अतः जहाँ पानी उपलब्ध भी था वहाँ उसका समुचित उपयोग नहीं हो पाया। इस समस्या का समाधान करने के बदले वहाँ मुख्य मंत्री बिजली की कीमत बढ़ा रहे हैं और छोटा किसान भी इसी में समाप्त हो जाएगा। ऐसी हालत में किसान आत्महत्या नहीं करेंगे तो क्या करेंगे। जहाँ एक ओर यह सब हो रहा है वहीं दूसरी तरफ यह भी प्रचार चलता है विदेशों में कारपोरेट सेक्टर के लोग 20-20 हजार हेक्टेयर के फार्म से कितना अधिक सेब का उत्पादन कर लेते हैं जिसका सीधा आशय यह होता है कि अब छोटे किसानों की जमीन को पहले अनुत्पादक बनाया जाय और फिर उसे बड़ी कम्पनी के हवाले किया जाये जो कि बिजली की बढ़ी हुई दर भी अदा कर पायेंगी और यह भी सिद्ध कर सकेंगी कि पहले की पारम्परिक कृषि व्यवस्था कितनी फ़िजूल थी।

श्री समर बागची (कलकत्ता) ने एक विरोधाभास की ओर इशारा किया। उन्होंने कहा कि शुरू-शुरू में श्री मोहन रेड्डी ने कहा था कि इस समय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों या विश्व बैंक जैसी संस्थाओं का ध्यान कृषि को छोड़कर उद्योगों की तरफ जाने लगा है पर जब कॉरपोरेट फार्मिंग की बात उठती है तो यह कृषि को ही स्थापित करती है- इसमें तो उद्योग नहीं है। रेडडी साहब का कहना था कि जब यह कम्पनियाँ उद्योगों की बात करती है तो कृषि को पूरी तरह नकार देंगी ऐसा नहीं है। वह एक दूसरी प्राथमिकता की चीज बनकर रहेगी। क्योंकि बिजली उत्पादन के बारे में जो बातें चल रही हैं उनके अनुसार उन्हें 83,000 मेगावाट नेपाल में दिखाई पड़ता है, 50,000 मेगावाट के लगभग ब्रह्मपुत्र घाटी में नजर आता है और जब इतनी बिजली पैदा होने लगेगी तब निश्चित रूप से इनका झुकाव उद्योगों की ओर होगा और कृषि दूसरे स्तर पर ही रहेगी।

श्री अजय कुमार (नई दिल्ली) - मैं इस समय दिल्ली से आया जरूर हूँ पर मूल रूप से बिहार का रहने वाला हूँ और पिछले दो वर्षों से दिल्ली रह रहा हूँ और आशा करता हूँ कि जल्दी ही बिहार वापस लौट आऊँगा। मेरा अपना क्षेत्र भी जल-जमाव का है। कृषि विज्ञान की शिक्षा पूरी कर लेने के बाद मुझे सौभाग्यवश ऐसे ही क्षेत्र में काम करने का मौका भी मिल गया जिसमें कुछ सहयोग फोर्ड फाउन्डेशन का रहा। अपने गाँव के बाढ़ और जल-जमाव वाले क्षेत्र में मैंने किसानों से अनजाने में ही बहुत कुछ सीख लिया था।

आज का विषय तो बहुत व्यापक है पर सुबह से बातचीत सुनकर मुझे दो चीजें मुख्य रूप से समझ में आईं। इसमें से एक पक्ष तो स्पष्ट रूप से संघर्ष और संगठन का है जिसके तहत हमलोग गलत योजनाओं का एक संगठित विरोध कर सकते हैं जैसा कि मिश्र जी ने बताया कि कैसे लोगों ने तटबन्धों को काट दिया। दूसरा पक्ष विकल्प पर काम करने का है जिसमें राहत या पुनर्वास आदि काम शामिल हैं। इस तरह के प्रयास में बहुत ही सराहनीय काम ऐसी संस्थाओं ने बाढ़ और जल जमाव वाले क्षेत्रों में किया है। इसी का प्रसार रचनात्मक कामों को आगे बढ़ाना है।

कृषि के क्षेत्र में हमलोगों ने एक छोटा सा अनुभव जल जमाव वाले क्षेत्रों में किया था जिसे मैं यहाँ पर आप के साथ बाँटना चाहता हूँ। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल तथा उड़ीसा राज्यों में फोर्ड फाउन्डेशन ने 1985 से यह काम शुरू किया था। जल जमाव के क्षेत्र में कृषि पर इस तरह का एक अभिनव प्रयोग था जिसमें हमलोगों ने धान की कुछ किस्में लेकर जल जमाव की अलग-अलग परिस्थतियों में प्रयोग किये थे। इस तरह के प्रयोग पहले प्रयोगशाला में हो चुके थे पर इस बार इन्हें क्षेत्र में उतारा गया। बिहार में यह प्रयोग वैशाली जिले में किया गया जहाँ चौरों का एक बड़ा क्षेत्र फसल विहीन रहा करता था। हमलोगों ने जब काम करने की सोची तो सबसे पहले यह तय कर पाया कि प्रयोगशाला का अनुभव अपनी जगह है पर यदि किसानों के बीच काम करना है तो पहले उनके बीच रहकर उनका अनुभव और उनकी अपेक्षाएँ जान लेनी होंगी और हमने कुछ दिन इसी आशय के साथ किसानों के बीच बिताए और उनके साथ मिलकर समस्याओं को परिभाषित किया और प्राथमिकतायें तय कर लीं। उन किसानों और जमीनों का चयन किया जिनके साथ हम अपना प्रयोग शुरू करने वाले थे और इस बात का ध्यान रखा कि गहरे पानी वाले चौरों को प्राथमिकता दी जाये। यह बात हम भी जानते थे और किसानों ने भी जोर दिया कि उस जमीन की नमी का पूरा-पूरा फायदा उठाया जाय जहाँ से बाढ़ का पानी पहले हटना शुरू हो जाता है और घटते-घटते जिस सतह तक पहुँचता है। ऐसी जमीनों पर हमने गेहूँ लगाने के भी प्रयोग किये जो शुरुआती कुछ दिक्कतों के बाद बहुत सफल रहे। पानी वाले क्षेत्र में हमलोग धान की खेती करने में कामयाब रहे यद्यपि सफलता उतनी नहीं मिली जितनी कि प्रयोगशालाओं में मिली थी परन्तु इसे नकारा भी नहीं जा सकता। धान की यह किस्में अब धीरे-धीरे बिहार के अन्य जिलों में फैल रही हैं और पहले से बेहतर सफलता मिल रही है।

आंकड़ों की कमी हमें जरूर खलती है पर उत्तर प्रदेश और नेपाल की स्वयंसेवी संस्थाओं के बीच अब आंकड़ों का संकलन और आदान प्रदान शुरू हो गया है- यह अच्छी बात है। दूसरी चीज यह कि वेटलैण्ड के विकास के लिये अभी तक उतना काम नहीं हुआ है जैसी कि अपेक्षा थी। मेरा सुझाव होगा कि आप जब बाढ़ या जल जमाव का प्रश्न उठाते हैं तो वेटलैण्ड्स के विकास की बात जरूर उठायें।

श्री दीनानाथ पटेल (कबीरा धाप -सहरसा) - मैं कोसी तटबन्धों के बीच वाले क्षेत्र से आया हूँ जिसमें सहरसा, दरभंगा, मधुबनी तथा सुपौल जिलों की लगभग 300 से अधिक पंचायतें पड़ती हैं। हम अपने नारकीय जीवन को शब्दों से अभिव्यक्त नहीं कर सकते। हमें अपने कृषि का भरोसा नहीं है। यहाँ से जब वापस जाएँगे तो हमारा घर अपनी जगह पर होगा या नदी के गर्भ में समा चुका होगा इसका भी हमें अनुमान नहीं है। हमारी फसल लगभग हर साल बह जाती है। हमारे स्कूलों के भवन नहीं हैं, मास्टर जी नहीं आते हैं। तटबन्ध के अन्दर स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है और कहीं हैं भी तो बेकार हैं क्योंकि उसमें कोई स्वास्थ्यकर्मी नहीं आता। अपनी तकलीफें कहाँ तक गिनाएँ। बस साल भर में 6 महीने प्रार्थना करते रहते हैं कि कोसी मइया! अब जाओ।

श्री मदन मोहन ठाकुर (नवगछिया-भागलपुर) - नवगछिया के उत्तर में कोसी और दक्षिण में गंगा बहती है और हमलोग इनके बीच में घिरे हैं। बाढ़ आने के दो महीने पहले से इस क्षेत्र के लोग अपना माल-असबाव, पशु-पक्षी, खाने-पीने का सामान लेकर किसी ऊँची सड़क पर या तटबन्ध पर आश्रय लेते हैं और लम्बे समय तक वहीं रहते हैं। पानी और गंदगी के बीच। मलेरिया, हैजा तो आम बात है। खेती-बारी सब चौपट हो गई है। जुर्म करना अब हमारे यहाँ का मुख्य व्यवसाय है। लड़कों की शादी नहीं होती, क्योंकि कोई भी आदमी अपनी लड़की हमलोगों के यहाँ नहीं देना चाहता।

अपनी व्यथा कहते हुये श्री मदन मोहन ठाकुरहमलोग सुबह से बड़े ध्यान से सारी बातें सुन रहे हैं और इस उम्मीद से सुन रहे हैं कि शायद कोई हमारी समस्या का समाधान निकल आये पर अभी तक ऐसी कोई बात दिखाई नहीं पड़ती। हमलोग तो छोटे कार्यकर्ता हैं। यूँ समझ लीजिये कि हम तो मिस्त्री हैं और हमलोगों को शास्त्री लोगों की बात समझ में नहीं आती है। बस इतना ही लगा कि जन जागरण के अलावा कोई रास्ता नहीं है और अपने क्षेत्र वापस जाकर हमलोग ऐसा ही प्रयास शुरू करेंगे।

श्री सुमन सिंह (सारण)- हमलोग गण्डक और घाघरा के बीच से आये हैं और अपने इलाके के चौरों और उसमें ठहरे पानी से परेशान हैं। गण्डक नहरों से भी हमारा इलाका परेशान हैं क्योंकि इन नहरों में जरूरत के समय कभी पानी नहीं आता। पानी की निकासी में भी इन नहरों की वजह से बाधा पड़ी है। मुझे आशा है कि हमारे क्षेत्र से पानी की निकासी पर यहाँ चर्चा हो सकेगी।

श्री सुमन सिंह के अंतिम वक्तव्य के बाद अध्यक्ष जी ने अपनी टिप्पणी देते हुए कहा कि आज की मीटिंग में कम से कम 120 लोगों ने अपनी उपस्थिति दर्ज की है और इस हाॅल में मैं देख रहा था कि कम से कम 90 लोग हर समय बैठे रहे जिससे लगता है कि इस विषय में लोग कितनी रुचि ले रहे हैं। दूसरी बात यह कि मंच से एक विशेष प्रकार के विचार आ रहे हैं पर ऐसा लगता है कि जो आशंकाएँ व्यक्त की जा रही हैं उन पर भी कुछ लोगों की आशंकाएँ अवश्य हैं जिनका स्पष्टीकरण होना चाहिये और इसके लिये उन्होंने श्री दिनेश कुमार मिश्र से इस सत्र की बहस को समेटने का आग्रह किया।

श्री मिश्र ने कहा कि इस क्षेत्र की शुरुआत श्री इन्दु जी के वक्तव्य से हुई जिसमें उन्होंने संघर्ष को तीव्र करने की बात कही थी। डॉ. मण्डल ने महानन्दा का प्रश्न उठाया और शिवानन्द भाई ने कोसी की संघर्ष गाथा को सबके सामने रखा। कोसी पर और भी ज्यादा बातचीत होनी चाहिये पर इस सेमिनार में थोड़ा सा विषयान्तर था इसलिये जितनी चर्चा होनी चाहिए वह नहीं हुई। संभवतः भविष्य में और जल्दी ही हमलोग इस पर बातचीत करेंगे। फादर राॅबर्ट ने हमारे लकीर पीटने की आलोचना की जिसका कि हम स्वागत करते हैं। वास्तव में हमारी मजबूरी यह है कि जब से हमने उत्तर बिहार के बाढ़ या जल जमाव के प्रश्न पर काम करना शुरू किया तब से अब तक हमारी वर्षा, नदी, तटबन्ध, बाढ़, जल जमाव या प्रदेश की बाढ़ नीति में कहीं कोई परिवर्तन नहीं आया है। ऐसी परिस्थति में हमारे साथ नई घटनायें और नये लोग तो जुड़ते हैं पर समस्यायें वहीं की वहीं हैं जोकि आज से दस साल पहले थीं और अगर यही स्थिति बनी रही तो आने वाले दस वर्षों में भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं आने वाला है। हम इतना जरूर कहना चाहेंगे कि कमला, बागमती और महानन्दा तटबन्धों की खुली जगहें जिन्हें लोगों ने बांधने नहीं दिया-वह केवल घटना ही नहीं है वरन समूची बाढ़ नियंत्रण व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह है। यह प्रश्न चिन्ह शायद कुछ लोगों को नया लगे और कुछ लोग दूसरी ओर मुँह फेर लें। उस लिहाज से हमलोग सचमुच कुछ नया नहीं कह रहे हैं।

शोषण और उत्पीड़न का इतिहास शायद मनुष्य के इतिहास जितना ही पुराना होगा और इतनी ही पुरानी होगी उसके खिलाफ लड़ाई की कहानी पर आज तक न तो शोषण और उत्पीड़न बन्द हुआ है और न ही उसका विरोध। इस पूरी टकराहट में बाजियां इधर-उधर हुआ करती हैं। कभी एक का पलड़ा भारी पड़ता है तो कभी दूसरे का। हमारे प्रयास को इसी सन्दर्भ में देखने की जरूरत है। हम तो अपनी बात तब तक कहते रहेंगे जब तक हमारा उद्देश्य पूरा नहीं होगा। विकल्प के प्रति हमलोग निश्चित रूप से सचेत हैं और इस दिशा में प्रयास करेंगे।

श्री दीपक मिश्र, श्री रजत बनर्जी, डॉ. अजय कुमार, सुश्री जया मित्र, श्री गिरीन चेतिया, श्री सुमन सिंहक्षेत्रीय सहयोग के बारे में हमारे उत्तर प्रदेश के मित्रों ने एक अच्छी प्रस्तुति की। वह लोग नेपाल के साथ मिलकर एक प्रयास कर रहे हैं जो कि सराहनीय है यद्यपि इसके बहुत से आयामों से बिहार के कार्यकर्ताओं की सहमति नहीं है। यदि भविष्य में कभी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को साथ काम करने का अवसर आया तो हमलोग एक दूसरे के ज्यादा नजदीक होंगे। श्री गिरीन चेतिया ने असम की परिस्थिति के बारे में सबको अवगत कराया। बिहार और असम की स्थिति में बड़ा साम्य है और समस्या का जो विश्लेषण श्री चेतिया ने प्रस्तुत किया वह हमलोगों की सोच के बहुत नजदीक है। आशा है भविष्य में हम एक दूसरे के साथ बेहतर सहयोग कर सकने की स्थिति में होंगे।

श्री मोहन रेड्डी ने आन्ध्र प्रदेश का उदाहरण देकर शोषण के अन्तरराष्ट्रीय सहयोग के पक्ष को उजागर किया। हम चाहेंगे कि इस पक्ष पर कल और भी बहस हो। डॉ. अजय कुमार ने संघर्ष और रचना तथा बाढ़ और जल जमाव के क्षेत्रों की पहचान स्पष्ट करने की बात कही। विकल्प पर रचनात्मक रूप से काम करने की दिशा में हमलोगों को आगे आना होगा। डॉ. अजय ने वेटलैण्ड का प्रश्न उठाने की बात कही। वास्तव में पूरे देश में जब भी कहीं पानी और उसके उपयोग पर बात होती है तो ऐसा लगता है कि पूरे देश में सूखा पड़ा हुआ है। बाढ़ ग्रस्त और जल जमाव क्षेत्रों को सभी जगह लोग यह समझते हैं कि वहाँ तो पौ बारह है- वहाँ किस बात की कमी है और वहाँ क्या समस्या हो सकती है। पिछली साल मुझे एक मीटिंग में भोपाल जाने का मौका मिला। लगभग 60 लोग सारे देश से आमंत्रित थे-59 सूखा क्षेत्र से और बाढ़/जल जमाव क्षेत्र से मैं अकेला। पूर्व और उत्तर पूर्व राज्यों का प्रतिनिधित्व नदारद। वहाँ मैंने कहा कि यदि यह कार्यशाला तीन दिन चलती है तो इमानदारी का तकाजा है कि डेढ़ दिन का समय हमारे क्षेत्र को मिले। कुल बीस मिनट मुझे बोलने का अवसर दिया गया। मैंने वहाँ कहा कि आप सभी लोग अपने-अपने क्षेत्रों की परती भूमि को विकसित करने में लगे हैं जबकि हमारे क्षेत्रों में विकसित भूमि परती होती जा रही है। मुझे व्यक्तिगत प्रशंसा मिली पर रिपोर्ट में बात नहीं आई और समस्या वहीं की वहीं रह गई। इसलिये वेट लैण्ड्स का मुद्दा तो अब जोर शोर से उठाना ही होगा।

श्री दीनानाथ पटेल जी ने कोसी तटबन्धों के बीच तथा मदन मोहन ठाकुर जी ने दो नदियों के बीच की परिस्थति को सबके सामने रखा और सुमन सिंह जी ने सारण के जल जमाव क्षेत्रों का प्रश्न उठाया। यह सभी लोग धन्यवाद के पात्र हैं। कोसी का प्रश्न तो इस तरह की किसी भी मीटिंग का स्थायी भाव होता है। इस पर आज सुबह हमलोगों ने श्री रामचन्द्रखान को सुना और आशा है इस पर कल हमलोग कुछ और बातचीत कर सकेंगे।

दूसरा दिन - 22 जून 1998
प्रथम सत्र-अध्यक्षता श्री रामेश्वर सिंह
संचालन - श्री नलिनी कान्त



अध्यक्ष श्री रामेश्वर सिंह जी ने सदन का आवाहन करते हुए कहा कि कल हमलोगों ने नदियों के संकट पर एक हद तक चर्चा की और आज उसे आगे बढ़ाना है। उन्होंने कहा कि अलग-अलग क्षेत्रों में नदियों की अलग-अलग तरीके से नाकेबन्दी किये जाने की तैयारी है जिसमें वित्तीय संस्थायें तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की कुदृष्टि इन पर पड़ रही है। विकासशील देशों में कारखाने लगाने के पीछे इन कम्पनियों का उद्देश्य उन क्षेत्रों का विकास करना कतई नहीं है बल्कि वह वहाँ के सस्ते दर पर उपलब्ध मजदूरों का शोषण कर रही हैं। अपने खातों में वह जरूर दिखाते हैं कि अमुक देश में हमारे अमुक कारखाने से इतना फायदा हुआ पर बाकी की पूँजी उस देश या क्षेत्र के विकास में लगी हुई है। जबकि सच यह है कि उस कारखाने को माल और मशीनों का वितरण भी उसी तरह की किसी दूसरी कम्पनी के हाथ में हैं, तैयार माल का विक्रय कोई तीसरी कम्पनी देखती है, कन्सल्टैन्सी का धन्धा वैसी ही कोई चौथी कम्पनी कर रही है, आदि-आदि। कुछ दलाल सरीखे लोगों को इन कम्पनियों से जरूर फायदा होता है और वे ही इस तरह की संस्थाओं के मुखर प्रचारक बन जाते हैं। गरीबों के हिस्से तो केवल जूठन आती है। हमारी अपेक्षा रहेगी कि इस सत्र में और इसके बाद जो भी वक्ता आयें वह साजिश को बेनकाब करें और उसके विरुद्ध यदि कोई आंदोलन की भूमिका बनती हो तो उसके स्वरूप आदि पर चर्चा करें।

चर्चा के लिये सबसे पहले पिथोरागढ़ से आये श्री पवन राणाजी को आमंत्रित किया गया। श्री विजय कुमार ने पवन राणा जी का परिचय करवाते हुए कहा कि पवन जी का अभियान से परिचय इसी मई महीने में पोखरा नेपाल में हुआ जहाँ हमलोग एक कार्यशाला में इक्ट्ठे हुए थे। उनका कार्य क्षेत्र महाकाली परियोजना के क्षेत्र में पड़ता है और उनके विचारों तथा अभियान के विचारों में आश्चर्यजनक समरसता होने के कारण हमारी मैत्री स्वाभाविक रूप से बढ़ी जिसका नतीजा है कि राणा जी आज यहाँ हमलोगों के साथ हैं। उनका हार्दिक अभिनंदन करते हुये अपना वक्तव्य रखने के लिये आमंत्रित किया गया।

श्री पवन राणा (पिथोरागढ़) - मैं पिथोरागढ़ (उ.प्र.) से आया हूँ और मेरा कार्य क्षेत्र महाकाली क्षेत्र में पड़ता है जहाँ पंचेश्वर बाँध बनाने की बात चल रही है। पिछले वर्ष भारत और नेपाल के बीच बहुप्रचारित महाकाली संधि हुई है जिससे छोटे-बड़े लगभग 56 बाँधों के निर्माण का रास्ता खुल गया है। पहला बाँध जो कि 288 मीटर ऊँचा होगा, भारत-नेपाल सीमा पर बनेगा और महाकाली तथा सरयू के संगम पर अवस्थित होगा। दूसरा बाँध पूर्णागिरी के पास शारदा नदी (महाकाली का भारत में नाम) पर बनेगा। इन दोनों बाँधों की सम्मिलित बिजली उत्पादन क्षमता 6,000 मेगावाट बताई जाती है यद्यपि जानकार क्षेत्रों में इस उपलब्धि पर संदेह व्यक्त किया जाता है।

एक तो यह महाकाली संधि क्या है इसका पूरा विवरण उपलब्ध नहीं होता है पर सुना है कि नेपाल में इस संधि को लेकर काफी अंसतोष है। जो भी हो पर हमारा यह मानना जरूर है कि इस तरह के बाँध आम जनता के व्यापक हित में नहीं है। पानी के सवाल को अगर थोड़ा और पीछे लेकर चलें तो स्थिति धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगती है। 1974-75 के आस-पास उत्तर प्रदेश में पानी को लेकर विषद अध्ययन शुरू हुये। पानी के कमी वाले क्षेत्रों का अनुमान किया गया और राज्य में जितना पानी उपलब्ध था या जिसका संचय किया जा सकता था उसका अन्दाजा लगाया गया और यह तय किया गया कि पानी की कमी वाले क्षेत्रों में पानी को संचित करके पहुँचाया जाय। इस आशय का प्रस्ताव तब विधान सभा में भी पारित किया गया और इसी पर इन बाँधों के जन्म की नींव पड़ी। उसी के आस-पास पहाड़ी क्षेत्रों में जल प्रदाय की व्यापक पैमाने पर बात उठी। यह सब दाता संस्थाओं के इशारों पर हो रहा था। पेयजल के लिये जगह-जगह जल निमग की स्थापना होने लगी और लोगों का पानी पर से अधिकार धीरे-धीरे सिमटने लगा। अब यह लड़ाई तो लड़नी पड़ेगी।

उधर जो इतने ऊँचे-ऊँचे बाँध प्रस्तावित हैं उनके पीछे जो डूब क्षेत्र बनेगा उसमें गाँव तो डूबेंगे ही, अच्छी खासी उपजाऊ जमीन का एक बड़ा रकबा इनकी भेंट चढ़ जायेगा। जानकार सूत्रों के हवाले से अनुमान है कि करीब 120 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र इन प्रस्तावित बाँधों से प्रभावित होगा जिसका स्थानीय अर्थ है करीब दो लाख लोग जो कि अकेले भारतीय भू-भाग में विस्थापित होंगे। नेपाल में विस्थापन इसके ऊपर से होगा जिसका हमको अनुमान भी नहीं है। आज भी इन क्षेत्रों में न तो बिजली है, न पानी है और राशन भी बड़ी मुश्किल से मिलता है। प्रशासन के लोग कहते हैं कि जो भी विस्थापित होगा उसे जमीन दी जायेगी-लोग इस बात से संतुष्ट हो जाते हैं। देश में इस समय भी लगभग 40 लाख लोग ऐसे हैं जिनका पुनर्वास किया जाना बाकी है और हमें डर है कि यदि अभी से सावधानी नहीं बरती गई तो इसमें पंचेश्वर बाँध वाले लोगों की भीड़ भी शामिल हो जायेगी। हमारा यहाँ आने का एक उद्देश्य यह भी था कि हम अपनी बात आप तक पहुँचा सकें और एक साथ मिलकर इस तरह की लड़ाइयाँ लड़ने की रणनीति तैयार कर सकें। कुछ भी करने के पहले हमें सूचनायें चाहिए और कम से कम सूचना पाने का अधिकार तो मिले। जो कुछ होने वाला है उसमें न कहीं सिंचाई की प्राथमिकता है और न बाढ़ नियंत्रण की। असली मुद्दा तो बिजली उत्पादन का है और जितनी बिजली का उत्पादन होने वाला है वह हमारी जरूरतों से कहीं ज्यादा है और इसमें उद्योग और वह भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उद्योग को फायदा होगा। आम आदमी इसमें कहीं भी नहीं आता है।

डॉ. टी. प्रसाद (पटना) - मेरी पृष्ठभूमि एक सिविल इन्जीनियर की है और मैंने जल प्रबंधन के क्षेत्र में कुछ काम किया हुआ है और आप लोगों के समक्ष इसी विषय पर कुछ बात करूँगा और इसके केन्द्र में बिहार के जल-संसाधन, सिंचाई तथा बाढ़ आदि विषय होंगे। इन सारी चीजों को यदि हम अलग-अलग रूपों में देखें तो उनका सही और समग्र परिप्रेक्ष्य नहीं बन पाता है अतः हमें इन सारे आयामों को समग्रता में देखने का प्रयास करना चाहिये। एक बात और जो मैं इस समय जोर देकर कहना चाहता हूँ कि वह यह है कि आप जैसे जनता और आम आदमियों के बीच काम करने वाले लोगों के साथ जुड़ाव तथा वार्तालाप बहुत जरूरी है क्योंकि ऐसे वार्तालाप के अभाव में हमलोग बहुत सी जमीनी सच्चाईयों को देखने से वंचित रह जाते हैं और आम जनता भी विज्ञान और उसके पक्ष को नहीं समझ पाती है। इन दोनों क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों का अपना-अपना रुझान अलग हो जाता है और उनके बीच विचारों का आदान-प्रदान बहुत ही आवश्यक है।

पानी एक अद्भुत पदार्थ है और एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथा जीवनदायी वस्तु है। आप किसी भी चीज को देखें तो तुरन्त उसका पानी से सम्बन्ध भी नजर आने लगेगा। पानी की अपनी भौतिक और रासायनिक विभिन्नताएँ भी कम विचित्र नहीं है। जल को जब हम एक संसाधन के रूप में देखते हैं तो यह अन्य सभी संसाधनों से अपना एक अलग स्थान रखता है। कोई भी पदार्थ जल के बिना उत्पन्न नहीं किया जा सकता। चाहे वह कृषि उपज हो या ऊर्जा हो या मशीनें हों-सबको पानी चाहिए। यह एक सबसे जरूरी संसाधन है। दूसरी बात यह भी है कि किसी भी उपयोग के लिये पानी की मात्रा तय है। ऐसा नहीं है कि आप कितना भी पानी किसी भी समय या कितने भी समय के लिये उपयोग कर सकते हैं। कृषि का उदाहरण लीजिये। किसी भी फसल के लिये पानी की मात्रा और समय निर्धारित रहता है। तीसरी बात यह है कि जल एक गतिशील संसाधन है। आप जंगल और जमीन की बात करते हैं-यह दोनों स्थिर हैं पर जल चलायमान रहता है। वह जमीन के ऊपर हो तो भी और नीचे हो तो भी। आकाश में हो या नदी के रूप में-कहीं भी वह गतिमान रहता है। कभी यह भाप के रूप में दिखेगा, कभी द्रव के रूप में तो कभी बर्फ की शक्ल में। पानी के उपयोग को उसकी यह गतिशीलता बहुत प्रभावित करती है। इसके अलावा पानी की उपलब्धता भी कम आकर्षक नहीं है। पानी की गतिशीलता और उपलब्धता दोनों मिलकर उसके उपयोग की सीमा और विधि तय करते हैं।

पानी की गतिशीलता को छेड़ने पर विवाद होता है। कुछ लोग कहेंगे कि पानी बहता है तो बहने देना चाहिए पर अब आपके सामने भौतिक प्रश्न खड़े होते हैं। सूखा पड़ सकता है- यदि पानी की व्यवस्था नहीं हुई तो फसल समाप्त हो जायेगी। बाढ़ आ सकती है- यदि पानी को रोका नहीं गया तो जान माल को नुकसान पहुँच सकता है। यदि इन दोनों तरह की समस्याओं से निबटना है और जल उपलब्ध है, तो फिर कुछ न कुछ करना पड़ेगा। अब अगर सिंचाई की व्यवस्था करनी है तो जल का संचय करना पड़ेगा या उसे कहीं से मोड़कर लाना पड़ेगा। पानी का उपयोग करने के लिये नहरें भी बनानी पड़ सकती हैं।

इसी तरह अगर बाढ़ का मुकाबला करना है तो या तो पानी को संचित करके रख लीजिये जिससे वह ज्यादा तबाही न मचाये, इसके लिये बाँध बनाये जा सकते हैं या फिर स्थानीय स्तर पर बाढ़ का मुकाबला कर लीजिये जिसके लिये आपको तटबन्ध बनाना पड़ सकता है। नगर रक्षा के लिये रिंग बाँध बनाना पड़ सकता है या फिर गाँवों की सतह को बाढ़ की सतह से ऊपर निर्मित कर लीजिये। इस तरह के काम कर लीजिये। इस तरह से कुछ न कुछ छेड़-छाड़ पानी से अपने बचाव के लिये करनी ही पड़ेगी। पर समस्या छेड़-छाड़ करने की उतनी नहीं है जितना की छेड़-छाड़ के बाद के परिणामों को भुगतने की है। और पानी के साथ छेड़-छाड़ के यही परिणाम हमें वह दिशा देते हैं कि पानी के साथ कितनी और किस प्रकार की छेड़छाड़ की जाय। इसकी सीमा भी यही परिणाम घोषित निर्धारित करते हैं।

जब भी हम प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करते हैं, उससे फायदा उठाने की बात सोचकर कुछ काम करते हैं तो इसका एक प्रतिकूल प्रभाव भी दिखाई पड़ता है। जरूरत इस बात की है कि इन प्रतिकूल प्रभावों का स्पष्ट और पूर्ण आकलन होना चाहिए और इनको समाप्त करने या फिर न्यूनातिन्यून करने का प्रयास करना चाहिये और तभी किसी प्रकार की छेड़-छाड़ का कोई निर्णय लेना चाहिए।

जल संसाधनों का उपयोग करने के पहले हमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि हम किस काम के लिये पानी का उपयोग करेंगे और जब यह उद्देश्य स्थिर कर लेते हैं तब हमें देखना होता है कि इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये किस प्रकार हस्तक्षेप करना उचित होगा जिससे कि प्रतिकूल प्रभाव कम से कम हों। ऐसा करने पर ही हम सही हस्तक्षेप और सही तकनीक का प्रयोग कर सकते हैं। तभी हम अपने छात्रों को भी बता पाते हैं कि वह बाढ़ नियंत्रण जैसे कामों के लिये बाँध बनायें, चैनेल बनायें या फिर जल-निकासी जैसी कोई व्यवस्था करें या फिर फ्लड प्लेन जोनिंग का प्रबन्ध करें। समस्या केवल बाढ़ की ही नहीं है। हमें यह भी सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि ऐसा करने से दूसरे संसाधन जैसे कृषि आदि बर्बाद न हो। बाढ़ प्रबंधन पर काम करते वक्त एक बात और स्पष्ट रूप से सामने आती है और वह यह कि उस समय पानी का आधिक्य रहता है तथा देश में वर्षा सर्वकालिक नहीं है और अधिकांश पानी (प्रायः 87 प्रतिशत) बरसात के मौसम में ही आता है तब क्या हम इस पानी को संचित करके ऐसे समय में उपयोग न कर लें जब इसकी कमी हो और जब संचय के फलस्वरूप हमारे पास प्रचुर पानी हो तब विद्युत उत्पादन क्यों न कर लिया जाय। यह हमारी समग्रता की सोच का परिणाम है। बाढ़ों का स्वरूप किस तरह हम ऐसा बदल दें वह हमें हानि के बदले लाभ पहुँचाने लगे।

नदियों के किनारे तटबन्ध बनाने की प्रक्रिया में हमसे अवश्य ही भूल हुई। उनके निर्माण के पूर्व हमने केवल बाढ़ से होने वाले नुकसानों पर दृष्टि गड़ाई-बाढ़ से होने वाले फायदों को नहीं देखा। हमने तब विज्ञान को और प्रकृति को समग्रता में नहीं देखा और समस्या के केवल एक पक्ष को देखा और उसी का निदान सोचा। विज्ञान का पूरा उपयोग हमने उस समय नहीं किया। आज जो समस्या देखने में आ रही है वह उसी आधी अधूरी तकनीक के उपयोग के कारण हुई है। अंधा-धुंध तटबन्धों के निर्माण ने उत्तर बिहार की स्थिति को विकट बना दिया है। जहाँ पहले अच्छी फसल होती थी और बाढ़ धीमी गति से आती थी आज वहाँ तटबन्धों के कारण प्रलय जैसी स्थिति बन जाती है।

अब इस बात की जरूरत है, कि जो भी योजनायें बनें वह समेकित बनें जिसमें बाढ़, सूखा, खेती, बिजली, उद्योग, पेयजल, मनोरंजन आदि सभी पहलुओं का ध्यान रखा जाय और ऐसी समेकित योजनाओं के लिये समेकित फंडिंग की व्यवस्था भी की जाय और किसी भी पक्ष को आधा-अधूरा न छोड़ा जाय। विज्ञान जो अब तक किताबों, प्रयोगशालाओं और सरकारी फाइलों तक सीमित था उसे जन साधारण के बीच लाने की जरूरत है तथा वैज्ञानिकों को भी अपने ज्ञान को लोगों के अनुभवों से समृद्ध करना पड़ेगा जिससे जनता की भागीदारी योजनाओं में बढ़ेगी और उसे लगेगा कि उसके विचारों को भी महत्त्व दिया जा रहा है।

संभावित खतरों के प्रति भी हमें पूरी तरह जागरूक रहने की जरूरत है! कोई हाई डैम बनता है और भूकम्प प्रवण क्षेत्र में बनता है और अगर कोई दुर्घटना हो जाती है तो उसका पूर्वानुमान होना चाहिए। इसी तरह से सिल्टेशन का प्रश्न है कि दस साल में यदि बाँध भर जाता है तब क्या करेंगे। किसी भी योजना से हमें क्या लाभ होगा और इस लाभ को पाने के लिये हमें क्या कीमत देनी होगी यह पहले से जान लेना बहुत आवश्यक है। इसमें आर्थिक और सामाजिक दोनों लागतों को देना होगा और उन्हें योजना प्रारूप में शामिल भी करना होगा। जन साधारण के उत्थान के लिये हमें तकनीक के तार्किक उपयोग का आश्रय लेना चाहिए।

डॉ. प्रसाद के भाषण के बाद बाढ़ मुक्ति अभियान के श्री रामेश्वर सिंह ने कहा कि डॉ. प्रसाद ने बहुत ही अच्छी तरीके से तकनीकी पक्ष को रखा है पर बाढ़ मुक्ति अभियान का इस तकनीकी पक्ष और उसके कार्यान्वयन से ही विरोध है। डॉक्टर साहब ने कहा कि तटबन्धों के मामले में उनके निर्माण से पहले एक ही पक्ष देखा गया कि बाढ़ से कितना नुकसान हुआ और तटबन्ध बना डाले गये। समग्रता में न तो समस्या को देखा गया और न ही समाधान खोजा गया। सवाल यह है कि बाढ़ समस्या पर समग्रता से सोचा गया या नहीं या अभी भी सोचा जा रहा है या नहीं, इसका निर्णय कौन करेगा। तटबन्ध बनने के पहले भी बाढ़ समस्या को तकनीकी समस्या बनाकर उसे इंजीनियरों के हाथ में सौंप दिया गया था और उन्होंने राजनीतिज्ञों से मिलकर हो या दबकर हो, तटबन्धों की तारीफ करने में कोई भी कसर नहीं उठा रखी थी और नतीजा सामने है। स्वयं डॉक्टर साहब के अनुसार आजकल बाढ़ों का स्वरूप तटबन्धों के कारण विकराल हो गया है। अब जबकि बड़े बाँधों की बात उठती है तो वह भी तो टेक्निकल मसला ही बनेगा और वहाँ भी निर्णय इंजीनियर लोग ही लेंगे। तब इस बात की क्या गारंटी है कि इस बार राजनैतिक दबाव या प्रलोभन से उनका सामना नहीं होगा। और उनकी इस गलती का मूल्यांकन इसी तरह से कुछ लोग हाई डैम बनने के 40-50 साल बाद बैठकर करेंगे जैसे कि आज हमलोग बैठ कर तटबन्धों का मातम कर रहे हैं। अगर इंजीनियर लोग या राजनीतिज्ञ समग्रता के बारे में इतने ही गंभीर और चिन्तित हैं तो फिर वह एक सार्वजनिक बहस से क्यों नहीं कतराते हैं और सूचनाओं को क्यों दबाते हैं। बाढ़ का मसला महज किताबी नहीं है और इस पर एक सार्वजनिक बहस होनी चाहिए। तटबन्ध के बारे में आज से दस साल पहले हमारे विचारों का मखौल उड़ता था और आज सरकार भी वही बात कह रही है और इंजीनियर भी वही बात कहने लगे तब हमारा तो काम ही समाप्त हो गया।

श्री विजय कुमार ने भी प्रश्न उठाया कि कुछ गलतियाँ तो अनजाने में होती हैं और कुछ जान-बूझकर की जाती हैं। तटबन्धों के बारे में 1854-1954 के सौ वर्षों में जो बहस चली वह उनके विरोध में ही थी और यह सर्वविदित है तथा उन घिसीपीटी बातों को अब हम दोहराना नहीं चाहते और फिर भी हम यह मान लेते हैं कि तटबन्ध बनाकर जो गलती हुई वह अनजाने में हो गई। हमारे इलाके में पश्चिमी कोसी नहर बन रही है, पिछले तीस साल से और यह नहर पूरब से पश्चिम की ओर जाती है जबकि जमीन का ढाल प्रायः उत्तर से दक्षिण की तरफ है और यह नहर पानी के प्रवाह के माध्यम में एक बाँध का काम करती है। जब भी पानी ज्यादा बरसता है यह नहर कई जगहों पर टूटती है। ठीक यही स्थिति त्रिवेणी नहर की थी और अभी भी है जबकि इस पर काम आज से सौ वर्ष पहले शुरू हुआ था और अविभाजित बंगाल से लेकर अब तक की सिंचाई विभाग की वार्षिक रिपोर्टों में त्रिवेणी नहर और उसके द्वारा बर्बादी के किस्से दर्ज हैं। यह बात किसी की समझ में क्यों नहीं आई। गण्डक नहरों से आज जितनी सिंचाई होती है उससे डेढ़ गुने क्षेत्र में स्वयं सरकार के अनुसार जल-जमाव है। अब यह जो गलतियाँ जान-बूझकर की जाती हैं उनसे बचाव का कोई रास्ता है क्या हमारे पास।

डॉ. लुंकड़ का प्रश्न था कि जैसा डॉ. प्रसाद ने बताया कि पानी एक जीवनदायिनी शक्ति के रूप में हमारे बीच मौजूद है और आजकल जिस तरह की योजनाएँ बनाने का प्रस्ताव चल रहा है उसमें भौगोलिक समग्रता भी शामिल है यानी पानी अब गाँव से जिले और प्रान्त की सीमायें तय करता हुआ देश और अन्तरराष्ट्रीय स्तर की यात्रा तय कर रहा है। उस स्तर पर जब उपयोग की योजनाएँ बनेंगी तो गाँव का हक तो पहले ही छिन जायेगा और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उसके दूसरे दावेदार पैदा हो जायेंगे। कम से कम यह भय मल्टीनेशनल कारपोरेशनों से तो बना ही रहेगा। इस विषय पर आपके क्या विचार होंगे।

श्री दिनेश कुमार मिश्र का प्रश्न था कि नदियों को इस तरह से अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप देने पर परियोजनाओं में पैसा लगाने वाली संस्थाओं की पकड़ हमारे जल संसाधनों पर बढ़ेगी। दक्षिण एशिया के संदर्भ में बात करें तो भारत-नेपाल-बांग्लादेश और भूटान आदि देश इसकी परिधि में आयेंगे। यह वित्तीय या व्यापारिक संस्थान बन्दर और बिल्लियों का किस्सा नहीं दोहरायेंगे इस बात की क्या गारन्टी होगी।

श्री कामेश्वर कामति (मधुबनी) ने पूछा कि तटबन्ध बनाना गलत था तो क्या आज आप (आशय इंजीनियर समुदाय) इस बात की नैतिक जिम्मेवारी लेने को तैयार हैं कि आप लोगों की वजह से यह गलत काम हुआ।

सुश्री जया मित्र (कलकत्ता) ने प्रश्न किया कि जैसा कि डॉ. प्रसाद ने बताया है उसके अनुसार तो संसाधनों का केन्द्रीकरण होगा जबकि बराबर की भागीदारी के लिये जितना ज्यादा विकेन्द्रीकरण होगा उतना ही आम आदमी को लाभ पहुँचेगा। दूसरी बात यह है कि केन्द्रीकृत व्यवस्था में विक्षोभ का स्वर वैसे भी क्षीण हो जाता है तब ऐसी परिस्थति में लोग अपनी बात कह सकें इसकी क्या व्यवस्था होगी।

डॉ. टी. प्रसाद से प्रश्न पूछते हुये श्री कामेश्वर कामतिश्री रामचन्द्र खान (पटना) ने अपना संदेह और मत भिन्नता व्यक्त करते हुये कहा कि डॉ. प्रसाद ने बाढ़ और विज्ञान तथा विज्ञान के हस्तक्षेप की बात उठाई है। मेरा प्रश्न है कि क्या बाढ़ के मसले पर विज्ञान का हस्तक्षेप उचित भी है या नहीं। विज्ञान बाढ़ को कैसे देखता है और कैसे समझता है? बाढ़ हमारी समझ से केवल एक वार्षिक घटना के अलावा कुछ भी नहीं है जिसमें कुछ समय के लिये नदी की क्षमता से कुछ ज्यादा पानी, सरप्लस पानी आ जाता है जिसका बँटवारा सम्भव नहीं है, किसी दूसरे क्षेत्र में भेजा जाना सम्भव नहीं है। बाढ़ तब तक नहीं आ सकती जब तक उसे मौसम का सहयोग न मिले, गर्मी न पड़े और ऊपर से वृष्टि न हो। यह तीन संयोग जब तक नहीं होंगे तब तक बाढ़ नहीं आयेगी। यह एक अलग बात है कि तटबन्ध टूटने, कोई डैम टूटने या कोई प्राकृतिक विपत्ति घट जाये जैसे अत्यधिक गर्मी पड़ने के कारण कोई ग्लेशियर पिघल या टूट जाये। ऐसी बाढ़ जो कि जल के प्रबन्धन का विषय है, जल के उपयोग का विषय है, जल को ट्रान्सफर करने का विषय है, जल को दूसरी नदी में डालने का विषय है, इसके लिये और नदियाँ बनाने का विषय है या उनके जाल के निर्माण का विषय है-उसमें केवल उपयोग की बात ही क्यों उठती है? मूल प्रश्न है विज्ञान के विनियोग और उसके हस्तक्षेप का और मूल प्रश्न है इन्सान की उन्नति का कि पानी उसे किस प्रकार उपलब्ध होता है। चाहे वह डैम के माध्यम से हो, नहरों के माध्यम से हो या अन्य किसी प्रकार से हो। हमारी कोसी की बात लीजिये। वर्ष में केवल दो माह उस नदी में सामान्य से अधिक पानी रहता है-तीसरे महीने कोसी का पानी कभी इतना नहीं होता कि उसके लिये कोई चिन्ता की जाय। फिर कोसी अकेली तो नहीं है-कमला, बलान, भुतही बलान आदि कितनी नदियाँ उसके साथ थीं पर कोसी की बाढ़ के बारे में संगठित तौर पर झूठा प्रचार किया गया। कितनी धारें थी उसकी, 200 किलोमीटर चौड़े क्षेत्र में कोसी अलग-अलग धारों की शक्ल में बहती थी। उस कोसी को तटबन्धों के बीच बहने को मजबूर कर दिया गया और उसकी सारी धारों को नष्ट कर दिया गया। जो कुछ नदियाँ या धारे बच गईं, उसे बाद में कोसी की सिल्ट ने नष्ट कर दिया। अंग्रेजों के आने के बाद यह सवाल बार-बार उठता रहा कि कोसी की सिल्ट और पानी का क्या किया जाए पर उस पर तटबन्ध बनने की बात को कभी भी हवा नहीं दी गई। उनके जाने के बाद विज्ञान ने करवट बदली और कोसी पर तटबन्ध बन गये। क्या नदी के साथ साहचर्य का विज्ञान नहीं था? क्या अब तटबन्ध और डैम ही विज्ञान के रूप में बाकी बचा है? क्या जन विज्ञान कुछ भी नहीं है? इसके अलावा भी विज्ञान के अनेक रूप हैं- एक है भारत का विज्ञान, दूसरा है अनुभव का विज्ञान, तीसरा है जनता द्वारा प्रयुक्त विज्ञान। क्या डॉ. प्रसाद का विज्ञान इन विज्ञानों का संज्ञान नहीं लेता। विज्ञान का विनियोग वहाँ तो शायद आप जैसे भी उपयोग कर लें जहाँ मनुष्य नहीं है पर जहाँ मनुष्य रहते हों वहाँ विज्ञान के अनुशीलन में अत्यधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता है।

मैं यह बात इसलिये कह पा रहा हूँ कि आपके अधकचरे विज्ञान के विनियोग से हमारी कोसी की नदी पूरी तरह से विनष्ट हो गई। उस क्षेत्र में पड़ने वाली जमीन और जीवन पूरी तरह से नष्ट हो गया। वहाँ का परिवेश नष्ट हो गया-फसल चक्र नष्ट हो गया। वहाँ के पेड़-पौधे और पशु-पक्षी नष्ट हो गये। मछलियाँ नष्ट हो गईं, वहाँ के बीज नष्ट हो गये। बाजार नष्ट हो गये, वहाँ के मन्दिर-मस्जिद नष्ट हो गये। यह सब वहाँ बचा हुआ था जब तक आपका विज्ञान वहाँ पहुँचा न था। आज कोसी नदी के पानी से सिंचाई नहीं हो पाती है, आज कोसी नदी के बालू की अब मिट्टी नहीं बनती। आज उस मिट्टी पर पेड़-पौधे नहीं उगते। बिना युद्ध के यदि विनाश लीला देखनी है तो कोसी क्षेत्र घूम आइये। विज्ञान के इस सबसे ताजा प्रयोग ने बीस लाख लोगों को विस्थापित किया है और विस्थापित ही नहीं किया है उन्हें जड़ से उखाड़ दिया है। आप जानते हैं कि कोसी क्षेत्र में लड़कियाँ तीस-तीस साल की हो जाती हैं और उनकी शादी नहीं होती। यह सब बाढ़ के क्षेत्र में विज्ञान के हस्तक्षेप से हुआ है। बाढ़ और विज्ञान एकदम अलग चीजें हैं। यदि बाढ़ को रोकने के लिये तटबन्ध का निर्माण वैज्ञानिक समाधान था तो इसे और कोई भले मान लें मैं तो नहीं मान सकता।

डॉ. टी. प्रसाद से प्रश्न पूछती हुई सुश्री जया मित्र और साथ में मंच पर श्री रामेश्वर सिंहडॉ. प्रसाद ने इस पूरी बहस का उत्तर दिया कि पहली बात तो यह है कि जहाँ तक बाढ़ का प्रश्न है तो सालाना वर्षा का लगभग 85-90 प्रतिशत अंश हमारे यहाँ इन्हीं तीन महीनों में पड़ता है। बाढ़ तो दूसरे देशों में, यहाँ तक कि अमेरिका में, भी आती है पर वहाँ वर्षापात का जो तौर-तरीका है वह पूरे वर्ष में फैला हुआ है। बहुत कम ही जगहें ऐसी हैं जहाँ बरसात का ऐसा मौसम होता है जैसा कि हमारे देश में है। इसलिये हमारी नदियाँ इतने पानी की निकासी एक साथ नहीं कर पातीं और उसका पानी छलक कर बाहर फैलता है। दूसरी बात है कि एवरेस्ट जैसी पर्वत श्रृंखला का पानी हमारे बिहार के क्षेत्र में आता है। इसका क्षेत्र अकेले लगभग 250 किलोमीटर की चौड़ाई में फैला हुआ है। इतने बड़े क्षेत्र से पानी हमारी उत्तर बिहार के नदियों में प्रवेश करता है। और यह पानी भी पूरे वेग से बिहार में प्रवेश करता है क्योंकि नेपाल में पर्वत मालाएँ बहुत ऊँची हैं। उत्तर बिहार पूरा मैदानी क्षेत्र है और लगभग समतल भूमि है। ज्यादा परिमाण और वेग होने के कारण हमारी नदियाँ इस प्रवाह को संभाल नहीं पाती हैं और कुछ दिनों के लिये हमारे इलाके बाढ़ से घिर जाते हैं। अब आप यदि किसी सुरक्षित जगह में रहते हों तो आपको कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि कितना पानी आता है और कितने बड़े क्षेत्र पर फैलता है। और कोई भी बाढ़ नियंत्रण योजना आपके लिये एक शुद्ध रूप से काल्पनिक योजना ही बन कर रह जायेगी पर जिन क्षेत्रों में यह पानी फैलता है और मैं आपको याद दिला दूँ कि ऐसे क्षेत्रों में आबादी का घनत्व 800 से 900 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर तक है, तब वहाँ जो जीवन अस्त व्यस्त हो ही जाता है और ऐसे क्षेत्रों में तो हस्तक्षेप की जरूरत पड़ती ही है और इसलिये वहाँ तो कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा क्योंकि खेती भी डूबती है।

दूसरी बात जिस समय सिद्ध तकनीक या जन तकनीक की बात हम करते हैं वह क्या सचमुच उतनी ही समय सिद्ध है जितना कि उसके बारे में बताया जाता है? हमलोग पूरे देश में जल संसाधन के मामले में समृद्ध माने जाते हैं और हमारे यहाँ ही 1980 तक जल-विज्ञान पढ़ने-पढ़ाने के लिये कोई संस्थान नहीं था। अब सौभाग्य से एक संस्थान हमारे प्रान्त में हैं जहाँ हम स्थानीय संदर्भ में इस जल विज्ञान को विकसित करने का भी प्रयास कर रहे हैं।

जल संसाधनों के विकास के लिये अभी तक जो कुछ भी हमने किया है उससे मैं भी पूर्ण रूप से सहमत नहीं हूँ। वास्तव में तटबन्धों के बाढ़ पर पड़ने वाले प्रभाव और उससे कहीं अधिक उसके द्वारा पड़ने वाले दुष्प्रभाव की समीक्षा हमलोगों ने नहीं की, यह सत्य है। तटबन्ध बनने के कारण कहाँ और कितना जल जमाव होगा या फिर नदियों का जलस्तर कितना बढ़ेगा, इसकी कोई समीक्षा नहीं हुई।

मैं निश्चित रूप से विज्ञान और टेक्नोलॉजी का पक्षधर हूँ पर इसके आधे अधूरे विश्लेषण और उपयोग का पक्षधर नहीं हूँ। मैं विज्ञान के प्रति उदासीनता का भी विरोधी हूँ। बिहार जैसे प्रान्त में 1980 तक जल संसाधन तकनीक पढ़ाने की कोई व्यवस्था ही नहीं थी। यह विज्ञान के प्रति उदासीनता नहीं है तो और क्या है। जिस जल संसाधन पर इस प्रान्त का जीवन आधारित था, जिस जल संसाधन का विकास करके यहाँ सम्पन्नता लाई जा सकती थी, उसकी पढ़ाई की यहाँ कोई व्यवस्था अभी हाल तक नहीं थी। ऐसी परिस्थिति में विज्ञान का आधा अधूरा प्रयोग कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है। विज्ञान या तकनीक का उपयोग करने के लिये मुक्त परिस्थिति हमारे यहाँ थी ही नहीं। तटबन्धों की जब बात उठती है तो यह कहा जाना कि तटबन्ध बिल्कुल ही बेकार है, शायद ठीक नहीं होगा। यह जरूर है कि जैसा मैने पहले भी कहा था- इसकी समुचित समीक्षा नहीं हुई। आपकी इस बात में दम है कि बाद में इसमें राजनीतिज्ञों, इंजीनियरों तथा ठेकेदारों के निहित स्वार्थ भी जुड़ गये।

थोड़ा और पीछे जायें तो हम पायेंगे कि सन 1,000 ईस्वी तक इस प्रान्त में जल संसाधनों के विकसित उपयोग के उदाहरण मिलते हैं उस समय तक जल संसाधन विकसित थे और साथ ही साथ विज्ञान भी विकसित था, जिसका परिणाम था कि उस समय तक हम विश्व समुदाय के शीर्ष पर बैठे हुये थे। आज विज्ञान के अभाव में ही हम बरबादी के कगार पर आ पहुँचे हैं। ज्ञान विज्ञान का जो सर्वांगीण विकास होना चाहिए था उसके न होने के कारण हमारी यह स्थिति हुई है।

मैंने यह कभी नहीं कहा कि कोसी पर बने तटबन्ध सही थे और आज उसमें जो विकृतियाँ दिखाई पड़ती हैं वह निश्चय ही विज्ञान के प्रति उदासीनता के कारण हैं। समग्रता की मांग तब भी वही थी जो आज है कि कोसी योजना से कृषि को समृद्ध किया जाय यानी सिंचाई की व्यवस्था हो, बिजली की व्यवस्था हो, बाढ़ नियंत्रण हो, आदि-आदि। पर समय निकला जा रहा था, यह सब पाने के लिये कोसी हाई डैम का प्रस्ताव था जोकि निर्माण में बहुत समय लेता और इसलिये समग्रता छोड़कर तटबन्धों पर काम करना पड़ा और यही वह विज्ञान का आधा अधूरा उपयोग है जिसकी ओर मैं इशारा कर रहा था। पानी जीवन का आधार है, पानी के बिना कुछ भी पैदा नहीं किया जा सकता अतः जल संसाधनों के उपयोग के समय हमें इसके पक्ष और विपक्ष के सारे पहलुओं को सावधानीपूर्वक समझ लेना चाहिए। इसके साथ कम से कम उत्तर बिहार में तो हमारे पास प्रचुर मात्रा में भूजल उपलब्ध है और जब समग्रता की बात उठती है तो हमें इस महत्त्वपूर्ण संसाधन को कभी गौण नहीं मानना चाहिये। जहाँ तक प्राथमिकता का सवाल है तो उसमें पेयजल को कभी भी नहीं भूलना चाहिए।

विकेन्द्रीकरण की जब बात उठती है तो मैं कहूँगा कि उसका एक नियम है कि अपना चिन्तन हम विश्व के स्तर पर रखें पर यदि कार्यक्रम चलाने हों तो उसमें स्थानीय परिवेश को महत्त्व दें। जल संसाधन के सन्दर्भ में भी यही बात लागू होती है। हम टक्नोइकोनॉमिक चिन्तन विश्व के स्तर पर करें और उनको जानें पर जब योजनायें बनानी हों तब स्थानीय परिवेश का ध्यान रखें।

जहाँ तक विश्व बैंक और ऐसी संस्थाओं से मदद लेने का प्रश्न है या उनके चक्कर में फँसने की बात है तो मेरा कहना है कि पहले हम अपना घर दुरुस्त कर लें और अगर हमारा अपना घर दुरुस्त रहेगा तो बाहर से कितना भी दबाव आयेगा, हम उससे बड़ी आसानी से निबट लेंगे।

अध्यक्ष श्री रामेश्वर सिंह के धन्यवाद ज्ञापन के साथ यह सत्र समाप्त हुआ।

अगला सत्र मीडिया के लिये समर्पित था जिसमें बाढ़ मुक्ति अभियान की अपेक्षा थी कि गोष्ठी के मुख्य विषय पर हमारे पत्रकार मित्रों की क्या प्रतिक्रिया है और इस मसले पर अभियान के प्रयासों में उनसे क्या सहयोग मिल सकता है। इस सत्र में अध्यक्षता औपचारिक रूप से किसी ने नहीं कि पर हमारे बहुत से पत्रकार मित्रों ने सक्रिय रूप से सहभागिता की। मंच का संचालन श्री प्रमोद कुमार सिंह ने किया। सत्र में कई लोगों ने अपनी बातें रखीं।

श्री अरूण श्रीवास्तव- व्यवस्था का, जिसमें जल संसाधन भी शामिल है, काम करने का एक तरीका होता है जिसके अनुरूप वह काम करती है। अब अगर कहीं गलत या गैर जरूरी काम हो रहा है तो उसको काउन्टर करना चाहिए। यही प्रश्न है कि किसी भी गलत काम का आप काउन्टर प्रोजेक्शन (विरुद्ध अभिव्यक्ति) कैसे करेंगे? क्योंकि हम जो दिक्कत महसूस करते हैं वह यह है कि हमने तो दूसरे पक्ष को उजागर करना शुरू किया तो, पर जो व्यवस्था है वह भी चुप बैठने वाली नहीं है। वह ज्यादा संगठित है, वही योजना बनाती है, वही क्रियान्वयन करती है और उसी के पास संसाधन भी हैं। जब वैकल्पिक पक्ष सामने आने लगता है तो व्यवस्था दोगुने उत्साह से अपना प्रचार शुरू कर देती है। इस परिस्थिति का मुकाबला करना सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। अभी जैसा कि डॉ. प्रसाद ने कहा कि जल-संसाधनों के उपयोग में सही तकनीक का पूरा-पूरा उपयोग नहीं हो पाया था फिर उसके गुण दोषों की उचित समीक्षा नहीं हो पाई या कि समग्रता में प्रयास नहीं किया गया, वगैरह पर मेरा अपना मानना है कि यह सारी बातें उतनी सीधी साधी नहीं है। उसके पीछे एक सोची समझी कार्यविधि है जोकि कुछ लोगों को फायदा पहुँचाती है और उनका इन कामों से एक निहित स्वार्थ होता है। इसके विरुद्ध भी हमारी भूमिका बनती है कि इसको कैसे आम लोगों के सामने लाया जाय।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का मसला भी ऐसा ही है। उनके काम करने का तरीका भी किसी से छिपा नहीं है। अभी तक जल संसाधन के क्षेत्र में वह कम्पनियाँ खुले तौर पर तो सामने नहीं आई हैं पर इनकी दस्तक जरूर सुनाई पड़ रही है और हमें निश्चित रूप से नजर रखनी चाहिए कि वह कौन लोग हैं जो इनके हितों के लिये काम कर रहे हैं।

श्री अरूण सिंह- बाढ़ का या जल संसाधन का सवाल सारी जनता से जुड़ा हुआ सवाल है परन्तु मीडिया में उसे जितना स्थान मिलना चाहिए उतना मिल नहीं पाता है। मैं खुद एक ऐसे गाँव से आता हूँ जिसकी आस-पास के क्षेत्रों को मिलाकर पचास हजार की आबादी होगी और अब यह पूरा इलाका कट कर गंगा के गर्भ में समा चुका है और मीडिया में उसकी चर्चा तक नहीं हुई। उनके पुनर्वास के प्रश्न पर जो तत्परता दिखाई पड़नी चाहिये थी वह भी नहीं दिखाई पड़ी। उजड़ने के दर्द को ठीक से वही समझ सकता है जिसने इसका अनुभव किया हो। मीडिया की जो संवेदना मेरे गाँव मथुरापुर को मिलनी चाहिए थी वह नहीं मिली। मैं खुद मीडिया में हूँ पर कुछ कर नहीं पाया। मैं आज भी जब अपने गाँव जाता हूँ तो जो कुछ भी बचा खुचा गाँव है उसे देखकर मेरी आँखें डब-डबा जाती हैं। वह जगह जहाँ कभी मेरा बचपन गुजरा था अब वहाँ नहीं है। वह सब कुछ रेत में तब्दील हो चुका है। ऐसी हालत में जब मैं यहाँ सारी बातें सुन रहा था तो लगता था कि कोई मेरी ही बात कह रहा है। मेरा परिवार बिखर गया है और जिन बच्चों के साथ मैं खेला करता था वह अब कोई दस किलोमीटर दूर किसी दूसरे गाँव में रहते हैं। अब अपनी बात कहनी हो तो कोई प्रोग्राम बनाना होगा, या कोई आयोजन करना होगा। वैसे तो कोई सुनेगा भी नहीं।

अब आइये नदियों के स्थिति पर। कुछ प्राकृतिक विपदायें हैं और इन प्राकृतिक विपदाओं में राजनीति कहाँ और कैसे घुसती है इसको भी मैंने अनुभव किया है। मैं वहाँ एक भुक्तभोगी की हैसियत से खड़ा हूँ। इसलिये मैं दूसरा कोई उदाहरण देने की बात अभी नहीं कह रहा हूँ। मेरा गाँव जब कटा और इस कटाव की अखबारों में जब छोटी-मोटी खबरें आईं तो हमारे तत्कालीन सांसद श्री सूर्य नारायण सिंह, जो कि साम्यवादी पार्टी के थे, के प्रयास से गंगा में स्पर बने और तब जाकर गाँव का कटाव रुका। कुछ दिनों सब ठीक रहा पर इसके बाद फिर कटाव शुरू हुआ। इस बार हमारे सांसद बदल गये थे और जब उनसे कटाव रुकवाने के लिये गुहार की गई तो उन्होंने बजट उपलब्ध न होने की अड़चन जताई और कुल मिलाकर काम नहीं हुआ और अब मेरा गाँव एक देखने लायक स्थान बन गया है। मीडिया उदासीन बना रहा और शायद वैसी ही उदासीनता की बात करने के लिये हम यहाँ इकट्ठा हुये हैं। अखबारों की खबरों का जब हम विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि आम आदमी की तकलीफों पर प्रकाश डालने वाली खबरें ही विस्थापित हो गई हैं। अखबार में उनके लिये जगह नहीं बची है। जब से नई आर्थिक नीति या उदारीकरण का दौर चला है तब से इस तरह की आम आदमी से जुड़ी हुई खबरों से सहानुभूति रखने वाले लोगों को भी धीरे-धीरे हाशिये पर ढकेला जा रहा है। इशारतन मैं यह बात स्पष्ट करना चाहता हूँ कि कोई ऐसी शक्ति जरूर काम कर रही है जो कि मीडिया के ऊपर और मीडिया के अन्दर इस तरह के दबाव पैदा कर रही है और इन शक्तियों को हमें पहचानने की जरूरत है। मीडिया के अन्दर एक जबर्दस्त अन्तर्द्वन्द चल रहा है और मीडिया का आदमी होने के कारण मैं इस अनुभव से गुजर रहा हूँ।

पत्रकारों के साथ सत्र में अपना वक्तव्य रखते हुये श्री प्रमोद कुमार सिंह साथ में बायें से श्री रामेश्वर सिंह, श्री अरुण श्रीवास्तव और श्री अरुण कुमार सिंहअब थोड़ा गैर-सरकारी संस्थाओं (NGO) की ओर नजर डालें। जो बातें मैं मीडिया के लिये कह रहा था वही बातें NGO पर भी लागू होती है। NGO की एक लॉबी अब स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आने लगी है जो कि खुले आम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की, नई आर्थिक नीति की और उदारीकरण का समर्थन करती है क्योंकि आर्थिक संसाधन तो उन्हीं के पास हैं। अब हमको आपको समझना होगा कि ऐसी कौन सी ताकतें हैं जो हमारे आपके बीच घुसकर विदेशों के हित में काम कर रही है। ज्ञान हासिल करना, कुछ अच्छा करना आदि सभी कुछ ठीक है लेकिन खुद को या अपने देश के हितों को गिरवी रखकर कोई भी काम हमें नहीं करना चाहिये। इस बात का ध्यान हमें अवश्य ही रखना होगा।

श्री रतन रवि - बहुत बातें हमारे वरिष्ठ पत्रकार बन्धुओं ने कह भी दी ओर उन्होंने पत्रकार की दुविधा या पत्रकारिता के अन्तर्द्वन्द्व को भी स्पष्ट किया है। मेरी समझ से पत्रकारिता के दो विशिष्ट आयाम हैं। एक तो समाचार आम लोगों तक पहुँचाने का तथा दूसरे लोगों तक विचारों को पहुँचाने का है। हमलोगों के पेशे में समाचार देना या विचार देना दोनो सहज है पर जब समाचारों में विचार का समावेश करना पड़े या विचारों में समाचार का समावेश करना पड़े तब बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। जहाँ तक विचारों को पहुँचाने का संबंध है तो उसमें तो विचारकों में ही अन्तर्द्वन्द्व है और उसी में स्पष्टता नहीं है। हमलोगों को अक्सर समारोहों में जाना पड़ता है जैसे कि आज हम यहाँ हैं जहाँ नदी संकट पर चर्चा हो रही है- यहाँ एक तरह का विचार रखने वाले अधिकांश लोग हैं और उनका अपना एक निश्चित पक्ष और मत है। अब हम यहाँ से उठ कर एक ऐसे समारोह में जायें जहाँ विज्ञान और टेक्नोलॉजी के पक्षधर बैठे हों और वह भी अपनी बात उसी गंभीरता और तीव्रता से रख रहे हों जो कि हमें यहाँ दिखाई पड़ती है तो अब हमसे अपेक्षा है कि नदी संकट की बात नदी संकट वालों के विचार के अनुसार तथा विज्ञान और टेक्नोलॉजी वालों की बात उनके विचारों के अनुरूप समाचार तैयार करें। पर पत्रकार भी एक सामाजिक प्राणी हैं। वह भी उसी समाज का हिस्सा है जहाँ से समाचारों का निर्माण हो रहा है। हमलोगों की हमेशा यह कोशिश रहती है कि जहाँ तक हो सके निष्पक्ष होकर समाचारों को दें और अगर कहीं भी किसी भी क्षेत्र में कोई उपलब्धि हो तो उसका विवरण दें। यह उपलब्धि आपके नदी संकट की भी हो सकती है या फिर विज्ञान और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भी हो सकती है।

श्री दीपक मिश्र - हमें इतना तो जरूर महसूस होता है कि आम आदमी की समस्याओं को सामने लाने में मीडिया की भूमिका धीरे-धीरे घटती जा रही है और मीडिया उस समस्या को छूता भी है तो वह एक सतही रिपोर्ट होकर रह जा रहा है। प्रस्तुति में जो गंभीरता या पैनापन होना चाहिए उसका ह्रास होता जा रहा है। इसलिये जरूरत इस बात की है कि गहरे अध्ययन के बाद रिपोर्ट प्रकाशित हो और इस दिशा में हमें पुनः प्रयास करना चाहिये।

श्री प्रमोद कुमार सिंह - मुझे प्रचलित अर्थ में अपने आपको पत्रकार कहने में संकोच होता है पर मैं लम्बे अरसे से अखबारों में लिखता रहता हूँ। बचपन में उत्तर बिहार की बाढ़ के बारे में पढ़ा करते थे और बाद के समय में मध्य बिहार की बाढ़ की भी कहानियाँ सुनने पढ़ने को मिली। अनुभव के क्रम में समस्याओं से जहाँ मेरा साक्षात्कार हुआ वह छोटानागपुर के खनन क्षेत्र में उससे जुड़ी समस्याओं को लेकर है और मैं मुख्यतः उसी विषय पर फिलहाल काम कर रहा हूँ। इस इलाके में जो अन्धाधुंध और अवैज्ञानिक खनन चल रहा है तो मेरी आशंका बन रही है कि आने वाले दस बीस वर्षों में हम अखबारों में पढ़ने लगेंगे कि छोटानागपुर में भी बाढ़ आ रही है। कारण यह है कि खनन के बाद सर्फेस माइन्स में जो बड़े-बड़े गड्ढे बन रहे हैं उन्हें वैसे ही छोड़ दिया जाता है। इन गड्ढों में मूरम जैसे पदार्थ बच जाते हैं वह बह-बह कर अब नदियों में आ रहे हैं। यह मूरम कहीं न कहीं आगे चलकर नदियों के मुहानों को जाम करेगी और फिर पानी निकल नहीं पायेगा। दूसरी बात यह है कि छोटानागपुर की जो सबसे अच्छी दोन वाली जमीन है वह इन्हीं नदियाँ या नालों के किनारे है। जैसे-जैसे नदियों के मुहाने बन्द होते जा रहे हैं वैसे-वैसे ही यह मूरम वाली मिट्टी दोन वाली जमीन पर फैल रही है और फसल बर्बाद कर रही है। इसी का बदला स्वरूप भविष्य में बाढ़ की शक्ल में सामने आयेगा। जिस जगह मैं काम कर रहा हूँ वहाँ के किसान अब खेतों के आस-पास मेड़ लगाकर इस मूरम वाली मिट्टी को खेत पर फैलने से रोक रहे हैं पर यह सब तो स्थानीय उपचार है। खनन का मुद्दा तो अपनी जगह बना ही हुआ है। इस प्रकार जहाँ एक ओर खनन के कारण जमीन बरबाद हो रही है वहीं खनन के दुष्प्रभाव से दूसरी जगह की जमीन बर्बाद हो रही है।

मेरा गाँव जहाँ है वहाँ कभी एक बड़का आहर हुआ करता था। साल भर पानी रहता था उसमें जिसके कारण आस-पास के इलाके में धान की अच्छी फसल हो जाती थी। अब वह बड़का आहर धीरे-धीरे भर गया और इसमें पानी प्रायः नहीं रहता। इस तरह धान तो खत्म हो गया। पानी नहीं रहने से आहर के साथ वाला पाइन भी समाप्त हो गया। यह किस्सा सिर्फ मेरे ही गाँव का नहीं है। किसी न किसी शक्ल में यह सभी जगह हो रहा है। सिल्टेशन की मात्रा पिछले कुछ वर्षों में सभी जगह बढ़ी है जिसके कारण नदियाँ भी छिछली हो रही हैं और बाढ़ दिनों दिन विकराल स्वरूप ले रही है।

उत्तर बिहार के बारे में तो बहुत से साथियों ने बहुत कुछ कहा है इसलिये मैं वहाँ के बारे में नहीं कहूँगा पर मल्टी-नेशनल्स के खनन के क्षेत्र में भारी साझेदारी के संकेत मिल रहे हैं और दिक्कत यह भी है कि बहुत से समाचार पत्रों पर इनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव भी है। जाहिर है कि ऐसे समाचार पत्र इस सन्दर्भ में वस्तुस्थिति को सामने रखने से कतराएँगे। मेरी कोशिश रहती है कि अपनी बात को ऐसे अखबारों के माध्यम से व्यक्त करूँ जो कि इस प्रकार के दबाव से मुक्त हों।

हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि हम जनहित के विषयों में मीडिया के लोगों की रुचि जगायें और कोशिश करें कि उनकी एक टीम लेकर क्षेत्रों में जायें ताकि वहाँ की समस्याओं से ज्यादा से ज्यादा लोगों को परिचित कराया जा सके और व्यवस्था पर एक दबाव की सृष्टि की जा सके। हमारी खुशनसीबी है कि हमारे बीच मीडिया में संवेदनशील लोगों की कमी नहीं है। हमारे वरिष्ठ साथी हेमन्त जी ने पर्यावरण, बाढ़, सिंचाई आदि विषयों पर बहुत कुछ लिखा है और लिखते जा रहे हैं। ऐसे लोगों को हमें पूरा-पूरा फायदा उठाना चाहिए।

श्री रामेश्वर सिंह के धन्यवाद ज्ञापन के साथ पत्रकार मित्रों के साथ यह सत्र समाप्त हुआ और अगले वक्ता के रूप में नेपाल वाटर कन्जरवेशन फाउण्डेशन काठमाण्डू के मित्र श्री अजय दीक्षित को आमंत्रित किया गया। श्री दीक्षित से भारत-नेपाल-बांग्लादेश के बीच पानी के लिये चल रही खींचा-तानी और आन्तरिक तथा व्यावहारिक मतभेदों को जानने की लालसा सभी के मन में थी। श्री विजय कुमार ने श्री दीक्षित से नेपाल में चल रही घटनाओं को विस्तृत विवरण देने तथा महाकाली संधि और करनाली पर चल रहे घटनाक्रम की विस्तृत जानकारी देने की दरख्वास्त की और बराह क्षेत्र बाँध के प्रस्ताव पर चर्चा करने को कहा क्योंकि इन सभी विषयों पर भारत में जानकारी प्रायः उपलब्ध नहीं है। श्री देवनाथ देवन ने भी विशेष रूप से पहले ही प्रश्न किया कि दुनियाँ को तो लोगों ने नहीं बनाया पर उसके नक्शे को जरूर बनाया और इस जमीन पर अपने-अपने दखल के अनुसार नक्शा बनाया क्या ऐसा नहीं होने जा रहा है कि अब पानी का भी नक्शा बना जायेगा और लोग अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार पानी को भी बाँट लेंगे और अब बिना पैसा दिये पानी भी नहीं मिलने वाला है। उन्होंने दीक्षित जी से इस पहलू पर भी ध्यान देने को कहा।

अपनी बात रखते हुये श्री देव नाथ देवन, साथ में श्री रामेश्वर सिंह, श्री विजय कुमार, श्री अजय दीक्षित तथा श्री प्रमोद कुं. सिंहश्री अजय दीक्षित मैं आप लोगों को धन्यवाद देता हूँ कि आप लोगों ने मुझे यह अवसर प्रदान किया है कि नदी संकट पर कुछ बात चीत कर सकूँ और पानी के प्रश्न पर नेपाल में राजसत्ता यानी स्टेट, वहाँ के योजनाकार और आम लोग क्या सोचते हैं उसके बारे में आपको कुछ बता सकूँ। जैसा कि मैंने कल भी कहा था कि नदी संकट क्या है-पहले मैं इसी पर बात करूँगा। नदी संकट अकेला नहीं है उसके साथ चार अन्य संकट भी हैं। पहला सूचना का संकट है। दक्षता का संकट है, जैसे सिंचाई के लिये, जल की आपूर्ति के लिये बहुत सी योजनाओं का निर्माण किया गया है। यह नेपाल में, भारत में या बांग्लादेश में सभी जगह हुआ है। जितना पानी उपलब्ध होता है उसका पचास से सत्तर प्रतिशत पानी का तो नहरों के माध्यम से जमीन में रिसाव हो जाता है-यानी इतना पानी बरबाद होता है। केवल तीस प्रतिशत पानी काम आता है। एक समस्या यह है। यही पानी उपभोक्ताओं के लिये उपलब्ध होता है पर क्या सचमुच ऐसा हो पाता है? जब किसान को पानी चाहिये, नहरों में पानी नहीं होता और जब पानी नहीं चाहिये तब पानी खूब मिलता है। अतः जब पानी की उपलब्धता ही सन्देहास्पद हो तो ऐसे पानी की क्या जरूरत है।

तीसरा संकट समता का है यानी पानी की उपलब्धता में गैर बराबरी। यह सभी जल-संसाधनों के विकास योजनाओं की त्रासदी है। पानी का फायदा एक वर्ग को पहुँचता है और पानी से होने वाला नुकसान दूसरे के हिस्से में आता है। चौथा संकट राजनीति का है जो कि नदियों के साथ हो रही है। यहाँ मेरे सामने एक पोस्टर लगा है जिस पर अर्थ के साथ एक श्लोक लिखा हुआ है कि हिमालय के उतुडंग शिखर से बागमती प्रवाहित होती है। इसका जल भागीरथी से सौ गुना अधिक पवित्र है और इसमें स्नान करने वाला व्यक्ति सीधे सूर्य लोक को प्राप्त करता है। यह बागमती हमारे यहाँ काठमाण्डू से होकर प्रवाहित होती है और आज उसकी बदहाली की हालत यह है कि उसमें स्नान करने वाला व्यक्ति सचमुच तुरन्त सीधे सूर्य लोक को चला जायेगा। बागमती का पानी आज इतना गन्दा है कि पूरा-पूरा नाबदान बन गया है। जैसे-जैसे समाज आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है वैसे-वैसे नदियों पर संकट बढ़ता जा रहा है और नदियों पर आये इस संकट को समझने के लिये हमें डेढ़-दो सौ साल पीछे जाना होगा। अंग्रेजों ने जब भारत पर कब्जा जमाया तब उनकी नजर यहाँ के जलस्रोतों पर पड़ी और उन्होंने इससे रेवेन्यू इकट्ठा करने की सोची। तब उन्होंने यहाँ सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण पर काम करना शुरू किया। बाढ़ के मामले में तो वह पूरी तरह असफल रहे पर सिंचाई के स्रोतों से उन्होंने जरूर अपनी आमदनी बढ़ाई। पारम्परिक तकनीकों की जगह उन्होंने अपने तरीके से विज्ञान को विकसित किया। सिंचाई से उन्होंने लाभ उठाया और जल-जमाव पर केवल बातें कीं। इस तरह से फायदा केवल सरकार का और नुकसान केवल जनता का -इस सिद्धान्त की नींव पड़ी।

इसी परम्परा में पचास के दशक में आपके यहाँ कोसी परियोजना पर काम शुरू होता है जिससे न तो सिंचाई हो पाती है और नही बाढ़ नियंत्रण होता है। पानी की जो व्यवस्था सरकार करना चाहती थी वह नहीं हो पाई और तब एक नयी परियोजना यानी कोसी हाई डैम का नाम उछाल दिया जाता है यद्यपि कहा यही जाता है कि मूल प्रस्ताव तो कोसी हाई डैम ही था। जब भी आप कोसी हाई डैम की बात करेंगे तो तटबन्धों के सन्दर्भ में सिंचाई विभाग के निकम्मेपन की बात उठेगी और परियोजनाओं के राजनीतिकरण की बात उठेगी। निहित स्वार्थों की बात उठेगी। इसमें नया कुछ भी नहीं है। अमेरिका में भी सेना के इन्जीनियर्स, वहाँ का अमला, ठेकेदारों तथा राजनीतिज्ञों का एक बड़ा संगठित तंत्र है जो कि अपने हिसाब से योजनाओं पर निर्णय लेता है। आपके यहाँ बिहार से एक बार एक बड़ी हस्ती हमारे यहाँ काठमाण्डू आई थी। हमलोग भी उनसे मिलने गये और बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि बिहार की बाढ़/सिंचाई समस्या का एक ही विकल्प है और वह है बराह क्षेत्र बाँध। मैंने उनसे पूछा कि आप किस आधार पर ऐसा मानते हैं? तो उन्होंने कहा कि इसकी तो टेक्नोलॉजी है और उससे यह सम्भव है। हमने फिर पूछा कि यह बताइये कि कोसी बराज या तटबन्ध और नहरों का निर्माण बिना टेक्नोलॉजी के हुआ था क्या? टेक्नोलॉजी तो वहाँ भी थी। कोसी बराज की जो टेक्नोलॉजी थी और उसकी जो मान्यता थी उसका फायदा क्यों नहीं हुआ? जबाब में उन्होंने सिंचाई विभाग की जमकर आलोचना भी कि लोग वहाँ जवाबदेह नहीं है, लापरवाह है, काम नहीं करते, नहर की देखभाल नहीं करते, तटबन्धों की हालत जर्जर है, सिंचाई ठीक से नहीं होती आदि-आदि। मैंने फिर पूछा कि यह लोग ठीक से काम क्यों नहीं करते तो उन्होंने बताया कि वहाँ ठेकेदारी का काम होता है जिसमें राजनैतिक हस्तक्षेप बहुत होता है। मैंने उनसे पूछा कि बराह क्षेत्र बाँध बन जाने से वहाँ का राजनैतिक हस्तक्षेप समाप्त हो जायेगा क्या? इसकी क्या गारन्टी है? मेरे इस प्रश्न का उनके पास कोई उत्तर नहीं था।

हमारी राजनीतिक प्रणाली ऐसी ही है और तकनीक या टेक्नोलॉजी हमारे समाज की संवाहक होती है, उसे समाज को साथ लेकर चलना पड़ता है और यह पानी के व्यवस्थापन की जो औपनिवेशिक व्यवस्था है इसमें समाज के साथ जो संवाद होना चाहिये टेक्नोलॉजी का, वह होता ही नहीं है।

अभी सुबह जब डा. प्रसाद बोल रहे थे कि हमारे यहाँ मौसम ऐसा है कि तीन महीने बारिश होगी तभी तक पानी रहता है और उसके बाद नौ महीने बारिश नहीं होती है। यह बुनियादी सोच ही गलत है, हम पानी के मामले में काफी समृद्ध हैं। हमारा मौसम यूरोप और अमेरिका से सर्वथा भिन्न है। इंग्लैण्ड में तो पूरे साल पानी बरसता रहता है और वहाँ का आदमी निश्चित रूप से यह कहेगा कि आपके यहाँ तीन महीने बारिश है और नौ महीने सूखा है तब उनकी सुन-सुनकर हम भी यही कहने लगते हैं। फिर वह अपनी टेक्नोलॉजी देता है तब हम उसे भी बिना कोई प्रश्न किये स्वीकार कर लेते हैं। मगर हमारा मौसम यदि अमेरिका और इंग्लैण्ड से भिन्न है तो हमारी टेक्नोलॉजी भी वहाँ से भिन्न होनी चाहिये। हमारी जो भी समस्यायें उन्हें हम मानते हैं पर इसके लिये यूरोपीय या अमरीकी तकनीक को हम स्वीकार नहीं करते। हमने अपने वातावरण के अनुरूप वैकल्पिक तकनीक विकसित नहीं की और उनका मुँह जोहते रहे। तब उनके पास तो वही डैम की, बराज की या तटबन्ध आदि जैसे तकनीक है, ले लीजिए। हमें अपने परिवेश, अपना वातावरण, अपना मौसम, अपनी आवश्यकताएँ तथा अपनी सामर्थ्य के अनुसार तकनीक का विकास करना चाहिये तभी कुछ सफलता मिलेगी अन्यथा नहीं।

अब मैं नेपाल में प्रस्तावित परियोजनाओं के बारे में बाचतीत करुँगा। नेपाल में हमारे अपने पहाड़, नदी और जंगल आदि हैं पर इन पर योजनायें नेपाल नहीं, दूसरे लोग बना रहे हैं। आम मान्यता है कि हमारे यहाँ बहुत पानी है और हमारे यहाँ बहुत ज्यादा, लगभग 83,000 मेगावाट बिजली पैदा की जा सकती है। लोग कहते हैं कि आप यह बिजली पैदा कीजिये और खरीदने के लिये तो भारत है ही और इतनी बिजली पैदा करके जैसे अरब लोग पेट्रो सेठ बन गये हैं उसी तरह आप भी हाइड्रो सेठ बन जायेंगे।

परन्तु वास्तविकता यह नहीं है। इस वास्तविकता की तलाश हमलोग पिछले 5-10 साल से कर रहे हैं। हमलोग जो देख पा रहे हैं या सोच पा रहे हैं वह बहुत ही सरलीकृत चिन्तन है और इसी सरलीकृत चिन्तन का फायदा उठाकर आप उसे व्यापारी कह लें, बहुराष्ट्रीय कम्पनी कह लें या फिर अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक संस्थान कह लें-अपनी-अपनी योजनाओं को आगे ठेल रहे हैं। वही हमें महाकाली परियोजना, करनाली परियोजना या बराह क्षेत्र बाँध के बारे में पहल करने के लिये कह रहे हैं। और जब तक यह योजनायें नहीं बनेगी, उनका मानना है तब तक हम बड़े नहीं बन सकते। महाकाली संधि जब हुई तब पंचेश्वर बाँध के निर्माण का रास्ता खुला और तभी से हमें बार-बार कहा जा रहा था कि महाकाली संधि की पार्लियामेंट में पुष्टि करनी ही पड़ेगी, इसका कोई विकल्प नहीं है। यदि नेपाल को एशियाई तेन्दुआ बनना है तो महाकाली संधि की पुष्टि किये बिना यह काम नहीं होने वाला है। एशियन टाइगर तो हम नहीं बन सकते क्योंकि वह तो पहले से ही कोई देश बना बैठा है और आजकल वह टाइगर कहाँ दुबका हुआ है यह हम सभी जानते हैं। इसलिये वह हमें एशियन लेयोपर्ड बनाना चाहते हैं। इसके बाद हमारे देश में विदेशी पूँजी आयेगी, हमारा विकास होगा और उसके बाद हमारा चिन्तन भी पूरब का न रह कर पश्चिमी चिन्तन हो जायेगा। तब पश्चिमी सोच के विकास का सूरज पूरब में उगेगा और हमलोग एकाएक यहाँ से वहाँ पहुँच जाऐंगे।

अभी कुछ दिन पहले हमारे यहाँ नेपाल में महाकाली सन्धि हुई है। इसके अधीन पंचेश्वर में महाकाली नदी पर एक बाँध बनेगा जिससे 6,480 मेगावाट बिजली पैदा होगी। इसके बाद पश्चिमी सेती योजना है जिससे 750 मेगावाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य है। इसके विकास का जिम्मा लिया हुआ है आस्ट्रेलिया की स्नोवी फाउन्डेशन कारपोरेशन ने। इस तरह जो बिजली पैदा होगी उसे यह कारपोरेशन भारत को बेचेगा और अपनी आमदनी पर टैक्स नेपाल सरकार को देगा। इसके अलावा करनाली नदी पर सीसापानी बाँध से 10,800 मेगावाट बिजली पैदा करने का कार्यक्रम है जो काम अमेरिका की एनरॉन कम्पनी करने वाली है। यह वही एनरॉन है जिसके विरुद्ध आप लोग धबोल-महाराष्ट्र में आन्दोलन कर रहे हैं। यह बिजली भारत को नहीं मिलेगी वरन एनरॉन इसे हिमालय पार कराके 3,200 किलोमीटर दूर चीन को बेचेगा। यह बिजली घुमा-फिरा कर मलेशिया तथा श्रीलंका तक भी पहुँचाई जा सकती है। इससे भी नेपाल को टैक्स मिलेगा। नेपाल में इस पर काफी चर्चा हुई और हमलोगों ने इस योजना का विरोध किया तब जाकर यह प्रस्ताव वापस हुआ। एनरॉन ने यह कहा कि दक्षिण एशिया में पूँजी निवेश का माहौल अभी ठीक नहीं है इसलिये हम यह प्रस्ताव वापस ले रहे हें। अब नेपाल में बहस छिड़ती है कि इतनी बड़ी अमरीकी कम्पनी आ रही थी और अरबों-करोड़ों रुपयों का निवेश यहाँ होने वाला था, देश की उन्नति होने वाली थी जिसे विरोध करने वालों ने मिलकर चौपट कर दिया है। सौभाग्य से हमारी जो ऊर्जा मंत्री हैं, और वह उप-प्रधानमंत्री भी हैं, वह बहुत सुलझे विचारों वाली महिला हैं। उनका मानना है कि हमें बड़ी कम्पनी या बड़ी योजना नहीं चाहिये पर इतना जरूर चाहिये कि हमारे किसानों को सिंचाई के लिये समय से पानी मिले और उन्हें सस्ते दरों पर बिजली उपलब्ध हो। हमारे इन लोकोपयोगी कामों के लिये पूँजी निवेश उपलब्ध नहीं है। उनको तो अर्जुन की तरह चिड़िया की आँख के रूप में हाई डैम ही दिखाई पड़ रहा है। वह नहीं तो कुछ भी नहीं। इन व्यापारियों की मन्शा इसी से साफ हो जाती है। फायदा तो जरूर होगा पर यह उनको होगा, हमको नहीं।

इसके बाद दो और योजनायें हैं। कोसी बाँध इनमें शामिल है जिसके लिये नेपाल और भारत सरकार के बीच समझौता हुआ है। इसमें जापान की एक बहुत बड़ी संस्था ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर फण्ड की रुचि है। वह भी एक बहुत बड़ी योजना बनाने के पक्ष में है और दक्षिण एशिया में जल-संसाधनों के विकास के लिये काम करना चाहती है। उनकी रुचि भारत के तिपाईमुख बाँध, बांग्लादेश की गंगा बराज तथा नेपाल के कोसी हाई डैम में काफी बढ़ी-चढ़ी है। उन्होंने कई मीटिंग की हैं। कभी दिल्ली में, कभी काठमाण्डू में, कभी ढाका में तो कभी बोस्टन में। एक ऐसी ही मीटिंग में उन्होंने पता नहीं क्यों एक बार मुझे भी बुला लिया। मैं जब अपनी प्रस्तुति कर रहा था तब उन लोगों को अच्छा नहीं लगा और आखिरकार मुझे अपनी बात जल्दी समाप्त करनी पड़ी। यह हाल-चाल है ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर फण्ड का। पहले उनकी रुचि केवल कोसी बाँध में थी पर अब उनकी नजर दूसरी जगहों पर भी पड़ रही है। पर कोसी पर अभी तक कुछ समझौता नहीं हो पा रहा है और बिजनेस दूसरी जगहों पर बढ़ रहा है। इसलिये वह दूसरी तरफ भी हाथ पैर मार रहे हैं।

चक्कर यह है कि बड़े-बड़े बाँध बनाने वाली जो ठेकेदार कम्पनियाँ हैं उनको पश्चिम में अब काम नहीं मिल रहा है और बाँध बनाने वाले स्थल जो भी हैं उन्हें यह कम्पनियाँ खोज रही हैं और वहाँ योजनायें बनाने के लिये सरकारों को उकसा रही है। इसमें उनका अपना स्वार्थ है। फिर यह गंगा, ब्रह्मपुत्र का नेपाल, भारत, भूटान और बांग्लादेश वाला क्षेत्र है उसे यह लोग कभी पवर्टी ट्राइलिंग यानी गरीबी का त्रिभुज कहते थे पर बाद में उन्हें लगा कि ऐसा कहना शायद ठीक न हो तो फिर इसे ग्रोथ ट्राइंगिल (विकास का त्रिभुज) कहना शुरू कर दिया। अब उन्हें इस क्षेत्र को विकसित करना है जिसमें वह पानी की उतनी बात नहीं करते जितनी ऊर्जा की बात करते हैं और जाहिर है कि यह काम तो बाँधों के माध्यम से ही होगा। समस्या यह है कि जो हमारे क्षेत्रों या देशों की जमीनी वास्तविकता है उससे यह कम्पनियाँ या संस्थायें पूरी तरह से अनजान हैं। जब हम इन सच्चाईयों की बात करते हैं तो सभा योजनाओं में चुप्पी छा जाती है। कोई कुछ कहता नहीं है। मैंने एक मीटिंग में कहा कि भारत नेपाल को हम एक करोड़ डॉलर देते हें पानी के विकास के लिये। आप जो चाहे वह कर सकते हैं। इस प्रस्ताव पर किसी की जबान नहीं खुली। मेरे पास यह प्रस्ताव हो तो मैं बहुत कुछ काम बता सकता हूँ। सबके दिमाग में वही बीस हजार करोड़ तीस हजार करोड़ भरा हुआ है और उसके नीचे उनका चिन्तन बन्द है। ऐसी परिस्थिति में क्या करेंगे। पहले हमारी लड़ाई सरकार से चला करती थी पर अब हमारी लड़ाई बाजार से चल रही है क्योंकि सरकार और व्यापारी मिल गये हैं।

ऐसी परिस्थति में हम और हमारा यदि कोई आन्दोलन है तो वह कहाँ है। एक तरफ सरकारें और व्यापारी हैं, मल्टी नेशनल्स हैं, एनरॉन है, स्नोवी फाउण्डेशन है और ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर फण्ड है और दूसरी तरफ हम हैं, गरीब लोग हैं और साधनहीनता है। तब हमें क्या करना चाहिए? हमको इसका थोड़ा-सा अनुभव है। हमें यदि उनसे लड़ना है तो हमें उनकी ही भाषा का प्रयोग करना चाहिये जिसे वह अच्छी तरह समझते हैं। आप भूकम्प की बात कीजिये तो कहेंगे कि कर दिया हुआ है न उसका प्रावधान डिजाइन में या फिर विस्थापन या पुनर्वास की बात उठाइये तो कहेंगे कि इसके लिये आवश्यकता से अधिक का धन का आवंटन है। इन विषयों पर उन्हें रास्ते पर लाना बहुत ही कठिन है। पर यदि आर्थिक विश्लेषण के मैदान में उन्हें खींचकर लाया जाय तो उनकी घिग्घी बंध जाती है। योजना के आर्थिक ढाँचे का प्रश्न जब उठता है तब वह सुनने/समझने के लिये प्रस्तुत होते हैं अन्यथा नहीं।

हमें अपनी समस्याओं का समाधान अपने ही चौखटे में खोजना चाहिए। जैसे हमलोग सुनते हैं कि बिहार में जब बाढ़ आती है तो यहाँ के राजनीतिज्ञ या इन्जीनियर कहते हैं कि नेपाल से पानी आता है इसलिये यहाँ बाढ़ आती है। नेपाल तो ऊपर है वहाँ से तो पानी आप के यहाँ आयेगा ही और यह कोई आज से थोड़े ही आ रहा है। जब से पृथ्वी का यह स्वरूप बना है तब से आ रहा है और आता ही रहेगा। पर इस समस्या से निबटने के स्थान पर ज्यादा आसान यह है कि नेपाल को समस्या का जिम्मेदार ठहरा दिया जाय और अपनी समस्या को नेपाल की समस्या बना दिया जाय। नेपाल में भी यही होता है-तराई में बाढ़ आयेगी तो भी ऊपर वाले इलाके में बारिश को लानते मिलती हैं। वास्तव में समस्या को दूसरी जगह निर्यात कर देना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। वह खुद समस्या को नहीं मिटाना चाहता।

इन सब बातों का समाधान खोजने जायेंगे तो खोजते-खोजते इन्जीनियरिंग की शिक्षा व्यवस्था तक पहुँचेगे। मैं खुद इन्जीनियर हूँ। यहाँ मिश्र जी बैठे हैं वह भी इंजीनियर हैं। इंजीनियर के प्रचलित अर्थ का जब भी सन्दर्भ आता है तो लोग हमसे कहते हैं कि तुम इंजीनियर के नाम पर कलंक हो, तुम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हो। मैंने राउलकेला में पाँच साल इंजीनियरिंग पढ़ी जहाँ हमें एक भी दिन अपने समाज के बारे में कुछ भी नहीं बताया गया। वहाँ हमें सर्वे करना, ड्राइंग करना, डिजाइन करना, निर्माण करना, कम्प्यूटर चलाना-सब कुछ सिखाया गया। अगर नहीं सिखाई गई तो केवल एक चीज की जहाँ इस सारी विद्या का प्रयोग करोगे वहाँ एक समाज रहता है। तुम्हारा किया गया कोई भी काम समाज को प्रभावित करेगा-यह नहीं बताया गया कि इसमें थोड़ी सावधानी और संवेदना की जरूरत है। इसलिये आगे बढ़ने के लिये हमें एक नई दृष्टि की आवश्यकता है। हमने पहले चार समस्यायें गिनाई थीं पर उनके साथ-साथ एक समस्या शिक्षा की भी है।

इन सारी समस्याओं को ध्यान में रखकर ही हम विकल्प के बारे में सोच सकते हैं। लोग पूछते हैं कि कोसी बाँध नहीं बनाओगे तो क्या करोगे? बहुत होगा तो उतने बड़े बाँध न बना कर कई छोटे-छोटे बाँध बनाओगे। यानी बड़ा हो या छोटा-बाँध उनके दिमाग से नहीं निकलेगा। मैं उनसे पूछता हूँ कि हमारी समस्या क्या है- यही न कि समय से सिंचाई के लिये पानी मिले और सस्ती दर पर बिजली उपलब्ध हो।

प्रश्न यह है कि हमारी प्राथमिकता क्या है। आप कहेंगे- पीने का पानी। तब आप मुझे यह बताइये कि आपके घरों में बाथरूम में जो फ्लश लगा है उसमें आप एक बार जब जंजीर खींचते हैं तो पन्द्रह लीटर पीने की गुणवत्ता वाला पानी आप पाखाने में क्यों बहा देते हैं? अगर एक आदमी दिन में पाँच बार भी यह जंजीर खींचता है तो 75 लीटर पीने वाला पानी तो उसने एक दिन में बिना पिये बहा दिया। अभी उसका पूरा परिवार बाकी है। ऐसा क्यों करते हैं आप। भारत में एक यूनिट बिजली उपभोक्ता तक पहुँचाने के लिये चार यूनिट बिजली पैदा करनी पड़ती है-बाकी सब रास्ते में ही गुल हो जाती है-ऐसा क्यों होता है। परन्तु प्रचार तंत्र इतना सक्षम है कि वह आम आदमी को यह सब पूछने नहीं देता-वह उसके इसके लिये तैयार करता है कि वह बड़े बाँध के निर्माण के लिये कोई भी खामियाजा भुगतने के लिये अपने को तैयार रखे।

इसलिये विकल्प का संबंध हमारे समाज से है, हमारे परिवार से है, हमारे पर्यावरण से है और हमारी सामर्थ्य से है। आप 6000 मेगावाट बिजली नेपाल से लायेंगे और आपके पास पहुँचेगा 1,500 मेगावाट। आपके बिहार की या यूँ कहिये कि अन्य राज्यों की सरकारें भी परेशान हैं इस लीकेज से। आप चार यूनिट की सप्लाई पर एक यूनिट पाते हैं-इसे ही दो यूनिट तक ले आइये। आपको आज के मुकाबले दोगुनी उपलब्धता हो जायेगी। एक ओर तो परिवर्तन ग्रासरूट और समाज के स्तर पर हो और दूसरा राजनीतिक स्तर पर हो तभी कुछ हो सकेगा वरना नहीं। परिवर्तन की शुरुआत राजनीति से होना बहुत जरूरी है।

अजय दीक्षित जी ने जब अपनी बात समाप्त की तो बहुत से प्रश्न श्रोताओं ने उठाये। सबसे पहले श्री विजय कुमार ने जानना चाहा कि भारवर्ष में परियोजनाओं से सम्बन्धित सूचनायें अव्वल तो मिलती नहीं हैं, यदि कभी किसी ने खुश होकर कुछ बता दिया तो वह सूचना कितनी विश्वसनीय है इसका भी अन्दाजा नहीं लगता। वह जानना चाहते थे कि नेपाल में लगता है कि सूचना का अधिकार और उपलब्धता दोनों ही है जो कि अच्छी बात है। क्या यह सम्भव है कि यह सूचनाएँ हमें उपलब्ध हो सकें ताकि हम यहाँ लोक शिक्षण को समर्थ कर सकें।

अजय दीक्षित जी ने उत्तर में बताया कि जब हमलोग अरुण -3 की लड़ाई लड़ रहे थे तो शीर्षस्थ न्यायालय से हमलोगों ने सूचना का अधिकार पा लिया था और हमलोग उससे लाभान्वित भी हो रहे हैं और यह सूचनाएँ जो हमारे पास उपलब्ध हैं वह हम आप लोगों के साथ मिल-बाँटने के लिये हमेशा प्रस्तुत हैं। दूसरी बात यह है कि हमारे यहाँ (नेपाल में) सूचनाएँ उतनी गोपनीय नहीं है और इस बात के लिये कोई चिन्ता भी नहीं करता है कि सूचना का महत्त्व क्या है।

सुल्तानपुर (उ.प्र.) के श्री हरिहर सिंह जी ने प्रश्न किया कि आप ने बताया कि नहर से छोड़ा गया लगभग 70 प्रतिशत पानी खेत तक नहीं पहुँचता और रास्ते में ही रह जाता है। ऐसे में नदि नहरों में बारहो महीने पानी दिया जाय तो लोग जल जमाव से ही विस्थापित हो जाएँगे। अतः गर्मी में और अन्य मौसमों में भी यदि नहर बन्द न कर दी जाये तो खेती अपने आप ही पूरी तरह चौपट हो जायेगी। किसान स्वयं भी कम वैज्ञानिक दृष्टि नहीं रखता पर उसकी कोई सुनता नहीं है। उनकी राय ली जानी चाहिए- यह मेरा सुझाव है। श्री नलिनी कान्त जी ने कहा कि प्रश्न यह है कि नेपाल के जल-आन्दोलन से जुड़े लोग किस तरह सूचनायें एकत्रित करते हैं और उनकी किस प्रकार की कार्यपद्धति है।

श्री दीक्षित ने बताया कि बड़ी-बड़ी सिंचाई योजनाएँ जहाँ भी बनी हैं वहाँ जल जमाव की समस्या हुई है। हमारे देश में बड़े बाँध अभी तक नहीं है, बड़ी सिंचाई परियोजनाएं भी नहीं है। इसलिये इसका सीधा अनुभव तो हमलोगों को नहीं है पर भारत से आने वाली जल जमाव की खबरों को हमलोग बड़े ध्यान से सुनते हैं क्योंकि यदि ऐसा कुछ होगा तो हमारे तराई वाले हिस्से पर असर पड़ेगा। हमारे यहाँ जो भी सरकारी सिंचाई व्यवस्था है उसमें अब किसानों को सहभागी बनाने का प्रयास जोर-शोर से चल रहा है और यह आपका सुझाव उचित है कि किसानों की राय सभी सिंचाई और कृषि परियोजनाओं में ली जानी चाहिए।

दूसरा प्रश्न जो नेपाल के जल सम्बन्धी आन्दोलन का है उसमें बहुत से संगठन विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे हैं और हमें आम तौर पर बड़े बाँधों से सहमति नहीं है। अब उसका विरोध कीजिये तो लोग कहेंगे कि यह विकास का विरोधी है जबकि आप केवल बाँध का विरोध कर रहे हैं। इसलिये हमलोग छोटे बाँधों और छोटी परियोजनाओं का समर्थन कर रहे हैं जिनके निर्माण में समय कम लगता है, लागत खर्च कम आता है, समाज का बेहतर नियंत्रण रहता है तथा लाभ जल्द मिलता है। परन्तु हम छोटे-बड़े के विवाद से बचना चाहते हैं। हम बड़े बाँध मत बनाओ ऐसा जरूर कहते हैं पर छोटे बाँध को एक माध्यम के रूप में इस्तेमाल करके असली मुद्दों की ओर बहस को ले जाना चाहते हैं जहाँ कि शायद हमारी समस्याओं का विकल्प है। बड़े बाँधों पर भी चोट हमने आर्थिक विश्लेषण के माध्यम से की है।

श्री गिरीन चेतिया का प्रश्न था कि आप के अनुसार आर्थिक दृष्टि से यह बाँध उचित नहीं है और इस तर्क का आपने बखूबी इस्तेमाल किया है और आपने इसके जरिये सफलताएँ भी पाई हैं। मेरा प्रश्न है कि यदि कोई यह तर्क देकर सिद्ध कर दे कि हाँ! यह आर्थिक दृष्टि से उचित है तब क्या योजना का औचित्य सिद्ध हो जाता है। हम यह बात क्यों नहीं कह पा रहे हैं कि पानी आम आदमी के लिये है और गरीब आदमी के लिये है बिजली पैदा करने के लिये नहीं। यह सारी योनजायें गरीबों के लिये है या नहीं इस तर्क को हमलोग क्यों नहीं रख पाते। मेरा यह प्रश्न केवल दीक्षित जी से नहीं वरन पूरे सदन से है।

श्री मोहन रेड्डी ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मेरा प्रश्न है कि आपके यहाँ नेपाल में तालाब या झीलों जैसी कोई व्यवस्था है या नहीं। यदि आपके यहाँ ऐसी व्यवस्था है तो आज यह सब किस स्थिति में है? यदि आपके यहाँ ऐसी व्यवस्था नहीं है तो क्या आप समझते हैं कि यह व्यवस्था आपके यहाँ कारगर हो सकेगी क्योंकि इन संरचनाओं पर समाज का सीधा नियंत्रण सम्भव है और भारत में कम से कम, इसकी एक बड़ी समृद्ध परम्परा रही है।

मेरा दूसरा प्रश्न है कि पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीयकृत संसाधनों को नियंत्रण से मुक्त करने की बात चल रही है। यह सच है कि जैसे-जैसे राष्ट्रीयकरण वापस लिया जायेगा वैसे-वैसे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पकड़ इन संसाधनों पर मजबूत होने लगेगी। सामाजिक वानिकी का एक क्षेत्र ले लें जिसमें विश्व बैंक जैसी संस्थाओं ने बहुत काम किया है- भारत में और आप जैसा बता रहे हैं नेपाल में भी उन्होंने काम किया है। यह सब काम यद्यपि हमारी सरकारों की देखरेख में चल रहे हैं पर मूलतः यह विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के काम हैं जिसमें उनके अपने खुद के कार्यकर्ता लगे हुये हैं। उदारीकरण के इस दौर में यह सारे काम वर्ल्ड बैंक के हाथ से भी निकल कर सीधे कारपोरेट सेक्टर में चले जाने का अन्देशा है जिसके कुछ पक्षों पर इस सदन में कल चर्चा हुयी थी।

डा. लुंकड़ ने भी चर्चा में भाग लेते हुए कहा कि मैं इस विषय से थोड़ा सा अलग जाना चाहूँगा। उत्तर भारत में दस बारह बड़ी और मुख्य नदियाँ हैं पर उनसे कहीं ज्यादा तादाद उनकी सहायक नदियों की है। कोसी, जिसकी इतनी चर्चा हुई है, वह भी गंगा की एक सहायक नदी ही है। इन नदियों के पानी के उपयोग के लिये कोई कानून नहीं है और जिसके जैसे मन में आता है उसका उपयोग कर लेता है। शिप्रा नदी का एक उदाहरण ले लें- यह वही शिप्रा नदी है जिसके किनारे बैठ कर कभी कालिदास ने मेघदूतम की रचना की थी। इस समूह की नदियाँ पहले चम्बल में जाकर मिलती हैं और उसके माध्यम से क्रमशः यमुना और गंगा में इनका पानी समाहित हो जाता है। चम्बल में जहाँ इन नदियों का संगम होता है वहाँ यह स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगता है कि यह नदियाँ नदियाँ नहीं रह जाती है वरन एक गन्दे नाले की शक्ल में मुख्य नदियों से मिलती हैं और यह गन्दा पानी मुख्य नदी में भी दूर तक बहता हुआ दिखाई पड़ता है। इन नदियों को देख कर मेरे मन में विचार आता है कि नदियों से नालों में परिवर्तित हो जाने वाली इन नदियों के कितने पानी का हम उपयोग करें कि कम से कम उनकी पहचान तो बनी रहे। इन नदियों में कालिख घोलना एक जघन्य अपराध घोषित होना चाहिए। शिप्रा को उसके उद्गम पर देखिये और शिप्रा को चम्बल से उसके संगम स्थल पर देखिये तब आपको अन्तर स्पष्ट हो जायेगा।

शिप्रा नदी के बारे में बताते हुये डॉ. श्रोनिक कुमार लुंकड़जब योजनाओं की बात आती है तब वही योजनाएँ कारगर हो सकती है जो कि लोगों से सीधे जुड़ी हों, उनके श्रम का उसमें समावेश हो और आम आदमी की भागीदारी वहाँ हो। इसमें किसी वर्ल्ड बैंक, किसी आई.एम.एफ. या किसी ऐसी संस्था का वर्चस्व न हो। मैं तो यह भी कहूँगा कि यदि शिप्रा पर कोई योजना बननी हो तो वह नदी क्षेत्र में ही लोगों की राय से ही बने-भोपाल में नहीं और दिल्ली में तो कभी नहीं। इसके साथ ही एक वाटरवेज कानून के बारे में भी हम सोच सकते हैं। जिसमें कम से कम इस बात का प्रावधान किया जाए कि नदी के 60 प्रतिशत पानी से अधिक का उपयोग कभी न किया जाय जिससे नदी की पहचान बनी रहे। 40 प्रतिशत पानी नदियों में हमेशा बहता रहे।

श्री कारू जी (गया) ने कहा कि मेरा सीधा प्रश्न है कि मैं कल से सुन रहा हूँ कि कोसी पर तटबन्ध जो बना वह गलत था। मैं खुद भी देवन जी के साथ कोसी क्षेत्र गया था जहाँ लोगों ने तटबन्ध काट दिया था। मैंने वहाँ एक लगभग 60 वर्ष के बूढ़े को भी देखा जिसका घर बह रहा था। वह बड़ा खुश था और समझिये कि खुशी से नाच रहा था। मैंने उसका कारण पूछा तो उसने कहा कि बीस साल से हम रिलीफ के मोहताज थे कि कभी-कभी चार किलो अनाज मिल जाता था पर अब इस जमीन की भरावट हो जायेगी और नई मिट्टी पड़ जायेगी तो मैं इस पर खेती कर सकूँगा और जरूरत भर अनाज पैदा कर लूंगा। मुझे तो मेरा जवाब मिल गया पर मेरा प्रश्न है कि क्या कोसी को मुक्त बहने देना समस्या का समाधान है या इसके लिये और भी कुछ किया जा सकता है। यह बात मेरे अभी तक समझ में नहीं आई। आप पुराना भी कुछ करना नहीं चाहते और नया कुछ बताना नहीं चाहते और बातें आइ.एम.एफ या वर्ल्ड बैंक की कर रहे हैं। हमारी अपेक्षा थी कि विशेषज्ञ लोग आएँगे-कुछ समाधान करेंगे, कुछ शोध पत्र पढ़े जायेंगे, दक्षिण एशिया नदी संकट पर कुछ पेपर रखा जाएगा-ऐसा तो यहाँ कुछ नहीं हो रहा है। केवल छिटपुट बातें हो रही हैं- कोसी का क्या किया जाए? ऊपर बाँध दिया जाय या तटबन्ध तोड़ दिया जाएं? क्या समाधान है आपके पास-वह बताइए।

श्री अजय दीक्षित ने जवाब में कहा कि कुछ प्रश्न स्थानीय स्तर के हैं जिसे मैं चाहूँगा कि यहाँ के स्थानीय लोग-मिश्र जी जैसे लोग उत्तर दें। जो सामान्य प्रश्न हैं उनका उत्तर देने का मैं प्रयास करूँगा। हमारे यहाँ कुलेखानी नदी पर एक बाँध है। इसका बेनिफीट कास्ट रेशियो 2.54 था। सन 1993 में हमारे यहाँ एक भीषण बाढ़ आई। उस बाढ़ में करीब 50 लाख घनमीटर बालू आया था और उसने इस बाँध को पाट दिया। इस बाँध का जीवन काल 100 वर्ष निर्धारित था जोकि एक ही बाढ़ में घट कर तीस साल का रह गया। उसका बेनीफिट काॅस्ट रेशियों फायदे से नुकसान में बदल गया। यह विश्व बैंक की रिपोर्ट है। हमलोगों ने जानना चाहा कि 13-15 साल पहले बनी योजना में ऐसा कैसे हो गया कि जो सौ साल तक फायदा होने वाला था वह 15 साल में ही नुकसान में कैसे बदल गया। हमलोगों ने उसकी डिजाइन को कुरेदना शुरू किया। यह डिजाइन जापान की थी और हमने जानना चाहा कि सिल्ट जमा होने के बारे में वह क्या कहते थे। जब हमने रिपोर्ट देखी तो उसमें स्पष्ट लिखा था कि बाँध में सिल्ट जमा होने की कोई समस्या नहीं होगी और उसका निष्कर्ष था कि सिल्ट के बारे में बेवजह परेशान होने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसके आगे उसमें लिखा है कि कुलेखानी में कितनी सिल्ट आती है इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, तो फिर आप बिना आंकड़े के यह कैसे कह सकते हैं कि सिल्ट की समस्या इस बाँध में नहीं आयेगी। यह बात अगर पहले से पता होती तो लोग जरूर आपत्ति करते पर अब वह क्या करें? पर हमारे लिये यह एक कड़वा यथार्थ है कि बाँध का जीवन काल प्रायः चौथाई हो गया। इसी तरह आपके यहाँ नेपाल से बिजली लाकर, मान लीजिये 6000 मेगावाट, बिहार की ग्रिड में जोड़ दी जाय तो क्या आपके पास इतनी क्षमता है कि आप इस बिजली को सही जगह पहुँचा सकें और उसका उपयोग कर लें। जहाँ तक हमारी जानकारी है कि आप चाहकर भी या उपलब्ध होने पर भी एक हजार मेगावाट से ज्यादा बिजली का उपयोग नहीं कर सकते। यह बात आपके नेताओं को कहनी चाहिये कि 3,300 या 6,000 मेगावाट बिजली का उपयोग करने के लिये हमें अभी से तैयारी करनी चाहिये पर वह ऐसा नहीं कहते। अतः मैं अपनी बात फिर दोहराऊँगा कि बिना राजनैतिक चिन्तन में परिवर्तन किये हुये विकास संभव नहीं है।

हमारे यहाँ तालाबों और झीलों की श्रृंखला नहीं पर सोते और झरने हैं उनसे सिंचाई करने का रिवाज है और नेपाल में जितनी भी सिंचित जमीन है उसका लगभग 20 प्रतिशत इसी प्रकार की प्रणाली से सिंचित होता है। इसमें सुधार करने और जिन्दा रखने के लिये बहुत प्रयास की जरूरत है और हमलोग यह करने की कोशिश कर रहे हैं।

इसे आप नेपाल का सौभाग्य कह सकते हैं कि तमाम कठिनाइयों के बावजूद नेपाल में सामाजिक वानिकी पर पिछले दस-पन्द्रह वर्षों में बहुत अच्छा काम हुआ है और इस पूरे कार्यक्रम पर हमारी पकड़ बनी हुई है। इस कार्यक्रम की सफलता का हम दावा कर सकते हैं यद्यपि यह मेरा विषय नहीं है।

छोटी नदियों की जो बात आई है तो यह निर्विवाद सत्य है कि बड़ी नदियों के मुकाबले छोटी नदियों से ज्यादा लाभ है लेकिन यह लाभ राज्य (state) के लिये ज्यादा नहीं है इसलिये छोटी नदियों को उतना महत्त्व नहीं मिल पाता।

फिर वह जो कोसी का प्रश्न कारू जी ने उठाया है कि उस समस्या का एक निश्चित विकल्प मैं उनको बता दूँ या कोई भी बता दे तो यह सम्भव नहीं है। आज से पचास साठ साल पहले किसी खास इंजीनियर ने बताया कि मैं बताता हूँ कोसी समस्या का समाधान और नदी पर बना दिये गये तटबन्ध जिसका रोना आज सभी रो रहे हैं। यह एक गलत बात है। कोई भी वैज्ञानिक नहीं कह सकता कि यह कर दो, वह कर दो। यह ठीक है और वह गलत है। क्या ठीक है या क्या गलत-इसका निर्णय वैज्ञानिक या इंजीनियर नहीं करेगा, इसका निर्णय समाज करेगा। विज्ञान केवल परिस्थिति का विश्लेषण कर सकता है, उपाय सुझा सकता है पर निर्णय नहीं सुना सकता। यह अधिकार तो समाज का ही है। किसी भी वैज्ञानिक से आप पूछेंगे कि क्या है समाधान तो वह यही कहेगा कि नहीं है समाधान पर वह जरूर आपके सामने वस्तु-स्थिति रखेगा।

श्री दिनेश कुमार मिश्र - आप कभी, किसी असाध्य रोग के इलाज के लिये डॉक्टर के पास किसी मरीज को लेकर गये हैं। अगर आपके पास यह अनुभव है तो क्या आपने डॉक्टर से गिड़गिड़ाकर नहीं कहा है कि डॉक्टर साहब! कुछ कीजिए। इलाज अगर नहीं है तो भी कुछ ऐसी दवा दीजिये कि रेागी को कुछ आराम हो जाये। आपने कभी उससे कहा है कि दवा है तो दीजिये, नहीं तो भाषण बाजी मत कीजिये। आप डॉक्टर से ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करते हैं? शायद इसलिये कि आपको डर रहता है कि एक दिन आपको भी कोई मरीज की शक्ल में कुर्सी पर ठेलता हुआ उसी डॉक्टर के पास न ले आये। आपकी विनम्रता आपकी मजबूरी है। तब अगर डॉक्टर कहता है कि कैन्सर का इलाज नहीं है, एड्स का इलाज नहीं है, गठिया का इलाज नहीं है, अमुक मर्ज का इलाज नहीं है तो भी आप गद्गद् भाव से लौटते हैं कि डॉक्टर तो बहुत अच्छा है पर जब मर्ज की दवा नहीं है तो डॉक्टर बेचारा कया कर लेगा।

यह संवेदना समाज में कभी इंजीनियर को मिलती है क्या? उसको तो जनता (पढ़ी लिखी और अनपढ़ दोनों) तथा स्वनाम धन्य नेता सभी हुक्म देने के आदी हैं। उसको तो एक दिन हुक्म मिलता है कि फलानी नदी की बाढ़ को रोक दो या अमुक जगह को बाढ़ मुक्त कर दो। और अगर वह दबी जबान से भी कहे कि ऐसा करने से परेशानियाँ और अधिक बढ़ जायेंगी तो उसके ऊपर सब सवार हो जायेंगे। हमारे यहाँ बहुत से नेताओं को ‘ना’ सुनने की आदत नहीं है और इंजीनियरों से तो हरगिज नहीं। सीधा फिकरा कसते हैं कि तुमको किसने इंजीनियर बना दिया। यही बात जरा वह एक बार डॉक्टर से कह कर देंखे। डाक्टरों की बात छोड़ दीजिये-एक बार वकीलों से ही कुछ उल्टा सीधा कह कर देख लें। समाज का हर सदस्य व्यक्गितगत रूप से ऐसे पेशेवर लोगों से डरता है जिससे उसका सामना होने का अंदेशा रहता है। इंजीनियर इस कोटि में नहीं आते।

एक फर्क और है अगर डॉक्टर गलती करे या इन्जीनियर-उसमें डॉक्टर की गलती से उसका मरीज मर सकता है जिसकी यादगार के सभी चिन्ह दो दिन के अन्दर आग या मिट्टी को भेंट कर दिये जाते हैं और अगर इंजीनियर कोई गलती करता है तो उसका निशान मिटता नहीं है। आपने कल से आज तक कितनी बार सुना होगा कि जाकर देख आइये कोसी बाँध। यह गलती पचास साल पहले हुई थी और सैंकड़ों साल तक अपनी कहानी कहने के लिये किसी न किसी शक्ल में कोसी बाँध जिन्दा रहेगा। इंजीनियरों को हमेशा दबाव में काम करना पड़ता है और समाज को उनकी दलील सुनने का धैर्य नहीं है। वह निर्णय अफरा-तफरी में लेता है। एक ओर दबाव और दूसरी ओर आकस्मिकता-ऐसे में जो समाधान मिलता है वही कोसी तटबन्ध है। जब दबाव, आकस्मिकता और सामाजिक अकृतज्ञता या तिरस्कार किसी पेशे का स्थायी भाव हो तो उसमें से निहित स्वार्थों का एक तबका तैयार हो जाय तो क्या आश्चर्य है। यह परिस्थतियाँ ही ऐसी हैं जिसमें स्वस्थ चिन्तन उभर ही नहीं सकता।

जब देवन जी के गाँव के पास का बूढ़ा तटबन्ध कटने पर अपना बहता हुआ घर देखकर खुश है तो समाधान तो कारू जी खुद बता रहे हैं। अन्तर केवल इतना है कि यही बात अगर हम मंच पर कहें तो केवल जनरलाइजेशन का खतरा रह जाता है। तब जहाँ तटबन्ध काम का भी होगा तो भी लोग उसे भी काट देंगे। जनरलाइजेशन की बात मैं इसलिये उठा रहा हूँ कि एक बार कोसी पर तटबन्ध बन जाने के बाद सभी जगह इसी फार्मूले में तटबन्ध बना दिये गये थे।

जहाँ तक विकल्प का प्रश्न है तो कोसी तटबन्ध का विकल्प इंजीनियर/नेतागण कोसी हाई डैम बताते हैं। यह तीन शब्दों का विकल्प है जिसके बनने में कम से कम तीस साल लगेंगे, यदि कोई विघ्न न पड़ा तब। तीस साल तक आप क्या करेंगे? इस हाई डैम से भी बाढ़ नहीं रुकेगी- इस पर काफी चर्चा पिछली साल निर्मली सम्मेलन में हुई थी। हमलोगों का दामोदर नदी के बाढ़ क्षेत्र का बड़ा पुराना और समृद्ध अनुभव था जिसे अंग्रेजों ने समाप्त कर दिया। मैं उसके बारे में थोड़ा बताता हूँ। अंग्रेजों ने तो इस नदी को ‘बंगाल का शोक’ घोषित कर दिया था।

शुरू-शुरू में भारत आने वाले अंग्रेज बुनियादी तौर पर व्यापारी अथवा नाविक थे। सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण से उनका दूर-दूर तक का वास्ता नहीं था। चौदहवीं शताब्दी में फिरोजशाह तुगलक द्वारा बनाई गई यमुना नहर को देख कर उन्हें सिंचाई के माध्यम से कुछ अर्थ लाभ की सूझी जिसके चलते उन्हें सिंचाई का तंत्र सीखना और विकसित करना पड़ा। गंगा और ब्रह्मपुत्र घाटी में बाढ़ की स्थिति देखकर उनको लगा कि यदि नदियों को नियंत्रित कर दिया जाए तो कुछ आमदनी बाढ़ नियंत्रण के नाम पर कर ली जायेगी और बाढ़ मुक्त क्षेत्र में सिंचाई की व्यवस्था करके उनके जखीरे थोड़ा और बड़े हो जायेंगे। केवल सिंचाई के लिये जहाँ उन्होंने यमुना, गंगा और सिन्धु घाटियों में पहल की वहीं सन 1854 में बाढ़ नियंत्रण के लिये उन्होंने बंगाल की दामोदर नदी को चुना। उनको लगा कि दामोदर की चंचलता समाप्त करने के लिये उसके दोनों किनारों पर तटबन्ध बनाये जा सकते हैं सो उन्होंने बना दिये। सन 1857 के ‘गदर’ के बाद किसी भी विद्रोह को दबाने के लिये उन्हें सड़कों और रेल लाइनों का विस्तार करना पड़ा। तब उन्होंने ग्राण्ड ट्रंक रोड को चौड़ा और मजबूत किया और आसनसोल-हावड़ा रेल लाइन का काम हाथ में लिया। सन 1860 ई. में यह रेल लाइन बनकर तैयार हुई और अगले वर्ष 1861 में बर्द्धमान जिले में महामारी के तौर पर मलेरिया फैला जिसका उस समय अंग्रेजी इलाज नहीं था। कारण था कि रेल लाइन के कारण वर्षा के पानी की निकासी अवरुद्ध हो गई थी जो कि मच्छरों के विकास के लिये एक माकूल परिस्थिति थी। उधर तटबन्धों के अन्दर बाढ़ का लेवेल अप्रत्याशित रूप से बढ़ा जिससे तटबन्धों पर खतरा आया और वह टूटे। इसके अलावा जनता ने भी कई जगह पर तटबन्ध काटे। कुल मिलाकर एक घोर अराजक स्थिति पैदा हो गई।

वास्तव में दामोदर घाटी के निवासियों की बाढ़ से निपटने की एक अपनी व्यवस्था थी जिसके पीछे उनका सदियों का अनुभव था। उन्होंने दामोदर नदी के दोनों किनारों पर मेंड़ नुमा छोटी ऊँचाई के तटबन्ध बना रखे थें जब बरसात शुरू होती थी तब खेतों में पानी जमा होता था जिसमें धान छींट दिया जाता था। ठहरे पानी में धान की पौध बढ़ती थी और उसी के साथ मच्छरों के अण्डे भी बढ़ते थे। उधर मेंड़नुमा तटबन्धों के बीच नदी भी चढ़ती थी। रोपनी होने तक या तो पानी के दबाव के कारण तटबन्ध खुद टूट जाते थे या बहुत सी जगहों पर काट दिये जाते थे। अब नदी का गादयुक्त पानी खेतों की ओर चलता था और उसी के साथ छोटी-छोटी मछलियाँ भी बह निकलती थीं और एक सिरे से मच्छरों के अण्डों को खा जाती थी। अब मछलियाँ और धान दोनों साथ-साथ बढ़ते थे। नदी का पानी जब-जब छलकता तो खेतों की तरफ आता था और कभी अधिक दिनों तक बरसात नहीं हुई तो स्थिति से निबटने के लिये पोखरों की एक लम्बी श्रृंखला थी-घर-घर के आगे तालाब था जो कि सिंचाई के लिये पानी का स्रोत और मछलियों के लिये आश्रय का काम करता था। इस वजह से मलेरिया का नामोनिशान नहीं था और धान की अच्छी फसल और मछलियों की बहुतायत तयशुदा थी। बारिश खत्म हो जाने पर नदी पर छोटे तटबन्ध फिर बना दिये जाते थे। यही कारण था कि दामोदर घाटी का बर्द्धमान जिला देश के सबसे कृषि समृद्ध क्षेत्रों में गिना जाता था।

अंग्रेज जीवन निर्वाह की इस विधा को समझ नहीं पाये और उन्हें लगा कि ‘असामाजिक तत्व’ तटबन्धों को काट देते हैं। इसके अलावा ग्राण्ड ट्रंक रोड और आसनसोल-हावड़ा रेल लाइन के विकास के साथ इन्हीं के समान्तर ईडेन कैनाल बनाई गई। यह सारी संरचनाएं पूरब-पश्चिम दिशा में थी और जमीन का ढाल दक्षिण से उत्तर की ओर, जिसकी वजह से बरसात के मौसम में बहते पानी के सामने ईडेन कैनाल, आसनसोल-हावड़ा रेल लाइन, जी.टी. रोड तथा दामोदर नदी के दोनों तटबन्धों की शक्ल में पाँच ‘भुतही दीवारें’ एक के बाद एक करके खड़ी थीं। अब कम्प्नी बहादुर एक को बचायें तो दूसरी टूटती थी। पैबन्द लगाते-लगाते उनकी नाक में दम हो गया।

दामोदर नदी पर बने तटबन्ध के कारण बाहर का पानी नदी में नहीं जा सका, जिससे तथाकथित सुरक्षित क्षेत्रों में भयंकर तबाही हुई और तटबन्धों के कारण अन्दर का बाढ़ का लेवेल बेकाबू हो गया। आखिरकार अंग्रेजों ने तटबन्ध तोड़ना शुरू किया और सन 1869 में ही दाहिने किनारे की 32 किलोमीटर लम्बाई में उसे ध्वस्त कर दिया। ईडेन कैनाल से होकर जल निकासी की व्यवस्था की, रेलवे लाइन और जी.टी. रोड में पुलों और कलवर्टों का निर्माण किया और भविष्य में बाढ़ नियंत्रण के लिये कभी भी नदी को हाथ न लगाने की कसम खाई जिसका निर्वाह उन्होंने 1947 तक किया।

अंग्रेजों ने एक स्थापित तनकीक का विकल्प समझ कर ही यह सब काम किया था और इस प्रयास में बुरी तरह असफल रहे। उन्होंने इस संबंध में इतना ही ठीक किया कि इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया और जब उन्हें लगा कि काम गलत हो रहा है तो उसे तुरन्त बन्द कर दिया।

स्वतंत्र भारत में हमलोग ऐसा नहीं करते। अगर गलत काम हो जाता है तो वह प्रतीष्ठा का प्रश्न बन जाता है और उसे किसी भी कीमत पर जारी रखना है। बिहार में तटबन्धों के साथ यही हुआ।

दूसरी बात यह है कि यदि कोई विकल्प दिखाई पड़ता है उसे लागू कौन करता है? बद्धर्मान की बाढ़ से निबटने की व्यवस्था की प्रशंसा विलबर्न इंगलिस (अविभाजित बंगाल के भूतर्पूव मुख्य अभियंता) से लेकर विलियम विलकाॅक्स तक सभी ने मुक्त कंठ से की। विलबर्न इंगलिस तो मुख्य अभियंता भी रह चुके थे और इस काम का वह पुनर्स्थापन भी कर सकते थे पर नहीं किया। कारण शायद यह था कि इसके लिये उन्हें व्यवस्था से लड़ना पड़ता और जो आदमी इतने बड़े ओहदे पर पहुँच जाता है वह अवकाश प्राप्ति के आद अपने भावी जीवन के बारे में ज्यादा सोचता है। उसकी पेंशन, उसकी ग्रेच्युटी, उसका प्राविडेन्ट फंड और विभाग में फिर से सलाहकार के रूप में पुनर्स्थापन आदि उसके लिये कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। व्यावहारिक आदमी किसी झमेले में नहीं पड़ना चाहता। दुर्भाग्यवश, पूरे विभाग में वही एक ऐसा आदमी है जो कि लोगों के लिये कुछ कर सकता है। विलर्बन इंगलिस के सामने रार्बट ग्रीन केनेडी की मिसाल थी जिसको ब्रिटिश सरकार ने बेपानी कर दिया था। केनेडी की गलती इतनी ही थी कि उसने कहा था कि नहरों से जो पानी छोड़ा जाता है उसका केवल 28 प्रतिशत खेतों तक पहुँचता है और बाकी रास्ते में रह जाता है तथा जल जमाव का कारण बनता है और अगर सरकार खेतों तक पानी पहुँचाने का श्रेय लेती है और उसके लिये पैसा लेती है तो उसका यह भी फर्ज बनता है कि वह जल-जमाव का निवारण करे।

अभी कुछ दिन पहले हमने श्री जोगेन्द्र सिंह (भूतपूर्व निदेशक-सी.बी.आई.) का एक लेख पढ़ा। उनक कहना था कि जो आदमी सरकारी नौकरी करता है उसकी रीढ़ की एक हड्डी हर साल गल जाती है और अगर वह तीस साल नैकरी कर ले तो उसकी रीढ़ की हड्डी बचती ही नहीं है। ऐसा आदमी व्यवस्था के बहुत काम का होता है। शायद यही कारण है कि प्रशासन के लोग अच्छा-बुरा सब समझते हैं। पर जब काम करने की बात आती है तब वह बेअसर साबित होते हैं। फिर कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह सौ साल पहले के विलबर्न इंगलिस हों या आज का कोई मुख्य अभियंता हो।

इसलिये विकल्प कोई ऐसी चीज नहीं है कि जिसे आप बाजार से जाकर खरीद लें और विकल्प अगर इतना सस्ता और सुलभ हो तो वह कभी भी लेने लायक नहीं हो सकता। कोसी के तटबन्ध इसका उदाहरण है। जब हम विकल्प की बात करते हैं तो हम एक साधना की बात उठाते हैं।

सुश्री जया मित्र (कलकत्ता) कल से ही मैं नदियों और जल संसाधनों के बारे में सुन रही हूँ और मेरी जानकारी काफी बढ़ी है। हमारा भारत एक कृषि प्रधान देश है और इसमें बहुत रूपों में पानी का उपयोग होता है जिनमें से हमें एक अच्छे और सुलभ विकल्प की तलाश है। यह तय है कि हमारी पिछली पीढ़ियों के पास पानी के उपयोग के बहुत अच्छे साधन रहे होंगे तभी तो हम आज यहाँ तक पहुँचे हैं। पर यह जो वार्तालाप चल रहा है उसमें कुछ द्वन्द्व सा उभरता है कि पीछे जाने की संभावना नहीं दिखती और आगे का कोई स्पष्ट रास्ता भी नहीं मिलता। तब किया क्या जाये। पुराने रास्ते पर तो चाहें तो भी नहीं जा पायेंगे पर आगे वाला रास्ता भी है या नहीं इसी पर विवाद है। फिर भी पुरानी चीजों का जानना बहुत जरूरी है।

नये रास्ते की अड़चनों को भाई अजय दीक्षित ने बड़ी खूबी से जाहिर किया है और उनकी यह बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि जहाँ इस तरह के नये प्रयोग होते हैं, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वहाँ भी समाज रहता है। पश्चिमी सभ्यता की शिक्षा और विकास आदि शब्दों की अपनी परिभाषा है। विकास की उनकी परिभाषा में आम आदमी की जगह नहीं है और तब जब हम यह कह सकते हैं कि हमें हाई-डैम नहीं चाहिये तब हम तुरन्त विकास विरोधी करार दे दिये जाते हैं। परन्तु हमारे प्रश्न का तो फिर भी जवाब नहीं मिलता कि आप किसका विकास करना चाहते हैं और किसकी कीमत पर करना चाहते हैं।

पंचेश्वर में बताया गया कि पाँच नदियों का संगम है और वहाँ एक बड़ा बाँध बनने वाला है जिससे करीब 6000 मेगावाट बिजली पैदा होने का अनुमान है। यह बाँध अगर बन भी जाय तो हम जिसे अन्तिम व्यक्ति कहते हैं उसको क्या फायदा होगा। यह बिजली पैदा होने में ही तो एक युग बीत जायेगा। ऐसा ही वायदा एक बार हमसे दामोदर घाटी के बाँधों के निर्माण के समय किया गया था। हमारे यहाँ मैथान बाँध है जिसके निर्माण के समय पूरे इलाके के जंगल साफ कर दिये गये। बिजली-पानी का भगवान मालिक है। मेरे सामने उड़ीसा के कालाहाण्डी का उदाहरण है। कभी कालाहाण्डी में पाँच नदियाँ बहती थीं। कोई तीस साल पहले वहाँ एक बड़ी सी हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजना इन्द्रावती नदी पर शुरू करने का प्रस्ताव किया गया। यह एक आदिवासी इलाका था जिसकी आवाज उठाने वाला या उनके हक की लड़ाई लड़ने वाला कोई नहीं था। एक और बिजली उत्पादन की बात थी तो दूसरी ओर यह भी आवश्वासन था कि पूरे कालाहाण्डी जिले को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो जायेगी।

अब वहाँ की नदियाँ सूख चुकी हैं। प्रशासन में भी बहुत लोगों को उन नदियों की जानकारी तक नहीं है। तब जब हम कहते हैं कि हम बाँध का विरोध करते हैं तो जहाँ तक इसके खिलाफ लड़ सकते हैं लड़ेंगे। क्योंकि हम अपने लोगों को गंवार, जाहिल, अविकसित, जंगली अब मानने के लिये तैयार नहीं है। हम चाहते हैं कि ऐसे लोगों के पास जो अभिज्ञता थी, जो ज्ञान था, जो अनुभव था, उसका संकलन हो और उसे समाज के उपयोग में लाया जाय। अभी हाल के जल संसाधनों के विकास या बाढ़-नियंत्रण की स्थिति का जायजा लें तो पता लगता है कि जितना ज्यादा सरकार धन का व्यय कर रही है उतना ही ज्यादा बाढ़ आ रही है या फिर सूखा ज्यादा प्रखर हो रहा है। अपनी प्राचीन व्यवस्था में जमीन/जंगल और जल सुरक्षित था और बरसात के मौसम पर उतना आश्रित नहीं था। वह चाहे राजस्थान की नाडियां हों, बंगाल के पुकुर हों या आंध्र/तमिलनाडु या कर्नाटक् के तालाब-बरसात के बाद इस पानी का उपयोग होता था और राजस्थान में भी कोई प्यासा नहीं रहता था। इन तालाबों से दो फायदे होते थे, एक तो एक ही बार में सारा का सारा पानी नदी में नहीं पहुँच पाता था जिससे बाढ़ का थोड़ा बहुत नियमन हो जाता था और दूसरा कि बरसात के बाद पानी की कमी नहीं होती थी। पर अब दिक्कतें सामने आ रही हैं।

बंगाल में क्या था? चारों तरफ हर घर के सामने तालाब थे। अब शहर बढ़ रहा है। तालाब पाट कर घर बन रहे हैं- कहाँ जायेगा पानी। उसे तो कोई रास्ता चाहिये। जब तक हम अपने संसाधनों की समुचित रक्षा नहीं करेंगे-कष्ट भोगेंगे। बंगाल में पूरब में फरक्का और पश्चिम में डी.वी.सी. ने मिलकर क्या-क्या तबाही नहीं मचाई। अकेले, मुर्शिदावाद जिले में, मैंने खुद जाकर देखा है कि, प्रायः 2600 वर्ग किलोमीटर भूमि कटाव और बालू पड़ने से बरबाद हो गई है। मैं अपनी तरफ से, और मुर्शिदाबाद के उन उजड़े हुये बांशिदों की तरफ से उन लोगों से प्रश्न करती हूँ-जो सत्ता में हैं, जो क्षमता में हैं, जो प्रशासन में हैं कि आपलोग कौन होते हैं इस तरह का विकास हम पर लादने वाले। हमको यह विकास दीजिये जो जनता चाहती है क्योंकि सारी दुनियां में दो प्रकार की तकनीक है- एक है प्रकृति से कम से कम टकराव- जैसे आप किसी से उधार लेते हैं तो केवल उतना ही जितना आपकी क्षमता में है, जितना आप लौटा सकें। दिनेश जी बता रहे थे दामोदर के बारे में। नदी के किनारे छोटी से मेंड़ बनाई, बरसात में उसे काट दिया और बरसात के बाद फिर वापस पहले जैसा कर दिया। सब कुछ अपनी सामर्थ्य और जरूरत भर। बस।

दूसरी तकनीक है सत्ता की- जनता से कटी हुई। धन से सम्पन्न, बड़े बाँधों की तकनीक, फरक्का बराज की तकनीक, 10,800 मेगावाट की तनकीक, गंगा को कावेरी से जोड़ने की तकनीक और न जाने क्या-क्या। इन्हीं दो के बीच हमारा विकल्प है। हम उसी विकल्प को चुने जिसमें हमारे समाज का व्यापक हित निहित है।

इसके अलावा सूचनाओं के अधिकार का प्रश्न है। यह हमारे लिये दुर्लभ चीज बन गई है। जो सूचना मिलती भी है उसकी विश्वसनीयता सिद्ध नहीं होती। जहाँ बाँध, कारखाना, बिजली घर या ऐसा कोई प्रकल्प बनने वाला होता है वहाँ लोगों को पता ही नहीं होता कि वहाँ क्या बनने वाला है और जो भी जानकारी मिलती है वह या तो गलत होती है या अधूरी होती है। बस आश्वासन मिलते हैं कि यहाँ सब को नौकरी मिलेगी आदि आदि। यह कभी नहीं बताया जाता कि आपके गाँव को हटना पड़ेगा, पुनर्वास के बारे में नहीं बताया जाता। अपनी नई तकनीक से हमें अधिक सूचनायें एकत्रित करनी चाहिये और किसी भी लड़ाई के साथ सूचना पाने के अधिकार को हमें अवश्य मुद्दा बनाना चाहिये।

मैं यहाँ बहुत कुछ जानने और सीखने के लिये आई थी और यहाँ के सम्पर्क और बात-विचार से संतुष्ट होकर जाऊंगी ऐसी आशा करती हूँ।

डॉ. बासुदेव दे (बर्द्धमान-पश्चिम बंगाल) - मैं पश्चिम बंगाल के बर्द्धमान जिले से आया हूँ। बर्द्धमान, बांकुड़ा, हुगली और हावड़ा जिलों के कुछ हिस्सों से होकर दामोदर नदी बहती है। वर्तमान समय में दामोदर नदी के कटाव से बर्द्धमान जिले के नदी के किनारे बसने वाले बहुत से किसान अपनी उपजाऊ जमीन से हाथ धो बैठे हैं जबकि हावड़ा और हुगली जिलो में वर्ष के छः महीने में खेती की जमीन एक बड़े हिस्से में जल-जमाव का कारण डूबी रहती है।

दामोदर घाटी निगम (दाघानि) और पश्चिम बंगाल सरकार नदी के इस कटाव और जल जमाव के कारण पानी में डूबी रहने वाली जमीन के प्रति पूरी तरह से उदासीन है। सरकार बाढ़ और सूखे के समय किसानों को कुछ राहत बांट कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। पानी में डूबी हुई जमीन और कटाव के कारण नष्ट हुई जमीन का कोई मुआवजा किसानों को नहीं दिया जाता।

अब तक दामोदर और उसकी शाखा नदियों पर कुल मिला कर पाँच बाँध तैयार हुये हैं और यह सब से सब शहरी या औद्योगिक क्षेत्रों को लाभ पहुँचाते हैं। सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण के क्षेत्र में दाघानि की उपलब्धि बड़ी सीमित रही है। नौ-परिवहन और मत्स्य पालन के क्षेत्र में कुछ भी नहीं हुआ और जल-विद्युत का भी बड़ा सीमित उत्पादन हुआ है।

नदी द्वारा उपजाऊ कृषि भूमि के कटाव से सुरक्षा के क्षेत्र में इन बाँधों की कोई भूमिका ही नहीं है। इन तकलीफों के प्रति जब दाघानि के अधिकारियों और सरकार का ध्यान आकृष्ट करवाया जाता है तो उनका सीधा जवाब होता है कि उनके लिये दाघानि के अन्य बाँधों का बिहार में निर्माण कार्य पूरा किया जाना ज्यादा जरूरी है परन्तु बिहार सरकार की रुचि अब इस कार्य में नहीं है। फलस्वरूप न तो नया काम हो पाता है और न ही हमारी समस्याओं का समाधान हो पाता है। हमलोगों ने सोच लिया है कि जैसे बाढ़ हमारी किस्मत में थी उसी प्रकार यह दुःख-दर्द भी अब हमारे जीवन के अंग हैं। भागलपुर विश्वविद्यालय के एक भूतपूर्व प्राध्यापक श्री नागेश्वर प्रसाद, जो कि सम्प्रति बर्द्धमान विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं, ने एक शोध पत्र लिखा है कि कोनार सिंचाई परियोजना का पूरा लाभ उठाने के लिये वहाँ एक बाँध बनना बहुत जरूरी है। बाढ़ मुक्ति अभियान के निर्मली सम्मेलन में श्री भोला प्रसाद सिंह ने पलामू इलाके के छोटे-छोटे बाँधों की निर्माण की बात कही है। यदि संसाधन उपलब्ध हों तो हम भी अपने क्षेत्र में ऐसा ही काम करना चाहेंगे।

बाढ़ मुक्ति अभियान को दामोदर नदी के बारे में अच्छी जानकारी है ऐसा उनके प्रकाशनों से लगता है। हम आशा करते हैं कि बिहार की जनता हमारे लिये कुछ करेगी और ध्यान देगी। बाढ़ के समय यदि बिहार अपने बाँधों में कुछ पानी को रोककर रखे तो हमारे यहाँ निम्न दामोदर और दक्षिण दामोदर के इलाके बाढ़ की चपेट में आने से बच जायेंगे और बरसात के बाद बिहार और बंगाल दोनों प्रान्तों के लोग अपने-अपने क्षेत्रों में पानी का उपयोग कर सकते हैं। बिहार के पठारी इलाकों में छोटे-छोटे बाँध बनाये जा सकते हैं। इसलिये हमलोग सम्मिलत रूप से दामोदर और उसकी शाखा नदियों के ऊपर छोटे-छोटे बाँधों की एक परिकल्पना का प्रस्ताव करते हैं।

पश्चिम बंगाल के दामोदर क्षेत्र की स्थिति बड़ी विचित्र हो गई है। दाघानि तो केवल शहरी और औद्योगिक क्षेत्र के लिये है। दामोदर के ऊपरी क्षेत्रों की जमीन दाघानि के विकास कार्यक्रमों के लिये किसानों से अधिग्रहित कर ली गई थी जो इस बेदखली के कारण वंचित हुये हैं और निचले इलाकों के किसान बाढ़ और जल जमाव के कारण वंचित हुये हैं। क्योंकि हमारी कोई सुनने वाला नहीं है, न दाघानि के अधिकारी और न ही सरकार, तो इस सम्मेलन में नदी समस्या से निपटने का कोई सिद्धान्त लिया जाता तो हमलोगों का बड़ा उपकार होता।

श्री प्रियदर्शी (पटना) - मैंने देश के अन्दर बहुत सी पानी वाली परियोजनाओं के क्षेत्रों का भ्रमण किया है। आप लोग जब कोसी क्षेत्र की दुर्व्यवस्था और पुनर्वास की विसंगतियों को उजागर करते हैं तो मेरी उससे सहमति है। आप जब गण्डक क्षेत्र में जल जमाव की बात करते हैं तब भी मुझे लगता है कि आप सही मुद्दा उठा रहे हैं। गण्डक नहरें मगर उत्तर प्रदेश वाले क्षेत्र में बेहतर काम कर रही है। उत्तर प्रदेश की नहर व्यवस्था वैसे भी यहाँ के मुकाबले बहुत पुरानी और बहुत अच्छी है। वहाँ का साधारण किसान भी कम दर पर अच्छा चावल प्राप्त कर लेता है जबकि बिहार में वह स्थिति नहीं है। यहाँ कृषि उत्पादन 7 प्रतिशत है जबकि यू.पी. में यह 20 प्रतिशत तक होता है। इसी तरह की कैनाल व्यवस्था मैंने कश्मीर में भी देखी है जो कि सक्षम रूप से काम करती है। एक बार मैं वहाँ गया था तो लगा कि यहाँ कुछ भी हो जाय अनाज की कमी नहीं होने वाली है। लोग अपने लिये यथेष्ट उत्पादन कर ही लेंगे। हमलोगों की हमेशा यही आकांक्षा रहती है कि लोग जिस तरह से आज रह रहे हैं उससे और बेहतर तरीके से रहे, क्योंकि इसी तरह सभ्यता का विकास होता है। सभ्यताओं का विकास तो नदियों के किनारे हुआ है और नदियों को अनुकूल बनाने के कारण हुआ है। इसीलिये नदियों की इतनी स्तुति-वंदना होती है।

नर्मदा परियोजना में आदिवासी लोग अपने पुनर्वास से खुश हैं और वहाँ पुनर्वास की एक अच्छी नीति बनी है। आदिवासी लोग भी अब बेहतर जीवन की आकांक्षा रखते हैं और वह एन्थ्रोपोलॉजी और अध्ययन का विषय बन कर नहीं रहना चाहते। नर्मदा में भी विरोध तब शुरू हुआ जब मध्य प्रदेश में पानी फैलने लगा। गुजरात तक तो सब ठीक ही था। मध्य प्रदेश के कुछ गाँवों में मैंने भी जाकर देखा था कि वहाँ आंदोलनकारियों और आदिवासियों की बात में अन्तर था। डूब जायेंगे पर जगह नहीं छोड़ेंगे जैसी काई बात यहाँ नहीं थी और उनका मानना था कि यदि पुनर्वास की व्यवस्था ठीक हो जाती है तो उन्हें वहाँ से हट जाने में कोई खास परेशानी नहीं थी। अब जहाँ मान लीजिये एक लाख लोगों का विस्थापन होता है वहाँ तो सावधान रहने की जरूरत है पर जहाँ छोटे-मोटे काम हो रहे हैं वहाँ भी विस्थापन होगा ही। ऐसी स्थिति में अगर विस्थापन एकदम नहीं होने देना है तब तो कोई योजना बनेगी ही नहीं और ऐसा कोई भी नहीं कहेगा। यदि डवलपमेन्ट के बिना कोई डवलपमेन्ट का काम होता है और वहाँ जो आपका विश्लेषण और विरोध होता है उससे हमारी पूरी सहमति है पर केवल विरोध के लिये जो विरोध होता है वह चिन्ता का विषय है। कोसी के बारे में एक बार फिर हम अपनी सहमति जताते हैं।

एक बात और है कि बड़े बाँधों के प्रसंग में बेनिफिट कॉस्ट रेशियो का प्रश्न उठा। मान लीजिये इस क्षेत्र में कुछ पेड़ आते हैं और उसकी कीमत एक लाख रुपये आंकी जाती है और आप कहते हैं कि नहीं दस लाख रुपये हैं और इसे मान लिया जाता है तब आप कहिये कि इन पेड़ों के कारण और भी पौधे पैदा होते हैं इसका भी दाम लगाईये, आदि। तब यह मामला अन्तहीन हो जाता है।

भूकम्प की बात उठती है। तीन संस्थाओं की राय ले लीजिये। दो का कहना है कि भूकम्प नहीं आ सकता है और एक ने कहा कि आ सकता है। तीनों एक्सपर्ट हैं। अब आप क्या करेंगे। फिर जब युद्ध के खतरों की बात करते हैं तो आप निश्चित रूप से बहस का रुख मोड़ने की कोशिश करते हैं क्योंकि आज के युग में जब सभी हथियार लिये बैठे हैं तब यह खतरा कोई भी मोल लेना नहीं चाहेगा कि बाँध को किसी ऐसे आयुध से ध्वस्त करो। एक बार को यह माना जा सकता है कि हिमालय में भूकम्प निश्चित रूप से आयेगा पर युद्ध में कोई बाँध नष्ट होगा यह संभव नहीं दिखता।

मैं चाहूँगा कि मिश्र जी मेरे इस वक्तव्य पर अवश्य टिप्पणी करें।

श्री दिनेश कुमार मिश्र - प्रियदर्शी जी ने बहुत अच्छा किया बहुत से प्रश्न उठाये। पहली बात मैं पुनर्वास की करता हूँ। हमारे यहाँ केन्द्र में एक जल संसाधन मंत्री हुये थे डॉ. के.एल. राव जो कि नेहरू जी और इन्दिरा जी के समय बहुत सक्षम मंत्री थे और बहुत सी परियोजनाओं के जनक तथा बहुत सी योजनाओं के समर्थक। बहुचर्चित गंगा-कावेरी लिंक का प्रस्ताव भी उन्हीं का बनाया हुआ था। कोसी योजना की स्वीकृति में उनका बहुत बड़ा हाथ था। शायद 1964 की बात है। डॉ. राव एक बार भाखड़ा बाँध देखने गये और वहाँ कुछ गाँव वालों ने उनसे मिलने का आग्रह किया और उनसे अपने गाँव चलने को कहा। यह एक पुनर्वास बस्ती थी। राव साहब को इस बस्ती को देखकर बड़ा दुःख हुआ क्योंकि गाँव के जिस विस्तृति की उनकी कल्पना थी वैसा यहाँ कुछ भी नहीं था। सभी कुछ किसी शहर की गन्दी बस्ती जैसा। गाँव वालों ने बहुत बातें की और चलते वक्त उनसे कहा कि हमारे गाँव में बिजली लग जाती तो बड़ी कृपा होती। राव साहब ने आश्वासन दिया कि यह काम वह अवश्य करवा देंगे। पर वापस आकर जब उन्होंने भाखड़ा-व्यास बोर्ड के प्रबन्ध निदेशक को यह बात बताई तो उसने साफ मना कर दिया कि इस तरह का कोई प्रावधान उनके बजट में नहीं है। राव साहब ने अपनी आत्मकथा ‘‘दी क्यूसेक कैंडीडेट’’ में लिखा है कि मैं मंत्री था फिर भी यह छोटा सा काम मैं नहीं करवा पाया। पुनर्वास संक्षेप में यही है। उस समय राव साहब को कोसी का ख्याल नहीं आया जहाँ 1,92,000 लोग तटबन्धों के बीच फस गये थे और उनका पुनर्वास बड़े बेमन से किया जा रहा था। आज की तारीख में तो कोसी पुनर्वास का कोई मतलब ही नहीं है।

नर्मदा की तो हमने केवल कहानियाँ सुनी हैं और मोर्स कमेटी की रिपोर्ट के बारे में कुछ-कुछ जानते हैं जिसमें सरदार सरोवर पर काम पुनर्वास की विसंगतियों के कारण ही रुका था। इस पर कोई दूसरा आदमी उत्तर देता तो अच्छा था।

पुनर्वास का मसला कोई खास नहीं होता है। केवल आज और कल का फर्क है। लोग आज पुनर्वास माँगते हैं और सरकार कल यह काम करने का वायदा करती है। जिसने कल पुनर्वास लेने का निश्चय कर लिया वह सारी उम्र घूमता रह जायेगा। कोसी वालों के साथ यही हुआ। आज अगर नर्मदा से प्रभावित लोग पुनर्वास की लड़ाई जीत भी रहे हैं तो उसकी बुनियाद यहीं कोसी या दामोदर के प्रकल्पों में रखी गई थी। हमारा कहना सिर्फ इतना है कि मैं चाहे छोटा आदमी हूँ या बड़ा आदमी, मेरी कोई भी धर्म या जाति हो, जब मैं उजड़ता हूँ तो सरकार का यह फर्ज बनता है कि मुझे कम से कम मेरी पुरानी हालत में रहने का हक दे। इतनी सी बात के लिये कितनी लड़ाइयाँ लड़ी गईं। अब अगर पलामू के औरंगा जलाशय में लाह के एक पेड़ या महानन्दा क्षेत्र में शीशम के पेड़ की मालियत एक रुपये रखी जाय तो आप हमें क्या करने की सलाह देंगे।

दूसरी बात आपने कास्ट एनालिसीस की उठाई है। हमने कुछ परियोजनाओं की स्टेटस रिपोर्ट यहाँ चार्ट में लगा रखी है। आप अगर इससे खुश हैं तब हमें कुछ नहीं कहना है।

रही भूकम्प की बात तो हमारे एक हितैषी मित्र हैं प्रो. शिवाजी राव। कभी टेहरी बाँध की भूकम्प में रिव्यू करने वाली कमेटी के सदस्य थे। बाद में अन्य सदस्यों से तीव्र मतभेद के कारण वह कमेटी छोड़ दी। उन्होंने एक पुस्तक लिखी है ‘‘Tehri Dam is a Time Bomb’’ उसमें उन्होंने भूकम्प के मसले की अच्छी मीमांसा की है। उन्होंने लिखा है कि टेहरी बाँध के साथ अगर कोई दुर्घटना होती है तो पानी आंधे घंटे में ऋषिकेश को साफ कर देगा और हरिद्वार का निशान डेढ़ घन्टे में मिट जायेगा। फिर यह पानी दिल्ली, इलाहाबाद, फतेहपुर होता हुआ बलिया तक प्राणघातक उपद्रव मचायेगा जो कि पश्चिम बंगाल में गंगा सागर तक चलेगा। मैंने एक बार प्रो. शिवाजी राव से पूछा कि दिल्ली तो ठीक है देश की राजधानी है जिसकी चिन्ता सब को होनी चाहिये पर आप इलाहाबाद, फतेहपुर या बलिया के बारे में चिन्तित क्यों हैं। उन्होंने बताया कि यह सब प्रधान मंत्रियों के चुनाव क्षेत्र हैं। कुछ नहीं तो उन्हें अपने चुनाव क्षेत्र की चिन्ता अवश्य करनी चाहिये। टिहरी बाँध को अगर कुछ होता है तो राम जन्मभूमि भी नहीं बचेगी- उसके बारे में भी सोच लेना चाहिए- ऐसा उन्होंने कहा। प्रो. राव की गणनाओं और प्रश्नों का उत्तर अभी तक मिला ही नहीं है।

भूकम्परोधी डिजाइन तो की ही जा सकती है। प्रश्न यह है कि आप भूकम्प का कितना खतरा उठाने को तैयार हैं। बिहार का 1934 का भूकम्प रिक्टर पैमाने पर 8.4 का था और असम का 1950 वाला भूकम्प रिक्टर पैमाने पर 8.7 था। इस परिमाण के लिये आप डिजाइन करने जायेंगे तो लागत बेहिसाब भागेगी और नहीं डिजाइन करते हैं तो खतरा सर पर बना रहेगा। बहुत से लोग यह मांग कर रहे हैं कि किसी दुर्घटना से निबटने के लिये जो तैयारी का खर्च है और उसकी जो योजना बनेगी उसके खर्च को बाँध की लागत में शामिल किया जाय और इस योजना को सार्वजनिक किया जाय। यहीं गाड़ी अटक जाती है।

भूकम्प से बाँध टूटने की बहुत सी घटनायें हो चुकी हैं और यह केवल कल्पना नहीं है। महाराष्ट्र का कोयना बाँध जो 60 के दशक में टूटा था इसका जीता जागता उदाहरण है। हिमालय स्थिर नहीं है यह सभी जानते हैं।

अब रही युद्ध के समय बाँधों पर खतरे की बात तो ऐसी घटनायें हो चुकी हैं। दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मनी के कई बाँधों को तहस-नहस किया गया। मोजाम्बीक के गृह युद्ध में बाँध उड़ाये गये। एल-सल्वाडोर में युद्ध में बाँध टूटा। जापानी फौज का हमला विफल करने के लिये च्यांग-काई-शेक ने 1938 में हांग हो को तटबन्धों पर स्वयं बम गिरवाया था। यह सब नजीरें उपलब्ध हैं और इनके प्रति आगाह कर देना हम अपना कर्तव्य समझते हैं। यह सारी बहस हमारे आज के मूल विषय से थोड़ा हटकर है पर यदि यही बहस एक बार फिर करनी है तो हमलोगों की प्रस्तुति है। हमलोग निश्चित रूप से कोई फैसला तो नहीं सुना रहे हैं पर जैसे आपके प्रश्न हैं उसी तरह हमारे भी प्रश्न हैं जिनका उत्तर कोई देता नहीं है। हम तो बस यही सुनते आये हैं कि फलां-फलां योजना का कोई विकल्प नहीं है और जब यह बात पहले ही कह दी जाती है तब विकल्प की दिशा में कोई भी काम नहीं हो पायेगा।

श्री दिनेश कुमार मिश्र के इस वक्तव्य के साथ आज सुबह का सत्र समाप्त हुआ। भोजनावकाश के बाद के सत्र के लिये श्री विजय कुमार ने प्रस्ताव रखा। उन्होंने कहा कि भोजन के ठीक बाद हमलोग दो समूहों में बँट जायेंगे। एक समूह बिहार के मित्रों का होगा और दूसरे समूहों में नेपाल, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, दिल्ली, आन्ध्र प्रदेश तथा हरियाणा के साथी रहेंगे। हमारा सुझाव होगा कि बिहार के समूह का संचालन श्री मंथन जी तथा दूसरे समूह का संचालन श्री पवन राणा जी कर लें। लगभग एक घन्टे का समय हमारे पास रहेगा उसमें हम भावी कार्यक्रम पर चर्चा करेंगे और हमारी ओर से चर्चा के बिन्दु होंगे-

1. हमारी एक दूसरे से क्या अपेक्षाएँ हैं। विभिन्न प्रान्तों की आपस में या देशों की एक दूसरे से क्या अपेक्षा है।
2. क्या हम विकल्प पर प्रयोगों की दिशा में कुछ आगे बढ़ सकते हैं- यदि हाँ तो कैसे?
3. क्या आपने काम को संगठित करने और आगे बढ़ाने के लिये किसी संयोजन समिति या कमेटी का गठन किया जा सकता है। इसके सदस्य कौन-कौन होंगे और यह किस प्रकार कार्य करेगी।
4. हमारा अगला कार्यक्रम कौन और कहाँ आयोजित करेगा।भोजन के अवकाश के बाद इन दोनों समूहों की ओर से अपने-अपने समूहों द्वारा लिये गये सिद्धान्तों के आधार पर प्रस्तुति की गई। बिहार के समूह की तरफ से श्री मंथन जी ने अपनी बात रखी।

उन्होंने कहा कि दूसरे प्रान्तों या देशों से जो हमारे ग्रुप को अपेक्षायें हैं वह यह हैं कि सूचनाओं और जानकारी के आधार पर कल हम आज के मुकाबले ज्यादा सूचना सम्पन्न हों इसके लिये सूचनाओं के आदान-प्रदान का ज्यादा व्यवस्थित तरीका हमलोगों को अपनाना होगा। हमको लगता है कि उत्तर प्रदेश या पश्चिम बंगाल जैसे हमारे पड़ोसी राज्य हैं या नेपाल एक पड़ोसी देश है वहाँ यदि एक केन्द्र हो जहाँ हम सूचनाएं दे सकें या जहाँ से हम सूचनायें पा सकें तो अच्छा हो। ऐसा होने से हमें किसी प्रान्त या नेपाल में एक ही जगह सम्पर्क करना पड़ेगा और दूसरे लोग हमसे सीधा सम्पर्क कर सकते हैं। इसके लिये जरूरी है कि सभी जगह एक केन्द्र बने। बिहार में यह काम बाढ़ मुक्ति अभियान करेगा।

दूसरी बात यह है कि प्रान्तों के सीमावर्ती क्षेत्रों में, या नेपाल के साथ भी, गलतफहमियां सबसे ज्यादा प्रखर होती हैं अतः ऐसे स्थानों पर यदि वार्तालाप स्थापित होता है तो बहुत कुछ तनाव कम होने या पारस्परिक समझ बढ़ने की गुंजाईश रहती है। हम आशा करते हैं कि हमारे इस प्रयास में सहयोग मिलेगा।

बाढ़ या सिंचाई परियोजनाओं के क्षेत्र में विकल्प के मसले पर बाढ़ मुक्ति अभियान हमेशा सक्रिय रूप से सोचता रहा है। दुर्भाग्यवश हमलोग इस पर कभी रचना के काम के लिये मैदान में उतरे नहीं। हमलोगों के बहुत से मित्र संस्थाओं से जुड़े हुये है और रचनात्मक काम के लिये संस्थागत स्वरूप का होना आवश्यक हो जाता है। हमारा प्रयास होगा कि हम इन संस्थाओं को वह सब विचार दें सकें जो हमारे पास हैं और उनका क्रियान्वयन कर सकें। यदि हम यह काम कर पाते हैं तो अनुभवों को मिल बांटने में हमें बड़ी खुशी होगी।

अन्य प्रांतों या नेपाल/बांग्लादेश से सम्पर्क रखने और संगठित रूप से कार्य चलाने के बारे में हमारे समूह का मत था कि अपने सम्बन्धों को थोड़ा और अधिक प्रगाढ़ होने दिया जाय और तब एक संयोजन समिति तैयार की जाय। इसमें हमें थोड़ा समय चाहिये।

बाढ़ मुक्ति अभियान इस तरह की गोष्ठियों के वार्षिक आयोजन की बात सोच रहा है और अपने स्तर पर यह आयोजन कर सकने की स्थिति में है फिर भी यह अच्छा होगा कि इस तरह की गोष्ठियां अलग-अलग स्थानों पर हों जिससे एक दूसरे को समझने का बेहतर मौका मिलेगा। वैसे हमलोग यह आयोजन करने के लिये तैयार हैं।

मंथन जी के बाद अन्य प्रांतों तथा नेपाल वाले समूह की ओर डॉ. लुंकड़ ने अपने समूह में हुई बातचीत के आधार पर अपना वक्तव्य रखा तथा उनकी समय-समय पर मदद सर्वश्री पवन राणा, राजेश कुमार तथा अजय दीक्षित ने की। इस समूह ने निम्न प्रस्ताव किये-

1. समग्र दृष्टिकोण से किसी विशेष स्थान/क्षेत्र नदी संकट को पारिभाषित करना।
2. कोसी तटबन्धों जैसी परियोजनाओं में कृषि, बिजली तथा जीवन यापन सम्बन्धी सभी पहलुओं पर बल देते हुये विकल्प की तलाश जारी रखना और इन विषयों पर बहस को जीवित रखना।
3. नदी संकट को परिभाषित करना जैसे पानी का प्रभावी उपयोग और सूचनाओं का संकट, पर्यावरण का संकट, समता का संकट अथवा धनाढ्य वर्ग में तकनीकी/वैज्ञानिक ज्ञान की गलत अवधारणा से उपजा संकट।
4. सूचनाओं के आदान-प्रदान से एक-दूसरे को मजबूत बनाना तथा आपसी सम्बन्ध बनाये रखना।
5. प्रभावित क्षेत्रों के लोगों को जल-संसाधन तथा जलाधिकार के बारे में शिक्षित करना तथा उनसे पारस्परिक वार्तालाप करते हुये जानकारी/पारम्परिक ज्ञान अर्जित करना।
6. क्षेत्रीय लोगों के मानवीय सम्मान को केन्द्र में रखते हुये उनमें जल-संसाधन के संकट के प्रति एक नया दृष्टिकोण पैदा करना।
7. जिस नदी घाटी की कठिनाइयों को इकाई मानना है उसे स्पष्ट करना।
8. स्थानीय लोगों के पास समस्यायें तथा उनके संभावित समाधान को लेकर जाना तथा उस पर उनकी राय जानना।
9. विशिष्ट क्षेत्रीय समस्याओं को जानना तथा लोगों, विशेषकर युवा वर्ग को इसकी जानकारी देना/अवगत करवाना।
10. बाढ़ समस्या से निपटने अथवा जूझने के तरीकों में सुधार लाना।
11. गोष्ठी विसर्जन से पूर्व भाग लेने वाले अपना नाम पता तथा फोन/फैक्स आदि लिख दें।

बिहार के बाहर से आये मित्रों की ग्रुप चर्चाअगली गोष्ठी का स्थल चयन नहीं हो पाया पर इसके लिये कई ग्रुपों ने रूचि दिखाई है।

श्री अजय दीक्षित का सुझाव था कि इस संगोष्ठी में बहुत से लोग ऐसे मौजूद हैं जिनमें कुछ विशिष्ट क्षमताएँ हैं जिससे बाकी लोग लाभान्वित हो सकते हैं। ऐसे लोग यदि एक-आध पेज में अपना विवरण दे सकते हैं तो सबके काम आता। दूसरी बात यह कि इस मीटिंग में पाकिस्तान-बांग्लादेश और भूटान जैसे क्षेत्रों के लोगों की भी उपस्थिति होनी चाहिये थी और अगली मीटिंग जहाँ कहीं भी हो, अगर उसमें इनकी भागीदारी सुनिश्चित की जा सके तो अच्छा होगा।

श्री विजय कुमार ने कहा कि मैं यह प्रस्ताव करता हूँ कि एक ऐसी समिति बन जाये जो भविष्य में विकल्पों पर परिपत्र तैयार करने के कार्य का संचालन करने के लिये दिशा निर्देश करे। इसमें हम सर्वश्री दिनेश कुमार मिश्र, अजय दीक्षित, दीपक ग्येवाली, गिरीन चेतिया, समर बागची, पवन राणा, वी. मोहन रेड्डी और डॉ. लुंकड़, डॉ. शीराज वजीह तथा सुश्री जया मित्र का नाम प्रस्तावित करते हैं। यह लोग अगर समय-समय पर मिल सकें और हम सब का मार्गदर्शन कर सकें तो हमें अपने प्रयासों में गति मिलेगी। हम विकल्पों की बातें करते हैं पर इस क्षेत्र में हमारी उपलब्धि नगण्य है। यह समिति इस क्षेत्र में दिशा निर्देश करे।

दूसरा सुझाव यह है कि जो बातें इस संगोष्ठी में उठी हैं उससे निकले प्रश्नों को केन्द्र में रखकर हर जिला मुख्यालय पर कम से कम एक धरने का कार्यक्रम लिया जाय। तीसरा यह कि प्रतिवर्ष 6 अप्रैल को पटना में या किसी अन्य समुचित स्थान पर एक गोष्ठी का आयोजन हो जिसमें सब लोग मिलकर पूरे वर्ष में किये गये कामों का जायजा लें और आने वाले वर्ष के लिये कार्यक्रम तय करें।

बिहार के समूह की तरफ से यह बात उठी कि अपनी ग्रुप चर्चा में हमने किसी समिति के गठन की फिलहाल आवश्यकता नहीं समझी थी इसलिये इस समय इस समिति का प्रस्ताव करना ठीक नहीं है। परन्तु फिर आम राय बनी कि इस समिति पर किसी को खास आपत्ति भी नहीं है अतः यह समिति बना ली जाय।

श्री नलिनी कान्त ने कहा कि बिहार और उत्तर प्रदेश के बीच सहयोग की भूमिका कुछ तय होती तो अच्छा था। बिहार के कम से कम सीवान, सारण और गोपालगंज जिलों और उत्तर प्रदेश के महाराजगंज, गोरखपुर, देवरिया और पड़रौना जिलों के कार्यकर्ताओं का कुछ आपसी संवाद बनता तो अच्छा था। श्री दिनेश कुमार मिश्र ने बताया कि अनौपचारिक रूप से तो इन समूहों का आपसी संपर्क बना हुआ है पर बाढ़ मुक्ति अभियान या सहयोग की तरफ से अभी तक कोई औपचारिक प्रयास नहीं हुआ है पर यह कोशिश तेज होनी चाहिये। इसी तरह की कोशिश महानन्दा के दोनों किनारों पर बिहार और बंगाल के बीच होनी चाहिये। नेपाल से हमारा संपर्क है पर यह अभी केवल आवाजाही तक ही सीमित है।

श्री रामबख्श सिंह (संत कबीर नगर- उ.प्र.)- पिछली साल लखनऊ में सहयोग (उ.प्र.) ने एक मीटिंग बुलाई थी जिसमें कई प्रान्तों के लोग आये थे। उस मीटिंग में यह प्रस्ताव हुआ था कि सहयोग और बाढ़ मुक्ति अभियान मिलकर एक नेटवर्क तैयार करेंगे जिसमें बंगाल, असम और नेपाल के समूह भी शामिल होंगे। इसके फलस्वरूप उत्तर प्रदेश के साथी नेपाल के साथियों के साथ मिलकर नदी का सामूहिक अध्ययन करेंगे-यह तय हुआ था। इसी तरह की अपेक्षायें बिहार-नेपाल, बिहार-बंगाल, बिहार-पूर्वी यू.पी. तथा बिहार नेपाल से भी थीं। उत्तर प्रदेश और नेपाल के बीच इस दिशा में कुछ सार्थक पहल हुई है। हमारे यहाँ पश्चिम में लखीमपुर खीरी से लेकर पूर्व में महाराजगंज तक के पूरे तराई के इलाके में बाढ़ जल जमाव का प्रकोप रहता है। इन क्षेत्रों में पारस्परिक वार्तालाप से हम बाढ़ के साथ जीने की कला को विकसित कर सकते हैं। इस दिशा में यदि बाढ़ मुक्ति अभियान कुछ पहल करेगा तो हम निश्चित रूप से उसमें सहयोग करेंगे।

श्री शिवानन्द भाई (सिमुलतला-जमुई) मेरा सुझाव है कि अब हमलोग सम्मेलनों और गोष्ठियों से निकलकर आगे आयें और इस समस्या को जन आंदोलन का स्वरूप देकर लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयास करें। इसके लिये यह आवश्यक होगा कि-

1. लोक शिक्षण और जन जागरण के अतिरिक्त क्षेत्र और जिला स्तर पर संगठन बनाये जायें।
2. जिसकी पीड़ा उसका प्रयास के अनुसार पीड़ितों-किसानों के संगठनों के द्वारा जन आंदोलन की भूमि और माहौल बनाना होगा।
3. इसके लिये तत्वाधारित दस्तावेज तैयार करने होंगे और परचा पोस्टर आदि तैयार करना होगा।
4. एक राज्य स्तरीय संचालन समिति का सुझाव उत्तम है पर पटना में एक सम्पर्क कार्यालय होना अब आवश्यक है। यदि संभव हो तो एक मासिक बुलेटिन आदि का प्रकाशन शुरू किया जाये।
5. माहौल बनाने के लिये श्री दिनेश कुमार मिश्र और श्री रामचन्द्र खान क्षेत्र का दौरा करें।
6. पटना में एक विशाल सम्मेलन अगले वर्ष किया जाय।

श्री शिवानन्द भाई के सुझावों के बाद में हमारे वरिष्ठ मार्ग दर्शक श्री नागेन्द्र प्रसाद सिंह ने धन्यवाद ज्ञापन किया। उन्होंने कहा कि मैं पानी के क्षेत्र में 1964 से काम कर रहा हूँ। मिश्र जी मेरे पास 1985 में आये और तब से वह इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं। इस तरह एक कड़ी थी जो टूटा नहीं पर जब आप अकेले काम करने के लिये निकल पड़ते हैं तो कैसे-कैसे छद्मवेशियों से सामना होता है वह किसी से छिपा नहीं है।

मेगस्थनीज एक बार हिन्दुस्तान की यात्रा पर आ रहा था। उसकी मुलाकात सैल्यूकस से हो गई। सैल्यूकस ने उसे बताया कि हिन्दुस्तान जा रहे हो तो वहाँ आचार्य चाणक्य से जरूर मिलना। वह अद्भुत क्षमता के व्यक्ति हैं। मेगस्थनीज जब चाणक्य के यहाँ पहुँचे तब शाम हो चुकी थी। चाणक्य कमरे में बैठे कुछ काम कर रहे थे-उनके कमरे में एक दीपक जल रहा था। मेगस्थनीज जब उनके पास पहुँचा तो उन्होंने उसे प्रतीक्षा करने को कहा और जो दीप जल रहा था उसे बुझा कर दूसरा दीप जला दिया। तब मेगस्थनीज को अन्दर आने के लिये कहा। मेगस्थनीज को यह रहस्य समझ में नहीं आया। प्रणाम करने के बाद उसने पूछ ही लिया कि आपने एक दीप बुझा कर दूसरा क्यों जलाया। चाणक्य का जवाब था कि जब तुम आये थे तब मैं राज्य का काम कर रहा था और जो दीप जल रहा था उसमें राज्य का तेल जल रहा था। तुम से बात करना मेरा व्यक्तिगत काम है इसलिये मैंने अपना दीप जलाया है।

कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीतिज्ञ तो चाणक्य भी थे जिनके हाथ में बहुत क्षमता थी पर वह व्यक्तिगत प्रयोजन और राजकीय प्रयोजन का इतना ख्याल रखते थे। आज जो राजनीतिज्ञ हैं उनको शायद एक दिन का भी संतोष नहीं है और न कोई परहेज है सारा माल हजम करने से। जिसके साथ आप संघर्ष करने की सोच रहे हैं, वह चाहे राजनीतिज्ञ हो या सरकारी कर्मचारी हो, उसका चरित्र इस प्रकार का है। कुछ ही लोग राजनीति या प्रशासन में हैं जो कि अभी भी शुद्ध हैं और शायद उन्हीं के पुण्य प्रताप से यह देश चल भी रहा है।

धन्यवाद प्रस्ताव रखते हुये श्री नागेन्द्र प्रसाद सिंह-साथ में श्री विजय कुमार और श्री दिनेश कुमार मिश्रअब अपनी समस्या पर बात करें। नेपाल और हमारी समस्यायें एकदम भिन्न हैं। अगर सिंचाई को सामान्य समस्या मान भी लें तो भी स्थल आकृति भिन्न होने के कारण दोनों जगहों का एक सा समाधान नहीं हो सकता। केवल पानी की मौजूदगी ही सिंचाई समस्या का समाधान नहीं है और जो लोग यह मानते हैं कि नेपाल में हाई डैम बन जाने से बिहार की समस्याओं का समाधान हो जायेगा उन्होंने हिमालय से आने वाली नदियों में मिट्टी/बालू के परिमाण को ठीक से नहीं जाँचा है। अकेले कोसी में 96,000 एकड फुट मिट्टी/बालू प्रति वर्ष आती है। इसके अलावा पूर्व में महानन्दा से लेकर रामगंगा तक नदियों की लाइन लगी है गंगा में पानी के साथ मिट्टी बालू उडेलने के लिये। बाँध बनेंगे तो यह सब उन्हीं के पीछे अटकेगा। कितने दिन चलेंगे यह बाँध।

खैर! यह समय नहीं है इन सब बातों के विस्तार में जाने का। आप लोग हमारे यहाँ दूर-दराज जगहों से अपने काम का हर्ज करके पधारे हैं इसके लिये हम आप सब के कृतज्ञ हैं और आपको आपकी इस सदाशयता के लिये धन्यवाद देते हैं कि आप हमारी समस्या को अपनी समस्या मानकर हमारे साथ खड़े हुये और आशा करते हैं कि भविष्य में भी आप सब का सहयोग इसी प्रकार मिलता रहेगा।

नागेन्द्र भाई के धन्यवाद ज्ञापन के साथ दो दिन की नदी संकट संगोष्ठी औपचारिक रूप से समाप्त घोषित हो गई।

पुनःश्च
औपचारिक रूप से गोष्ठी समाप्त होने के बाद बिहार के कुछ मित्र तथा कई अन्य लोग अनौपचारिक रूप से बातचीत के लिये बैठे। इसमें कई बातों पर विचार हुआ।

श्री शिवानन्द भाई ने अपने प्रस्तावों को दुहराते हुये सघन रूप से कार्यक्रम चलाने की बात की और ज्यादा से ज्यादा नये लोगों को शामिल करने की बात कही। श्री नलिनी कान्त ने कहा है कि पिछले दिनों में हमारे काम में कुछ परिवर्तन आये हैं- कुछ नये सम्बन्ध भी बन रहे हैं। इसमें नेपाल, बांग्लादेश और अन्य प्रान्तों से हमारी नजदीकियाँ बढ़ रही हैं। इसमें से हमें काॅमन एजेण्डा निकालने का प्रयास करना चाहिए और अपने एजेण्डा को प्रधानता देते हये इस काॅमन एजेण्डा पर भी काम करने का प्रयास करना चाहिये।

दूसरी बात यह है कि समय-समय पर हमलोग इस तरह की बड़ी गोष्ठियां करते रहते हैं। मुझे लगता है कि समय के बीतने के साथ जब हमें लगने लगता है कि कुछ हो नहीं रहा है और लोग बिखरने लगेंगे तो हमको मजबूरी में एक बड़ा कार्यक्रम लेना पड़ जाता है। क्योंकि सामान्य मुद्दों पर हमने काफी बहस कर ली है और जानकारी तथा समस्या के विश्लेषण आदि में अपनी काफी पकड़ बनाये हुये हैं। विकल्प अपने आप में बहुत व्यापक चीज हैं जिसके कुछ आयामों पर हमें सघन रूप से काम शुरू करना चाहिए।

श्री राजेन्द्र झा (सहरसा) का मत था कि यह कहना गलत है कि कुछ हो नहीं रहा है इसलिये हमें यह बड़े सम्मेलन करने पड़ते हैं। हमारे क्षेत्र में और अन्य स्थानों में मीटिंग हुआ करती हैं पर हमारे पास इसको प्रचारित करने का तंत्र नहीं है और संसाधन नहीं हैं इसलिये ऐसा लगता है कि कुछ हो नहीं रहा है। श्री भुवनेश्वर सिंह (सीवान) और जितेन्द्र कुमार (सारण) ने राजेन्द्र जी के वक्तव्य का समर्थन किया और कहा कि पिछले दिनों में उनके क्षेत्रों में कई गोष्ठियां हुई हैं- हां! प्रचार अवश्य नहीं हुआ।

श्री विजय कुमार ने कहा कि आप नेपाल-भारत, उत्तर प्रदेश-बिहार, बिहार-बंगाल या भारत-बांग्लादेश जैसा कोई भी समूह देख लीजिये-सब ऊपर और नीचे का मामला है। नेपाल-भारत में नेपाल ऊपर है और भारत नीचे हैं, भारत-बांग्लादेश में भारत ऊपर है, बांग्लादेश नीचे है। ऐसा ही बाकी के समूहों में भी है पर जब समग्रता में पानी के प्रश्न को उठाना है तो एक दूसरे का पक्ष जानना पड़ेगा। इसमें कभी-कभी भूमिकाएं उलटती भी हैं जैसे भारत-नेपाल के नीचे और बांग्लादेश के ऊपर है। उसकी अलग-अलग दो भूमिकाएं बनती हैं। मैंने इसी सन्दर्भ में प्रस्ताव किया था कि यदि समग्रता में कोई अध्ययन का कार्यक्रम होना है तो एक सीमित का होना अच्छा था। स्थानीय कार्यक्रम के लिये हमें किसी सीमित की जरूरत नहीं है। स्थानीय उपयोग हम खुद तय कर सकते हैं। कावेरी, बाण सागर या फरक्का सब इसी ऊपर नीचे की समस्या से ग्रस्त हैं। इसलिये वहाँ हमें सीमित चाहिये, ऐसा मेरा मानना है।

श्री रामेश्वर सिंह का मानना था कि हमारे स्तर पर या बिहार के स्तर पर इस तरह की पहली मीटिंग है जिसमें पारस्परिक सहयोग की बात उठी है। हममें से दो चार लोग इधर-उधर कुछ मीटिंग में गये होंगे वह अलग बात है। कुछ लोग पोखरा में किसी मीटिंग में मिले होंगे। पर हमारी जो जानकारी है उसके अनुसार इस विषय पर यह पहली बैठक है और यह किसी भी मायने में पोखरा मीटिंग का फाॅलोअप नहीं है। पहले भी क्षेत्रीय सहयोग पर हमारी राय सब से भिन्न थी और आज भी हम इसके लिये विशेष लालायित नहीं है। हमें पहले अपनी समझ और कार्यक्रम का विश्लेषण कर लेना चाहिये। कल शाम को मिश्र जी कह रहे थे कि यह मीटिंग हमने साल भर पहले कर ली ऐसा उन्होंने शायद इसलिये कहा कि कुछ चीजें हमलोग मान बैठे थे। यानी साल भर काम करके यह मीटिंग करनी चाहिये थी। वह भी जल्दी में बनाया गया कार्यक्रम था और आप जो कह रहे हैं, हमें डर है कि वह भी समय से पहले होने जा रहा है। लेकिन क्योंकि यह सदन की राय थी अतः समिति बन जानी चाहिये।

श्री नलिनी कान्त जी का कहना था कि हमलोग अपनी भूमिका तो तय कर लें। क्योंकि अब समय आ गया है कि शोध/प्रकाशन/डाक्युमेन्टेशन का काम गौण और परामर्शी होगा और आन्दोलन और संगठन के लोगों को आगे आना होगा। इसलिये कौन क्या करेगा या कर सकेगा इसका थोड़ा पूर्वानुमान होना चाहिए।

श्री कामेश्वर लाल ‘इन्दु’ ने कहा कि हम अपनी मीटिंग में चाहे जिसको बुला लें या चाहें जिसके यहाँ चले जायें पर यह सच है कि अभी हमारी ताकत मुख्य रूप से अभी बिहार में ही है। अब बाढ़ मुक्ति अभियान है, उसकी एक संचालक समिति है- वह जब महसूस करे कि अब हमें यह काम या विस्तार करना चाहिये तो किया जाय। डाक्यूमेन्टेशन का काम तो चलता ही रहे। और जो कार्यक्रम है वह तो साल भर चलता ही रहता है वह कहाँ रुका है। हमलोगों का मीटिंग और कार्यक्रमों में आना जाना लगा ही रहता है जिसमें मिश्र जी, विजय जी और रामेश्वर जी वगैरह हर समय लगे ही रहते हैं। इसे और व्यवस्थित कर लेने की जरूरत है। जब आप जिला स्तर पर कार्यक्रम लेंगे तो आप अपने आप मजबूत होंगे उसके हिसाब से अपना एक कैलेण्डर बना लीजिए।

श्री शशि भूषण (सहरसा) ने कहा कि हमलोगों ने डाक्यूमेन्टेशन का काम किया है, जन चेतना का काम किया है और संगठन का काम किया है। हमारे पास कुछ जानकारियाँ हैं जो कि हमलोगों को देने का काम करते हैं। इनमें से बहुत कुछ हमलोगों ने दूसरे लोगों से ही सीखा है पर बहुत कुछ सीखना बाकी रह गया है और वह है पारम्परिक ज्ञान। 5-10 साल की देर और कर दीजिये आपको यह सब बताने वाले ही नहीं बचेंगे। इसलिये बाकी चीजें टाली जा सकती हैं पर इस मसलें पर देर करेंगे तो पछताएंगे। यह तब तक नहीं होगा जब तक कि आप आदमी से सघन संवाद स्थापित नहीं होगा और लम्बा समय नहीं दिया जायेगा। पर पहले अपना घर मजबूत कीजिये।

श्री प्रमोद कुमार सिंह ने कहा कि पटना के स्तर पर अगर किसी सूचना की जरूरत पड़ेगी तो वह कोई भी मदद अभियान को देने को प्रस्तुत हैं।

श्री रामचन्द्र खान ने इस संगोष्ठी के आयोजन के लिये अभियान को और श्री दिनेश कुमार को धन्यवाद दिया पर वह आशंकित थे कि देश में या कहीं भी लोग छलांग लगाने में बड़े माहिर होते हैं। माइक्रो से मैक्रो की छलांग बड़ी लुभावनी होती है। अपनी किसी समस्या को हम धरातल पर ठीक से समझ या सम्भाल भी नहीं पाते हैं कि व्यापक होने का सपना देखने लगते हैं। जैसे गरीबी, बेरोजगारी, आर्थिक विषमता जैसी समस्याओं को हमने पिछले पचास सालों में छुआ नहीं है- आपकी भाषा में तटबन्ध बनते जा रहे हैं और विज्ञान का गलत विनियोग होता जा रहा है। मैंने विज्ञान के दुरुपयोग के विरुद्ध काफी अध्ययन करके अपनी जबान वर्षों बाद खोली है। आज प्रश्न उठता है कि विज्ञान गलत था कि आदमी गलत था। कोसी परियोजना के इर्द गिर्द जो लोग खड़े हुये थे वह किस प्रकार के लोग थे। इस परियोजना में विज्ञान की सारी पोल खुल गई।

मैं मिश्र जी! आपसे बहुत कुछ कहना चाहता हूँ। आपने यह कन्वेन्शन तो आयोजित कर लिया इससे आपने बहुत बड़ी छलांग लगाई है। अब आप हमारे नहीं रहेंगे, आप एक अन्तरराष्ट्रीय हैसियत के आदमी बनेंगे। आपने तटबन्धों की बदहाली से, वहाँ अवमूल्यित मानवता से, वहाँ के विज्ञान के दुरुपयोग से, विज्ञान और मनुष्य के उन्नत सम्बन्धों की त्रासदी से उठकर एक जबर्दस्त छलांग लगाई है। अब आपको सारे संसार के जल की चिन्ता है, समूचे एशिया के जल की चिंता है। समूचे हिन्दुस्तान के कोने-कोने में पचास साल, उन्नीसवीं शताब्दी के भूमि अधिग्रहण कानून का दुरुपयोग करके, विज्ञान का दुरुपयोग करके राज्य के द्वारा समूची जमीन को, जल को, हैबिटाट को, पेड़ पौधों को, पशुओं को, पक्षियों को, नदी को नष्ट करके जब कोसी परियोजना जैसा प्रकल्प बनता है, उसको प्लेट फार्म बना कर आपने मिश्र जी। बड़ी उड़ान भरी है। शुरू तो आपने माइक्रो से किया और अभी आप मैक्रो हो गये हैं। मुझे डर यह लगता है कि जहाँ से आपका मूल चिन्तन शुरू हुआ था- 1984 में कोसी से, जहाँ तीस लाख लोग विपन्न हुये, सुवर्ण रेखा से जहाँ कितने ही लोगों को उजाड़ा गया था, बिहार के कोने-कोने से जो विस्थापन हुआ उससे, और अब आपको जल-जमाव दिखाई नहीं पड़ेगा, विस्थापन दिखाई नहीं पड़ेगा, टूटा तटबन्ध भी दिखाई नहीं पड़ेगा कोसी क्षेत्र में विज्ञान और टेकनोलाॅजी की उड़ती हुई धज्जियां भी आपको दिखाई नहीं पड़ेगी। हम इस क्षेत्र से विज्ञान की विदाई करके बाढ़ की वापसी की मांग करते थे-अब हमारे उस प्रयास में आप की कोई भूमिका बची है? मुझे कोसी अपनी तमाम धाराओं के साथ वापस चाहिये। हम कोसी को मुक्त देखना चाहते थे।

आप और आपके साथी जो यह सब कर रहे हैं मिश्र जी! माइक्रो से मैक्रो बनने की जो कोशिश कर रहे हैं उसमें हमारा माइक्रो लेवल वाला गरीब, विस्थापित और विपन्न आदमी वहीं छूट जायेगा। आप सरकार को, स्वार्थी टेकनोलॉजी को, आर्थिक संस्थानों को और इन्जीनियरों को नदियों से दूर रखने में हमारा समर्थन करते थे और आज हमें दुःख के साथ कहना पड़ता है कि आपने मैदान खाली कर दिया। आपसे उम्मीद थी कि आप आम जनता के बीच रह कर जनता के जल विज्ञान को विकसित करेंगे और आपने नेपाल और बांग्लादेश की राह पकड़ी। यह घोषणा विचारों में हो गई, आपकी छलांग भी लग गई। एक दिन आप एशियाई सम्मेलन करेंगे, फिर विश्व सम्मेलन करेंगे और कोसी क्षेत्र वाला आदमी आपकी एक अन्तहीन प्रतीक्षा में खड़ा रहेगा। मैं आपको आगाह कर देना चाहता हूँ कि हमारी समस्या, मैं मानता हूँ कि केवल हमारे गाँव की या जिले की ही समस्या नहीं है-वह कहीं ज्यादा बड़ी है, पर आपको अनुपात का ख्याल रखना होगा कि आप कितना समय अन्तरराष्ट्रीय समस्या को देते हैं और कितना उस आदमी को जिसने आपको कभी वैराग्य की स्थिति में पहुँचा दिया था। आप पूरे संसार की समस्या का समाधान करेंगे कि आप के गाँव के चारों ओर जो पानी में आग लगी है उसका समाधान करेंगे। अन्तरराष्ट्रीय हस्ती बनने के चक्कर में आप का अपना धरातल न छूट जाये इसका आप हमेशा ध्यान रखेंगे और आप समय के अनुपात को नहीं भूलेंगे ऐसी हमारी आप से अपेक्षा है।

श्री दिनेश कुमार मिश्र ने श्री राम चन्द्र खान द्वारा उठाये गये प्रश्नों का उत्तर देते हुये कहा कि इस सम्मेलन की पृष्ठभूमि पिछले दो वर्षों से तैयार हो रही थी और यह हमलोगों के दो साल के अध्ययन और ऊहापोह का नतीजा है। उन्होंने कहा कि, मैं साल दो साल के अन्तराल पर अपने इन्स्टीच्यूट खड़गपुर चला जाया करता हूँ और इस दरम्यान विभिन्न तकनीकी पत्रिकाओं में क्या-क्या प्रकाशित होता रहता है उस पर एक नजर डाल लेता हूँ और जरूरत की सारी चीजें या तो नोट करके या जिराक्स करके ले आता हूँ। मैं मई 1996 में खड़गपुर आई.आई.टी. के पुस्तकालय में बैठा था। मुझे एक लेख पढ़ने को मिला जो कि इन्टरनेशनल जरनल ऑफ वाटर रिसोर्सेज, U.K. में दिसम्बर 1995 वाले अंक में छपा था। इस लेख का शीर्षक था International Characteristic for international Co-operation In Water Resources और इसके लेखक थे भारत के केन्द्रीय जल आयोग के एक भूतपूर्व अध्यक्ष। जून 1992 में आपको याद होगा कि एक बहुत बड़ा सम्मेलन अर्थ सम्मिट रियो-डि-जेनरो में हुआ था जिसमें सारी दुनियाँ से सरकारी और गैर सरकारी लोग इकट्ठा हुये जिसमें विश्व के प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग पर काफी चर्चा हुई थी। पानी उनमें से एक था। उसकी पूरी जानकारी संयुक्त राष्ट्र संघ के दस्तावेज, एजेण्डा-21 में मिलती है। एजेण्डा-21 कुछ है यह सब तो हमलोग जानते थे पर पढ़ा नहीं था। लेख से एजेण्डा 21 तो नहीं पर उसकी किस तरह से व्याख्या की जा सकती है वह समझ में आया। इस लेख के अनुसार मानवता के उत्थान के लिये पानी को एजेण्डा-21 के हवाले से विश्व सम्पत्ति माना गया था जिससे सब का कल्याण हो सके। सारे देश या क्षेत्र अपने भेदभावों को भुलाकर अब पानी के विकास में जुट जायें क्योंकि जब तक समग्रता की बात नहीं होगी तब तक छिटपुट प्रयासों से कुछ नहीं होने वाला, आदि। देशों के पारस्परिक विवादों को सुलझाने में जनता के स्तर पर वार्तालाप की बात यहाँ उठाई गई थी जिससे संदेह के बादल छट जायें और जल संसाधनों के विकास का काम हो सके। लेखक ने इस काम में स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका को बड़ा ही महत्त्वपूर्ण माना था क्योंकि सरकारों की राजनैतिक विवशतायें होती हैं जब कि इन संस्थाओं की समाज पर बेहतर पकड़ है और उनके लिये जनता को समझाना ज्यादा आसान है। बाद में हमें एजेण्डा-21 पढ़ने का भी मौका मिला और जहाँ तक हमारी समझ है उसके अनुसार उसमें कहीं कोई सन्देहास्पद बात नहीं लिखी है। सभी अच्छी-अच्छी बातें वहाँ लिखी हैं, वसुधैव कुटुम्बकम- लिखा है, मानवता का उत्थान लिखा है। पर उसकी व्याख्या और परिणाम दूसरे तरह के हैं।

डॉ. श्रोनिक लुंकड़, श्री रामचन्द्र खान, श्री सरयू राय, श्री अरुण सिंह, श्री अरुण श्रीवास्तव, डॉ. वासुदेव डेइसके बाद आपको याद होगा कि नेपाल के प्रधानमंत्री श्री मनमोहन अधिकारी यहाँ आये और जो समझौता पिछले पचास वर्षों से नहीं हो रहा था कि नेपाल को भारत के पश्चिमी तट पर व्यापार मार्ग दिया जाय-वह दे दिया गया। बदले में बराह क्षेत्र बाँधों आदि के अध्ययन को लिये भारतीय टीम को नेपाल में काम करने की अनुमति मिली। फिर महाकाली संधि हुई और करनाली प्रकल्प की बात चली। यह सब जिस रफ्तार से चल रहा था उसे यदि आप पिछले पचास साल की उपलब्धि के सन्दर्भ में देखें तो एक तूफान था। मुझे लगता है कि जब तक भारत-नेपाल स्वयं निर्णय ले सकते थे तब तक यह समझौते नहीं हो पाये पर जब कहीं ऊपर से हुक्म होता है तो फैसले कितनी जल्दी-जल्दी होते हैं। उधर फरक्का पर समझौता हो जाता है। इस लेख ने मेरी आँखें खोल दी थी कि एक सौहार्द्र का वातावरण बन जाने पर कैसे विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपना खेल आजाद होकर खेलेंगी। और तब वह स्वयंसेवी संस्थाओं को पंचर फुटबाल की तरह लात मार देंगी। स्वयं सेवी संस्थाओं की जो उनकी परिभाषा है उस में हमारे जैसे लोग नहीं आते वरन बड़ी-बड़ी गैर सरकारी पेशेवर और तकनीकी संस्थायें हैं जो कि बाद में बडे़-बड़े प्रकल्पों को या तो बनायेंगी या उनको परामर्श करेंगी। हमलोग तो केवल माहौल बनायेंगे। पर यह दोनों कहे तो NGO ही जाते हैं। अब अगर बाद में आपके समझ में आ जाये कि आपने गलत काम कर दिया है तब तक आपकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है और तब दूसरी किस्म की NGO मंच पर कब्जा कर लेगी। अब आप या तो चिल्लाते रहिये कि यह गलत है, वह गलत है जिसे कोई सुनेगा नहीं या फिर यदि आप व्यावहारिक हैं तो NGO बने रहिये और पेशेवर तकनीकी एनजीओ के सामने आत्म समपर्ण कर दीजिये।

इस बीच हमलोगों को बहुत सी संस्थाओं की ओर से प्रस्ताव मिले कि आप इतना अच्छा काम कर रहे हैं तो अन्तरराष्ट्रीय सहयोग पर या नेटवर्किंग पर काम क्यों नहीं करते। व्यक्तिगत तौर पर मैं नेटवर्किंग को एक गाली मानता हूँ और अन्तरराष्ट्रीय सहयोग की जो बाढ़ आ गई थी उसे मैं सन्देह की दृष्टि से देख रहा था क्योंकि जfसे देखिये वही नेटवर्किंग और रीजनल को-आपरेशन (क्षेत्रीय सहयोग) की बात करता था और यहाँ तक यह NGO पानी के बँटवारे और उसके उपयोग पर भी काम करने लगे। पानी का उपयोग तो मेरे समझ में आता है पर बँटवारे में NGO की क्या भूमिका है जब कि भारत में तो गंगा, ब्रह्मपुत्र घाटी में नदियों के प्रवाह की मात्रा की सूचना गोपनीय है। हमलोगों ने कई मीटिंगों में अपने सन्देह व्यक्त किये पर वहाँ हमें बहुत सीमित श्रोता और उससे भी कम समय मिलता था। और तब हमने तय किया कि हम स्वयं एक मीटिंग की व्यवस्था करेंगे जिसमें हमारे अपने श्रोता होंगे और हमारा समय होगा। और हमने पूरी तैयारी के साथ इस मीटिंग का आयोजन किया और जो लेखों की श्रृंखला हमें यहाँ वितरित की है उससे हमारी मंशा साफ जाहिर होती है।

मेरा और हम सब का प्रश्न है कि कावेरी समस्या का समाधान हो गया क्या? बाण सागर और नर्मदा का झगड़ा मिट गया क्या? अगर क्षेत्रीय सहयोग शुरू करना हो तो पहले अपने घर से शुरू किया जाय। यह ढाका और काठमाण्डू की उतावली क्यों है। इस प्रश्न का उत्तर हमको इस संगोष्ठी में भी नहीं मिला। जैसा कि रामेश्वर जी कह रहे थे कि कल हमलोगों को लगा कि यह मीटिंग हमें एक साल बाद करनी चाहिये थी। हमारा अनुमान था कि बिहार में जो बहस नई आर्थिक नीति, निजीकरण, उदारीकरण पर चली थी उसके सन्दर्भ में हमें पानी के प्रश्न को उजागर करने में कोई दिक्कत नहीं होगी पर ऐसा हुआ नहीं। हमको कल और आज बार-बार वक्ताओं से टोका-टोकी करनी पड़ी कि विषय वस्तु से अलग मत जाइये। आज हम स्थानीय मुद्दों पर बात नहीं कर रहे हैं। इस मीटिंग में हम जान-बूझकर अपनी समस्याओं को नहीं रखना चाहते थे। हमारी अपनी मीटिंग तो चल ही रही है, उनमें न तो कोई कमी आई और न आयेगी। अब हमको और अधिक श्रम और शक्ति लगानी पड़ेगी कि हम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और विश्व बैंक के कार्यक्रमों और उनके षड्यंत्र पर से परदा उठा सकें। यह तो इस तरह की पहली मीटिंग है और हमारी समझ से हमारे लिये उतनी ही जरूरी है जितनी की पहले वाली मीटिंग हुआ करती थी। यह अब हमारी अतिरिक्त जिम्मेवारी है।

मैं और मेरे सभी साथी यहाँ आप लोगों से कहना चाहेंगे कि जब हमलोग अपनी कोई बात यहाँ या कहीं भी रखते हैं तो अपने आप को घोंघेपुर में (यह स्थान पश्चिम कोसी तटबन्ध के अन्तिम बिन्दु पर है और चारों तरफ से पानी से घिरा रहता है) खड़ा रख कर कहते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि बाहर वालों को लगता है कि हम बाढ़ का अतिरंजित चित्र लोगों के सामने रख रहे हैं पर हमलोग अपने आप को उससे अलग नहीं कर पाते। इतना जरूर है कि इस तरह की मीटिंग से हमारी नदियों पर नेपाल में क्या होने जा रहा है इसका अन्दाजा लगता है क्योंकि भारत में तो जल संसाधन विभाग में कोई बात भी नहीं करता। भारत नेपाल समझौते की प्रति मूल रूप में काठमाण्डू में सड़को पर मिल जाती है और यही हाल बांग्लादेश के साथ ढाका में है पर यहाँ हमलोग कुछ भी जानने के हकदार नहीं है। इसलिये इस तरह की गोष्ठियों का उपयोग हम अपनी सूचनाओं के आधार को बढ़ाने के लिये कर लेते हैं और इस बात को हम अच्छी तरह समझते हैं कि हमारी शक्ति का आधारा हमारा यहाँ का जन-सम्पर्क और संगठन है।

दूसरी हमारी चिन्ता यह है कि अब योजना का समर्थन करने या विरोध करने का स्थान बदल जाने वाला है। जब कोसी का तटबन्ध बन रहा था तो वह यहाँ हमारे आपके गाँव में-हमारी जमीन पर बना था और हम उसका विरोध कर पाये क्योंकि हम उसे देख रहे थे। तब बहादुर खान शर्मा या परमेश्वर कुंअर कुछ कर पाते हैं पर अब तो यहाँ योजनायें बनेंगी वह आपके गाँव से डेढ़ दो सौ किलोमीटर दूर ऐसी जगह बनेंगी जहाँ आप पाँच आदमी लेकर धरने पर भी नहीं बैठ सकते। जलूस लेकर जाइयेगा तो सीमा पर रोक दिये जायेंगे। देश की सार्वभौमिकता का प्रश्न खड़ा होगा। अब आपका विरोध अरण्य रूदन के अलावा कुछ नहीं रह जायेगा। यह बातें तो लोगों तक पहुँचानी ही पड़ेंगी। हम आपको और सभी को यह आश्वासन देते हैं कि हम अपना क्षेत्र नहीं छोड़ेगे, अपने काम को किसी भी प्रकार ढीला नहीं होने देंगे और क्षेत्रीय सहयोग जैसे प्रयासों में अनुपात का ध्यान अवश्य रखेंगे।

श्री रामचन्द्र खान ने कहा कि हम आपके इस आश्वासन का स्वागत करते हैं और एक बार फिर कहा कि यह देश बैलगाड़ियों और साइकिलों को देश है, जहाँ से लोग हवाई जहाज पर छलांग लगाते हैं और फिर वापस बैलगाड़ी की ओर नहीं देखते। इस बात का आप ध्यान रखेंगे तो हम सब का भला होगा। वरिष्ठ साथी श्री सूर्य नारायण ठाकुर ने भी आशंका व्यक्त की कि क्षेत्रीय सहयोग होना चाहिये और एक अच्छी बात है पर कहीं ऐसा न हो कि केवल क्षेत्रीय सहयोग पर रह जाये और जमीन का काम समाप्त हो जाये। हमको कभी-कभी सन्देह होता है कि यह क्षेत्रीय सहयोग का प्रचार इसलिये भी तो नहीं हो रहा है कि जो लोग जमीन पर कुछ अच्छा काम कर रहे हैं उनको उखाड़ कर निरस्त कर दिया जाय। इस पूरे मसले पर हम सबको सावधानी बरतने की जरूरत है।

कलकत्ता से आये श्री जयन्त बसु ने हाल ही में कलकत्ता में हुई एक मीटिंग के बारे में बताया कि उनसे फरक्का बराज पर वक्तव्य रखने को कहा गया था। मुख्य विषय था देश का विभाजन, साम्प्रदायिकता और सिविल सोसायटी। फरक्का मुद्दे का सिविल सोसायटी से तो सम्बन्ध जरूर था पर इसमें देश विभाजन या साम्प्रदायिकता की क्या जरूरती थी। फरक्का की भूमिका तब भी वही रहती जब बांग्लादेश के अलावा कोई दूसरा देश नीचे रहता। जब तक वह प्रस्तुति की भूमिका देते रहे तब तक तो लोगों ने सुना पर जब असली मुद्दे की बात शुरू की और आर्थिक शोषण और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बात की तो श्रोताओं में उद्विग्नता बढ़ने लगी क्योंकि लोग जो सुनना चाहते थे वैसा वह नहीं कह रहे थे। आखिरकार उन्हें अपना भाषण बन्द कर देना पड़ा।

श्री नागेन्द्र प्रसार सिंह ने भी क्षेत्रीय सहयोग के मुद्दे पर सावधान रहने की आवश्यकता पर बल दिया और कहा कि षड्यंत्र तो हर स्तर पर हैं और प्रत्येक स्तर पर उसका मुकाबला करना चाहिये।

जहाँ तक विकल्प पर काम करने के लिये समिति बनाने का प्रश्न था वहाँ यह एक बार फिर इस बात पर सहमति जताई गई कि मिश्र जी विभिन्न लोगों को सम्पर्क करके उनकी राय मांग ले और यदि लोगों का ऐसा विचार हो तो एक ऐसी समिति गठित कर ली जाये जिसमें विभिन्न रुचियों और क्षमताओं वाले लोग हों जो कि भविष्य में कार्यक्रमों का दिशा-निर्देश कर सकें।

इस प्रस्ताव ग्रहण करने के साथ-साथ यह अनौपचारिक सत्र समाप्त हो गया।

परिशिष्ट -1
मयूराक्षी बचाओ प्रस्तुति समिति
पो.-भव्रकाली, जिला-हुगली-712232



मयूराक्षी नदी की समस्या बड़ी विकट और सांघातिक है। नदी के तटवर्ती क्षेत्रों की समस्यायें बड़ी ही परेशानी पैदा करने वाली हैं। इसका मूल्यांकन करने के लिये तथा तथ्यों को एकत्रित करने के लिये स्वयंसेवी संस्थाओं की एक केन्द्रीय टीम भेजी जानी चाहिये जो कि स्थानीय लोगों से बातचीत करके मौके की जानकारी एकत्रित कर सके।

पिछले वर्ष जन-आन्दोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (कलकत्ता शाखा) की एक टीम इस मृत प्राय नदी मयूराक्षी तथा उसके तटवर्ती क्षेत्र के अध्ययन यहाँ आई थी। यह क्षेत्र खटंगा अंचल पंचायत, सूड़ी-ब्लॉक -1, जिला बीरभूम के अंतर्गत पड़ता है। टीम ने नदी पर बने तटबन्धों को भी देखा। श्री सुखेन्द्र भट्टाचार्य, श्री सन्दीप दास, भूतपूर्व विधान सभा सदस्य तथा अध्यापक, और इस संस्था के एक सक्रिय कार्यकर्ता श्री गोबिन्द मत्री इस टीम के सदस्य थे। उसी दिन थोड़े ही समय में स्थानीय जनता के सहयोग से ‘मयूराक्षी बचाओ प्रस्तुति समिति’ के नाम से एक संगठन का निर्माण किया गया।

लेकिन यह समिति सभी के अकार्यरत है और कोई काम नहीं कर रही है। जहाँ तक हम समझ पाये हैं, इस अकर्मव्यता के पीछे मुख्य भूमिका राजनीति की है उधर मैं अपने जीवन चक्र में इस कदर उलझा हुआ हूँ कि अकेले मुझसे सारा काम संभव भी नहीं है। इसलिये मैं एक स्थायी केन्द्रीय समिति की बात उठा रहा हूँ जो कि समय-समय पर सारे क्रियाकलाप पर नजर रखेंगी।

सन 1978 में इस क्षेत्र में एक भयंकर बाढ़ आई थी जिसमें इस क्षेत्र की कृषि तथा जानमाल की काफी क्षति हुई थी। यह घटना पूरी तरह से मानव निर्मित थी। उसके बाद 1995 में जो बाढ़ आई उसने बालू के बने हुये कमजोर तटबन्धों को तोड़ डाला और एक बार फिर तबाही हुई। दूर-दूर तक खेती बरबाद हुई और अच्छी खासी जमीन पर बालू पड़ गया जिससे वह जमीन आज तक मुक्त नहीं हो पाई है।

पीड़ित किसानों ने अपनी परिस्थिति का विवरण देते हुए सभी सम्बद्ध लोगों को, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री तक को, प्रतिवेदन भेज कर गुहार लगाई पर सब व्यर्थ गया। राजनैतिक पार्टियों और अमला तंत्र में बैठे निहित स्वार्थ वाले तत्वों के कारण ही यह नुकसान हो रहा है।

मूयराक्षी नदी पर दो बाँध तथा बराज बने हुये हैं। इनमें से एक तो दुमका के पास मसानजोर में बना बाँध है तथा दूसरा सूड़ी (बीरभूम) के पास तिलपाड़ा में बना बराज है। तिलपाड़ा में बराज बनने के पहले तक इस क्षेत्र में बाढ़ का कोई प्रकोप नहीं था और जल प्लावन का तो कभी कोई खतरा ही नहीं था।

पिछले दस बारह वर्षों से नदी से बालू हटाने के नाम पर राज्य सरकार द्वारा नदी की उधाढ़ी की जाती है। इससे केवल नदी की मौलिकता तथा उसके प्राकृतिक प्रवाह का ही विनाश होता है। नदी की उधाढ़ी के प्रति यदि सरकार की नीयत साफ रहती तो यह उधाढ़ी का काम तिलपाड़ा बाँध के ठीक नीचे से शुरू किया जाना चाहिये था जो कि उस स्थान से 3-4 किलोमीटर ऊपर है। जहाँ की 1995 में तटबन्ध टूटे हुये थे पर उधाढ़ी तो टूटे तटबन्धों के पास से ही अन्दर वाले हिस्से से की जा रही है। यह एक अवैज्ञानिक काम है क्योंकि पहले से ही गरीब किसानों की कृषि भूमि का एक बहुत बड़ा रकबा बरबाद हो चुका है। तटबन्धों के अन्दर बालू का एक विशाल चबूतरा बन गयाथा जो कि नदी के थपेड़ों से कमजोर तटबन्धों की रक्षा करता था और पिछले दस बारह वर्षों से इसी पहाड़ जैसे बालू के ढेर की सफाई की जा रही है। जब यह सुरक्षा ही नहीं रहेगी तो तटबन्ध टूटेगा ही और यही कारण था कि 1995 में मयूराक्षी नदी ने तटबन्धों को तहस नहस कर दिया था। यह हमें पता नहीं है कि बालू हटाने के व्यापार में सरकार को कितनी रॉयल्टी उन्हें मिली। बाढ़ तो पहले भी आती थी पर पिछले दस बारह वर्षों से जो तबाही देखी जा रही है, वैसा तो कभी नहीं होता था।

इसके अलावा पिछले कुछ वर्षों से इस क्षेत्र में ईंट बनाने का व्यवसाय भी बड़ी तेजी से बढ़ा है और इसकी वजह से भी खेती तबाह हुई है। इसमें भी सारे नियम कानून को ताख पर रख कर स्वार्थी तत्वों ने पर्यावरण को नुकसान पहुँचाया है।

इस क्रियाकलाप के विरोध में एक मजबूत संगठन हमारे यहाँ उभरा है पर एक राजनैतिक दल और उसकी सरकार के आगे कुछ कर नहीं पा रहा है। हमलोगों ने स्थानीय कलेक्टर को स्थिति से अवगत करा कर परिस्थिति से बचाव की प्रार्थना की थी और पश्चिम बंगाल में प्रदूषण नियंत्रण परिषद को भी लिखा पर कोई नतीजा नहीं निकला।

इस संबंध में पिछले वर्ष हमलोगों को खबर मिली कि बांकुड़ा की एक स्वयंसेवी संस्था खादी ग्रामोद्योग, एक मौजे के उस जमीन का उद्धार करना चाहती है जिस पर मयूराक्षी की बाढ़ के कारण 1995 में बालू पट गया था। हमलोगों को आश्चर्य होता है कि उन्होंने भी इसमें कोई अपेक्षित रुचि नहीं दिखाई। कुछ गलती हमलोगों की भी है कि हमलोगों की तरफ से भी किसी ने इस पहल का उत्तरदायित्व नहीं निभाया और बात वहीं की वहीं रह गई। इस क्षेत्र में बहुत से ईंटे भट्ठे कार्यरत हैं।

इस पृष्ठभूमि में, विकास के नाम पर यदि विनाशकारी नीति को संरक्षण मिलता रहा तो मयूराक्षी नदी की धारा तो मरुभूमि में बदल जायेगी और हमारा क्षेत्र एक झील बन जायेगा। मयूराक्षी नदी और उसके आस-पास के क्षेत्रों की यही एक संक्षिप्त सी कहानी है।

सबिता कुमार राय

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