दीर्घोपयोगी विकास की संकल्पना


मानव ने आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण उन्नति की है, विशेषकर पिछली दो सदियों में, विकास तथा सुख-साधन वाली जीवनशैली को निर्मित करने में बहुत सफलता पाई है। दुर्भाग्य से यह भौतिक विकास हमारे पर्यावरण को नकारने की कीमत पर हुआ है, जिससे सम्पूर्ण मानवता का भविष्य व सुख-समृद्धि ही दाँव पर लग गए हैं क्योंकि मानव द्वारा प्रकृति का अत्यधिक दोहन, पर्यावरण को विनाश की ओर ले जा रहा है। परिस्थितियां इतनी खराब हो गई हैं कि पर्यावरण-विशेषज्ञों के साथ-साथ आम आदमी के मन में भी प्रश्न उठ रहे हैं क्या भौतिक व आर्थिक विकास प्राकृतिक साधनों की कीमत के आधार पर ही हो सकता है? क्या इससे बेहतर कोई तरीका नहीं है? कृषि और मानव-निवास की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये, क्या वनों को लगातार काटने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है?

शहरों, इमारतों, फैक्ट्रियों व शॉपिंग मॉलों के निरंतर निर्माण व विकास के लिये, जिस कृषि की भूमि को निरंतर प्रयोग में लाया जा रहा है, उसे बचाने का क्या कोई उपाय नहीं है? क्या सघन किस्म की कृषि (जिसमें कम से कम भूमि में अत्यधिक कृषि विकास का प्रयत्न रहता है) का सारे वर्ष करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है? क्या जीवाश्म ईंधनों के निरंतर दोहन एवं उपयोग पर कोई रोक नहीं होनी चाहिए? जिस उपभोग की संस्कृति के विकास के लिये हम लगातार अपने प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं, उसके सामने हमारे प्राकृतिक साधन कैसे टिक पाएँगे? ‘दीर्घोपयोगी विकास की संकल्पना’ इन्हीं प्रश्नों के उत्तर की व्याख्या करेगा। इस पाठ से आप दीर्घोपयोगी विकास की संकल्पना की जानकारी प्राप्त करेंगे।

उद्देश्य


इस पाठ के अध्ययन के समापन के पश्चात, आप-

- दीर्घोपयोगी विकास की उत्पत्ति व संकल्पना की व्याख्या कर पाएँगे;
- उचित भार उठाने के सामर्थ्य की संकल्पना को समझ पाएँगे;
- सार्वजनिक व निजी साधनों में अंतर कर पाएँगे;
- जनसंख्या विकास (वृद्धि) व साधनों की उपलब्धता के बीच सम्बन्ध स्थापित कर पाएँगे;
- साधनों के अनुचित शोषण के परिणामों को समझ पाएँगे व व्याख्या कर पाएँगे;
- आगामी भविष्य के लिये उपलब्ध साधनों के सही संरक्षण व प्रबंधन की आवश्यकता को समझ पाएँगे;
- उपलब्ध साधनों के उचित प्रयोग की आवश्यकता का वर्णन कर पाएँगे; एवं
- विनाश रहित विकास की आवश्यकता को समझ सकेंगे।

19.1 दीर्घोपयोगी विकास की संकल्पना का उद्भव (शुरुआत)


सन 1992 में रियो डी जनेरियो में संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित पर्यावरण व विकास के सम्मेलन (पृथ्वी-सम्मेलन) में विश्व भर के नेताओं ने मौसम में बदलाव व जैविक विविधता के प्रमुख मामलों पर आम सहमति बनायी थी। इस सम्मेलन के पश्चात ‘रियो सम्मेलन’ नामक एक घोषणापत्र जारी किया गया जिसका यह उद्देश्य था कि इक्कीसवीं सदी में पूर्ण रूप से दीर्घोपयोगी विकास किया जा सके। अतः इस तथ्य की उत्पत्ति इस सम्मेलन में हुई।

19.2 वहन क्षमता की संकल्पना


विकास के लिये माल और अन्य सेवाओं के निर्माण की आवश्यकता है- जिसके लिये साधनों की आवश्यकता होती है। ये साधन मुख्यतः प्रकृति द्वारा प्रदत्त हैं और इन्हें ‘प्राकृतिक संसाधनों’ का नाम दिया जा सकता है। हमें शीघ्र ही प्रकृति का सम्मान करना सीखना होगा और उपलब्ध साधनों का न्यायपूर्ण एवं जिम्मेदारी से प्रयोग करना होगा। ऐसा न करने पर हमारी आगामी पीढ़ियाँ इन प्राकृतिक संसाधनों से वंचित हो जाएंगी, जिसके फलस्वरूप इस पृथ्वी का भविष्य ही अंधकारमय हो जाएगा।

हमारे पर्यावरण की वर्तमान दयनीय स्थिति के मूल कारण हैं- विकास के नाम पर प्राकृतिक सम्पदा का अनियोजित, अतिदोहन तथा जनसंख्या की अतिशय वृद्धि।

लोगों की सुख-समृद्धि के लिये आर्थिक विकास अति आवश्यक है; हालाँकि इससे पर्यावरण की क्षति व विनाश हुआ है। आर्थिक विकास के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों का बढ़ता प्रयोग रोका नहीं जा सकता। बढ़ती हुई जनसंख्या को भी इन संसाधनों की अधिक आवश्यकता रहेगी। परन्तु इस स्थिति में प्रमुख प्रश्न यह आता है कि हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का सही ढंग से प्रयोग कैसे करें? क्या हम इन साधनों का इतना विवेकपूर्ण ढंग से प्रयोग कर सकते हैं कि हम उनका सही संरक्षण व बचाव कर पाएँ? क्या हम अभी भी कुछ वैकल्पिक एवं गैर परम्परागत साधनों की खोज व विकास कर सकते हैं? क्या इन वैकल्पिक साधनों का पुनरुत्पादन कर सकते हैं? यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी आगामी पीढ़ियों को एक साफ व सुचारु वातावरण प्रदान करें इसीलिये यह हमारा उत्तरदायित्व हो जाता है कि हम इस सम्पदा को उसकी प्रयुक्त होने की क्षमता अर्थात ‘वहन क्षमता’ (Carrying capacity) से अधिक शोषण न करे- व उसके संतुलन को बनाए रखे।

वहन क्षमता की संकल्पना को गाड़ी या बस जैसे जनपरिचित परिवहन के उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है। एक गाड़ी की अधिकतम भार उठाने की क्या क्षमता होती है? यह गाड़ी कितने अधिकतम लोगों का भार उठा सकती है- जिसके अन्तर्गत वह सुचारु ढंग से सड़क पर दौड़ सकती है। अगर इसकी वहन क्षमता से अधिक लोग इस गाड़ी में बैठेंगे, तो यह गाड़ी सड़क पर दौड़ते समय टूट जायेगी। अर्थात जिस प्रकार एक वाहन की अधिकतम भार सहने की एक सीमा होती है। ठीक इसी प्रकार से पर्यावरणीय सम्पदा के प्रयोग की भी एक सीमा होती है। अतः इस तथ्य को एक प्रणाली की अधिकतम भार सहने की क्षमता के रूप में देखा जा सकता है।

उसी तरह पर्यावरण की भी एक क्षमता है कि लगातार उपयोग करने के दबाव को एक सीमा तक सहन करे। यह वहन क्षमता प्राकृतिक संसाधनों के अधिक मात्रा में निकाले जाने से सीमित होती जाती है। बदले में यह अधिकतम मात्रा में प्रदूषण के निष्कासन के रूप में उभर कर आती है। यदि अत्यधिक मात्रा में संसाधनों का निष्कर्षण अथवा उपयोग किया जाए अथवा अवशोषित करने की क्षमता से अधिक मात्रा में प्रदूषकों से भर दिया जाए तो पर्यावरण का भयंकर विनाश हो सकता है।

यदि एक बार पर्यावरण क्षतिग्रस्त या नष्ट हो जाये तो उसको सुधारना कठिन है। पर्यावरण अपनी शुद्ध स्थिति या उपयोग करने वाली अथवा हानिरहित अवस्था में आने वाली क्षमता को खो बैठेगा। इस प्रकार पर्यावरण की वहन क्षमता को परिभाषित इस प्रकार किया जा सकता है, वह क्षमता जो पर्यावरण के अधिकतम उपयोग या उस पर आर्थिक अथवा अन्य मानवीय क्रियाकलापों के भार अथवा दबाव को सहन कर सकती है। प्रकृति का एक निश्चित रूप है एवं हम उस चरम बिंदु पर पहुँच गये हैं जिससे पारिस्थितिक क्षति एक आपदा का रूप ले लेगी।

19.3 दीर्घोपयोगी विकास (SUSTAINABLE DEVELOPMENT)


यह अति आवश्यक हो गया है कि हम मानव अपने लालच को काबू में रखें तथा अपनी आकांक्षाओं एवं आवश्यकताओं पर अंकुश लगाएँ। समय की मांग है कि हम अपने वातावरण का आदर करें तथा प्राकृतिक सम्पदा के असीमित दोहन पर रोक लगाएँ।

दीर्घोपयोगी विकास की मांग है कि प्राकृतिक सम्पदा के प्रयोग व उपभोग की मात्रा में समन्वय हो। एक ऐसी दर जिसमें इन संसाधनों का या तो कोई विकल्प हो सकता है अथवा इन्हें बदला जा सकता है। आर्थिक और औद्योगिक विकास इस तरह से होने चाहिए, जिससे पर्यावरण कि कोई भी ऐसी क्षति न हो जो सुधारी न जा सके। पर्यावरण व विकास के विश्व आयोग ने दीर्घोपयोगी विकास की निम्नलिखित परिभाषा दी है- दीर्घोपयोगी विकास एक ऐसा विकास है जिससे न केवल वर्तमान की आवश्यकताएँ पूरी होती हैं बल्कि आगामी पीढ़ियों की आवश्यकताओं की पूर्ति की क्षमता भी बनी रहती है।

यह परिभाषा दो महत्त्वपूर्ण बातों को उजागर करती है पहली, यह प्राकृतिक संसाधन न केवल हमारे वर्तमान के जीविकोपार्जन के लिये जरूरी है, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के जीविकोपार्जन के लिये भी उतने ही आवश्यक हैं। दूसरी, वर्तमान की किसी भी विकास-सम्बन्धी क्रिया या कार्यक्रम को करते समय उसके भविष्य में आने वाले परिणामों को ध्यान से रखना आवश्यक है। जैसे कि पहले भी कहा जा चुका है, गैर-दीर्घोपयोगी विकास के मुख्य कारण हैं- निरंतर बढ़ती जनसंख्या तथा प्राकृतिक संसाधनों का निरंकुश दोहन। विकासशील देशों में प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग मुख्यतः मानव जनसंख्या के लिये भोजन, चारा, लकड़ी और निवास सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने में जाता है।

मानवी क्रियाकलाप, जैवमंडल के सम्पोषण को लगातार प्रभावित करती रहती हैं। मुख्य रूप से यह कहा जा सकता है कि जीवन-स्तर में वृद्धि लाने वाली सभी मानवीय गतिविधियाँ पर्यावरण को प्रभावित करती हैं। इन गतिविधियों में आवश्यकता से अधिक मछली पकड़ना, कृषि, शुद्ध जल की आपूर्ति का एक सीमा से अधिक प्रयोग, जंगलों को काटना व औद्योगीकरण शामिल हैं। ये पर्यावरणीय अवक्रमण एवं सामाजिक तनाव का कारण है जिसके पारितंत्र में नकारात्मक परिवर्तन आ जाते हैं।

जैव मंडल को प्रभावित करती मानवीय प्रक्रियाएँमहात्मा गांधी का सिद्धान्त ‘पर्याप्तता’ की ओर संदेशित यह कथन- ‘‘यह पृथ्वी हर व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पर्याप्त देती है, परन्तु उसके लालच के लिये नहीं’’ यह कथन शायद ही वर्तमान काल के अलावा किसी अन्य काल के लिये प्रासंगिक सिद्ध हो। उपभोग नामक कीड़े ने हम सबको काट लिया है। हम किसी भी पर्यावरणीय कीमत पर भौतिक इस्तेमाल की वस्तुओं का उपयोग करना चाहते हैं और हमें इस बात की चिन्ता नहीं है कि हम अपने जीवन की किसी न किसी अवस्था पर अपने व्यक्तिगत लालच पर नियंत्रण पाएँ तथा एक ऐसे सामूहिक ‘लालच’ को जन्म दें जो कि आने वाली पीढ़ियों को एक सुन्दर जीवन प्रदान करने की ओर निर्दिष्ट हो सके।

पर्यावरण की दृष्टि से सम्पोषित समाज वह है जो लोगों की वर्तमान की आवश्यकताएँ जैसे वर्तमान की खाद्य सामग्री, शुद्ध हवा, शुद्ध पानी व निवास-स्थलों का प्रयोजन जो भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये कोई समझौता नहीं करने की क्षमता रखे।

एक अध्ययन


ब्राजील देश के अमेजन बेसिन के वर्षा वन में चीको नामक एक व्यक्ति (सन 1944 में पैदा हुआ) रहता था और सुखी से जीवन जीता था। इसने अपने पिता से विरासत के रूप में तकरीबन सौ जंगली रबड़ के वृक्षों को पाया था, जिससे इसकी रोजी-रोटी चलती थी। चीको प्रतिदिन बड़ी सावधानी से इन वृक्षों के कुछ भागों को काटकर इस प्रकार लैटेक्स (रबड़) को इकट्ठा करता था। जिससे इन वृक्षों को कोई नुकसान न पहुँचे। वह इस वन-सम्पदा से गिरने वाले फल, अन्य फल तथा अन्य प्राकृतिक सामग्री को इकट्ठा करता था। इस बीच कुछ जमीन के सट्टेबाज इस जगह पर आए तथा जल्द से जल्द मुनाफा कमाने के उद्देश्य से इन वनों को काटने लगे- ताकि इस भूमि को मवेशियों के लिये उपयोग में लाया जा सके।

वृक्षों से प्रदत्त किसी बचाव के बिना, यह भूमि कमजोर पड़ गई तथा भारी वर्षा के कारण भूमि में विद्यमान सारे पोषक तत्व बह गए। इससे यह भूमि इतनी ऊसर हो गई कि इस पर घास भी उग न पाई फलस्वरूप इस पर चरने वाली एक भी गाय को पोषण नहीं मिल पाया। इसी बीच ब्राजील सरकार ने अन्तरराष्ट्रीय फंड (अनुदान) की मदद से इस जमीन पर बड़े पैमाने पर सड़कों का निर्माण कर दिया। चीको और उसके साथियों ने इसका विरोध किया। उन्होंने अपनी सरकार को इस बात के लिये मजबूर किया कि वे इस वन का और अधिक शोषण रोकें तथा इसे एक संरक्षित स्थल घोषित करें। यह बात अटकलबाजों को बिल्कुल रास न आई और सन 1988 में उनके लोगों ने चीको की जान ले ली। इस स्थिति के लिये राजनीति, अर्थव्यवस्था व अन्तरराष्ट्रीय व्यापार प्रणाली तीनों जिम्मेदार हैं।

पाठगत प्रश्न 19.1


1. दीर्घोपयोगी विकास को परिभाषित कीजिए।
2. वे कौन सी दो मुख्य बातें हैं जिनको दीर्घोपयोगी विकास पाने के लिये ध्यान में रखना आवश्यक है?
3. महात्मा गांधी द्वारा ‘पर्याप्तता’ से सम्बन्धित कथन का बयान कीजिए।
4. पर्यावरण के ‘अधिकतम भार उठाने की क्षमता’ से आप क्या समझते हैं।

19.3 जनसंख्या वृद्धि और साधनों की उपलब्धता में सम्बन्ध


तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या और मनुष्य की भौतिक सुखों की बढ़ती हुई इच्छाओं ने धरती माता व उसके पर्यावरण पर भारी दबाव डालना शुरू कर दिया है। भारत की जनसंख्या ने अभी से ही 100 करोड़ की सीमा पार कर ली है। हमारी धरती के छोटे से इतिहास में ही मानवीय प्रक्रियाएँ (क्रियाकलाप) पृथ्वी की व्यवस्था की प्राकृतिक गतिविधियों पर गहरा असर छोड़ गई हैं।

खाद्य उत्पादन, औद्योगिक विकास, अन्तरराष्ट्रीय व्यापार, ऊर्जा का निर्यात तथा शहरीकरण जैसी कई मानवीय प्रक्रियाएँ हमारी पृथ्वी की व्यवस्था को छोटे, स्थान से लेकर बड़े वैश्विक स्तर तक परिवर्तित कर रही है। कृषि और पशुपालन की कुछ अनुपयुक्त क्रियाएं, उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों का विनाश व मछलियों के समूहों का घटना, परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप से, मानव जनसंख्या की वृद्धि से सम्बन्धित है।

मानव जनसंख्या व विकसित देशों में लोगों की आर्थिक संपन्नता हमारी प्राकृतिक सम्पदा के घटने व जैविक विविधता के लोप के मसलों से जुड़ी हुई है। असंपोषितता का मुख्य कारण निरंतर बढ़ती हुई मानव जनसंख्या द्वारा प्राकृतिक सम्पदा की आवश्यकता से अधिक शोषण के मामले से जुड़ी हुई है। मानव जाति की बढ़ती हुई जनसंख्या पृथ्वी की पारितंत्र पर इस तरह हावी हो गई है कि हमारी प्राकृतिक सम्पदा की मात्रा व स्तर का वैश्विक स्तर पर विनाश हो रहा है।

- हमारी पृथ्वी का लगभग आधा हिस्सा कृषि, उद्योग, निवास-निर्माण व व्यापार जैसी मानवीय प्रक्रियाओं द्वारा परिवर्तित रूप धारण कर चुका है।

- हाल में किए गए अध्ययन बताते हैं कि कृषि योग्य भूमि पर जो प्राकृतिक वनस्पति पेड़-पौधे हैं; उनमें से प्रायः 50% को चारागाहों, शहरों व खेतों के रूप में परिवर्तित किया जा चुका है।

- वर्तमान काल में, हमारे अलवणीय पानी व भूमिगत जल के स्रोत, कई जगह घट रहे हैं। (उनकी मात्रा कम हुए जा रही है।)

- जलीय पर्यावरण व इसकी उत्पादकता में भी गिरावट हो रही है। समुद्रों में पाई जाने वाली मछलियों का अत्यधिक दोहन हुआ है, विश्व की कोरल रीफ एवं मात्स्यकी पर मानव प्रक्रियाओं का विपरीत प्रभाव पड़ा है।

- पिछले 5 वर्षों में ही, मनुष्यों द्वारा निर्मित बेहतर मछली पकड़ने के तकनीकों के कारण, संसार भर के समुद्र अपनी 90% परभक्षी मछलियों को खो चुका है।

- भूमि एक मूल्यवान सम्पदा है, जिसका मनुष्य जाति ने आरम्भ से ही माल व सेवाओं को उत्पन्न करने के लिये प्रयोग किया है। भूमि का विभिन्न तरीकों से दोहन व बदलाव हुआ है। जमीन का प्रयोग निवास-स्थल बनाने के लिये व शहरी औद्योगिक उद्देश्यों के लिये निरंतर हो रहा है। कृषि भूमि का उपयोग खाद्यान्न उगाने के लिये व चराई के लिये भी होता आया है। मानव-जाति के हस्तक्षेप व दोहन से दूर-दूर तक के वन भी बच नहीं पाए हैं।

- मानव जाति की जनसंख्या विस्फोट का सबसे गंभीर परिणाम बढ़ती हुई गरीबी है। गरीबी, मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण, दोनों के लिये एक बड़ी चुनौती है। संसार के अधिकतर निर्धन लोगों को जीवन की मूल आवश्यकताओं की उपलब्धता नहीं है। इनमें से स्वास्थ्य सेवाएँ, शिक्षा सेवाएँ व एक फलवन्त जीवन शामिल हैं।

इन निर्धन लोगों का दैनिक जीवन पर्याप्त भोजन, पानी और ईंधन को प्राप्त करने में जुटा रहता है। अपने को जीवित रखने के लिये निर्धन लोग थोड़ा सा खाद्यान्न उगाने के लिये वन, भूमि व घास के मैदानों को नष्ट कर देते हैं। पर्यावरण से प्रदूषण तथा गरीबी, गहन रूप से जुड़ी हुई समस्याएँ हैं। यही नहीं, गरीब लोग आर्थिक सुरक्षा के लिये अक्सर अधिक बच्चों को जन्म देते हैं, जिससे जनसंख्या में वृद्धि होती है।

प्राकृतिक पूंजी का अपक्षीर्णन

19.4 सार्वजनिक व निजी सम्पदा (संसाधन)


सम्पदा या संसाधन वह उपयोगी वस्तु है जिसको मनुष्यों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये प्रयोग में लाया जा सकता है। यह मानव जीवन की विडंबना है कि सार्वजनिक सम्पदा- जो किसी की निजी संपत्ति नहीं हैं और मुफ्त में सबके इस्तेमाल के लिये उपलब्ध है- उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देता। सार्वजनिक सम्पदा का अधिकतर गैर-जिम्मेदारी से इस्तेमाल होता है और उसको नुकसान पहुँचाया जाता है। सार्वजनिक संपत्ति का अधिकतर आवश्यकता से अधिक दोहन किया जाता है। पर्यावरण के स्तर में गिरावट का एक मुख्य कारण सार्वजनिक सम्पदा का आवश्यकता से अधिक दोहन है।

ये साधन बिना मूल्य के उपलब्ध हैं व किसी की निजी संपत्ति नहीं है। इनके प्रयोग का कोई शुल्क नहीं है। हवा, पानी, भूमि, वन, समुद्र, नदियाँ, पर्वत, प्रवासी पक्षी एवं वन्य जीवन इनके उदाहरण हैं। इसी तरह हमारी सड़कें, गलियां, बाग, पार्क व सांस्कृतिक स्मारक भी सार्वजनिक संपत्ति की श्रेणी में आते हैं और यह तो हम देख ही सकते हैं कि हम लोग इनके संरक्षण की ओर कितना अधिक ध्यान देते हैं। ये सब पब्लिक द्वारा तिरस्कृत हैं।

इसके ठीक विपरीत निजी तौर से संचालित संपत्ति चाहे वह उद्योग, कृषि भूमि, घर, इमारतें, दफ्तर या बाग बगीचे हों- इनके मालिक इनकी अच्छी देख-रेख करते हैं। अधिकांशतः यह सम्पदा खूबसूरती के साथ रखी जाती है। प्राकृतिक सम्पदा की ओर ऐसा ही ध्यान देने के लिये हमारी मनोदृष्टि में परिवर्तन की आवश्यकता है। निम्न उदाहरण हमारी ‘पब्लिक’ (सार्वजनिक) सम्पदा द्वारा झेली गयी कठिनाइयों को दर्शाते हैं।

- वायु एक अनमोल संसाधन है, जिसका कोई मालिक नहीं है। शायद इसी कारण हमने इस वायु को बुरी तरह प्रदूषित करने की उसने खुद को पूरी आजादी दे डाली है। लकड़ी, कोयले, कूड़ा-करकट व सूखे पत्तों का निरंकुश जलाना, वाहनों द्वारा डीजल व पेट्रोल के धुएँ को निरंतर हवा में छोड़ना तथा उद्योगों द्वारा हानिकारक तत्वों का हवा में छोड़ा जाना इनके प्रमुख प्रदूषण के तरीके हैं।

- समुद्र किसी की सम्पत्ति नहीं है- इसीलिये हर व्यक्ति को यह आजादी है कि वे समुद्री जीव-जन्तु (जैसे मछलियों) को अपनी मर्जी के अनुसार पकड़ सकता है। ‘ट्रॉलर’ जैसी मशीनों के माध्यम से कछुओं और मछलियों जैसे समुद्री जीवों को निरंतर पकड़ा जाता है- जिससे इन जन्तुओं की संख्या में गिरावट आ गई है। शहरी कूड़ा करकट अक्सर समुद्रों में फेंक दिया जाता है। इस प्रदूषण से कोई भी विचलित नहीं होता।

- हमारी नदियां भी सार्वजनिक प्रयोग के लिये हैं और किसी भी व्यक्ति की निजी संपत्ति नहीं हैं। शहरों व कस्बों की नालियां, कूड़ा-करकट व उद्योगों की छोड़ी हुई गंदगी को अक्सर इन नदियों में डाल दिया जाता है। यही नहीं, प्रतिवर्ष, कई त्योहारों के दौरान सैकड़ों मूर्तियों को पूजन के पश्चात इन नदियों में विसर्जित कर दिया जाता है। इतने वर्षों से चले आ रहे ऐसे दुरुपयोग ने हमारी कई नदियों को गंदे नालों का रूप दे दिया है।

- वन हमारी सार्वजनिक सम्पदा है। उष्णकटिबंधीय वनों के उन्मूलन एवं अपक्षीर्णन के दो मुख्य कारण हैं- अर्थव्यवस्था व राजनीति। गरीबी के कारण भूमिहीन निर्धन लोग वनों की ओर भाग जाते हैं, जहाँ उनका मुख्य प्रयास रहता है- पेट की भूख शान्त करने के लिये थोड़ा सा खाद्यान्न उगाने की कोशिश। एक अच्छी खबर यह है कि इंडोनेशिया, मैक्सिको व ब्राजील जैसे देशों की सरकारें न केवल निर्धनों को वनों में बसने की आज्ञा देती है, बल्कि उन्हें उस जमीन का स्वामित्व भी देती है, जिन्हें वे साफ करते हैं।

इस कार्यशैली में अच्छी बात यह है कि इससे गरीबों की गरीबी तो जरूर घटती है- परन्तु बुरी बात यह है कि नये बसने वालों को यदि इन वनों के दीर्घोपयोगी विकास की विधियाँ न सिखाई जाएँ, तो वे फिर पर्यावरण के विनाश की ओर जाएँगे। पार्क, सड़कें व गलियों जैसी सार्वजनिक संपत्ति पर कूड़ा फेंकना और उनका अक्सर बिना किसी संकोच के दुरुपयोग करना होता है। सार्वजनिक संपत्ति की तरफ इस व्यवहार से जीवन स्तर में गिरावट तो आती ही है- इसके अतिरिक्त हम सभी के जीवन पर इसका बुरा प्रभाव भी पड़ता है।

इस प्रकार बिना मूल्य उपलब्ध साधनों की ओर हमारे इस गैर-जिम्मेदारी के चिंतन में परिवर्तन आना आवश्यक है। यह हम सब की जिम्मेदारी बनती है कि जिस तरह हम अपनी निजी चीजों का ध्यान रखते हैं, उसी तरह हम सार्वजनिक सम्पदा का भी ध्यान रखें।

पाठगत प्रश्न 19.2


1. पर्यावरण की गिरावट के पीछे एक मुख्य कारण बताइये तथा छः सार्वजनिक साधनों के नाम बताइए।
2. जनसंख्या विस्फोट का सबसे गंभीर परिणाम क्या है?
3. अपने मुहल्ले, राज्य या शहर की एक महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक सम्पदा का नाम लीजिए, जिसके पूर्ण विनाश से शहर के नागरिकों के लिये जल के अभाव का खतरा पैदा हो गया है।

19.5 संसाधनों के अत्यधिक दोहन व असंतुलित (गलत अन्यायपूर्ण) इस्तेमाल के परिणाम


इन संसाधनों को मुख्यतः तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है- अनंत सम्पदा (सदा, चिरस्थायी रहने वाली)- जिसमें सूरज की रोशनी, वायु व बहता पानी शामिल है। नवीकरण होने वाली सम्पदा (जिसका दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है) इसमें स्वच्छ वायु और जल, भूमि, वन-पदार्थ और खाद्यान्न शामिल हैं। अनवीकरणीय सम्पदा- जिसके एक बार प्रयोग होने से उसको दोबारा इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। (जैसे जीवाश्म ईंधन, धातु व रेत)

सौर ऊर्जा, स्वच्छ वायु, हवा, अलवणीय सतही जल, उपजाऊ जमीन व खाने योग्य जंगली पौधे सार्वजनिक रूप से प्रयोग के लिये उपलब्ध हैं। सौर ऊर्जा एक अनन्त सम्पदा है। यहाँ तक कि वायु और बहते पानी की सम्पदा को भी सौर-ऊर्जा एक परोक्ष रूप से निरंतर पुनर्स्थापित करती है। सौर ऊर्जा तब तक रहेगी जब तक सूरज चमकता रहेगा।

पेट्रोलियम (तेल), लोहा, भूमिगत जल (भूमि की सतह के नीचे पाये जाने वाला जल), और उगाए गए पौधे कुछ ऐसे संसाधन हैं जो सामान्य रूप में उपलब्ध नहीं है। इस प्रकार की सम्पदा को केवल उपयुक्त तकनीकों के प्रयोग द्वारा बहुत मेहनत से निकाला जाता है। उदाहरणतः पेट्रोलियम को भूमि के नीचे से निकालने के पश्चात, उसे साफ करने की कई प्रक्रियाएँ करनी पड़ती हैं, तब जाकर वह बाजार में वितरण के लिये तैयार हो पाता है। इन मामलों में, संसाधनों की उत्पत्ति तब होती है, जब प्राकृतिक सम्पदा (प्राकृतिक संसाधन) और मानव-शक्ति का मेल हो।

यदि नवीनीकृत होने वाले संसाधनों को एक सीमा से अधिक खर्च न किया जाए, तब प्राकृतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से ही उनके कुछ घंटों से लेकर कुछ दशकों के समय-अंतराल में ही पुनः प्रयोग योग्य हो जाते हैं। वन, घास, भूमि, जंगली पशु, अलवणीय पानी, स्वच्छ वायु व उपजाऊ भूमि इस सम्पदा के उदाहरण है। हमारे पारिस्थितिक पद-चिह्न हैं- पृथ्वी के जैविक उत्पादकता क्षेत्र की वह मात्रा, जो संसाधनों को उत्पादन करने योग्य होने के साथ-साथ उन संसाधनों के उपयोग द्वारा उत्पन्न अपशिष्टों को अवशोषित करने की क्षमता रखती है।

प्राकृतिक संपदा का उपयोग व अक्षीर्णनमानव-जाति का पर्यावरण सम्बन्धी ‘फुटप्रिंट’ धरती की अधिकतम भार उठाने की क्षमता की सीमा से आगे है। जिस गति से मानव जाति नवीकरण होने वाली सम्पदा का उपभोग कर रही है, वह पृथ्वी की उनके सृजन करने की गति से अधिक है।

विकसित देशों में अधिकांश लोगों का पर्यावरण-सम्बन्धी फुटप्रिंट बहुत ज्यादा है क्योंकि उन लोगों की नवीनीकृत होने वाली संसाधनों के उपभोग भी मात्रा में बहुत ज्यादा है।

पर्यावरण-सम्बन्धी ‘फुटप्रिंट’ के तथ्य के निर्माताओं का कहना है कि अमरीका के उपभोग का स्तर इतना अधिक है कि वर्तमान तकनीकों के स्तर पर बाकी दुनिया के देशों को वहाँ तक पहुँचने के लिये प्रायः चार अन्य पृथ्वियों जितनी जमीन के शोषण की आवश्यकता पड़ेगी।

19.5.1 साधनों का वितरण


उपलब्ध सम्पदा के न्यायपूर्ण बंटवारे की (साफ एवं न्यायपूर्ण) एक बड़ी आवश्यकता है। पर्यावरण सम्बंधी ‘फुटप्रिंट’ के आंकड़े व उक्त विवरण यह स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि हमारे संसार में साधनों का वितरण न्यायसंगत नहीं है। इसका परिणाम यह है कि संसार के विकासशील और कम विकसित देशों में गरीबी और अभाव की स्थिति है।

देखा गया है कि जब कभी साधन अधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं, तब लोग उनका गैर-जिम्मेदार तरीके से, बिना दूसरों की सहूलियत का ध्यान किए, प्रयोग करते हैं। यह आवश्यक है कि हमारे संसाधनों का प्रयोग बुद्धिमत्ता से हो। धनी व्यक्तियों की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वे देखें कि साधनों का वितरण निर्धनों में भी हो।

यह पाया गया है कि विश्व के विकसित देशों की 20 % जनसंख्या, संसार के 80% प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग करती है।

19.6 आगामी पीढ़ी के लिये संसाधनों के सही संरक्षण व संचालन की आवश्यकता


प्राकृतिक सम्पदा हमारे पर्यावरण द्वारा प्रदान किए गए माल व सेवाएँ हैं। बीते समय में जब लोग मात्र भरण-पोषण के स्तर पर निर्वाह करते थे, तब प्राकृतिक सम्पदा का प्रयोग स्थानीय स्तर तक ही सीमित रहता था। परन्तु अब इस दोहन का प्रभाव स्थानीय स्तर से भी हटकर कहीं बड़े पैमाने पर होता है।

पेड़ की छाल (उदाहरणः टैक्सस), जंगली फल, रेजिन, पौधों द्वारा प्राप्त रंजक, हाथों से बनाए गए कागज की लुग्दी, कुछ क्षेत्रों में पाए जाने वाली अन्जान पौधों की जड़ें, लाइकेन- इन सबकी व्यावसायिक तौर पर फसल इकट्ठी की जाती है और दूर दराज के इलाकों के बाजारों में इन्हें बेचा जाता है। मानव-जाति के हस्तक्षेप के कारण हमारे प्राकृतिक संसाधनों में कई कारणों से गिरावट आ रही है- बढ़ती हुई जनसंख्या की बढ़ती मांग, साधनों के प्रयोग के लिये तकनीकी ज्ञान का इस्तेमाल के साथ-साथ प्रति व्यक्ति संसाधन के उपभोग की दर में वृद्धि।

एक विश्व रिपोर्ट के अनुसार, विकासशील देशों में पनपती हुई उपभोक्ता वर्ग की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। उपभोक्ता और उपभोक्तावाद के तेजी से बढ़ते हुए प्रभाव के कारण यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपने प्राकृतिक संसाधनाें का आगामी भविष्य के लिये संरक्षण करें।

जैविक विविधता, पारितंत्र की स्थिरता और संचालन के नियंत्रण तथा मानव जाति के संरक्षण व सुख-समृद्धि, दोनों के लिये एक बहुत ही अहम भूमिका अदा करती है। मानवीय प्रक्रियाओं और पर्यावरणीय अवक्रमण, दोनों के हीं कारण जैविक विविधता में भारी कमी हो रही है। यह एक बहुत ही चिन्ता का विषय है क्योंकि हम यह, ठीक समय में, समझ नहीं पा रहे हैं कि हम कैसी अनमोल सम्पदा को खो रहे हैं। जैविक विविधता निम्नलिखित रूपों में एक अनमोल सम्पदा है- (1) नए पौधों के रूप में (2) औषधि वाले पौधों के रूप में (3) पेट्रोलियम के अनुकल्पों के रूप में (4) ‘बायोसाइड’ औषधियों एवं अन्य उत्पादों इत्यादि के रूप में।

पृथ्वी की पर्यावरण-व्यवस्था के सही संचालन के लिये नए प्रकार के जीवों की आवश्यकता होती है। जैविक विविधता की हानि से नये जीव की विकास-क्रिया या तो रुक जायेगी; अथवा परिवर्तित पर्यावरण की स्थिति के उपयुक्त नए प्राणियों (अथवा उनके अंगों) की विकास-प्रक्रिया में रोक लगेगी।

बढ़ती हुई जनसंख्या, सम्पदा के उपभोग और प्रदूषण के कारण, जैविक दृष्टिकोण से विशिष्ट निवास स्थल नष्ट हो रहे हैं। जैविक विविधता का ह्रास हमारे नये संसार की सबसे चिंताजनक समस्याओं में से एक है। ऐसा भी हो सकता है कि हम उन पौधों को खो रहे हों जो हमें कैन्सर व एचआईवी (HIV) जैसे रोगों से मुक्ति दे सकें। भावी पीढ़ियों के लिये हमें जैविक विविधता को संरक्षित करने की आवश्यकता है ताकि वे जीव जगत से अनगिनत प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से लाभ उठा सकें।

अपनी भविष्य की पीढ़ियों के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी पर्यावरण व्यवस्था को सकुशल रखें। इस व्यवस्था में हमारे पारितंत्र जैसे वन, मरुस्थल, चारागाह तथा समुद्र, सागर जैसे जलाशय शामिल हैं। उनको भी इसी जैविक विविधता का प्रयोग करने का अवसर मिलना चाहिए। यह उनके लिये भी भोजन, औषधि, लकड़ी, रेशे इत्यादि को प्रदान करने के काम आ सकती है। यही नहीं, आने वाली पीढ़ियों को उन नए पौधों व जन्तुओं से मिलने का अवसर प्राप्त होना चाहिए, जो अपनी प्रजाति को बनाए रखने के लिये निरन्तर विकसित होते रहते हैं।

जोती हुई अथवा व्यवसायिक जंगली पौधों की जातियों में कई ऐसी जीन हैं, जिनका प्रयोग भिन्न क्षेत्रों में उगाए जाने लायक विभिन्न उपयोग में लाये जाने वाले पौधों के स्तर को बेहतर बनाने में किया जा सकता है। उदाहरणतः जंगली पौधों में स्वाभाविक बचाव की प्रक्रियाएं विद्यमान हैं (बीमारियों, कीटाणुओं, एवं पीड़कों को मारने वाली जीनें)। ऐसी जीनें बीमारियों से बचाव करने में सहायक हैं। मानवीय गतिविधियों द्वारा भूमि, वायु और जल के स्तर में गिरावट उस प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुँचा सकती है, जिसका पूरी पारिस्थितिकी तंत्रों पर प्रभाव पड़ता है। यह प्राकृतिक सम्पदा पृथ्वी पर बसे सब प्राणियों का निवास स्थल भी है। इन प्राणियों में मानव जाति भी शामिल है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम इसी पर्यावरण व्यवस्था के अंग हैं और यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम इस पृथ्वी के संरक्षण की भरपूर कोशिश करें। यदि हम इन निवास स्थलों को अन्य प्राणियों के लिये नहीं बचायेंगे, तो यह हमारी ही बड़ी भूल होगी।

पर्यावरणीय अवक्रमण का अर्थ है वातावरण के स्तर में गिरावट तभी होती है जब संभावी रूप से नवीनीकृत होने वाले संसाधनों के इस्तेमाल की दर पुनः स्थापित होने की दर से अधिक हो। इन नवीनीकृत होने वाले तत्वों में भूमि, घासीय भूमि (चारागाह), वन तथा वन्यजीव शामिल हैं। यदि एक सीमा से अधिक इतना दोहन चलता जाए, तब ये साधन या तो अनवीनीकृतों की श्रेणी में पहुँच जाते हैं (कम से कम हमारे जीवन काल के दौरान) अथवा विलुप्त हो जाते हैं। अतः हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम इन साधनों का उचित ढंग से प्रयोग करें।

हमारा प्रयास एक ऐसे सम्पोषित समाज के विकास के लिये होना चाहिए जो कि पर्यावरण को अत्यधिक हानि पहुँचाये बिना अपनी अर्थव्यवस्था व जनसंख्या के आकार को सही तरह से संचालित करता है। हमारा प्रयास इस ओर भी होना चाहिए कि पृथ्वी की पर्यावरण से सम्बन्धी प्रक्रियाओं को सोख लेने की क्षमता कायम रहे तथा वह अपनी प्राकृतिक सम्पदा को पुनःस्थापित कर सके। यही नहीं बल्कि सैकड़ों व हजारों वर्षों तक की लम्बी अवधि तक उसकी मानव जाति और अन्य प्रकार के जीव जन्तुओं को सहारा देने की क्षमता भी बनी रहे। इस कार्यकाल के दौरान, समाज का प्रयास होना चाहिए कि वह न केवल वर्तमान काल के लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करे बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिये भी इस प्राकृतिक सम्पदा को बचा कर रख सके।

पृथ्वी के सही संरक्षण व संचालन की हम सब की नैतिक एवं मूल्यात्मक जिम्मेदारी बनती है। सच तो यह है कि पृथ्वी को हमारी इतनी जरूरत नहीं है जितनी कि हमें पृथ्वी की। हमारा संरक्षण पृथ्वी की सही देख-रेख पर निर्भर है।

अगर हम यह सोचते हैं कि अब हमें पृथ्वी के सही संचालक बनने योग्य पर्याप्त ज्ञान की प्राप्ति हो गई है तो यह हमारी भूल (धारणा) है। हमें तो कुल मिलाकर इस बात का ज्ञान भी नहीं है कि पृथ्वी पर जीव-जन्तुओं की कितनी जातियाँ वास करती हैं; उनकी विशिष्ट भूमिकाएँ क्या हैं और वे किस प्रकार एक दूसरे के संदर्भ में व अपनी अजैविक प्रकृति के साथ सम्बन्धित हैं।

जब भी हम पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग करते हैं, तब हम पृथ्वी के ओर आने वाली पीढ़ियों के ऋणी हो जाते हैं। हमारी यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि हम इस ऋण को चुकाएँ- कम से कम पृथ्वी को वर्तमान की दशा में कायम रखें। वास्तव में, हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि हमारी सारी क्रियाओं का असर और हमारे सारे छोटे-बड़े निर्णयों का आने वाली सात पीढ़ियों पर क्या प्रभाव पड़ सकता है।

19.7 बिना विनाश के विकास


आज से पहले शायद ही कभी, हमारे वातावरण को हुई क्षति और विनाश इतने स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ा हो। जिन पर्वतों की ढलानें कभी हरे भरे वृक्षों से लदी थीं, वही ढलानें आज वीरान और बंजर दिखाई पड़ती हैं, जो नदियां एक समय में स्वच्छ जल से भरी थीं, वही अब मटमैले पानी व गंदगी से भरी हुई दिखती हैं। हम कभी-कभी प्रदूषित हवा में सांस लेने को भी मजबूर हो जाते हैं। हम अपने गंदगी (अपशिष्टों), कूड़े आदि का प्रबंधन करने में विफल रहे हैं और इसकी कीमत हमें अपने स्वास्थ्य की गिरावट के माध्यम से चुकानी पड़ रही है।

संक्षेप में हम यह बड़े विश्वास से कह सकते हैं कि, हमने एक खास किस्म के विकास के नाम पर अपने पर्यावरण को हानि पहुँचाई है और उसका विनाश किया है। बात यहाँ तक आ पहुँची है कि अब इस मामले पर वार्तालाप व चर्चा करने का वक्त ही समाप्त हो चुका है। अब तो केवल हमारी इस बची हुई धरोहर को बचाने के लिये, ठोस कदम उठाने का ही समय बचा है।

इस दिशा में उठाए जाने योग्य कुछ कदम निम्नलिखित हैं:

ऊर्जा और प्राकृतिक सम्पदा को बचाने की विधियों को अपनाएँ।

- कूड़े-करकट और विषैले पदार्थों को न्यूनतम करने के लिये नई तकनीकों की खोज व इस्तेमाल।
- जैव निम्नकरणीय, नवीकरणीय एवं पुनः उपयोग में लाए जाने वाले पदार्थों का उपयोग करके।
- लोकजन में पर्यावरण सम्बन्धी चेतना व शिक्षा का विकास करके।

पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं को तीनों स्तरों पर उठाने की आवश्यकता हैः

- तत्कालीन स्थानीय समस्याएँ जैसे कि पानी का प्रदूषण तथा अपशिष्ट प्रबंधन, इत्यादि को समुदाय के समक्ष लाने की आवश्यकता है।
- राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर अम्ल वर्षा, बाढ़, वायु प्रदूषण व जंगलों के काटने जैसी क्षेत्रीय समस्याओं का सामना किया जा सकता है।
- मौसमी परिवर्तन, ओजोन स्तर में गिरावट तथा सम्बन्धित वैश्विक स्तर की समस्याओं के सुलझाने में वैश्विक स्तर के संगठनों का इस्तेमाल किया जा सकता है।

वैश्विक पैमाने की सोच व स्थानीय पैमाने पर कार्यशीलता


यदि समय रहते-रहते किसी भी स्थानीय व क्षेत्रीय पर्यावरण सम्बन्धी समस्या को सुलझाया नहीं जाता है, तो वह एक बड़े पैमाने की वैश्विक समस्या बन जाती है। यदि हमारे समुदाय स्थानीय मुद्दों से तत्काल निपटने की कोशिश करें, तो उनको बड़ी कठिनाइयों के रूप में परिवर्तित होने से रोका जा सकता है। अतः वैश्विक पैमाने की सोच व स्थानीय पैमाने पर ठोस कदम हमारी प्रेरणा होनी चाहिए।

वे न्यूनतम कार्य जो हम कर सकते हैं:
हमारे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में व हमारे पर्यावरण के बचाव के लिये हममें से हर एक व्यक्ति एक जिम्मेदार भूमिका अदा कर सकता है।

जीवाश्म ईंधनों का संरक्षण


- जरूरत न होने पर सदा पंखों और बत्तियां को बुझाए रखें।
- कमरों के भीतर ठंडी हवा को आने दें; जिससे वातानुकूलन का कम से कम प्रयोग हो।
- बिजली के उपकरणों का न्यूनतम प्रयोग करें।

जल-संरक्षण


- जितनी आवश्यकता हो केवल उतना ही जल प्रयोग करें।
- लीक करते नलकों और पाइपों की शीघ्र मरम्मत करवाएँ।
- नदियों, तालाबों जैसे जलाशयों को प्रदूषण न करें।
- प्रतिदिन अपनी गाड़ियों व वाहनों को न धोएँ।
- बारिश के पानी को आगामी प्रयोग के लिये एकत्रित करें।
- ‘यमुना बचाओ आंदोलन’ जैसे नदियों की सफाई के कार्यक्रमों में सहयोग दें।

वृक्षों का संरक्षण


- कागज व कागज से बने पदार्थों का कम प्रयोग करें।
- प्रयोग में लाए गए कागज का पुनः प्रयोग करें।
- लिखने के लिये प्रयोग में आने वाले कागज का पूर्ण प्रयोग करें।
- वृक्षारोपण करें तथा उन वृक्षों की देख-रेख करें।

वायु को स्वच्छ रखें


- धूम्रपान बन्द करें।
- सूखे पत्तों, कागजों व अन्य कूड़े-करकट को न जलाएँ।
- ‘कैटालिटिक कन्वर्टर’ (Catalytic converter) वाले वाहनों का ही सड़क पर प्रयोग करें।
- अपने वाहन की भली-भांति देख-रेख करें।
- फैक्ट्रियों में प्रदूषण के नियंत्रण की विधियों को लागू करें।

न्यूनतम कूड़ा-करकट फैलाएँ


- केवल उस सामान को खरीदें, जिसमें या तो कम पैकिंग हो या पैकिंग के पदार्थ का पुनः प्रयोग किया जा सके।
- कागज, धातु, शीशे व प्लास्टिक के पदार्थों का जहाँ तक हो सके, पुनः प्रयोग व पुनः चक्रण करें।
- बाजार से सामान लाने के लिये अपने ही थैले का प्रयोग करें तथा प्लास्टिक थैलों का प्रयोग न करें।
- रसोई व बाग-बगीचे से जो कूड़ा निकलता है, उसको खाद में परिवर्तित करें।
- कीड़े-मकोड़ों को भगाने, पौधों में खाद डालने इत्यादि के लिये प्राकृतिक पदार्थों का प्रयोग करें।

चेतना को फैलाएँ


- अपने परिवारजनों व मित्रों को सिखाएँ कि वे कैसे पर्यावरण के दोस्त बन सकते हैं।
- जलाशयों की सफाई, हवा की सफाई जैसे अभियानों को अपना सहयोग व समर्पण दें।
- पर्यावरण-सम्बन्धी मुद्दों पर कारगर कदम उठाने के लिये अपनी सरकार के प्रतिनिधियों को पत्र लिखें।
- स्वयं पर्यावरण की ओर मैत्रीपूर्ण जीवन-शैली जीकर, अन्य लोगों के लिये उदाहरण बनें।

पाठगत प्रश्न 19.3


1. जैविक विविधता किस प्रकार से स्वास्थ्य के संभावी स्रोत होने को प्रदर्शित करती है?
2. ‘‘जैविक विविधता को हानि संसार का सबसे चिन्ताजनक विषय है।’’ क्योंकि हम यह समझ नहीं पा रहे हैं कि हम क्या खो रहे हैं। संक्षिप्त में इस कथन को समझाइए।
3. जैविक विविधता के विनाश के मुख्य कारण क्या हैं? केवल दो कारण लिखिए।

आपने क्या सीखा


- लोगों की सुख-समृद्धि के लिये आर्थिक विकास आवश्यक है, परन्तु वह पर्यावरण की गिरावट के बूते पर नहीं होना चाहिए।

- कैरिंग केपैसिटी (वहन क्षमता)’ वह अधिकतम भार उठाने की सीमा है, जो कोई भी तंत्र (व्यवस्था) उठा सकता है। इस सीमा से आगे वह व्यवस्था बिखर जाती है।

- पर्यावरण की ‘वहन क्षमता’ मानवी प्रक्रियाओं की वह अधिकतम सीमा समझी जा सकती है, जिसका भार पर्यावरण उठा सकता है।

- दीर्घोपयोगी विकास एक ऐसा विकास है जो वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ आगामी पीढ़ियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये भी पर्यावरण को सक्षम बनाता है।

- कृषि व औद्योगीकरण जैसी मानवीय प्रक्रियाएँ, जैविक संसार के संपोषण को प्रभावित करती हैं।

- जीवन-शैली के स्तर में वृद्धि लाने के लिये मानवीय प्रक्रियाएँ अक्सर पर्यावरण की गिरावट का कारण बनती हैं।

- जनसंख्या की वृद्धि तथा मानव जाति की भौतिक सुखों के लिये बढ़ती हुई मांगों ने पृथ्वी व उसके पर्यावरण पर बहुत अधिक जोर डाला है।

- गरीबी बढ़ती हुई जनसंख्या का सबसे गंभीर परिणाम है। यही गरीबी मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये सबसे बड़ी चुनौती है।

- उपलब्ध सम्पदा का न्यायसंगत वितरण गरीबी को समाप्त करने का एक अच्छा तरीका है।

- कोई भी उपयोगी वस्तु, या कोई भी वस्तु जो मानव-जाति की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उपयोगी बनाई जा सकती हैं, संसाधन कहलाती है।

- सार्वजनिक सम्पदा वह सम्पदा है जो किसी की निजी जागीर नहीं है। इसके उदाहरण हैं: वायु, जल, नदियां, वन, समुद्र, पर्वत इत्यादि।

- लोग सार्वजनिक सम्पदा के संरक्षण व सही संचालन की ओर अधिकतर ध्यान नहीं देते।

- हम सभी का यह कर्तव्य है कि हम प्राकृतिक सार्वजनिक सम्पदा की ओर वैसा ही ध्यान दें, जैसा हम अपनी निजी वस्तुओं की ओर देते हैं

- निजी संपति के रूप में उद्योगों, कृषि भूमि, घरों, इमारतों, दफ्तरों व बाग-बगीचों की देख-रेख व संचालन उनके मालिक ही करते हैं।

- पर्यावरण सम्बन्धी ‘फुटप्रिंट’ पृथ्वी के उस क्षेत्रफल का माप है जिसे प्रति व्यक्ति द्वारा जरूरत में आने वाले साधनों के निर्यात इत्यादि में प्रयोग किया जाता है।

- विकसित देशों के लोगों का पर्यावरण सम्बन्धी ‘फुटप्रिंट’ इसलिये बहुत अधिक है क्योंकि पूरी दुनिया की प्राकृतिक सम्पदा का आधे से ज्यादा भाग वे प्रयोग करते हैं।

- आगामी पीढ़ियों के लिये उपलब्ध सम्पदा के सही उपभोग व संचालन की आवश्यकता है।

- पर्यावरण के बचाव व बेहतरी के लिये अन्य व्यक्तियों को हमारी प्राकृतिक सम्पदा के संरक्षण के लिये प्रेरित करना, हमारे समय की मांग है।

पाठांत प्रश्न


1. पर्यावरण की वहन क्षमता (कैरिंग केपैसिटी) की परिभाषा दीजिए व उसकी व्याख्या कीजिए।
2. ‘‘पर्यावरण का बिना नाश किए आर्थिक व औद्योगिक विकास’’- इस प्रकार के विकास को क्या नाम दिया गया है?
3. मानव द्वारा पृथ्वी की संसाधनों के प्रयोग के विषय में महात्मा गांधी ने क्या कहा था?
4. ‘मानव-जनसंख्या की वृद्धि के कारण वैश्विक पैमाने पर हमारी प्राकृतिक सम्पदा का घटन हो रहा है।’ इसके कोई भी तीन कारण बताइए।
5. सार्वजनिक और निजी संपत्ति में क्या अंतर है? इन दोनों श्रेणियों के दो-दो उदाहरण दीजिए।
6. सम्पदा (संसाधन) की परिभाषा लिखिए। अनन्त काल तक रहने वाली सम्पदा, नवीकृत होने वाली सम्पदा और नवीनीकृत न होने वाली सम्पदा का एक-एक उदाहरण दीजिए।
7. पर्यावरण सम्बन्धी ‘फुटप्रिंट’ क्या है?
8. पर्यावरण में हुई ऐसी तीन क्षतियों का उल्लेख कीजिये जो हमारे देश में हो चुकी हैं।
9. क्षतिग्रस्त वातावरण में मापने की कोई तीन विधियां बताइए।
10. जल-संरक्षण की कोई भी पाँच विधियाँ बताइए।

पाठगत प्रश्नों के उत्तर


19.1
1. एक ऐसा विकास जो वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के साथ-साथ आगामी पीढ़ियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता को बनाए रखता है।
2. ये दो बाते हैं:
(i) यह प्राकृतिक सम्पदा हमारे वर्तमान काल की उत्तरजीविता व आगामी पीढ़ियों की उत्तरजीविता, दोनों के लिये आवश्यक हैं।
(ii) वर्तमान के किसी भी विकास-सम्बन्धी कार्यक्रम को, उसके भविष्य के परिणामों को ध्यान में रखना होगा।
3. हमारी यह पृथ्वी, हर व्यक्ति की आवश्यकताओं के लिये पर्याप्त है, परन्तु हर व्यक्ति के लालच के लिये नहीं।
4. पर्यावरण की, निरंतर भार उठाने की, एक सीमा होती है। अर्थात अधिकतम मात्रा में जितनी प्राकृतिक सम्पदा निकाली जा रही है और किस अधिकतम मात्रा में उसे प्रदूषित किया जा रहा है।

19.2
1. सार्वजनिक सम्पदा का आवश्यकता से अधिक प्रयोग या दोहन, अथवा वायु, जल, भूमि, वन, नदियों व पर्वतों जैसी सम्पदा की निःशुल्क उपलब्धि।
2. गरीबी जनसंख्या विस्फोट का सबसे गंभीर परिणाम है।
3. यमुना नदी को जिस तरह दोहन किया गया है कि उसका अस्तित्व ही लगभग समाप्त हो गया है। वह एक गंदी नदी के रूप में परिवर्तित हो चुकी है।

19.3
1. यह धन सम्पदा इन रूपों में (क) नए पौधे (ख) औषधि प्रदान करने वाले पौधे (ग) पेट्रोलियम का विकल्प या कोई अन्य (कोई भी दो)
2. शायद हम उन उपयोगी पौधों, पशुओं व जीवों को खो रहे हैं, जो हमें एच-आई-वी- और कैंसर से लड़ने वानी औषधियों को प्रदान कर सकते थे।
3. इस गिरावट के मुख्य कारण हैं- मानव जाति की प्राकृतिक सम्बन्ध का बढ़ता उपभोग और प्रदूषण।

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